भारत के युवाओं को स्वामी विवेकानंद का सन्देश !



एक बन्दा नई साईकिल लेकर आया | मंदिर दर्शन के लिए चला | तो एक हाथ से साईकिल पकड़कर उसे धकेलते हुए दौड़ा चला जा रहा था | 

किसी ने पूछा – क्या हुआ भाई साईकिल खराब है क्या ? 

उसने कहा कि आज ही खरीदी है, खराब कैसे होगी ? 

फिर सवाल हुआ – तो क्या चलाना नहीं आता, जो धकेल कर ले जा रहे हो | 

झुंझलाकर बन्दे ने कहा – अरे भाई साईकिल भी बढ़िया है, चलाना भी बढ़िया आता है, लेकिन जल्दी में हूँ, बैठने की फुर्सत नहीं है | 

हमारे जीवन में विषाद की जड़ भी यही है | हम एक अंधी दौड़ में फंसे हुए हैं | साधन सम्पन्नता मुख्य नहीं है, उन साधनों का समुचित प्रयोग करने का ज्ञान भी होना चाहिए | 

लेकिन सवाल उठता है कि क्या ज्ञान होना भी पर्याप्त है ? 

एक विद्वान् विश्लेषक आये और प्यासे को समझाने लगे कि अरे भाई तुम्हारा शरीर तो पंच तत्व से बना है – क्षिति जल पावक गगन समीरा | तो पानी तो तुम्हारे शरीर में ही है, व्यर्थ काहे चिल्ल पों मचाते हो | क्या प्यासे को समझ में आयेगा ? 

पानी के विषय में जान लेने भर से, वह शरीर में ही है, यह ज्ञान होने पर भी, प्यास नहीं बुझने वाली | 

एक भिखारी जब मरा तो लोगों ने उसके घर की सफाई की | उसके बिस्तर के नीचे ही अकूत संपत्ति का खजाना गढ़ा हुआ मिला | कितनी विचित्र बात है कि हम अपने आप को अपूर्ण मानकर जीवन भर दुखी रहते हैं, सुख की तलाश करते रहते है | लेकिन सनातन वेदांत बताता है कि आप अपूर्ण नहीं पूर्ण हो, यह आभाष होते ही “आनंद ही आनंद” | 

बुद्ध से किसी शिष्य ने पूछा कि आप राजमहल छोड़कर जंगल में पहुँच गए, क्या कुछ मिला ? 

बुद्ध ने कहा – मिला कुछ नहीं, जो था उसका पता चल गया | 

इसी परिप्रेक्ष में भारत के युवाओं को जो सन्देश स्वामी जी ने उस गुलामी के कालखंड में दिया, वह आज भी समीचीन है | उन्होंने कहा था – 

प्रफुल्ल चित्त तथा हंसमुख रहने से तुम ईश्वर के अधिक निकट पहुँच जाओगे | किसी भी प्रार्थना की अपेक्षा प्रसन्नता के द्वारा हम ईश्वर के अधिक निकट पहुँच सकते हैं | ग्लानिपूर्ण या उदास मन से प्रेम कैसे हो सकता है ? अतः जो मनुष्य सदा अपने को दुखी मानता है, उसे ईश्वर की प्राप्ति नही हो सकती | हरेक को अपना बोझा खुद ढोना है, यदि तुम दुखी हो तो अपने दुखों पर विजय प्राप्त करो | 

- बलहीन को ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती | अतः दुर्बल कदापि न बनो | तुम्हारे अन्दर असीम शक्ति है तुम्हे शक्तिशाली बनना है | अन्यथा तुम किसी भी वस्तु पर विजय कैसे प्राप्त करोगे ? शक्तिशाली हुए बिना तुम ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकोगे ? पर साथ ही अतिशय हर्ष, अर्थात उद्धर्ष से भी बचो | अत्यंत हर्ष की अवस्था में भी मन शांत नहीं रह पाता, मन में चंचलता आ जाती है | अति हर्ष के बाद सदा दुःख ही आता है | हँसी और आंसू का घनिष्ठ सम्बन्ध है | मनुष्य बहुधा एक अति से दूसरी अति की ओर भागता है | चित्त प्रसन्न रहे पर शांत हो | 

- वेश्यापुत्र वशिष्ठ (महाभारत आदिपर्व)और नारद (श्रीमद्भागवत), दासीपुत्र सत्यकाम जाबाल (छान्दोग्योपनिषद), धीवर व्यास (महाभारत आदिपर्व), कृप, द्रोण और कर्ण आदि सबने अपनी विद्या या वीरता के प्रभाव से ब्राम्हणत्व या क्षत्रियत्व पाया | 

- गर्व से बोलो कि मैं भारतवासी हूँ और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है | बोलो कि अज्ञानी भारतवासी, दरिद्र भारतवासी, ब्राम्हण भारतवासी, चांडाल भारतवासी, सब मेरे भाई हैं | भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत के देव देवियाँ मेरे ईश्वर हैं, भारत का समाज मेरी शिशु सज्जा, मेरे यौवन का उपवन और बार्धक्य की वाराणसी है | भाई बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण में मेरा कल्याण है | और रात दिन कहते रहो – हे गौरीनाथ ! हे जगदम्बे ! मुझे मनुष्यत्व दो, माँ मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो, मुझे मनुष्य बनाओ | 

स्वामी विवेकानंद ने कहा था, 'अपनी आध्यात्मिकता के साथ दुनिया को जीतो' | स्व. एकनाथजी रानाडे ने इसकी व्याख्या कुछ इस प्रकार की - 

"हमारे देश की बीमारियों का इलाज करना है तो पूरे देश में सही विचारों के एक शक्तिशाली आंदोलन को प्रारंभ करो । इसका उद्देश्य हो हमारे लोगों में अन्तर्निहित भगवान को शाब्दिक के स्थान पर उपनिषदों की शिक्षाओं के अनुरूप सही आध्यात्मिक इच्छाशक्ति में रूपांतरित करना | चूंकि प्रत्येक आत्मा में मूलतः देवत्व है अतः प्रत्येक व्यक्ति में दिव्य ऊंचाइयों को छूने की क्षमता है | तत्पश्चात इस आध्यात्मिक पुनरुत्थान के उत्साह को राष्ट्र निर्माण के कार्य में परिवर्तित करना |" 

हमारा देश स्वतंत्र हो गया है; परन्तु जब तक हम अपनी राष्ट्रीय प्रणाली और निजी जीवन का एकत्व के वैदिक सिद्धांतों और वैदिक दृष्टिकोण के आधार पर पुनर्निर्माण नहीं करते, असली राष्ट्र-निर्माण नहीं होगा। ऐतिहासिक मजबूरियों ने हमें कुछ प्रथाओं को अपनाने के लिए विवश किया, किन्तु वे हमारी मूल परंपरा या हमारी जड़ नहीं है और समय के परिवर्तन के साथ हमें उचित रुख और प्रथाओं के जरिये हमारी जड़ों से जुड़ने की आवश्यकता है। 

“वयम सुपुत्रा अमृतस्य नूनम” – हम अमृत के पुत्र हैं, अतः आत्मविश्वास से परिपूर्ण होकर हमारे अंदर के सर्वश्रेष्ठ की अभिव्यक्ति के लिए, अथक प्रयास करो । जब कोई चुनौतीपूर्ण कार्य सामने होता है, तब ही हमारे अन्दर का सर्वश्रेष्ठ प्रकट होता है। इससे ही हमें आवश्यक गुण, और इसके लिए आवश्यक टीम वर्क को विकसित करने में सहायता मिलती है। 

बिना किसी व्यक्तिगत लाभ के आर्त और विपन्न की सेवा ही ईश्वर की हमारी आराधना है (निष्काम बुद्ध्या) - स्वार्थरहित कार्य | 

हमारी भावना होना चाहिए कि हे ईश्वर आपने जो भी योजना बनाई हो, हम उसकी पूर्ति हेतु पूरी शक्ति से प्रयत्न करें, आपके आशीर्वाद की कामना है। इस प्रकार किये गए काम में भी नम्रता और ईश्वर की योजना के अनुसार कार्य करने की भावना हो । जो हमने समाज से ग्रहण किया है, उससे कहीं अधिक देने का संकल्प हो | 

संपूर्ण सृष्टि, उस एक आत्म चैतन्य से ही आई है। एकोहम बहूस्याम - मैं एक हूं, मैं अनेक हो जाऊं | इस एकत्व की अनुभूति और सभी के प्रति एकत्व की भावना | हमारे काम का प्रमुख आधार अपने परिवार, समाज, राष्ट्र और सृष्टि के प्रति एकात्मता या आत्मीयता ही है | 

आत्मीयता की अनुभूति के लिए व्यक्ति को सबसे पहले “मैं” को छोड़ना पड़ता है; 'मैं और मेरा', यह 'मैं' एक बड़ी बाधा है | कई बार कोई कार्यकर्ता बहुत सक्रिय और सक्षम हो सकता है, किन्तु अगर उसका'मैं' हर कार्य में काम कर रहा है, तो वह कार्यकर्ताओं का समूह नहीं बना सकता और नाही काम का विस्तार कर सकता है। 

अपने अन्दर झांको और उन गुणों को देखो, जो समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी हो सकते हैं, उन्हें और विकसित करना चाहिए | कोई दूसरा हमें नहीं सुधार सकता, हमें स्वयं ही अपने भीतर देखकर सही करना है। 

स्वामी विवेकानंद का सबसे अधिक जोर शिक्षा पर था | उन्होंने कहा – 

मैं प्रत्यक्ष देखता हूँ कि जिस जाती की जनता में विद्या बुद्धि का जितना अधिक प्रचार है, वह जाती उतनी ही अधिक उन्नत है | भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की सम्पूर्ण विद्या बुद्धि, राजशासन मुट्ठीभर लोगों के एकाधिकार में रखी गई है | यदि हमें फिर से उन्नति करनी है, तो हमें जनता में विद्या का प्रसार करना होगा | 

यहाँ मुसलमान कितने सिपाही लाये थे ? यहाँ अंग्रेज कितने हैं ? चांदी के छः सिक्कों के लिए अपने बाप और भाई के गले पर चाकू फेरने बाले लाखों आदमी सिवा भारत के और कहाँ मिल सकते हैं ? सात सौ वर्षों के मुसलमान शासन में छः करोड़ मुसलमान, और सौ वर्षों के ईसाई राज्य में बीस लाख ईसाई क्यों बने ? क्यों हमारे सुदक्ष शिल्पी यूरोप वालों के साथ बराबरी करने में असमर्थ होकर दिनोंदिन लोप होते जा रहे हैं ? लेकिन वह कौन सी शक्ति थी जिससे जर्मन कारीगरों ने अंग्रेज कारीगरों के कई सदियों से जमे हुए दृढ आसन को हिला दिया | 

केवल शिक्षा | शिक्षा | शिक्षा | 

हमारे लडके जो शिक्षा पा रहे हैं, वह नकारात्मक है | स्कूल में लडके कुछ नया नहीं सीखते, वरन जो खुद का है उसका भी सत्यानाश हो जाता है | और उसका परिणाम होता है – श्रद्धा का अभाव | जो श्रद्धा वेद वेदान्त का मूल मन्त्र है, जिस श्रद्धा ने नचिकेता को साहस दिया प्रत्यक्ष यम से प्रश्न करने का, जिस श्रद्धा के बल पर यह संसार चल रहा है, उसी श्रद्धा का लोप | 

आज हमें एक तरफ वह मनुष्य दिखाई पड़ता है, जो पाश्चात्य ज्ञान रूपी मदिरा से मत्त होकर अपने को सर्वज्ञ समझता है | वह प्राचीन ऋषियों की हंसी उड़ाया करता है | उसके लिए हिन्दुओं के सब विचार बिलकुल बाहियात चीज हैं, हिन्दू दर्शन शास्त्र बच्चों का कलरव मात्र है और हिन्दू धर्म मूर्खों का अंधविश्वास मात्र | 

दूसरी तरफ वह आदमी है जो शिक्षित तो है, पर जिस पर किसी एक चीज की सनक सवार है और वह उल्टी राह लेकर एक छोटी सी बात का अलौकिक अर्थ निकालने की कोशिश करता है |कुसंस्कारों को उचित सिद्ध करने के लिए दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा बचकाने न जाने क्या क्या तर्क उसके पास सदा मौजूद रहते हैं | इन दोनों संकटों से बचो | हमें निर्भीक साहसी मनुष्यों का ही प्रयोजन है | हमें हमारे युवाओं के खून में तेजी और स्नायुओं में बल की आवश्यकता है – लोहे के पुट्ठे और फौलाद के स्नायु चाहिए, नाकि दुर्बलता लाने बाले वाहियात विचार | 

- अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता है | अतः जहां तक हो सके अतीत की ओर देखो, पीछे जो चिरंतन निर्झर बह रहा है, आकंठ उसका जल पियो, उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्वलतर महत्तर और पहले से भी ऊंचा उठाओ | हमारे पूर्वज महान थे, उस खून पर हमें विश्वास करना होगा और अतीत के उनके कृतित्व पर भी | इस विश्वास और अतीत गौरव ज्ञान से हम अवश्य एक ऐसे भारत की नींव डालेंगे, जो पहले से श्रेष्ठ होगा | यहाँ बीच में दुर्दशा और अवनति के युग रहे हैं, पर मैं उनको अधिक महत्व नहीं देता | किसी विशाल वृक्ष से एक सुन्दर पका हुआ फल पैदा हुआ, फल जमीन पर गिरा, मुरझाया और सडा, इस विनाश से जो अंकुर उगा, संभव है वह पहले के वृक्ष से भी बड़ा हो जाए | अवनति के बाद भविष्य का भारत अंकुरित हो रहा है, उसके नवपल्लव निकल चुके हैं, ऊर्ध्वमूल वृक्ष का निकलना प्रारम्भ हो चुका है |



देश वासियों के आदर्श गुरू गोविन्दसिंह होना चाहिए, जिन्होंने देश के शत्रुओं के विरुद्ध लोहा लिया, हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपने ह्रदय का रक्त बहाया, अपने पुत्रों को अपनी आँखों के सामने मौत के घाट उतरते देखा – पर जिनके लिए उन्होंने अपना और अपने पुत्रों का खून बहाया, उन्ही लोगों ने, सहायता करना तो दूर, उलटे उन्हें त्याग दिया | यहाँ तक कि उन्हें इस प्रदेश से भी हटना पडा | अंत में मर्मान्तक चोट खाए हुए सिंह की भान्ति यह नर केसरी शान्तिपूर्वक अपने जन्मस्थान को छोड़ दक्षिण भारत में जाकर मृत्यु की राह देखने लगा, परन्तु अपने जीवन के अंतिम क्षण तक उसने अपने कृतघ्न देशवासियों के प्रति अभिशाप का एक शव्द भी मुंह से नहीं निकाला | यदि तुम देश की भलाई करना चाहते हो तो तुममें से प्रत्येक को गुरू गोविन्द सिंह बनना होगा | तुम्हें अपने देशवासियों में हजारों दोष दिखाई दें, भले ही वे तुम्हारी बुराई के लिए लाख चेष्टा करें, वे तुम पर अभिशाप और निंदा की लाख बौछार करें, तब भी तुम उनके प्रति प्रेम पूर्ण वाणी का ही प्रयोग करो |यदि वे तुम्हे त्याग दें, तुम्हे पैरों से ठुकराएँ, तो तुम उसी वीर केसरी गोविन्दसिंह की भान्ति समाज से दूर जाकर नीरव भाव से मौत की राह देखो | हमें अपने सामने इसी प्रकार का आदर्श उपस्थित रखना होगा | पारस्परिक विरोध भाव को भूलकर चारों ओर प्रेम का प्रवाह बहाना होगा |



एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें