सनातन की स्थापना का युद्ध - भाग 4 - संजय तिवारी


इन्हें साध्वी प्रज्ञा में आतंकवादी दिखने लगा है। बाटला हाउस में इनको शांतिदूत मिले थे। पूरा कुनबा बाटला तीर्थ कर आया था। दिग्गी को संजरपुर में शांति कपोत मिले थे। देश सब देख चुका है। आज भी देख रहा है। सनातन को बदनाम करने की दिग्गी चिदंबरम फॉर्मूले के फैल हो जाने के बाद कुछ कहने को शेष नही रह जाता। पूज्य स्वामी असीमानंद जी और साध्वी प्रज्ञा के साथ क्या क्या हुआ यह केवल वे ही बता सकते हैं जिन्होंने उस यातना को झेला है । इसमें मुझे कोई ताज्जुब इसलिए नही होता क्योंकि इस देश के उस कुनबे का यही इतिहास रहा है। चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह , राजगुरु, बिस्मिल , नेता जी सुभाष जैसे क्रांतिकारी इनके लिए आतंकी ही रहे है। इन्होंने तो पाठ्यक्रमो में केवल एक खानदानी इतिहास पढ़ाकर देश के लगभग तीन इतिहास युग स्वाहा कर दिए। पीढियो को गलत इतिहास पढ़ाकर उनमे ऐसा कुंठा का भाव भर दिया जिससे मुक्त होने में अभी बहुत समय लगेगा।

यह सही है कि हेमंत करकरे महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ता के ऐसे प्रमुख थे जो मुंबई आतंकवादी हमले में बिना एक गोली चलाए आतंकवादी के शिकार हो गए। किसी की भी ऐसी मृत्यु दुखद है। लेकिन यह प्रश्न भी कई उठते हैं जिनके जवाब मिलने ही चाहिए। आखिर करकरे शहीद कैसे हो सकते हैं? करकरे ने न तो किसी आतंकवादी का मुकाबला किया और न ही गोली चलाई । वे आतंकी गोली के वैसे ही शिकार हुए जिस तरह सामान्य लोग हुए ,फिर तो मुंबई हमले में मारे गए सारे लोग शहीद हुए। आतंकवादियों को रेलवे स्टेशन पर घेरा जा सकता था। आतंकवादी हमले के 45 मिनट से ज्यादा समय तक लगा ही नहीं कि लडने की कोई तैयारी भी है। मुंबई हमले की जांच रिपोर्ट में पुलिस की शर्मनाक विफलता और लापरवाही का तथ्यों के साथ विवरण है। हेमंत करकरे एक अयोग्य और नेताओं के चापलूस अधिकारी थे। हिन्दू आतंकवाद के पूरे षडयंत्र में उनकी सहभागिता थी। भले साध्वी प्रज्ञा के शाप से वे नहीं मरे हो लेकिन इसके साथ राक्षसी दुराचार किया गया उसमें वह बददुआ ही देगी। दिग्विजय सिंह ने साफ साफ लिखा है कि वे उन दिनों करकरे से रोज दिन में कई बार बात करते थे । उनसे पूछा जाना चाहिए कि आखिर किस सिलसिले में उनको करकरे से इतनी वार्ता की आवश्यकता पड़ती थी ? कही हिन्दू आतंकवाद की फाइल दिग्गी ही तो नही सम्हाल रहे थे फ्रॉम राजमाता वाया चिदंबरम ?
इस पूरे मामले पर अखिल भारतीय संत समिति के महामंत्री स्वामी जीतेन्द्रानंद सरस्वती जी ने लिखा है कि हेमंत करकरे के मामले में यदि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी...

"हिन्दू आतंकवाद" का भ्रमजाल गढ़ने के कांग्रेसी षड्यंत्र को अंजाम देने के लिए साध्वी प्रज्ञा सिंह के खिलाफ राक्षसी अत्याचार की हर सीमा लांघ गया था हेमंत करकरे। जवाब में साध्वी प्रज्ञा ने करकरे का सर्वनाश हो जाने का श्राप उसे दिया था। जिसके डेढ़ महीने बाद ही हेमंत करकरे की मौत हो गयी थी। साध्वी की उपरोक्त स्वीकारोक्ति पर कांग्रेसी फौज और कुछ मीडियाई मठाधीश आगबबुला हो रहे हैं।

26 नवंबर 2008 की रात मुंबई की गिरगाव चौपाटी रोड पर रुकी कार के भीतर अत्याधुनिक आग्नेयास्त्रों से लैस वो 2 खूंख्वार आतंकी बैठे थे जो उस रात मुंबई की सडकों पर खून की होली खेलने निकले थे और पिछले 2 घंटों में ही मुंबई CST सहित कई स्थानों पर लगभग 60-70 निर्दोष नागरिकों को मौत के घाट उतार चुके थे। गिरगांव चौपाटी पर उस रात उस कार का रास्ता रोक कर खड़ी हुई मुंबई पुलिस की टीम के सदस्य असिस्टेंट सब इन्स्पेक्टर तुकाराम ओम्बले इस स्थिति को अच्छी तरह जान समझ रहे थे। हालांकि उनके हाथ में पिस्तौल या रिवॉल्वर के बजाय केवल लाठी थी और अच्छी या ख़राब बुलेटप्रूफ जैकेट तो छोडिए, उनके बदन पर बुलेटप्रूफ जैकेट ही नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद तुकाराम ओम्बले ने अपने कदम कार की तरफ और अपने हाथ उन आतंकियों के गिरेबान की तरफ बढ़ा दिए थे। जवाब में आतंकियों की बंदूकों से बरसी गोलियों से छलनी होने के बावजूद उन आतंकियों की कार में घुस गए तुकाराम ओम्बले ने उनमें से एक आतंकी का गिरेबान तब तक नहीं छोड़ा था जबतक उसको कार से बाहर घसीटकर सड़क पर पटक नहीं दिया था। इसी आतंकी की पहचान बाद में अजमल कसाब के नाम से हुई थी।

इसी दिन 26/11 की रात, गिरगांव चौपाटी की इस घटना से लगभग 45 मिनट पहले ही आतंकी कसाब और उसके आतंकी साथी से 8 पुलिस कर्मियों की टीम का सामना हो गया था। टीम का नेतृत्व हेमंत करकरे कर रहे थे। करकरे और उनकी टीम के पास तुकाराम ओम्बले की तरह केवल लाठी नहीं बल्कि आटोमैटिक पिस्तौलें और राइफलें थीं। करकरे और उनकी टीम तुकाराम ओम्बले की तरह केवल सूती कपड़े की सरकारी वर्दी नहीं पहने थी, बल्कि उस टीम ने बाकायदा बुलेट प्रूफ जैकेट और हेलमेट पहने हुए थे। बुलेट प्रूफ घटिया थी कहने से काम नहीं चलेगा क्योंकि वो जैकेट चाहे जितनी घटिया रही हो किन्तु तुकाराम ओम्बले की सूती कपडे वाली सरकारी वर्दी से तो हज़ार गुना बेहतर रही होगी।

सिर्फ यही नहीं, गिरगांव चौपाटी पर हुई मुठभेड़ में तो आतंकी कार में, आड़ लेकर बैठे थे जबकि तुकाराम ओम्बले के पास खुली सड़क पर किसी तिनके तक की ओट लेने की गुंजाईश नहीं थी। जबकि करकरे और उनकी टीम की स्थिति इसके ठीक विपरीत थी। उनके सामने दोनों आतंकी खुली सड़क पर बिना किसी ओट के खड़े थे और करकरे अपनी टीम के साथ कार के भीतर थे इसके बावजूद उन दोनों आतंकियों ने करकरे समेत उनकी पूरी टीम को मौत के घाट उतार दिया था और करकरे व उनकी पूरी टीम मिलकर उन दोनों को मारना तो दूर उनको घायल तक नहीं कर सकी थी। जबकि निहत्थे तुकाराम ओम्बले ने सीने पर गोलियों की बौछार सहते हुए भी कसाब सरीखे आतंकी को कार के भीतर घुसकर बाहर खींच के सड़क पर पटक दिया था। यह था वो ज़ज़्बा और जूनून जिसने तुकाराम ओम्बले को शहादत के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा दिया।

करकरे और उनकी टीम उन दो आतंकियों का सामना क्यों नहीं कर सकी थी.? 

इस सवाल का जवाब देश को आजतक नहीं मिला। संकेत देता हूँ कि जवाब क्यों नहीं मिला था।

दरअसल उनके रक्त के नमूने जेजे अस्प्ताल ने इस बात की जांच के लिए फोरेंसिक लैब में भेजे थे कि क्या उन्होंने शराब पी रखी थी.? फोरेंसिक लैब की जांच का परिणाम क्या निकला था.? देश को आजतक यह भी नहीं बताया गया।

मित्रों यह कोइ ऐसा रहस्य नहीं था जिसके उजागर करने से देश की सुरक्षा को कोई खतरा उत्पन्न हो जाता। लेकिन देश को यह नहीं बताया गया। अतः मेरा स्पष्ट मानना है कि, उस रात यदि वास्तव में कोई शहीद हुआ था, जिसकी शहादत के समक्ष पूरा देश सदा नतमस्तक होता रहेगा, तो वो नाम था तुकाराम ओम्बले का। जबकि हेमंत करकरे और उनकी टीम की मौत उस रात उन आतंकियों के हाथों मारे गए अन्य नागरिकों की तरह ही हुई एक मौत मात्र थी। क्योंकि शहीद वो कहलाता है जो तुकाराम ओम्बले की तरह सामने खड़े दुश्मन पर जान की परवाह किये बिना टूट पड़ता है। इस आक्रमण में हुई उसकी मौत को देश और दुनिया शहादत कहती है। यदि हेमंत करकरे और उनके साथी शहीद हैं तो फिर उस रात आतंकियों द्वारा मारा गया हर नागरिक शहीद है। 

आज यह विवेचन इसलिए क्योंकि कांग्रेसी इशारे पर साध्वी प्रज्ञा के साथ हेमंत करकरे द्वारा किये गए राक्षसी अत्याचारों की कहानी देश के सामने उजागर हो चुकी है। कांग्रेसी चाटुकारिता में करकरे द्वारा साध्वी के खिलाफ रचे गढ़े गए फर्ज़ीवाड़े की धज्जियां अदालत में बहुत बुरी तरह उड़ चुकी हैं। साध्वी प्रज्ञा सिंह को भाजपा प्रत्याशी बनाए जाने के खिलाफ कांग्रेस द्वारा प्रारम्भ किया गया विधवा विलाप एक राजनीतिक पाखण्ड के सिवाय कुछ नहीं है। 

इस देश में अब शहादत का सर्टिफिकेट वो कांग्रेस नहीं बाँट सकती जो सरकारी किताबों में भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद को आतंकवादी और नेहरू को महान स्वतंत्रता सेनानी लिखकर देश के बच्चों के मन मष्तिष्क में झूठ का ज़हर घोलती रही हो। इस लोकसभा चुनाव के बहाने अच्छा है कि पहली बार भारत की बुनियादी सनातनी संस्कृति पर चर्चा हो रही है। दुनिया मे कही भी रह रहे हर भारतवंशी की निगाह इस पर लगी है। इस चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सभी पार्टियों के चेहरे से नकाब हट चुका है। इस बार मायावती और मुलायम सिंह की एक साझी विरासत ही कहेंगे, जो नग्नावस्था में सामने आ गयी है। यह फिर भी एक बेहयाई पर मैं नासमझ हूँ कि आखिर सभी का मकसद सनातन का विरोध और एक खास पक्ष का तुष्टिकरण ही है तो ये सब एक ही पार्टी में शामिल क्यो नही हो जा रहे। गजब का गिद्धभोज बना दिया है इस चुनाव को इन वोटताइयो ने ।

संजय तिवारी
संस्थापक
भारत संस्कृति न्यास


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