राजनीति के छल छद्म से परे - साध्वी प्रज्ञा ! शायद ही कभी झूँठ ‘बोलना सीख पायें - रामभुवन सिंह कुशवाह


साध्वी प्रज्ञा राजनीति के छल छिद्र नहीं जानती। वे राजनीति से भागकर ही तो सन्यासिनी बनीं थी । विवश होकर उन्हें राजनीति के बियाबान में आना पड़ा और संसार की मुक्ति के मार्ग से हटकर ‘ महिषासुर मर्दिनी ’ बनकर दुष्टों को संहार के लिए सन्यासी से उन्हें पुनः वीर क्षत्राणी स्वरुप धारण करना पड़ा । जो लोग साध्वी की आड़ में कुत्सित राजनीति करते हैं धिक्कार है उन्हें ! उन्हें तो चुल्लू भर पानी में डूब जाना चाहिए। जिस सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर बापू ने संसार की तत्कालीन महाशक्ति ब्रिटिश हुकूमत को भारत से खदेड़ा था अफसोस कि महात्मा गांधी के अनुयाई होने का चिल्ला चिल्लाकर दावा करनेवाले हमारे नेता न सत्य का एक सिरा पकड़ पाये हैं और न अहिंसा का ही अर्थ समझते हैं।

यदि साध्वी ने भारत के अद्भुद और अनूठे संत महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त कह दिया तो कौन सा बड़ा गुनाह कर दिया ? भारतीय संविधान से लगाकर दंड विधान और दंड प्रक्रिया संहिता का छानबीन गहन अध्ययन कर लीजिये सत्य बोलना कब से अपराध बन गया ? साध्वी को नहीं मालूम होगा कि महात्मा गांधी को गोडसे की तरह हत्या करने से ज्यादा बड़ा अपराध सत्य बोलना अपराध है। उन्हें यदि यह मालूम होता कि आज के समय में सत्य बोलना झूँठ बोलने से कहीं ज्यादा कठिन और कष्ट साध्य होता है तो वह क्यों किसी पत्रकारों और केमरों के सामने बोलती कि गोडसे देशभक्त था और रहेगा ? उसे क्या कुत्ते ने काटा था जो सत्य बोलती ? वह भी कमलहसन की तरह कह देती –हाँ ! नाथूराम गोडसे आतंकवादी था । उसकी पार्टी , जिसका वह सदस्य था हिन्दू महासभा आतंकवादियों का गिरोह है जो आज भी चुनाव आयोग की दृष्टि में मान्य और पंजीबद्ध राजनीतिक दल बना हुआ है। और विभाजन के समय जो नरसंहार कर हजारों निर्दोष व्यक्तियों को गाजर मूली की तरह काट रहे थे वे महान पुण्ड्य का कार्य कर रहे थे। पर नहीं, सारा देश उसके इस बयान पर बुरी तरह पिल पड़ा है जैसे कि उसने यह कहकर बहुत बड़ा दंडनीय अपराध कर दिया है ।

यदि सत्य को जानने का इतना ही शौक है तो नाथूराम गोडसे का कोर्ट में दिया गया वह स्वीकारोक्ति का बयान सार्वजनिक रूप से प्रतिबंध मुक्त क्यों नहीं कर देते ? “ मैंने महात्मा गांधी की हत्या क्यों की ?” जबकि इस शीर्षक की पुस्तक सर्वत्र उपलब्ध है किन्तु पाखंड इतना कि उसे प्रतिबंधित किया हुआ है ? साथ ही यह भी अभी तक रहस्य का विषय बना हुआ है कि उस कथित हत्यारे को पिस्टल किसने मुहैया कराई थी ? और जब गोडसे का पिस्टल का बार खाली चला गया तो दूसरे किस व्यक्ति ने गोलियां चलाकर पुज्य बापू की जीवन लीला को समाप्त किया था?

यह सही है कि साध्वी को हत्या जैसे अपराध का समर्थन नहीं करना चाहिए था। उसे आगे चलकर लोकतन्त्र के पवित्र मंदिर का सदस्य बनना जो है जहां किसी पार्टी का टिकट पाने के लिए हत्या का आरोप अनिवार्य होता है। उत्तरप्रदेश में आज भी एक पार्टी ऐसी है जिसके यहाँ कई साल तक किसी भी सदन के लिए हत्या का अभियुक्त होना अनिवार्य था। यह क्या किसी को छुपा है ? और आज यदि भारत स्वतंत्र न हुआ होता तो उधम सिंह को हम महान देशभक्त कैसे मानते ? वीर शिवाजी और महाराणा प्रताप तो डॉन या आतंकवादी ही कहलाए जाते। आखिर देशभक्त की हमारी परिभाषा क्या है ? जबकि आज तो ‘भक्ति’ को ही लक्षित किया जाने लगा है । आज घोषित भ्रष्ट भक्तों को यह कहकर चिढ़ाते हैं कि वे देश के असंदिग्ध ईमानदार नेता के समर्थन में लामबद्ध क्यों हो रहे हैं ? वे ‘सबका साथ - सबका विकास’ का नारा देकर विकासपुरुष को इतना समर्थन क्यों दे रहे हैं ?

साध्वी प्रज्ञा को यदि यह मालूम होता कि इस देश में भेड़िया धसान है तो वह सन्यास ही क्यो गृहण करती वह तो अ. भा.विध्यार्थी परिषद में अच्छी पोजीशन में थी। वह भी राजनीति में जाकर कोई शान शौकत की ज़िदगी व्यतीत कर सकती थी । उसे क्या मालूम था कि वह ‘हिन्दू आतंकवाद’ की अवधारणा को मूर्तरूप देने और हिंदुओं को बदनाम करने के षड्यंत्र का शिकार हो जाएगी तो वह अपनी भरी पूरी जिंदगी बर्बाद क्यो करती ? वह नौ साल तक अत्याचारियों के अत्याचार क्यों सहती ? उसे क्या मालूम था कि उसे अंतमें राजनीति में ही आना है तो क्यों सन्यासी गृहण करती ? क्यों फिर से राजनीति में आने और षड्यंत्र करियों को सबक सिखाने के लिए चुनाव लड़ने का प्रस्ताव देती ?

यदि उसे सन्यास से राजनीति में प्रवेश करने पर कंप्यूटर बाबा जैसे पाखंडियों का ही सामना करना था तो उस क्षेत्र में क्यों जाती ? उसे नहीं मालूम था कि वह राजनीति के उस दलदल में फंसाया जा रहा है जहां चारों ओर पाखंड है , भ्रम है , झूँठ है और ‘शब्द ब्रम्ह’ के साथ नित्य खिलवाड़ की जाती है । जब जब मैं टीवी पर उसका मासूम चेहरा देखता हूँ मन आत्मग्लानि से भर जाता है ।

और अंत में विचार करना होगा कि महात्मा गांधी को ‘राष्ट्र पिता’ की उपाधि किसने दी ? गूगल में तलाशने पर पता चला कि नेता जी सुभाष चंद्र बॉस ने पहली बार उन्हे एक भाषण में ‘राष्ट्रपिता’ कहा । यदि यह सही है तो उनसे पूछा जाना चाहिए था कि उन्होने महात्मा गांधी को राष्ट्र का पिता क्यों कहा ? क्योंकि उनके बीच में तो इतने गहरे मतभेद थे कि वे उन्हें 'राष्ट्र पिता ' कह ही नहीं सकते था। नेताजी अब स्पष्टीकरण के लिए जिंदा नहीं है। यदि वे जिंदा होते तो निश्चित रूप से बताते कि वह उनकी व्यंगोक्ति थी क्योंकि वे बहुत पढे लिखे विद्वान व्यक्ति थे । उन्हें राष्ट्र का अर्थ अवश्य मालूम रहा होगा ।

यह प्रश्न आज भी यथावत है कि क्या भारत राष्ट्र का जन्म सन 1947 में हुआ ? जो स्वयं को राष्ट्र के पुत्र होने का गौरव पाले हुये थे जो स्वयं को राष्ट्रभक्त कहते थकते नहीं थे उन महात्मा गांधी को ‘राष्ट्र पिता’ कहा जाने का मतलब क्या है ? भारत को राष्ट्र तो वैदिक कालसे ही कहा जाता है फिर उसके पुनर्जन्म की अवश्यकता ही क्यों पड़ी ? भारत तो तब भी एक राष्ट्र था जब हम ठीक से उठना बैठना भी नहीं जानते थे । जी हाँ, आधुनिक तथाकथित विद्वान तो यही मानते हैं कि हम प्राचीन काल में असभ्य थे और वाममार्गी विद्वान तो अभी भी उसे एक राष्ट्र नहीं मानते हैं। नेहरू जी तो भारत को 'डेवलपिंग नेशन' मानते थे। पर उनके कहने से क्या ? सही बात तो यह है कि भारत अनादि काल से एक राष्ट्र है।ऋग्वेद में कहा गया है : 
“आ राष्ट्रे राजन्य: शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायताम” ( अर्थात हमारे राष्ट्र में क्षत्रिय वीर , धनुर्धारी लक्ष्यवेधी महारथी हों )
अथर्ववेद में कहा गया है कि “अधिवधित पयसामि राष्ट्रेण वर्धताम” ( अर्थात राष्ट्र के धनधान्य दुग्ध आदि संबर्धित हो )
वास्तवमें राष्ट्र का आशय उस भूखंड से है जहां के निवासी एक संस्कृति में आबद्ध हों और कोई भी देश राष्ट्र तब ही हो सकता है जब उसमें देशेतरवासियों को भी आत्मसात करने की शक्ति हो । 
इस दृष्टि से भले ही देश भर के लोग महात्मा गांधी को 'राष्ट्रपिता' के तौर पर जानते हों, लेकिन भारत सरकार आधिकारिक तौर पर महात्मा गांधी को 'राष्ट्रपिता' घोषित नहीं कर सकती है। संविधान के आगे भारत सरकार भी मजबूर है। तभी तो गृह मंत्रालय ने लखनऊ की बाल आरटीआई कार्यकर्ता ऐश्वर्या पाराशर को दिए सूचना में कहा है कि सरकार महात्मा गांधी को 'राष्ट्रपिता' घोषित करने के संबंध में कोई अधिसूचना जारी नहीं कर सकती है।

इसी तरह से प्रेसिडेंट को राष्ट्रपति कहना भी गलत है। ‘शब्दब्रम्ह’ की उपेक्षा से बहुत बड़ा नुकसान हो रहा है। इसके कारण राष्ट्र का प्रत्येक घटक आत्म गौरव से दूर हो गया है। परिणाम स्वरूप देश में अनावश्यक रूप से नेताओं को अतिविशिष्ट पुरुष माना जाने लगा है। भारतीय भाषाओं में ‘पति’ और ‘अध्यक्ष’ दो भिन्नार्थी शब्द हैं, समानार्थी तो कतई नहीं हैं। जबकि, अंग्रेजी का ‘प्रेसिडेण्ट’ शब्द भी पति का अर्थ प्रकट नहीं करता है, बल्कि इसका हिन्दी-अनुवाद है- ‘अध्यक्ष'। किन्तु ‘राष्ट्राध्यक्ष’ अर्थात ‘प्रेसिडेण्ट आफ नेशन’ के लिए हिन्दी में इसे तभी से ‘राष्ट्रपति’ कहा जाने लगा है, जबसे हमारा देश अंग्रेजों की बुद्धिबाजी से निर्मित संविधान के द्वारा शासित-संचालित हो रहा है। अंग्रेजी में लिखित हमारे देश के संविधान में राष्ट्र-प्रमुख के लिए ‘प्रेसिडेण्ट’ नामक पद का प्रावधान किया गया है, जिसे संविधान के प्रभावी होने के बाद से ही हिन्दी में ‘राष्ट्रपति’ कहा जाता रहा है। गौरतलब है कि हिन्दी में ‘पति’ शब्द का अर्थ ‘मालिक' , ‘स्वामी’ , ‘पभु’ , ‘ईश्वर’ अथवा ‘स्त्री का विवाहित पुरुष’ होता है; जो किसी राष्ट्र के लिए न उपयुक्त है, न अपेक्षित। क्योंकि, राष्ट्र कोई वस्तु नहीं है, कोई संपत्ति नहीं है और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में ‘राष्ट्र-प्रमुख’ भी कोई ‘तानाशाह’ प्रभु अथवा ईश्वर नहीं है। राष्ट्र स्त्री भी नहीं है, जिसका कोई पुरुष या पति हो।





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