मध्यप्रदेश भाजपा में कसमसा रहे हैं धुर संघी - हरिहर शर्मा


2013 में आडवाणी जी के एक ब्लॉग का अनुवाद किया था, उसके कुछ अंश इस प्रकार थे -

आतंरिक मतभेदों के चलते १९७९ में मोरारजी देसाई सरकार का पतन हो गया | १९८० में हुए चुनावों में जनता पार्टी की सीट संख्या २९८ से घटकर ३१ रह गई | 

उस दौरान भारतीय जनसंघ के सदस्यों के विरुद्ध दोहरी सदस्यता विरोधी मुहीम चलाई गई | यह आरोप लगाया गया कि वे जनता पार्टी के साथ साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भी सदस्य हैं | जबकि सभी जानते हैं कि संघ कोई राजनैतिक संगठन नहीं है | यह बैसा ही था जैसी किसी कांग्रेसी के आर्य समाजी होने पर आपत्ति जताई जाए | कानाफूसी चली कि पूर्व जनसंघियों ने यदि संघ से सम्बन्ध रखा तो मुस्लिम मतदाता कट जायेंगे |

जिस समय दोहरी सदस्यता को लेकर यह गर्मागर्म बहस चल रही थी, तभी जाने माने गांधीवादी तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री अच्युत पटवर्धन ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा –

“आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष में अपने योगदान तथा शक्ति के कारण जनसंघ को प्रमुख घटक के रूप में जनता पार्टी में सम्मिलित किया गया था | आपात काल हटाने के बाद आज तक जनसंघ या संघ ने ऐसा क्या कहा या किया, जिसके कारण मधु लिमये, राज नारायण और उनके समर्थक उत्तेजित होकर यह पागलपन भरा निंदा अभियान चला रहे हैं |”

श्री अटलबिहारी बाजपेई, श्री नानाजी देशमुख तथा मैंने इस अभियान पर कडा रुख अख्तियार किया | मैंने कहा कि पार्टी में हमें अस्प्रश्य माना जा रहा है | जनता पार्टी में ५ घटक दल हैं कांग्रेस ओ, लोक दल, समाजवादी पार्टी, बाबू जगजीवन राम की सीएफ़डी और जनसंघ | लगता है प्रथम ४ द्विज हैं, जबकि जनसंघ को परिवार में हरिजन सदस्य मान्य कर लिया गया है |

अंततः ४ अप्रेल १९८० को दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी एक्जीक्यूटिव ने पूर्व जनसंघ के सदस्यों को पार्टी से निष्कासित कर दिया | इस निष्कासन से हम सबने राहत की सांस ली | और ५ व ६ अप्रेल को ही दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में ३५०० प्रतिनिधियों ने एकत्रित होकर श्री अटल विहारी वाजपेई की अध्यक्षता में नवीन राजनैतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया |
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उक्त आलेख से यह तो स्पष्ट होता ही है कि संघ और भाजपा का सम्बन्ध क्या था | किन्तु क्या आज भी यह सम्बन्ध बरकरार है ? 

या राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं ने इसे डाइल्यूट कर दिया है ?

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर साहब के हालिया बयानों ने संघ से जुड़े राजनेताओं में बढ़ती अदम्य महत्वाकांक्षा को प्रदर्शित किया है, तो साथ ही भाजपा में संघ से कतई असम्बद्ध नेताओं की बढ़ती संख्या को भी स्पष्ट किया है | जो झंझट जनता पार्टी के समय सामने आई थी, वह एक बार फिर नए रूप में सामने दिख रही है | 

इसे सामान्य भाषा में कहा जाये तो भाजपा में संघ से सम्बन्ध न रखने वाले लोग बढ़ रहे हैं, साथ ही जो संघ स्वयंसेवक भाजपा में हैं, उनमें स्वयंसेवकत्व कम होता जा रहा है, सत्ता पिपासा और प्रभुत्व की अभिलाषा बढ़ रही है |

आईये थोडा बाबूलाल गौर साहब की पृष्ठभूमि पर एक नजर डालते हैं -

नागपुर में इंटक का राष्ट्रीय अधिवेशन था | बाबूलाल जी गौर इंटक की स्टाफ असोसिएशन के अध्यक्ष के नाते उसमें भाग लेने गए थे | उस समय तक भारतीय मजदूर संघ अस्तित्व में नही आया था | सम्मेलन की कार्यवाही के दौरान वे संघ की काली टोपी लगाकर सबसे आगे बैठा करते थे | इंटक की सफ़ेद टोपियों में उनकी काली टोपी अलग ही चमकती थी | अधिवेशन को संबोधित करने प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू भी आये थे | उनकी उपस्थिति में बाबूलाल जी को मंच पर जाना था | मंच की व्यवस्था देख रहे कार्यकर्ताओं ने बाबूलाल जी से कहा कि मंच पर नेहरू जी के सामने जाने से पहले यह टोपी उतार दो | किन्तु बाबूलाल जी ने टोपी उतारने से साफ़ इनकार कर दिया | नेहरू जी यह सब संवाद सुन रहे थे | उन्होंने बात को टालते हुए कहा कि 'टोपी नही उतारते तो रहने दो, टोपी से क्या होता है, काम तो इंटक में ही करते हैं' |

तो सन 1946 से आरएसएस के स्वयंसेवक, 75 में 19 माह मीसाबंदी रहे बाबूलाल गौर आज कांग्रेस में जाने का विचार कर रहे हैं तो सोचनीय विषय है | इसे केवल उनकी महत्वाकांक्षा समझना गलत होगा | कहीं न कहीं गड़बड़ तो है | संगठन में बढ़ता गुटीय बर्चस्व भी इसका एक कारण है | 

गुट हमेशा रहे हैं | इसका सबसे बड़ा प्रमाण है श्री कैलाश जोशी व श्री शिवराज सिंह जी का संगठन चुनाव में चुनाव हारना | लेकिन ख़ास बात यह है कि हार के बाद भी इन लोगों का महत्व कम नहीं हुआ था | 

जबकि आज सत्ता में सहभाग केवल एक गुट का ही रहा | तो अब उपेक्षित रहे लोग कसमसा रहे हैं | उनमें धुर संघी भी शामिल हैं | 

चलते चलते - मुझे नहीं लगता कि बाबूलाल गौर किसी भी स्थिति में मोदी जी की तुलना में राहुल जी को अपना नेता स्वीकार करेंगे | 
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