हम पहले सभ्य थे या आज सभ्य हैं ? किसान दिवस विशेष



यह एक स्थापित तथ्य है कि विद्वत्ता और पुरातन ज्ञान के केंद्र भारत की अर्थव्यवस्था सदियों से कृषि आधारित रही है । शासकों ने सदैव कीटों और वन्य प्राणियों से कृषि भूमि की रक्षा की, तो समाज ने फसल आधारित त्योहार मनाये । खुशहाल किसान आनंद विभोर होकर गायन वादन के साथ, अपने पारंपरिक तरीके से खेती करते थे । उस समय फसलों को और भूमि की उर्बरा शक्ति को नष्ट करने के लिए कृत्रिम बहुराष्ट्रीय कम्पनियां नामक कोई टिड्डियां नहीं थीं और न ही मिलावटी कीटनाशकों या नकली बीजों और उर्वरकों के माध्यम से निराशा की महामारियाँ फैलती थीं। पर्यटन के नाम पर पर्वत श्रंखलाओं और समुद्र तटों पर युवाओं द्वारा प्रकृति और पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले प्लास्टिक और पोलीथिन का भण्डार नहीं फेंका जाता था । वह कैसा शानदार युग था जब पुरुष, बैलों की मदद से उपजाऊ खेतों की जुताई कर स्वस्थ फसलें उगाते थे; महिलायें बच्चों को पालने, सुस्वादु भोजन पकाने और एक आदर्श गृहिणी के रूप में प्रसन्न और आनंदित रहती थीं । एक सामंजस्यपूर्ण समाज की सच्ची तस्वीर हुआ करता था, अतीत का भारत । 

आज की पीढी में से हरेक की पूर्वज कोई बार बाला नहीं है, और ना ही हममें से हरेक खानाबदोशों, चरवाहों या रेगिस्तानी लुटेरों का वंशज हैं। वास्तव में, हम में से अधिकांश लोग “किसानों” ’के वंशज हैं! 

कृषि हमारी संस्कृति का मुख्य आधार रही है। हमारे सभी प्रमुख त्यौहार फसल उत्सव के रूप में मनाये जाते है। उस दौर में दूध और सब्जियाँ बहुतायत से थीं। धान, दाल और गेहूं की कोई कमी नहीं थी । यहां तक ​​कि पालतू जानवरों को भी दयालुता और उदारता के साथ खिलाया जाता था। गाय पूज्य थी और समाज का हर वर्ग विकसित और प्रफुल्लित था। 

जबकि आज का भारत अविश्वसनीय रूप से इसके विपरीत है। शहरी सभ्यता के लोग ग्रामीण पारंपरिक जीवन शैली को देहाती और पुराने जमाने की कहकर मुंह बिचकाते हैं । तकनीक के आक्रमण ने मनोरंजन चैनलों को ही जीवन जीने की दिशा देने वाला मुख्य स्रोत बना दिया है। खेती की तुलना में कुली या चपरासी की नौकरी बेहतर मानी जाने लगी है। कैसा मजाक है कि स्वयं को भविष्यद्रष्टा मानने वाला राजनीतिक नेतृत्व भी स्मार्टफ़ोन पर ऐप के माध्यम से किसानों और कृषि की आय बढाने के प्रयत्न में जुटा है । शहरों में या शहरों के आसपास स्थित फार्महाउस को भी 'कृषि आधारित आय स्रोत' माना जाता है और आंकड़ों में सफेदपोशों द्वारा अपनी काली कमाई सफ़ेद कर ली जाती है । किसानों द्वारा आत्महत्या की दुखद घटना के बारे में तो व्यापक प्रचार किया जाता है। लेकिन उन सामाजिक-आर्थिक कारणों के बारे में कोई चर्चा ही नहीं होती, जिनके कारण हमारे देश का इतना बड़ा पतन हुआ है | जब फ़ार्म हाउस वाले किसान माने जायेंगे, उनके हित साधन को प्राथमिकता मिलेगी, तो वास्तविक किसान समुदाय की गरीबी कौन दूर करेगा, कैसे दूर होगी ? 

तो क्या होना चाहिए ? 

जब तक भारत के संविधान की प्रस्तावना को भारत के आधुनिक कानून निर्माताओं द्वारा ठीक से पढ़ा और समझा नहीं जाता है और जब तक जमीनी स्तर पर आमूल चूल शासन प्रणाली की तेजी से मरम्मत नहीं की जाती है, तब तक न तो सामाजिक न्याय हो सकता है और न ही आर्थिक न्याय। 

यह कैसा राजनैतिक न्याय है कि वर्तमान में कृषि क्षेत्र के लिए केन्द्रीय बजट का हिस्सा दस प्रतिशत से भी कम है, जबकि यह कमसेकम 25% होना चाहिए । 

किसान के पास जाकर ही उनकी समस्याओं को समझा जा सकता है । कृषि विश्वविद्यालयों की संख्या बढाई जानी चाहिए और अनुभवी अधिकारियों को स्थानीय मिट्टी, मौसम, क्षेत्र के अध्ययन और कृषि विकास के विषय में किसानों के साथ बातचीत करनी चाहिए | किस खेत की मिटटी किस फसल को उगाने के लिए उपयुक्त है, यह जानकारी किसान को देने के साथ साथ फसल उगाने का सही समय, सही पद्धति और बीज की आपूर्ति के बारे में उन्हें प्रशिक्षित किया जाना चाहिए । 

जैविक खेती ने व्यावसायिक घरानों को आकर्षित किया है, तथा वे उसके नाम पर उत्पादन का निर्यात कर रहे हैं। जबकि किसान का शोषण पूर्ववत बेरोकटोक जारी है। 

अब आवश्यक है कि शहरी समाज भी कृषक हित पर विचार करे, जिनमें से अधिकाँश मूलतः किसी न किसी गाँव से जुड़े हुए हैं | क्या ऐसा नहीं हो सकता कि संपन्न और समर्थ लोग अपने मूल गाँव के किसी किसान परिवार के एक बच्चे को सुशिक्षित करने का दायित्व लें और उसे उन्नत किस्म के बीज और उर्वरक खरीदने में मदद करें | उसे इतना सक्षम बना दें कि वह अपनी फसल बेचकर उनकी राशि भी वापस करने में सक्षम हो जाए । इससे शहरी नई पीढ़ी भी उस ग्रामीण संस्कृति से जुड़ेगी, जो सदियों से भारतीय सभ्यता का केंद्र बिंदु रही है | 

हमारी सभ्यता का प्रारम्भ नदियों के किनारे हुआ और वह कृषि गतिविधि से समृद्ध हुई । अपनी पुरातन सभ्यता को पहचानें और उसकी ओर लौटें, अन्यथा प्रथ्वी की बर्बादी तय है | जरा विचार कीजिए कि परिश्रमी, जुझारू और चरित्रवान किसान पुत्र हमारा आदर्श होना चाहिए या आलसी, झगडालू और विलासी जेएनयू का छात्र ? सबसे बढ़कर भूख की समस्या का समाधान केवल कृषि है, यह समझ लें । अपनी भूख मिटाने के लिए हम किसी राजनेता का मुंह नहीं देखते | आईये अपने स्तर पर अपने अन्नदाता किसान का सहयोग करें | इसके पहले कि किसान एक विलुप्त प्रजाति बन जाए और हम सब मांसाहारी और उसके बाद नरभक्षक बन जाएँ । 

हैप्पी किसान दिवस! 

जय हिन्द!! 

साभार आधार - http://www.yugvani.com/return-to-civilisation/
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