1947 के कांग्रेस अध्यक्ष ही लाये आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी के विरुद्ध पहला अविश्वास प्रस्ताव |

आचार्य कृपलानी, सरदार पटेल और सुचेता कृपलानी

मैंने पहली बार 1967 में आचार्य जे बी कृपलानी का नाम सुना, जब वे राजमाता सिंधिया के समर्थन के चलते गुना संसदीय क्षेत्र से सांसद चुने गए और मजा देखिये कि जब वे संसद में बोलने खड़े हुए, तो उन्हें अपने संसदीय क्षेत्र का नाम भी ध्यान नहीं था | बोले मध्यप्रदेश की किसी सीट से चुनकर आया हूँ | गांधीवादी नेता कृपलानी जी की उम्र उस समय लगभग 80 वर्ष थी, और वे महज एक बार चुनाव प्रचार हेतु गुना आये थे | खैर उस समय तो जनता ने वोट राजमाता सिंधिया को दिए थे, उन्हें नहीं | लेकिन कितने अद्भुत थे कृपलानी इसे जानकर हैरत होती है – 

1947 में जब कांग्रेस में भावी प्रधान मंत्री के लिए मतदान हुआ तो सरदार वल्लभ भाई पटेल के बाद दूसरे नंबर पर थे आचार्य कृपलानी | यह अलग बात है कि महात्मा गांधी की इच्छा के अनुरूप दोनों ने अपना नाम वापस ले लिया और सर्वाधिक कम मत प्राप्त करने वाले जवाहर लाल नेहरू बने स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री | तो इस तरह हुआ हमारे देश में प्रजातंत्र का गंगा अवतरण | लेकिन फिलहाल तो बात कृपलानी जी की | 

जीवटराम भगवानदास कृपलानी का जन्म हैदरावाद (सिंध) जो अब पाकिस्तान में है, के एक उच्च मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था | उन्होंने पुणे के फरगूसन कॉलिज से स्नात्तक की परीक्षा उत्तीर्ण की और बाद में इतिहास और अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की परीक्षा पास की। कृपलानी ने 1912 से 1917 तक बिहार में "ग्रियर्स भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज मुज़फ़्फ़रपुर"में अंग्रेजी और इतिहास के प्राध्यापक के रूप में अध्यापन कार्य किया। और बाद में कृपलानी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर बनकर आए, हालांकि वह यहां एक ही साल रहे, लेकिन वो एक साल ही उस विश्वविद्यालय पर उनका प्रभाव छोड़ने के लिए काफी था। वहीं से उनके नाम के साथ आचार्य जुड गया | इसके बाद 1920 में उन्होंने गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के लिए नौकरी छोड़ दी। 

इसके कुछ साल बाद बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में सुचेता मजुमदार प्रोफेसर बनकर आईं। उनके कानों में अक्सर जीनियस टीचर आचार्य कृपलानी की बातें सुनाई पड़ती थीं। उन दिनों कृपलानी जब कभी बनारस आते तो बीएचयू के इतिहास विभाग जरूर जाते। उसी दौरान उनकी मुलाकात सुचेता से हुई, जिनमें एक प्रखरता भी थी और आज़ादी आंदोलन से जुड़ने की तीव्रता भी। जब कुछ मुलाकातों के बाद सुचेता ने उनसे गांधीजी से जुड़ने की इच्छा जाहिर की तो कृपलानी इसमें सहायक भी बने। 

किसी को भी अंदाज़ा नहीं था कि कृपलानी जैसे शख्स के जीवन में भी प्रेम दस्तक दे सकता है और दबे पांव उनके मन के घर पर कब्जा कर सकता है। कृपलानी लंबे कद के सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी थे तो सुचेता साधारण कद काठी वाली थीं, लेकिन कुछ तो था उनके व्यक्तित्व में जिसने कृपलानी जैसी शख्सियत को उनके प्यार में बांध लिया था। हालांकि दोनों की उम्र में बीस वर्ष का अंतर था । 

दोनों विवाह करना चाहते थे, किन्तु गांधी जी की असहमति के कारण उस समय इस विचार को दोनों ने त्याग दिया | 1928 में जब मोतीलाल नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष बने, तब आचार्य कृपलानी उनके साथ कांग्रेस के महासचिव बने | उसके बाद से 1946 तक कृपलानी लगातार कांग्रेस के महासचिव रहे और आजादी के समय 1946 से 1947 तक वे ही कांग्रेस के अध्यक्ष थे | 

इस बीच 1936 में गांधी ने सुचेता और आचार्य कृपलानी को बुलावा भेजा। गांधी ने उनसे कहा कि उन्हें उनकी शादी से कोई दिक्कत नहीं है लेकिन वह उन्हें आर्शीवाद नहीं दे सकेंगे। गांधी ने कहा कि वह उनके लिए प्रार्थना करेंगे। सुचेता ने अपनी किताब में लिखा, हम उनकी प्रार्थना भर से संतुष्ट थे। अप्रैल 1936 में सुचेता और आचार्य कृपलानी ने शादी कर ली। उस समय कृपलानी 48 साल के थे तो सुचेता मात्र 28 साल की थीं। 

आगे की कहानी अत्यंत रोचक है | प्रधान मंत्री बनने के बाद नेहरू इस बात को नहीं भुला पाए कि कृपलानी उनके खिलाफ चुनाव लडे भी थे और उनसे अधिक वोट भी मिले थे | दोनों में मतभेद बढ़ते गए और नवम्बर 1947 को अंततः आचार्य कृपलानी को कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ना ही पड़ा | और अंततः 1952 में तो वे कांग्रेस से ही अलग हो गए | 

उन्होंने पूरी जवानी जिस पार्टी में लगा दी, उसको भारी मन से छोड़ दिया और किसान मजदूर प्रजा पार्टी शुरू कर दी, जो बाद में सोशलिस्ट पार्टी के साथ मिलकर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बन गई| लेकिन ये बात दिलचस्प है कि उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी ने कांग्रेस नहीं छोड़ी और 1963 में यूपी की चौथी और पहली महिला सीएम बनीं| 

लेकिन उसके बाद जेबी कृपलानी आजीवन विपक्ष में ही रहे और सबसे हैरत की बात तो यह है कि गांधीजी के मजबूत सिपहसालार और आजादी के समय कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान व्यक्ति ही देश की संसद में देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जैसे कद्दावर नेता के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर भी आया | इससे पहले कभी किसी विपक्षी नेता ने इस बारे में सोचा तक नहीं था | इस अविश्वास प्रस्ताव को संसद में आचार्य कृपलानी ने चीन का युद्ध हारने के बाद पेश किया था | हालांकि कांग्रेस का बहुमत होने के नाते वो गिर गया था, लेकिन सांकेतिक तौर पर इसका असर काफी गहरा था | 

पंडित नेहरू के बाद कृपलानी इंदिरा जी के भी उतने ही विरोधी रहे, जितने जेपी और राम मनोहर लोहिया | इंदिरा के खिलाफ उन्होंने भी कई मौकों पर विरोध किया और इमरजेंसी के दौरान उनकी भी गिरफ्तारी हुई | बाद में 1982 में इलाहाबाद में उनकी मौत हो गई | आखिरी दिनों में उन्होंने जो किताब लिखी उसमें उन्होंने गांधीजी, लोहिया और खान अब्दुल गफ्फार खान को छोड़कर बाकी सभी कांग्रेस नेताओं को जमकर लताड़ा और देश के विभाजन के लिए भी जिम्मेदार ठहराया | 

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