लेनदेन की अद्भुत व्याख्या - सद्गुरू ईशा फाउन्डेशन



तमिल में एक आम कहावत है कि, "जो परिवार हमेशा दान करता है वह परिवार बर्बाद हो जाता है, जो परिवार हमेशा लेता रहता है वह भी बर्बाद हो जाता है" – अर्थात देने वाला और लेने वाला दोनों! 

इसकी विलक्षण व्याख्या की सद्‌गुरु ने : 

मुख्य बात है मनःस्थिति । यदि आप अपनी भलमनसाहत दिखाने के लिए या स्वर्ग का टिकट लेने के लिए दे रहे हैं, तो यह निश्चित रूप से ठीक नहीं है। लेकिन यदि आप किसी जरूरत मंद की मदद कर सकते हैं, फिर भी उसे नजरअंदाज करते हैं, तो आप बिल्कुल भी इंसान नहीं हैं। 

मानवीय आधार पर किसी की मदद करना, देना नहीं है, इसे मैं साझा करना कहूँगा, जो एक इंसान के लिए बहुत स्वाभाविक है। किसी के साथ खुशी साझा करने भर से कई गुना बढ़ जाती है। यदि आपके साथ कुछ अच्छा होता है, तो आप स्वाभाविक रूप से उसे साझा करना चाहते हैं क्योंकि इंसान एक सामाजिक प्राणी है। 

दुर्भाग्य से, हमने हमेशा इंसान के दिल में इंसानियत जगाने के स्थान पर, नैतिकता सिखाने की कोशिश की हैं। आप देते हैं, क्योंकि आप सोचते हैं कि इससे आप स्वर्ग जाएंगे या इससे आपके अहं को संतुष्टि मिलती है, तो यह एक लेनदेन है, सिर्फ व्यवसाय है। 

यदि आप किसी भिखारी को अपने मन की शान्ति के लिए भोजन देते हैं, तो भी यह एक अनुचित विनिमय है। बचे हुए भोजन की तुलना में शांति बहुत बड़ी चीज है। जो अपनी शांति खो चुका है, वह इसका मतलब जानता है – एक अशांत व्यक्ति को न बैठे चैन मिलता है, न खड़े, वह सो भी नहीं पाता । यदि आप किसी भिखारी को भोजन की कटोरी देकर शान्ति खरीद रहे हैं, तो मुझे लगता है कि यह एक अनुचित विनिमय है। 

सचाई यह है कि यह लेनदेन मानव जीवन में मानवता के विकल्प के रूप में लाया गया है। "मानवता" से मेरा आशय है - एक गुणवत्ता के रूप में मानवता। यदि आपकी मानवता सो रही हैं, तो आपको याद दिलाना होगा, "कृपया दिन में दो बार दें, दिन में चार बार लें।" यही एकमात्र अनुपात है जिससे लोग सहमत होंगे! यदि आप कहते हैं कि "दिन में चार बार दें और दिन में दो बार लें," तो कोई भी सहमत नहीं होगा। 

जीवन प्रक्रिया के साथ समन्वय 

यदि आप जीवन की प्रक्रिया को समझते हैं, तो वास्तव में देन और लेना कुछ है ही नहीं । जीवन तो आपस में जुड़ा हुआ है। जैसे आप साँस लेते हैं और साँस छोड़ते हैं, बैसे ही आपके और आपके आस-पास के जीवन के बीच एक लेन-देन हो रहा है। यह कोई विकल्प नहीं है। जीवन प्रक्रिया ऐसे ही चलती है। यदि आप देने और प्राप्त करने के इस निरंतर लेन-देन के अनुरूप हैं - या इसे अपने जीवन में साझा कर रहे हैं, तो आप जीवन प्रक्रिया के अनुरूप होंगे। अन्यथा आप जीवन की प्रक्रिया के खिलाफ विचारों का निर्माण करेंगे, जो कि जीवन के होने के तरीके से अलग हैं, और धीरे-धीरे आप पीड़ित होंगे। 

यदि आप इस दुनिया में अधिकांश लोगों को देखें, तो वे वसंत जैसे नहीं, बल्कि कंपकंपाती सर्दियों जैसे हैं। उनके दिल सिर्फ इसलिए ठंढे हो गए हैं क्योंकि वे अपने आसपास के जीवन के अनुरूप नहीं हैं। इस ग्रह पर हर दूसरे प्राणी के लिए, प्रकृति ने निश्चित मौसम तय किए हैं। एक निश्चित मौसम में एक पेड़ में फूल आते हैं। एक जानवर एक निश्चित मौसम में संभोग करता है। किन्तु मनुष्य को प्रकृति ने स्वतंत्र छोड़ दिया - कोई मौसम नहीं। 

प्रकृति ने आपकी बुद्धिमत्ता और जागरूकता पर भरोसा किया कि, यदि आपको विकल्प दिया जाता है, तो आप स्वाभाविक रूप से वर्ष के हर दिन सबसे अच्छे तरीके से रहना पसंद करेंगे। प्रकृति का मानना ​​था कि आपके लिए पूरे 365 दिन वसंत के होंगे, लेकिन लोगों ने सभी 365 दिनों के लिए सर्दियों को चुना है। जबकि बसंत को ऑफ और ऑन करना बैसे ही हमारे हाथ में है, जैसे गुदगुदी करके हँसाना । 

देने और लेने के ये विचार केवल इसलिये आए हैं क्योंकि हमने अपने जीवन की भावना को खो दिया है। यदि हमारे पास थोड़ी भी जीवन की भावना है, तो हम समझ सकते हैं कि जीवन एक निरंतर लेनदेन है। विशिष्टता में कोई नहीं रह सकता। इससे परे भी कुछ है, जो पूर्ण है। लेकिन साथ ही शरीर, मन और भावनाएं और आपके आस-पास की दुनिया एक निरंतर लेन-देन है, इससे कोई भी नहीं बच सकता । 

यदि आप इससे बचते हैं, तो जीवन आपसे इसकी इतनी बड़ी कीमत बसूल करेगा कि आपके चेहरे और हृदय पर कोई वसंत नहीं होगा। यह कब्र के ठीक ऊपर रहने जैसा है। 90% इंसान अपनी मनोदशा और व्यवहार में कब्र के ठीक ऊपर रह रहे हैं। यदि आप अपने भीतर बहार की तरह हैं, तो आप हर्षित और प्रफुल्लित होंगे। कब देना है, कब लेना है यह किसी को नहीं बताना होगा। आपको पता चल जाएगा कि जीवन में कब क्या करना है।
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें