1971 भारत पाकिस्तान युद्ध में केवल बांगलादेश ही नहीं, सिंध भी जीता था भारत ने और जीत के नायक थे एक महाराजा और एक डाकू – दिवाकर शर्मा

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यह तो सभी जानते हैं कि 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध में भारत ने पाकिस्तान के कब्जे से बांग्लादेश को आजाद कराया था और पाकिस्तान के नब्बे हजार सैनिकों को आत्म समर्पण पर मजबूर किया था, लेकिन उस दौर का एक प्रसंग लगभग अचर्चित है, जब भारतीय फ़ौज की अगुआई करते हुए जयपुर के महाराजा भवानीसिंह और एक दुर्दांत डाकू ने मिलकर पाकिस्तान के 100 से अधिक गाँवो पर कब्जा किया था। यहाँ तक कि अगर युद्ध विराम न किया गया होता तो पाकिस्तान अधिकृत समूचा सिंध भी उसी समय आजाद कराया जा सकता था |

भारत- पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध का ऐसा किस्सा है जिससे बहुत कम लोग परिचित हैं। इस लडाई मे एक राजा और एक डाकू ने मिलकर पाकिस्तान को मात दी थी और सिंध के बडे भू-भाग पर भारत का कब्जा हो गया था। वो जयपुर के पूर्व महाराज लेफ्टिनेंट कर्नल सवाई भवानी सिंह और डाकू बलवंत सिंह बाखासर। किस्सा कुछ यूं है कि भारत की आजादी के बाद सन 60-70 के दशक में पश्चिमी राजस्थान में सरकार की नजर में एक डाकू तथा आमजन के लिए रोबिंन हुड का भारतीय संस्करण चर्चित था | उस शख्शियत का नाम था बलवँत सिँह बाखासर ! बलवंत सिंह का जन्म राजस्थान के बाड़मेर जिले के एक छोटे से गाँव बाखासर में हुआ था | चौहान वंश की नाडोला उप शाखा में जन्मे बलबंत सिंह, राजस्थान में जागीरदारी प्रथा समाप्त हो जाने के बाद नाराज होकर बागी हो गए | जहाँ एक ओर सरकारी महकमा बलवंत सिंह बाखासर के नाम तक से डरता था, तो दूसरी ओर पूरे क्षेत्र के लोग उनकी खातिर जान देने को भी तैयार रहते | 

इसके दो कारण थे – एक तो यह कि वे सरकारी खजाना लूटकर सारा धन गरीबो में बाँट देते थे, ग्रामीणों की हर सम्भव मदद करते थे | और दूसरा यह कि विभाजन के बाद पाकिस्तान के सिँधी मुस्लिमो से भी ही लोहा लेते थे | सीमावर्ती क्षेत्रो मे उस वक़्त तक भारत पाकिस्तान बॉर्डर पर कोई ज्यादा चौकसी नहीं थी, तथा बोर्डर लगभग खुला होने की वजह से सिँधी मुस्लिम आये दिन भारतीय सीमा में आकर लूट पाठ करते थे | बलबंत सिंह ने उनके आतंक पर लगाम लगाई, यहाँ तक कि पाकिस्तान से आने वाले ये लूटेरे इनसे नाम से भी थर्राने लगे | बलवँत सिँह बाखासर देश में पहली बार चर्चा मे तब आए जब मीठी पाकिस्थान के सिन्धी मुसलमाँन एक साथ 100 गायो लेकर पाकिस्तान जा रहे थे जैसे ही इसकी खबर बलवंत सिंह जी को मिली फिर क्या था उसी क्षण अपने घोड़े पर सवार होकर बलँवत सिँह डाकुओ का पीछा करने निकले अकेले मुकाबला करते हुए 8 सिँधीयो को ढेर कर दिया ओर सभी गाय छुडवा लाए | इन दोनों कारणों के चलते बलबंत सिंह पूरे 100 किमी क्षेत्र के आधुनिक रोबिन हुड बन चुके थे और लोगो की नजर में किसी फरिश्ते से कम न थे | जिस गाव में ये रात गुजरते वहा का सारा प्रबन्ध ग्रामीण करते धीरे धीरे बलवंत सिंह बाखासर का नाम बढ़ता गया | उन्हें आज भी उस इलाके में नायक माना जाता है व उनके नाम पर अनेक लोकगीत रचे गए हैं | इतना ही नहीं तो उस इलाके में लगने वाला सांचोर मेला तो एक प्रकार से उनकी याद में ही लगता है | किन्तु तभी 1971 में भारत पाकिस्तान के बीच युद्ध प्रारम्भ हुआ | यह लडाई 3 दिसम्बर से 16 दिसम्बर तक चली | राजस्थान, गुजरात और पाकिस्तान के इस सीमावर्ती क्षेत्र में भारत की ओर से युद्ध की बागडोर सोंपी गई लेफ्टिनेंट कर्नल महाराज सवाई भवानी सिंह को | तो आईये अब थोड़ी चर्चा हमारे इस आलेख के दूसरे नायक भवानीसिंह जी की | भवानी सिंह जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह (द्वितीय) के सबसे बड़े पुत्र थे | किन्तु उन्होंने १९५१ में भारतीय सेना में भर्ती होकर देश सेवा करना तय किया | इनकी पहली नियुक्ति भारतीय थलसेना में तीसरी केवेलरी रेजिमेंट में सेकण्ड लेफ्टिनेंट के कमीशंड पद पर हुई | तीन साल बाद, १९५४ में इनका चयन राष्ट्रपति के अंगरक्षक के तौर पर किया गया जिस पद पर यह लगभग ९ साल तक रहे | १९६३ में राष्ट्रपति भवन से इनका तबादला HQ 50 (Indep) Para Brigade में हुआ | १९६४-६७ के बीच यह देहरादून में भारतीय मिलिट्री अकादमी में 'एड्जुटेंट' के पद पर कार्यरत रहे | जून १९६७ में 10 पैरा कमांडो यूनिट में नियुक्ति के लिए इनके स्वेच्छापूर्वक शामिल होने के अगले साल १९६८ में इन्हें 'कमांडिंग-ऑफिसर' पदभार दिया गया| बांगला देश की लड़ाई से पहले इन्होने भारतीय सेना द्वारा 'मुक्तिवाहिनी' को प्रशिक्षण प्रदान करने में भी सहयोग दिया | 

अपने पिता सवाई मानसिंह की मृत्यु के बाद 1970 में भवानी सिंह जी ने जयपुर की राजगद्दी संभाली। भवानी सिंह जयपुर के 40वें महाराजा और आमेर की परंपराओं के मुताबिक 11वें शासक थे। वह एक साल आधिकारिक तौर पर 'महाराजा' रहे, किन्तु उसी दौरान इंदिरा सरकार ने (२६वें) संविधान संशोधन के द्वारा सभी राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स सहित अन्य सभी राजसी अधिकार खत्म कर दिए । इसके बाद भी जब १९७१ में हुए भारत-पाक युद्ध में महाराज को भारतीय सेना का नेतृत्व करने को कहा गया तो वे सहर्ष तैयार हो गए | सेना नायक वही सफल होता है, जो समय के अनुसार निर्णय ले | भवानीसिंह जानते थे कि सेना थार की रेगिस्तानी भुल भुलैया में फंस सकती है, जबकि डाकू बलवंत सिंह इस इलाके से अच्छी तरह परिचित हैं। जब उन्होने डाकू बलवंत सिंह की मदद लेने का विचार किया तो सबसे पहली अड़चन तो राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री बरकतउल्लाह खान की ओर से आई, क्योंकि उस समय बलवंत सिंह के उपर डाका, हत्या एवं लुट- पाट के दर्जनो मुकदमे दर्ज थें। साथ ही उनको लगता था कि डाकू का साथ लेने और बाद मे उसको माफी देने से उनके सरकारी अधिकारी नाराज हो सकते है। लेकिन महाराज के समझाने पर वे मान गए | और यही वह निर्णय था, जिसने भारतीय विजय की आधार शिला रखी | 

बलवंत सिंह पाक सीमा के 100 किमी के दायरे से बहुत अच्छी तरह से परिचित थे तथा महाराजा द्वारा प्रेरित करने पर वे सेना की सहायता करने को तैयार भी हो गए। उस समय सेना की उस ब्रिगेड के पास टैंक नही थे, केवल जोंगा जीपें थी | राजा भवानी सिंह ने बलवंत सिंह को सेना की एक बटालियन व गोला बारुद के साथ चार जोंगा जीपें हैंडओवर कर दी। बलवंत सिंह ने महाराज भवानी सिंह को सलाह दी कि आप अपनी जीपों के साइलेंसर निकाल कर पाकिस्तानी चौकी पर दूर से हमला करते हुए आगे बढिए, ऐसा करने से दुश्मन को लगेगा कि भारत ने टैंकों के साथ हमला किया है। ऐसा ही किया गया और भ्रम में आये पाकिस्तानी सैनिकों का पूरा ध्यान सामने की ओर से हो रही गोलाबारी पर ही केन्द्रित हो गया, क्योंकि उनको लगा कि भारत की सेना ने टैंको के साथ हमला कर दिया है। उधर इलाके से पूरी तरह परिचित बलवंत सिंह पाकिस्तानी सैन्य बल के पीछे जा पहुंचे | पाकिस्तानी सेना को लगा कि उनकी अपनी ही कोई दुसरी बटालियन उनकी सहायता को आ रही है, और वो पूरी तरह बेपरवाह हो गए और दो पाटों के बीच फंसकर मारे गए । भवानी सिंह और बलबंत सिंह की इस जोडी ने कई पाकिस्तानी चौकियों को इसी रणनीति से समाप्त किया। और देखते ही देखते भारतीय सेना ने बिना कोई ख़ास नुकसान उठाए बहुत बडे क्षेत्र को जीत लिया और लगभग 100 गाँवो पर कब्जा जमा लिया। अगर असमय युद्ध विराम न होता तो भारतीय सेना बांगलादेश की ही तरह पूरे सिंध क्षेत्र को भी पाकिस्तान से अलग कर सकती थी | 

यह भारत की पाकिस्तान पर बहुत बडी जीत थी | स्वाभाविक ही युद्ध की समाप्ति के बाद देश के लिए दिए गए इस महत्वपूर्ण योगदान के बदले भारत सरकार ने बलवंत सिंह भाखासर और उनके साथियों के विरुद्ध दर्ज सभी मुकदमे वापस ले लिए। इसके अलावा उन्हे राष्ट्रभक्त घोषीत कर दो हथियारों का ऑल इंडिया लाइसेंस भी प्रदान किया। बलवंत सिंह के साथ काम करने वाले सैनिको का कहना था कि वे युद्ध क्षेत्र मे जिस तरह से तुरंत निर्णय लेते थें और स्वयं आगे बढकर नेतृत्व करते थें यह तो उच्च शिक्षित और प्रशिक्षित सैन्य अफसरों मे भी बहुत कम देखने को मिलता है। भारतीय सैनिको को तब भी बड़ा ताज्जुब हुआ जब पाकिस्तान ग्रामीण अंचल के लोग सिर्फ बलवंत सिंह बाखासर को देखने के लिए कई किलोमीटर दूर से पैदल चलकर आये। लेफ्टिनेंट कर्नल महाराज सवाई भवानी सिंह को भी युद्ध में असाधारण वीरता का प्रदर्शन करने के लिए महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। इसी बीच भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता हो गया और वो जीते हुए इलाके भारत सरकार ने पाकिस्तान को वापस कर दिए। इस बात से बलवंत सिंह बहुत नाराज हुए थें। उन्होने महाराज भवानी सिंह से इस बात के लिए नाराजगी जताई कि जब यह सब वापस ही करना था, तो इतने लोगों की जान जोखिम मे क्यों डाली ? महाराज भवानी सिंह ने बलवंत सिंह को समझाया कि हम सिपाही हैं, हमारा काम है दुश्मन से लडना, ऐसे कुटनीतिक निर्णयों में हमारी कोई भूमिका नहीं रहती। लेकिन बलवंत सिंह भाखासर को इंदिरा गाँधी का यह निर्णय कभी समझ में नही आया, और वे आजीवन उनसे नफरत करते रहे, आपातकाल के बाद हुए चुनावों (1977) मे उन्होने जनता पार्टी का खुला साथ दिया, वे कहते थे, मुझे राजनीति का तो कुछ पता नहीं लेकिन जब हमने दुश्मन को हरा दिया तो उसकी जमीन वापस क्यों की ? बलवंत सिंह की वीरता के गीत आज भी बाडमेर व कच्छ भुज के सीमावर्ती गाँवो में गाए जाते है

दिवाकर शर्मा
संपादक - www.krantidoot.in 

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क्रांतिदूत : 1971 भारत पाकिस्तान युद्ध में केवल बांगलादेश ही नहीं, सिंध भी जीता था भारत ने और जीत के नायक थे एक महाराजा और एक डाकू – दिवाकर शर्मा
1971 भारत पाकिस्तान युद्ध में केवल बांगलादेश ही नहीं, सिंध भी जीता था भारत ने और जीत के नायक थे एक महाराजा और एक डाकू – दिवाकर शर्मा
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