पेशावर सैन्य विद्रोह के नायक चन्द्रसिंह गढवाली - भारतीय स्वातंत्र्य समर का एक अल्प चर्चित प्रसंग - विशाल अग्रवाल





23 अप्रैल 1930 को पेशावर के किस्साखानी बाजार में 20000 के करीब निहत्थे आन्दोलनकारियों की भीड़ विदेशी शराब और विलायती कपड़ों की दुकानों पर धरना दे रही थी। आजादी के इन दीवानों को तितर-बितर करने के लिए अंग्रेज कैप्टेन रिकेट ने 72 गढ़वाली सिपाहियों को उन निहत्थे पठानों पर गोली चलाने का हुक्म दिया। उसकी आवाज गूंजी--गढ़वाली थ्री राउंड फायर | उसके आदेश के विरुद्ध चन्द्र सिंह गढ़वाली की आवाज़ गूंज उठी--गढ़वाली सीज फायर और सभी गढ़वाली सैनिकों ने हथियार भूमि पर रख दिए। 

इसके बाद गोरे सिपाहियों से गोली चलवाई गई और सभी गढवाली सैनिकों को बंदी बनाकर वापिस बैरकों में लाया गया | चन्द्रसिंह और गढ़वाली सिपाहियों का यह मानवतावादी साहस अंग्रेजी हुकूमत की खुली अवहेलना और राजद्रोह था। उनकी पूरी पल्टन एबटाबाद (पेशावर) में नजरबंद कर दी गई, उनपर राजद्रोह का अभियोग चलाया गया। बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बडा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये थे, उन्हें अपनें पैरों तले जमीन खिसकती हुई सी महसूस होनें लगी थी। 

किन्तु दुर्भाग्य देखिये कि जब एक फ़्रांसिसी पत्रकार चार्ल्स पैत्राश ने गांधी जी से इन गढ़वाली सिपाहियों के बारे सवाल पूछा तो गांधीजी ने कहा था कि "वह सिपाही जो गोली चलाने से इंकार करता है, अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है, इस प्रकार वह हुक्म उदूली का अपराध करता है। मैं अफसरों और सिपाहियों से हुक्म उदूली करने के लिये नहीं कह सकता। जब हमारे हाथ में ताकत होगी, तब शायद मुझे भी इन्हीं सिपाहियों से और अफसरों से काम लेना पड़ेगा। अगर मैं इन्हें हुक्म उदूली करना सिखाऊंगा तो मुझे भी डर लगा रहेगा कि मेरे राज में भी वे ऐसा ही न कर बैठें।" 

सिपाहियों के इस अहिंसक पवित्र आन्दोलन की अहिंसा के पुजारी गाँधी ने बागी कहकर आलोचना की। यानि अंग्रेजों की फौज के प्रति की गयी प्रतिज्ञा को तो गांधीजी महत्वपूर्ण मान रहे थे, परंतु देश की आजादी के निहत्थे मतवालों पर गोली न चलाकर अपनी जान को खतरे में डालने के गढ़वाली सैनिकों के अदम्य साहस की उनकी निगाह में कोई कीमत नहीं थी। अहिंसा के अनन्य पुजारी गांधी, आजादी के संग्राम में इन सिपाहियों के योगदान को नकारते हुए इस बात के लिये अधिक चिंतित थे कि सत्ता हाथ में आने के बाद उनके कहने पर भी ये सिपाही निहत्थी जनता पर गोली न चलाये तो क्या होगा? 

तो यह थी गांधी जी की अहिंसा | अहिंसा की माला जपने वाले स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेताओं ने भले ही इस घटना को अंग्रेजों की तरह ही अपराध समझा हो, किन्तु तत्कालीन समाचार पत्र इस पेशावर विद्रोह को 1857 के बाद का सबसे बड़ा सैनिक विद्रोह आंक रहे थे। इस घटना के महत्व को रेखांकित करते हुए 8 जून 1930 के लीडर ने समाचार छापा कि ”1857 के बाद बगावत के लिये भारतीय सिपाहियों का पहला कोर्ट मार्शल आजकल एबटाबाद के पास काकुल में हो रहा है।’’ 

सैन्य विद्रोह को कमतर आंकने या उन्हें नकारनें की यह प्रवृति सिर्फ पेशावर विद्रोह के प्रति ही नहीं है, बल्कि कांग्रेस से इतर होने वाले किसी भी अन्य आंदोलन और उसके नेताओं के प्रति रही है। यह आजादी के आंदोलन का इतिहास लिखने की कांग्रेसी शैली रही है कि आजादी के आंदोलन का इतिहास या तो कांग्रेस का इतिहास नजर आता है या अंग्रेजों का इतिहास। 

तो आईये इस अल्प चर्चित आजादी के दीवाने चन्द्रसिंह गढ़वाली के विषय में कुछ जानें | 

चन्द्रसिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसम्बर 1891 को ग्राम मासी, सैणीसेरा, चौथान पट्टी, गढ़वाल में एक किसान जलौथ सिंह भंडारी के पुत्र के रूप में हुआ था। अपनी अशिक्षा के कारण चन्द्रसिंह के पिता उन्हें विधिवत रूप से शिक्षित नहीं कर सके। उन दिनों ब्रिटिश काल था और ब्रिटिश सेना में भर्ती अपने क्षेत्र के जवानों के ठाठबाट देख कर उनकी इच्छा भी सेना में भर्ती होने की हुयी। घर से सहमति नहीं थी इसलिए घर से भागकर सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और 11 सितम्बर 1914 को गढ़वाल राईफल्स में सिपाही के रूप में भर्ती हो गये। 

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान 1 अगस्त 1915 में चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया जहाँ प्रथम उन्होंने मित्र राष्ट्रों की ओर से अपने सैनिक साथियों के साथ यूरोप और मध्य पूर्वी क्षेत्र में प्रत्यक्ष हिस्सेदारी की। 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया और 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। 

सेना में रहते हुए ही उनकी रूचि पढ़ने लिखने की तरफ हुयी। फौज में रहते हुए ही जब वे देवनागिरी लिपि सीख गये तो उन्होने हिंदी अखबार पढऩा शुरू किया। पेशावर में तैनाती के दौरान चन्द्र सिंह छुपकर अखबार खरीदकर लाते, अपने साथियों के साथ रात में दरवाजे पर कंबल लगाकर उसे पढ़ते और सबेरा होने से पहले पानी में गलाकर नष्ट कर देते थे। इससे उन्हें देश भर में अंग्रेजों के खिलाफ चल रही उथल पुथल एवं गतिविधियों की जानकारी मिलने लगी और उनके मन में अपनी गुलामी के प्रति कटु भावना उत्पन्न होने लगी। 

प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद सन 1920 में गढ़वाल में अकाल पड़ा जिसके कारण पलटने तोड़ी जाने लगीं| गढ़वाली सैनिकों को पलटन से निकाल दिया गया और ओहदेदारों को फिर से सैनिक बना दिया गया। इसमें चन्द्रसिंह भी थे और इन्हें भी हवलदार से सैनिक बना दिया गया, जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया पर उच्च अधिकारियों द्वारा इन्हें समझाया गया कि आगे इनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और इन्हें कुछ समय का अवकाश भी दे दिया। 

इस अवकाश के दौरान इनका ज्यादा समय आर्य समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बीतने लगा और उनके संपर्क से इनके अंदर स्वदेश प्रेम का जज़्बा पैदा हो गया। आर्य समाज के प्रभाव में वह ऊंच-नीच, बलि प्रथा आदि धार्मिक पाखंडों के विरोधी हो गये थे। अंग्रेजों को यह रास नहीं आया और कुछ समय पश्चात उन्हें इनकी बटैलियन समेत 1920 में पश्चिमोत्तर सीमान्त में बजीरिस्तान भेजा गया जहाँ अंग्रेजों और पठानों के बीच युद्ध चल रहा था। 1921 से 1923 तक वहाँ रहने के दौरान उनको पुनः तरक्की कर मेजर हवलदार बना दिया गया। 

उस समय पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम की लौ पूरे जोरशोर के साथ जली हुई थी और अंग्रेज इसे कुचलने की पूरी कोशिश कर रहे थे। इसी काम के लिये 1930 में उनकी बटालियन को पेशावर जाने का हुक्म हुआ। आज़ादी के संघर्ष को खत्म करने के लिए, उसे मज़हबी रंग देने के लिए अंग्रेजों ने एक नीति बनाई थी कि जिन इलाकों में मुसलमान ज्यादा होते थे तो उनमे हिन्दू सैनिकों की तैनाती करते और जिन इलाकों में हिन्दू ज्यादा होते थे तो उनमें मुसलमान सैनिकों की तैनाती करते थे। 

चन्द्रसिंह अंग्रेजों की इस कूटनीति को समझ गए और उन्होंने अपने सैनिकों से कहा “ब्रिटिश सैनिक कांग्रेस के आन्दोलन को कुचलना चाहते हैं। क्या गढ़वाली सैनिक गोली चलाने के लिए तैयार हैं? ” पास खड़े सभी सैनिकों ने कहाँ कि कदापि नहीं, हम अपने निहत्थे भाइयों पर कभी भी गोली नहीं चलायेंगे। फौजी बगावत के खिलाफ सख्त नियमों के बावजूद गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों का साथ न देने का मन बना लिया। और उपरोक्त घटना घटित हुई | 

गढ़वाली सैनिकों की पैरवी मुकुन्दी लाल द्वारा की गयी जिन्होंने अथक प्रयासों के बाद इनकी मृत्युदंड की सजा को कैद की सजा में बदल दिया और 13 जून 1930 को एबटाबाद मिलिटरी कोर्ट में कोर्ट मार्शल में हवलदार मेजर चन्द्रसिंह को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी। इस दौरान चन्द्रसिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति ज़प्त कर ली गई और इनकी वर्दी को इनके शरीर से काट-काट कर अलग कर दिया गया। 16 लोगों को लम्बी सजायें हुई, 39 लोगों को कोर्ट मार्शल के द्वारा नौकरी से निकाल दिया गया। 7 लोगों को बर्खास्त कर दिया गया तथा इन सभी का संचित वेतन जब्त कर दिया गया। चन्द्र सिंह गढ़्वाली तत्काल ऎबटाबाद जेल भेज दिये गये, जिसके बाद इन्हें अलग-अलग जेलों में डेरा इस्माइल खान, बरेली, नैनीताल, लखनऊ, अल्मोड़ा और देहरादून स्थानान्तरित किया जाता रहा। 

नैनी सेन्ट्रल जेल में उनकी भेंट क्रांतिकारी राजबंदियों से हुई। लखनऊ जेल में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से भेंट हुई। बाद में इनकी सज़ा कम हो गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को रिहा कर दिया गया। परन्तु इनके गृहक्षेत्र में प्रवेश प्रतिबंधित रहा जिस कारण इन्हें यहाँ-वहाँ भटकते रहना पड़ा और अन्त में ये वर्धा गांधी जी के पास चले गये। 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और उन्हें फिर से गिरफ्तार कर सात साल की सजा दी गई, लेकिन 1945 में ही उन्हें जेल से छोड़ दिया गया। अंततः 22 अक्टूबर 1946 को वे गढ़वाल वापिस लौटे। 

पेशावर विद्रोह के लिये काले पानी की सजा पाने के बाद विभिन्न जेलों में यशपाल, शिव वर्मा, रमेश चंद्र गुप्त, ज्वाला प्रसाद शर्मा जैसे कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के साथ रहते हुए साम्यवाद से उनका परिचय हुआ और धीरे-धीरे चन्द्रसिंह गढ़वाली का साम्यवाद की तरफ झुकाव हो गया। उनकी रिहाई के बाद गढ़वाल पहुँचने के बाद उन्होंने रानीखेत में कम्युनिस्ट पार्टी का काम किया और अकाल, पानी की समस्या समेत विभिन्न सवालों पर आंदोलन चलाया। अंग्रेजों के देश से चले जाने के बाद भी उन्होंने गढ़वाल में टिहरी राजशाही के विरुद्ध एवं अकाल, पोस्ट ऑफिस के कर्मचारियों की हड़ताल, सड़क, कोटद्वार के लिये दिल्ली से रेल का डिब्बा लगने जैसे तमाम सवालों पर आंदोलन किए। 

वस्तुतः 1930 में हुये पेशावर विद्रोह से लेकर 1979 में जीवन के अंतिम क्षण तक चंद्रसिंह गढ़वाली निरंतर स्वाधीनता आंदोलन से लेकर तमाम जन संघर्षों में शामिल रहे। इसमें जेलों के भीतर की अव्यवस्था और राजनैतिक बंदियों के लिये की जाने वाली भूख हड़तालें भी शामिल हैं। परंतु आज टुकड़े-टुकड़े में हमारे सामने पेशावर विद्रोह के इस नायक का जो ब्यौरा पहुंचता है उसे देखकर ऐसा लगता है कि चन्द्रसिंह गढ़वाली वो सितारा था, जो 23 अप्रैल 1930 को अपनी समूची रोशनी के साथ चमका और फिर अंधेरे में खो गया । जबकि 1930 के बाद आधी शताब्दी से अधिक समय तक वे जनता के मुद्दों पर जूझते रहे। 

यह कैसी विचित्र बात है कि 1946 में उनके गढ़वाल आने पर कांग्रेसियों ने जगह-जगह कोशिश की कि वह सीधे जनता से न मिल सकें। सिद्धांतों पर अडिग रहने के चलते चन्द्रसिंह गढ़वाली को कांग्रेसियों ने भोंपू लेकर घूमने वाला पागल घोषित कर हंसी का पात्र बनाने की भरसक कोशिश की। 

उन्हें नीचा दिखाने का कोई मौका उन्होंने हाथ से नहीं जाने दिया। यहां तक कि आजादी के बाद 1948 में तत्कालीन संयुक्त प्रांत की गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व वाली सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया तो गिरफ्तारी के कारणों में ”पेशावर में हुए गदर का सजायाफ्ता’’ होना बताया। इसकी खबर भारतीय अखबारों तथा लंदन के डेली वर्कर में छपने के बाद हुई फजीहत के चलते पंत की तरफ से माफी मांगी गयी और गिरफ्तारी नोटिस में ”पेशावर घटना के उल्लेख को आपत्तिजनक’’ माना गया। 

वह पेशावर विद्रोह के सैनिकों के पेंशन के मसले पर 1962 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पास पहुंचे। नेहरू जी से चन्द्रसिंह ने मांग की कि ”पेशावर कांड को राष्ट्रीय पर्व समझा जाय और सैनिकों को पेंशन दी जाये। जो मर गये उनके परिवार को सहायता दी जाये।’’ नेहरु जी ने कहा कि आपकी पेंशन भी बढ़ा दी जाएगी और आपको 5000 रुपये भी दे दिए जायेगे। फिर चन्द्रसिंह की फाइल उत्तर प्रदेश सरकार के पास भेज दी गयी। सरकारे आती जाती रहीं पर उन्हें कोई न्याय नहीं मिला। अगर कुछ मिला तो आजाद भारत में एक साल की सजा। इस महान रणबांकुरे ने ताउम्र देश और समाज के लिए संघर्ष किया और आखिरकार अत्यंत विषम स्थितियों में 1 अक्टूबर 1979 को इस दुनिया को अलविदा कह गए| 

उनकी मृत्यु के कई दशकों बाद भारत सरकार ने उन पर बमुश्किल एक डाक टिकट जारी करने की जहमत उठाई। उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष 23 अप्रैल को पीठसैण में एक बड़ा मेला लगता है। वर्ष 2016 में उनके निर्वाण दिवस पर तत्कालीन हरीश रावत सरकार ने कैबिनेट मीटिंग बुलाकर गैरसैण के भराड़ीसैण बन रहे विधानसभा भवन का नाम बीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम का ऐलान किया और उनके मूल गाँव मासों के इंटर कॉलेज का नाम भी उनके नाम पर करने की घोषणा की। साथ ही उनके गाँव में उनकी एक विशाल मूर्ति स्थापित किये जाने का निर्णय लिया। तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर ने गढ़वाली जी के गाँव मासों पहुंच कर पीठसैण पहुँच कर उनकी मूर्ति का अनावरण किया।
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