दो सवाल - गुरू पूर्णिमा आखिर क्यों मनाते हैं, और मनाने का आदर्श ढंग क्या है ?



आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुरूपूर्णिमा उत्सव में मुख्य वक्ता महोदय के बौद्धिक का सारांश एक शब्द में कहा जाए तो वह था – 

सक्रियता ही जीवन और निष्क्रियता मृत्यु ! 

लेकिन प्रश्न उठता है कि सक्रिय तो दुर्जन भी रहते हैं, तो क्या उन्हें आदर्श माना जाए ? इसका सही जबाब गुरू पूर्णिमा मनाते क्यों हैं इसे जानकर समझ में आता है | 
आज महर्षि वेद व्यास जी का पावन जन्म दिवस है | वही व्यास जिनकी जन्मदात्री मां का कुल गोत्र आज की भाषा में कहें तो अनुसूचित जनजाति का था, किन्तु उनके द्वारा किये गए महान कार्य ने उन्हें भगवान वेदव्यास बना दिया | बड़े बड़े प्रकांड पंडित जब प्रवचन देते हैं, तो उनके सभामंच को व्यास पीठ कहा जाता है और इस प्रकार महर्षि वेदव्यास जी को सतत स्मरण रखते हुए उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त की जाती है | आखिर ऐसा क्या महान कार्य किया था व्यास जी ने कि उन्हें जगत ने गुरू रूप में ऐसा अंगीकार किया कि उनके जन्मदिवस को गुरू पूर्णिमा ही कहा जाने लगा । 

तो उत्तर सर्व विदित ही है - यह व्यास ही थे जिन्होंने वेदों की रक्षा की, अर्थात् सभी ज्ञान परंपराओं को नष्ट होने से बचाया। उन्होंने विभिन्न परिवारों को वेदों की विभिन्न शाखाओं की रक्षा करने का दायित्व प्रदान किया। जब यह कहा जाता है कि सभी वेदों की सभी शाखायें तो इसका तात्पर्य होता है कि सभी उप वेद भी इसमें समाहित हैं, जैसे कि आयुर्वेद (संपूर्ण स्वास्थ्य विज्ञान, जिसमें भोजन की उचित आदतें शामिल हैं जैसे कि भोजन ही दवा है, निदान और सर्जरी सहित रोगों का उपचार आदि), गंधर्व वेद (विभिन्न प्रकार की कलाओं से संबंधित ज्ञान, संगीत, नृत्य, पेंटिंग, मूर्तिकला, बुनाई आदि सभी कलाएं), स्थापत्य वेद (वास्तुकला), धनुर्वेद (मार्शल आर्ट, हथियार, युद्ध आदि से संबंधित ज्ञान) 

और उन सभी परिवारों ने यह दायित्व स्वीकार किया कि उन्हें ज्ञान के विभिन्न भागों की रक्षा करनी थी। ब्राह्मणों को मुख्य रूप से मंत्रों के संहिता भाग को सही तरीके से जाप करना था और वेदों के ब्राह्मण भाग के अनुष्ठान करने थे। उपनिषद - ईश्वर अनुभूति की विद्या - आमतौर पर क्षत्रियों द्वारा संरक्षित हुई और सभी उपयोगी व्यवसाय, विभिन्न समुदायों द्वारा संरक्षित थे। इस प्रकार वैदिक यानी जीवन में ज्ञान परंपराओं की रक्षा और पालन की जिम्मेदारी पिता से पुत्र या गुरु से लेकर शिष्य तक को सौंपी गई। वस्तुतः ज्ञान को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करके उसकी रक्षा करने की परंपरा के रूप में गुरुपूर्णिमा मनाई जाती है। गुरुपूर्णिमा के दिन सभी बुजुर्गों के प्रति श्रद्धा व्यक्त की जाती है और उन्हें स्मरण किया जाता है। यह उत्सव जिम्मेदारी लेने की परंपरा को जारी रखने के संकल्प को मजबूत करने के लिए भी है । 

यदि वेदव्यास का जन्म नहीं हुआ होता या यदि उन्होंने भारत की ज्ञान परंपराओं की रक्षा के इस तरीके को विकसित नहीं किया होता तो मध्य पूर्व या यूरोप के कई अन्य देशों की तरह, हम भी अपना सारा ज्ञान खो देते और इसके साथ ही हमारी पहचान भी लुप्त हो जाती । भारत भारत नहीं रहा होता। कहा जाता है - अनंत वै वेदा: - अनंत ही वेद हैं। हजारों वर्षों से लगातार आक्रमणों के कारण हमने वेदों की कई शाखाओं को खो दिया है, और निश्चित जानिये कि हमारी भूमि पर जो भी संरक्षित है, वह सब श्री व्यास के कारण है, जिन्होंने वेदों को संपादित और संरक्षित किया। इसलिए उन्हें वेद व्यास भी कहा जाता है। 

समाज जीवन में दायित्व बोध का विशेष महत्व है, जैसे कि अनादि काल से हमारे पूर्वजों ने हमारी ज्ञान परंपरा को संरक्षित करने का दायित्व लिया और उसे पूरी निष्ठां से निभाया भी । आज दायित्व का अर्थ महज निजी दायित्व जैसे कि अपना स्वास्थ्य, अपना उदर पोषण, अपनी सुख सुविधा भर रह गया है | सामाजिक उत्तर दायित्व की तो बात जाने ही दें, पारिवारिक उत्तरदायित्व की भावना भी शिथिल हो रही है | इसी कारण अनाथालय या वृद्धाश्रम की संख्या बढ़ती जा रही है और तलाक के मुकदमों की तो बाढ़ ही आ रही है | 

संघ के कार्यक्रम में वक्ता महोदय ने जिस सक्रियता की बात की वह वस्तुतः दायित्व को लेना और उसे निभाने को लेकर ही थी | जिस प्रकार पुरातन काल में सभी परिवार एक साथ उन्हें आवंटित किए गए वेदों की संबंधित शाखाओं की रक्षा करके वेदों की रक्षा कर रहे थे । इसी प्रकार हमारा समाज के प्रति भी उत्तरदायित्व है, उसे समझकर जिम्मेदारी निभाना ही भारत की सर्वांगीण उन्नति का एकमेव मार्ग है । 

इसके लिए सबसे आसान मार्ग है कि भारतीय जीवन मूल्यों को अपने जीवन में उतारना और उसके लिए अपने संपर्क में आने वालों को भी प्रेरित करना | भारतीय जीवन मूल्य अर्थात सबमें एक ही ईश्वर का वास है यह मान्यता, अर्थात हम सब एक ही हैं, अर्थात विविधता का सम्मान, मानव मात्र ही नहीं तो सम्पूर्ण प्रकृति का संरक्षण । हमारे जीवन में इन को प्रतिबिंबित करना अर्थात हमारे व्यवहार में अहंकारशून्यता, सबके साथ सामंजस्यपूर्वक व्यवहार और करुणा का समावेश । 

यही वह दायित्व है जो ईश्वर से हमारा संबंध जोड़ता है। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा हैं ' स्वकर्मणा तं अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः - अपने कर्म के साथ ईश्वर की आराधना करना अर्थात हमारे पास जो जिम्मेदारी है, उसे हम पूरी तरह निभाते हैं।' ' बदले में बिना किसी अपेक्षा के, ईश्वरीय कार्य की पूर्णता के लिए हम अपना निर्धारित समय अर्पित करते हैं, यही दायित्व है। 

एक माँ का दायित्व है अपने बेटे की देखभाल करना। बच्चों का दायित्व है अपने माता-पिता की देखभाल करना। अगर बच्चे के लिए प्यार और जागरूकता है तो वह माँ सबसे अच्छी माँ बन जाती है। या वे बेटा या बेटी सबसे अच्छी संतान बन जाते हैं जो प्यार और समझदारी से अपने माता-पिता का ध्यान रखते हैं। इसी तरह हमारी मातृभूमि के प्रति प्यार और यह समझ कि मैं यह काम अपनी साधना के रूप में कर रहा हूँ, हमें हमारे लक्ष्य “ व्यक्ति निर्माण और राष्ट्र निर्माण ’के लिए काम करने हेतु प्रेरित करेगी। यह अपनी पुण्यभूमि के प्रति प्यार और काम की आवश्यकता की समझ ही है, जिससे हम अपने दायित्व को सर्वोत्तम तरीके से पूरा करते है। 

इस गुरुपूर्णिमा के दिन, हमें उन लाखों गुरुओं, पिता और माताओं को याद करना होगा जिन्होंने हमारी परंपरा को जीवित रखने के लिए प्रयास किया । उनके बलिदान के कारण ही हम इस महान भूमि और महान संस्कृति में पैदा हुए हैं। उनके प्रति हमारी श्रद्धांजलि और कृतज्ञता के रूप में हमें अपने दायित्व को स्वीकार करना होगा और इश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करना होगा ताकि हम अपनी क्षमताओं और योग्यताओं को बढ़ाकर उन्हें पूरा कर सकें। 

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