प्रधानमंत्री पद एक दावेदार पच्चीस – गठबंधन पांच – प्रवीण गुगनानी






लोकसभा 2019 की हवा क्या चली राजनैतिक दलों और राजनीतिज्ञों ने जैसे कोई जीवन बुटी खा ली है, नई जान आ गई है सबमें. अखंड मुरझाये चेहरों पर नया मुस्कराहट का मेकअप कर लिया गया है, नए कलफदार वस्त्र सिल कर आ गयें हैं. अजीब सा मंजर देखने को मिल रहा है, जो सांप नेंवला थे, कुत्ता बिल्ली थे वे अब अपने हिंसक नख, नाख़ून और दांत छिपाकर और दुम को दबाकर मित्रवत होने का सुंदर अभिनय कर रहें हैं. लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड्गे के मूंह से सहसा ही, जो सत्य है वह सार्वजनिक रूप से फूट पड़ा; वे २५ व्यक्तियों के कुनबे को संबोधित करते हुए बोले कि “दिल मिले न मिले हाथ मिलाते चलिए !’’ क्या कमाल की बात है और कितनी बेशर्म स्वीकारोक्ति है !!

देश की केंद्रीय राजनीति में पांच वर्ष पूर्व ही सक्रिय होकर प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी के सामने तीस-तीस चालीस-चालीस वर्षों से केंद्र की राजनीति कर रहे यौद्धा गठबंधन हेतु गजब का श्रम कर रहें हैं. उत्तरप्रदेश में सबसे पहले हैरतअंगेज कारनामा हुआ, वहां जनम जनम के दुश्मन सपाई और बसपाई एक हो गए. मायावती ने उत्तरप्रदेश के गेस्ट हाउस कांड में अपनी इज्जत पर डले हुए हाथों से ही जयमाला पहनने का प्रयास कर डाला !! दुसरा कारनामा ममता बनर्जी ने बड़ी ही तेजी से कोलकाता में कर डाला और कांग्रेस, केजरीवाल, सपा, बसपा, चंद्रबाबू नायडू, डीएमके जैसे 20-25 ऐसे दलों को दिल मिलाये बिना हाथ मिलवा दिए जो कभी एक दुसरे को फूटी आँखों भी देखना पसंद न करते थे. स्मरण रहे कि इधर कांग्रेस अपने पुराने खांटी कांग्रेसी साथी शरद पंवार के साथ लालू यादव के कुनबे, देवेगौडा और तमिलनाडु के स्टालिन के साथ पहले ही प्रेम की पींगे बढ़ा चुकी थी. नरेंद्र मोदी के सामने मोर्चा बनाने या नरेंद्र मोदी के साथ हो जाने के अवसर को जांच रहे उड़ीसा के नवीन पटनायक, तेलंगाना के केसीआर और आंध्र के जगनमोहन रेड्डी भी हैं जो कुछ नया दांव खेलकर चौंका सकते हैं. 

प्रश्न ये है कि कितने मोर्चें बनेंगे और कितने गठबन्धन ? और बन गए तो इनमें निर्वाह कैसे होगा ?? क्योंकि धरातल पर या अपनी अपनी कर्मभूमि में तो ये लोग परस्पर रक्तपिपासु होने की हद तक का राजनैतिक व्यवहार करते हैं तो सत्ता में आने के बाद क्या होगा ??? क्या क्षेत्र में अपने अपने कार्यकर्ताओं के हित साधने में लगे इनके लट्ठबाज कार्यकर्ताओं आये दिन होने वाली भिड़ंतो की प्रतिदिन की आंच से दिल्ली में अंगार नहीं लग जाएगी ???? और यदि लग जायगी तो बुझाएगा कौन, क्योंकि सभी तो आग लगाने वाले होंगे !! ये तो हुआ इस भानुमती के कुनबे द्वारा अपना प्रधानमंत्री चुन लेने के बाद का दृश्य. प्रधानमंत्री चुन लेने के पूर्व का दृश्य भी बड़ा ही रोचक (राजनीतिज्ञों के लिए रोचक और देशवासियों के लिए त्रासद) होगा. यहां एक बात कहना समयोचित होगा की ये सारे दल और व्यक्ति केवल प्रधानमंत्री बनने के लिए एक मंच पर नहीं आ रहें हैं. इन तथाकथित गठबंधनों में दो प्रकार के व्यक्ति हैं, एक वे जो प्रधानमंत्री बनने के लिए सीढ़िया लगा – लगवा रहें हैं और प्रधानमंत्री बनने के बाद पहला काम इस सीढ़ी के अंतिम संस्कार का करेंगे और दूजे वे चट्टे बट्टे हैं जो विभिन्न घोटालों में फंसे हैं और घोटालों की जांच एजेंसियों से बचने के लिए और नए घोटाले करने के लिए सत्ता सदन में बैठना भर चाहते हैं.

अब ये भी देखें कि चुनावी परिदृश्य में ये राजनैतिक दल कितनी कितनी सीटें जीतनें की क्षमता रखतें हैं. यदि दक्षिण भारत के दलों को छोड़ दे तो उत्तर भारत के राजनैतिक दल अच्छी से अच्छी अनुकूल स्थिति में भी एक सौ सीटों का आंकडा पार कर पाने की स्थिति में नहीं हैं. कमोबेश यही स्थिति दक्षिण भारतीय दलों की है किंतु दक्षिण भारतीय दलों के साथ एक तथ्य ये भी चल रहा है की वे भाजपा या एनडीए द्वारा सम्मानजनक आंकडा प्राप्त करने पर एनडीए के साथ आने के विकल्प भी खुले रखें हुए हैं. एक ओर बंगाल की ममता मोदी संग आएगी नहीं और दूजी ओर उड़ीसा के बीजू पटनायक ने मोदी से कभी बेसुरे बोल बोले नहीं है अतः पूरी संभावना है की वे मोदी के सुर में सुर मिला लेंगे. कुल मिलाकर स्थिति यह लग रही है कि 2019 का चुनावी परिदृश्य “मोदी वर्सेस आल” की ओर निर्णायक रूप से बढ़ गया है. 

यह भी कमोबेश लगने लगा है की लोकसभा चुनाव की पूर्व पीठिका में कांग्रेस के हाथों में तीन राज्यों में पराजित हुई भाजपा को इनमें से दो राज्य मध्यप्रदेश व राजस्थान भी हमदर्दी व संवेदना का वोट देकर लगभग लगभग 2014 जैसी स्थिति में ही ला खड़ा करेंगे. दरअसल यदि छत्तीसगढ़ को छोड़ दें तो भाजपा मप्र व राजस्थान में अपने स्थान व मत प्रतिशत को बनाये हुए है. मध्यप्रदेश में तो भाजपा केवल एस एस टी एक्ट, नोटा के नाम पर भी 35-40 विधानसभा सीटें बहुत कम अंतर से गंवा बैठी है. मप्र में दसियों सीटें भाजपा केवल स्थानीय विधायक को नहीं जिताने की भीतर घाती जिद के कारण हारी है. विशेषतः मप्र में व राजस्थान में लोकसभा चुनाव हेतु भाजपा की एक महत्वपूर्ण राजनैतिक पूँजी यह भी है कि जनता व भाजपा के कार्यकर्ता दोनों ही भाजपा सरकारों को मिस कर रहें हैं व स्थानीय अंतरविरोधों के कारण भाजपा से इतर मतदान करने के अपने निर्णय पर बड़ी संख्या में पछता रहें हैं. भाजपाई कार्यकर्ताओं का व जनता में व्याप्त यह पछतावे व प्रायश्चित का भाव भाजपा को इन राज्यों में पुनः खासी बढ़त दिला सकता है. 

गठबंधन परिदृश्य में यह भी बड़ा दिलचस्प है कि सारे के सारे गैर कांग्रेसी व गैर भाजपाई दल कांग्रेस के बाहरी समर्थन या सरकार में सम्मिलित होकर मिलने वाले खतरों से भली भांति परिचित है. इस दौर के सभी वे क्षेत्रीय क्षत्रप जो कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बनने के स्वप्न देख रहें हैं वे चौधरी चरणसिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा, आई के गुजराल जैसी दुर्गति कराने हेतु मानसिक रूप से तैयार रहें यह भी परम आवश्यक है क्योंकि जनता सहित सभी राजनैतिक दल जानते हैं कि कांग्रेस के बाहरी या अंदरूनी समर्थन से बनने वाली सरकारों की क्या दुर्गति होती है.

एक आकलन बड़ा ही स्पष्ट है, यदि ये सारे क्षेत्रीय दल अपनी क्षमता भर प्रदर्शन कर लेंगे तब भी २७२ सीटों का जादुई आंकडा न छू पायेंगे और उस स्थिति में ये कांग्रेस के उस घोर छदम, अतीव शोषक व विशुद्ध अवसरवादी समर्थन का ही सहारा लेंगे जिसने पिछले दशकों में कई बार देश को गहरे राजनैतिक संकट में डुबोया है और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भारत को बड़े गहरे तक बोझिल और चोटिल किया है.
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