खाली और वीरान पड़े मकानों के आंसू - 19 जनवरी महाविनाश दिवस



यह स्वागत योग्य है कि सिख नरसंहार के कुछ आरोपी क़ानून की जद में आये और उनको सजाएं सुनाई गईं | लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि कश्मीरी हिन्दुओं की सुनवाई कब होगी ? 19 जनवरी - यही वह दिन था जब एक आतंकी देश पाकिस्तान से मिले हथियारों और उकसावे के परिणामस्वरूप जिहादियों ने अपने स्थानीय संगठनों की मदद से घाटी के मुठ्ठी भर हिंदुओं का उनकी जन्मभूमि से सफाया कर देने की नीयत से झपट्टा मारा था। यह दिवस सम्पूर्ण भारत के माथे पर कलंक का एक टीका है !

पांच हजार साल के शानदार लिखित इतिहास वाले मूल निवासी कश्मीरी हिंदुओं को उनके घरों-गांवों से जबरन भगा कर कश्मीर से उनका जातीय सफाया कर दिया गया। जातीय उन्मूलन की यह बहुत नपी-तुली और नियंत्रित प्रक्रिया पाकिस्तानी षड्यंत्र का हिस्सा थी। इसी षड्यंत्र के तहत उसने जिहादी लक्ष्यों के लिए सक्रिय जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और दूसरे आतंकी संगठनों का इस्तेमाल किया था।

कश्मीरी हिंदुओं का जातीय संहार स्वतंत्र भारत के इतिहास के सबसे काले अध्यायों में से एक है। इस संहार में एक शांतिप्रिय, प्रगतिशील, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष समुदाय को उसके ही गृह प्रदेश में पूरी तरह से खत्म कर दिया गया। कश्मीर में अलगाववादी ताकतों ने एक अभियान चला कर अल्पसंख्यक हिंदुओं को कट्टर शत्रुओं के रूप में पेश किया था। अलगाववादियों का मानना था कि कश्मीरी हिंदू कश्मीर की धरती पर इस्लामी शासनतंत्र स्थापित करने के रास्ते की बाधा हैं और इसीलिए अलगाववादियों ने उन्हें घाटी छोड़ने पर मजबूर करने के लिए विविध रूपों वाले आतंक का राज स्थापित कर दिया। इस जिहादी अभियान के तहत नफरत फैलाने वाले भाषणों, चुन-चुन कर लोगों की हत्याओं, धमकियों और बम धमाकों जैसी सभी तरह की कार्रवाइयों का सहारा लिया गया था। ये बर्बर हत्याएं और अत्याचार वैसे ही थे जिनका सामना नाजियों के शासनकाल में यहूदियों ने किया था। यह सब कुछ ‘धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत’ में हुआ। ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि कश्मीरी हिंदुओं को निर्दयता से मार दिया गया और पूरी दुनिया इसे चुपचाप देखती रही।

कभी इन घरों में होती थी रौनक पर आज कोई रहने वाला नहीं 

सामूहिक साम्प्रदायिक घटनाओं का नंगा नाच देख चुका हर कश्मीरी हिंदू उन दिनों को नहीं भूल सकता जब उनके पड़ोसियों, सहकर्मियों और आसपास के अन्य लोगों ने हिंदुओं के जातीय सफाये की कार्रवाइयों में जिहादियों का साथ दिया था। यही वजह है कि 19 जनवरी उन सभी कश्मीरी हिंदुओँ की सामूहिक स्मृति का हिस्सा है जिनकी जड़ें घाटी में हैं और जिन्हें जिहादियों की बंदूक के डर से अपने घर-बार छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

दुर्भाग्य से भारत सरकार और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस गंभीर त्रासदी का कोई संज्ञान नहीं लिया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कश्मीरी हिंदुओं के जातीय संहार का मूल्यांकन करते हुए, अपने आकाओं की मर्जी के मुताबिक काम किया और इसे और इस मानवीय त्रासदी को जातीय संहार घोषित करने से परहेज किया। मानवाधिकार आयोग से सवाल पूछा जा सकता है कि “सैकड़ों लोगों की हत्या, हजारों घरों को जलाने और मंदिरों में तोड़फोड़ के साथ ही पांच लाख से ज्यादा लोगों का उनकी मातृभूमि से सफाया करने का मतलब क्या होता है? क्या यह मानवता के खिलाफ अपराध नहीं है? इतना ही नहीं, एमनेस्टी इंटरनेशनल और एशिया वॉच ने भी इस जातीय संहार को नजरअंदाज करना बेहतर समझा। इस बात से पता चलता है कि कश्मीरी हिंदुओं के खिलाफ उनके मन में किस तरह के पूर्वाग्रह हैं।

यही वह संदर्भ है जिसकी कश्मीरी हिंदू हर साल राष्ट्र और राज्य की सरकारों को याद दिलाते हैं कि इस संहार की अनदेखी करना देश के उन सभी मूल्यों के साथ विडम्बनापूर्ण आचरण है जिनके लिए उसे जाना जाता है – यह मानवाधिकारों का उल्लंघन है।

जिहादी-आतंकवादी हिंसा ने कश्मीर के हिंदुओं के मानवाधिकारों को बुरी तरह आघात पहुंचाया है। आतंकवादियों ने वंधामा और नाड़ीमर्ग में सामूहिक हत्याओं और अन्य कई स्थानों पर हिंदुओं की चुन-चुन कर हत्या के माध्यम से कश्मीर के हिंदुओं को खत्म करने का हर संभव प्रयास किए हैं। उन्होंने सुविचारित योजना के साथ कश्मीर के हिंदू इतिहास को नष्ट करने के लिए मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट किया, हिंदुओं की सम्पत्तियों पर कब्जा कर लिया और अल्पसंख्यक हिंदुओं के व्यापारिक प्रतिष्ठानों को नष्ट करते हुए यह सुनिश्चित कर दिया घर वापसी का उनका संकल्प पूरी तरह से बिखर जाए।

अल्पसंख्यक कश्मीरी हिंदुओं के खिलाफ क्रूरताएं मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा और संयुक्त राष्ट्र महासभा के 1966 में अपनाये गए मानव अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र का संकल्प जैसे सभी अंतर्राष्ट्रीय संकल्पों की और घोषणाओं को ठेंगे पर रखती हैं। जिहाद के शिकारों को दी गई गंभीर चोटें हिंदुओं को मिली यातनाओं की गवाह हैं। सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि इस दौरान कश्मीर के स्थापित राजनीतिक संगठनों और सरकारी संगठनों ने षड्यंत्र में मूक भागीदारी की। असहाय पंडितों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया था और विभिन्न संस्थाएं और संगठन इस मानवीय त्रासदी के मूक दर्शक बने रहे।

जिहादी हमले से अल्पसंख्यक समुदाय की रक्षा करने के अपने कर्तव्य में विफल रह कर राज्य सरकार ने अल्पसंख्यक कश्मीरी हिंदुओं को उनके उस मूल अधिकार से वंचित कर दिया जिसे संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार के रूप में सुनिश्चित करता है।

राज्य की संवेदनहीनता

कश्मीरी हिंदुओं के पुनर्वासन के लिए राज्य सरकार ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किया है। जिहाद पीड़ितों की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के लिए अब तक केवल कुछ तदर्थ उपाय किए जाते रहे हैं। राजनीतिक दलों ने विस्थापन की त्रासदी का उपयोग केवल राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए किया है, लेकिन इससे आगे समुदाय की पीड़ा को कम करने के लिए उन्होंने कुछ भी ठोस काम नहीं किया है।

कश्मीरी हिंदुओं का पलायन देश के संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र बनाये रखने की क्षमता के संबंध में भारतीय राज्य की परीक्षा भी है क्योंकि भारत धर्मनिरपेक्ष भारतीय राज्य के भीतर एक इस्लामिक राज्य का अस्तित्व स्वीकार नहीं कर सकता और इस स्थिति को जारी रहने देने का कोई प्रयास भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और बहुलतावादी मूल्यों को गंभीर क्षति पहुंचाने वाला होगा। शक्ति और सत्ता के सभी केंद्रों को याद रहना चाहिए कि कश्मीरी हिंदुओं को इतिहास में अतुलनीय यातनाओं के कारण घाटी छोड़नी पड़ी थी। इसलिए, इस पलायन को आप्रवासन बताने का कोई भी प्रयास सरकारों की असंवेदनशीलता को दर्शाता है जो इस मानवीय त्रासदी को कालीन के नीचे दबा देना चाहती हैं।

नहीं शुरू हुई न्याय प्रक्रिया

अब तक इस मानव त्रासदी के अपराधियों को न्याय प्रणाली के सामने लाने की कोई प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है। हत्यारे स्वतंत्र रूप से घूमते हुए भारतीय राज्य की न्याय प्रणाली का मज़ाक उड़ा रहे हैं जिसका दायित्व है कि वह मानवाधिकारों पर सार्वभौम घोषणापत्र तथा इससे संबंधित दूसरे घोषित संकल्पों के अधीन आतंकियों को न्याय प्रक्रिया से गुजारे और पीड़ितों को उचित न्याय देना सुनिश्चित करे। पिछले 29 वर्षों से इस बात का इंतजार जारी है।

वास्तव में इस मामले में भी वैसा ही जांच आयोग बनाया जाना चाहिए जैसे जर्मनी में यहूदियों के महाविनाश के बाद बनाया गया था। न्यूरेम्बर्ग और टोक्यो जैसे युद्ध अपराधों के लिए बनाये गए न्यायाधिकरणों जैसी व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे न्याय देने की प्रक्रिया का रास्ता साफ हो। इन दोनों मामलों में बनाये गए न्यायाधिकरणों ने मनुष्यों के अधिकारों को स्वीकार करते हुए शासन-तंत्र को स्पष्ट निर्देश दिए थे कि वैसी ही स्थितियां होने पर उसे क्या करना चाहिए।

समुदाय के सामने चुनौतियां

29 वर्षों की निर्वासन इस समुदाय के लिए भयानक अनुभव रहा है। इस विस्थापन ने कश्मीरी हिंदुओं और उनके मूल स्थान के असली घरों के बीच एक बड़ी खाई पैदा कर दी है। कश्मीर से विस्थापित होने के कारण पैदा हुए कश्मीरी हिन्दुओं की गहरी पीड़ा को कोई माप नहीं सकता। इस व्यवस्था ने उन्हें बिना जड़ का बना दिया है। किसी को अपनी जगहें छोड़ते वक्त कल्पना भी नहीं थी कि उनका निर्वासन तीन दशकों तक खिंच जाएगा।

समुदाय ने अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं और विरासत को जीवित रखा है। लेकिन इन परंपराओं का पालन और समृद्धीकरण सबसे अच्छी तरह से उनके मूल स्थान में ही किया जा सकता है जबकि ऐसा लगता है कि मूलस्थान पर उनकी वापसी अभी भी दूर है।

साभार - http://www.panchjanya.com
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