धारा 370 - मोदी ने वह कर दिखाया, जो नेहरू चाहते हुए भी नहीं कर पाए ! – एस गुरुमूर्ति


एक दिलचस्प संस्मरण - नेहरू क्या करना चाहते थे, किन्तु नहीं कर सके । 


गृह मंत्री अमित शाह ने 6 अगस्त को घोषणा की कि अनुच्छेद 370 समाप्त हो चुका है और कश्मीर भारत के बाकी हिस्सों के साथ पूरी तरह से एकीकृत है | पता नहीं उनकी जानकारी में है या नहीं, किन्तु उन्होंने लगभग ठीक वही कहा जो जवाहरलाल नेहरू ने 56 साल पहले लोकसभा में 27 दिसंबर 1963 को कहा था। प्रस्तुत है यह दिलचस्प संस्मरण - 

नेहरू ने कहा था कि अनुच्छेद 370 पूरी तरह से अनुपयोगी हो गया है 

पंडित नेहरू ने गर्व से यह घोषणा की कि अनुच्छेद 370 “घिस चुका है और कश्मीर पूरी तरह से एकीकृत है” - जब यह विवादास्पद अनुच्छेद पूरी तरह लागू था, तब नेहरू के सहयोगी और तत्कालीन गृह मंत्री गुलजारीलाल नंदा ने एक कदम आगे बढ़कर संसद को बताया, “अनुच्छेद 370 खाली खोखे से अधिक कुछ नहीं है। इसमें अब कुछ भी नहीं बचा है; हम इसे एक दिन में, 10 दिन में, 10 महीने में कर सकते हैं। हम इस पर विचार कर रहे है। यह ” धारा 370 - एक अस्थायी, संक्रमणकालीन और तत्कालीन परिस्थितिजन्य प्रावधान था, जिसे मिटा दिया जाना चाहिए । यह कांग्रेस के नेहरू युग का अंतिम दौर था । 

उदारवादी नेहरू, जिन्होंने कश्मीर, तिब्बत और चीन के मामले में सरदार पटेल की एक न सुनी और एक प्रकार से उन्हें अपमानित किया, क्या एक दशक के बाद उदारवाद से राष्ट्रवाद की ओर बढ़ रहे थे ? इसका जवाब चाइना के परिणाम में निहित है। भारत की चीन से हुई अपमानजनक पराजय ने पंडित नेहरू के राजनीतिक प्रतिमान को बदल दिया। राष्ट्रवाद के प्रति उनकी सोच में परिवर्तन का जीता जागता प्रमाण है, 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने के लिए अपनी कट्टर शत्रु, आरएसएस को आमंत्रित करना। यह वही नेहरू थे, जिन्होंने 1948 में आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया था और यह घोषणा की थी कि वे " भारत में भगवा ध्वज फहराने के लिए के लिए एक इंच भूमि भी नहीं देंगे”। यह पूर्ण रूप से यू-टर्न था । 

1962 के युद्ध ने नेहरू को बदल दिया, जो उदारवादी पहले और राष्ट्रवादी बाद में थे, अब एक राष्ट्रवादी पहले और उदारवादी बाद में थे । लेकिन नेहरू अपने विचार में आये इस परिवर्तन को कृति रूप में प्रतिबिम्वित नहीं कर पाए, क्योंकि जल्द ही उनके स्वास्थ्य में गिरावट आई। 1963 में उनको पहला दिल का दौरा पड़ा, जनवरी 1964 में दूसरा और मई 1964 में अंतिम। और परिणाम स्वरुप नेहरू अपनी इच्छा को पूरी करने व अपनी गलतियों को सुधारने हेतु जीवित नहीं रह सके। 

परिणाम- नेहरू जो करना चाहते थे, या जो करने का उन्होंने विचार बनाया था, और उनके गृह मंत्री ने जिस काम को "दिन और महीनों में" करने का वादा किया था, उसे कांग्रेस दशकों तक नहीं कर सकी और इस प्रकार नेहरू का अधूरा एजेंडा अधूरा ही रहा । राष्ट्रवादी कांग्रेस छह दशक से भी अधिक समय तक यह कार्य नहीं कर सकी । 

राष्ट्रवादी कांग्रेस बनी वामपंथी कांग्रेस 

नेहरू और नंदा ने राष्ट्र के सम्मुख जो घोषणा की थी, आखिर कांग्रेस ने उसका पालन क्यों नहीं किया? और इससे भी बुरी बात यह है कि नेहरू खुद क्या चाहते थे, इससे परे, नेहरू के बाद की कांग्रेस ने धारा 370 को कश्मीरियत, उदारवाद, धर्मनिरपेक्षता और यहां तक ​​कि संघवाद के प्रतीक के रूप में स्वीकार कर लिया । यू-टर्न लेकर राष्ट्रवाद से दूर होने का मुख्य कारण है, 1970 के दशक के प्रारंभ और उसके बाद से कांग्रेस के दिमाग का वामपंथी अधिग्रहण । 

वामपंथी (अविभाजित सीपीआई) का इतिहास सदा से भारत विरोध का रहा है। इसने दो आधारों पर विभाजन का समर्थन किया था - एक, हिंदू मुसलमानों पर अत्याचार करेंगे; और दूसरा यह कि मुस्लिम लीग प्रगतिशील जिन्ना के अधीन हो गई थी| जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में, देश सोवियत रूस की इस्पाती पकड़ में था, उन दिनों सीपीआई नेताओं का एक समूह कांग्रेस में शामिल हो गया, उनमें से ही एक मोहन कुमारमंगलम थे जिन्होंने कानून मंत्री के रूप में इंदिरा गांधी को संविधान को तोड़ने में मदद की, और दूसरे नूरुल हसन थे जिन्होंने जेएनयू को राष्ट्र के भीतर से तोड़ने का हथियार बनाया । और तभी राष्ट्रवादी कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस में परिवर्तित हो गई। इंदिरा गांधी द्वारा 1971 का युद्ध जीतने और कश्मीर को शिमला समझौते के माध्यम से एक द्विपक्षीय मुद्दे के रूप में बदल देने के बाद, उन्होंने मान लिया कि पाकिस्तान फिर से कश्मीर मुद्दा नहीं उठाएगा। 

इंदिरा ने अति-आत्मविश्वास के चलते 1974 में शेख अब्दुल्ला के साथ एक समझौता किया, जिसने पंडित नेहरू द्वारा चालू की गई धारा 370 के क्षरण की प्रक्रिया को प्रभावी रूप से उलट दिया। धीरे-धीरे अनुच्छेद 370, जो स्वभावतः एक भयावह शब्द था, एक महान शब्द के रूप में परिभाषित किया जाने लगा और बाद में तो उसे भारत और कश्मीर के बीच का एकमात्र पुल माना जाने लगा। बाद में, 1971 के युद्ध में हुई अपमान जनक पराजय के बाद, पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जनरल ज़िया ने कश्मीर में कम लागत का युद्ध शुरू करने के लिए रणनीतिक रूप से युवाओं को हथियारबंद जिहादियों में परिवर्तित कर दिया । भारत का सत्ता प्रतिष्ठान जिसने अनुच्छेद 370 को धर्मनिरपेक्षता का पर्याय मान लिया था, इस दुष्ट रणनीति से निपटने में पूरी तरह अक्षम साबित हुआ और 1980 के दशक का अंत आते आते तो घाटी पूरी तरह से उग्रवादियों के अधीन हो गई, नतीजा यह हुआ कि पांच लाख कश्मीरी पंडित अपने ही देश में शरणार्थी बनने को विवश हुए । 

तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार और जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल जगमोहन ने कश्मीर को पुनः प्राप्त करने के लिए, भरसक प्रयत्न किये, किन्तु वे पर्याप्त सिद्ध नहीं हुए । धर्मनिरपेक्ष भारतीय प्रतिष्ठान ने उग्रवाद से निबटने की अपनी लाचारी को छुपाया और कश्मीर को भारत के साथ बनाए रखने की एकमात्र आशा के रूप में अनुच्छेद 370 को बार-बार महिमामंडित किया। कश्मीर में मुख्यधारा के पारिवारिक दलों के लिए तो अनुच्छेद 370 एक प्रकार से लूट के लिए मिला सुरक्षा कवच था । हुर्रियत ने कमजोर भारतीय सरकार का मजाक बनाया और बार-बार भारत को ब्लैकमेल किया। 

इसने पाकिस्तान को अपनी आतंकी मशीन को भारत की मुख्य भूमि की ओर मोड़ने के लिए प्रेरित किया। लेकिन नपुंसक भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान ने चुपचाप सहन करने का मार्ग ही चुना । 2008 में, जब पाकिस्तानी आतंकवादियों ने मुम्बई को पूरे तीन दिनों तक दहलाए रखा और टीवी स्क्रीन पर अपनी बर्बरता प्रदर्शित की, सैकड़ों लोग मारे गए, तब भारत पीओके की दिशा में चल सकता था, लेकिन इसके बजाय कांग्रेस, वामपंथियों और उदारवादियों ने शांति के लिए कैंडललाइट जुलूस शुरू किये, जिसमें कुछ लोगों के कृत्य से उत्तेजित न होने के लिए कहा गया। 

लेकिन आतंक के भस्मासुर ने शीघ्र ही अपने जन्मदाता पाकिस्तान को ही निशाना बना लिया । और एक अति-दयालु भारत ने पाकिस्तान को आतंक के निर्माता के रूप में प्रचारित करने के स्थान पर, भारत के समान ही आतंक के शिकार होने का प्रमाण पत्र देने में विलम्ब नहीं किया त नहीं किया ! जब दुनिया ने टीवी पर CIA के नेतृत्व वाले अमेरिकी ऑपरेशन में मारे गए ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान के सुरक्षित घर में देखा, तो दुनिया हमारी अपरिपक्वता पर हंसी। फिर भी, भारत आतंकवादी पाकिस्तान के साथ शांति वार्ता की अपनी लाइन पर चलता गया। वामपंथी कांग्रेस के प्रतिमान ने मानवाधिकारों को लेकर सेना को लगातार हतोत्साहित किया, हीलिंग टच देने के नारे लगाए और विश्वासघाती हुर्रियत और आतंकवादियों के साथ शांति वार्ता की वकालत की। राज्य के संरक्षण में चरमपंथियों और आतंकवादियों ने कश्मीर के राजनीतिक पारिस्थितिकी तंत्र को नियंत्रित किया। राष्ट्रवादी पार्टी से कांग्रेस धीरे-धीरे उदारवादी और फिर वामपंथियों की बी-टीम बन गई, जिससे भाजपा को कांग्रेस द्वारा खाली किए गए राष्ट्रवादी अंतरिक्ष में उड़ान भरने में मदद मिली। 

निरस्त करने से पूर्व की तैयारी - 

भाजपा के लिए, धारा 370 को निरस्त करना कोई त्वरित विचार या एक अल्पविकसित योजना नहीं थी। जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने की भाजपा की कोशिश 2015 में पीडीपी के साथ सत्ता के रणनीतिक बंटवारे के साथ शुरू हुई, बिना किसी लोभ के उसने अपने कट्टर दुश्मन से हाथ मिलाया। केंद्र और कश्मीर में भाजपा का सत्ता में होना, आतंकवादियों के गले में पड़ा पत्थर सिद्ध हुआ, और बाद की घटनाओं ने तो उनकी कमर ही तोड़ दी । 2016 तक के चार वर्षों में पत्थर फेंकने की घटनाओं की संख्या 3,415 थी। 2017 में यह सिर्फ 51 रह गई, और 2018 में तो इससे भी कम, महज 15 । चरमपंथियों की दुनिया से विदाई में 44% की वृद्धि हुई, जबकि उनके द्वारा मारे गए लोगों की संख्या में 62.5% की गिरावट आई और घायलों की संख्या में तो 94% की कमी आई। जब स्थिति में सुधार शुरू हुआ, तो भाजपा ने महबूबा को छोड़ने का मार्ग चुना और राष्ट्रपति शासन लगाया, जिसका अर्थ था उनका अपना शासन, लेकिन दिल्ली से। आतंकवादियों और अलगाववादियों पर छापे मारे गए और उन्हें कानून का सामना करना पड़ा, जो कश्मीर में किसी ने सोचा भी नहीं था, इसने उनकी जड़ों को हिला दिया। 

इसका असर 2018 के स्थानीय निकाय चुनावों में सबसे ज्यादा सामने आया, जब हुर्रियत और आतंकवादियों के खतरे के बीच महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला के बहिष्कार के बावजूद नगर निगम चुनावों में, 58% मतदान हुआ। पंचायत चुनावों में 80% मतदान हुआ। कश्मीर नगरपालिका निकायों में, बीजेपी ने 100 सीटें जीतीं और कांग्रेस ने 178 । जम्मू में, बीजेपी ने 43, कांग्रेस ने 18 सीटें जीतीं। स्थानीय निकाय चुनावों की सफलता ने दो स्थानीय पारिवारिक दलों - पीडीपी और नेकां के प्रति जनमानस के मोहभंग को रेखांकित किया। J & K को समझने में पूरे पांच साल लगे, अब J & K पर भाजपा का होमवर्क पूरा हो गया था। अब स्थानीय निकायों के निर्वाचित सदस्यों से संबंधित कार्य होना शुरू हुआ और केंद्र द्वारा बिना किसी राजनीतिक बिचौलियों के सीधे उन्हें पैसे भेजे जाने लगे । इसने कश्मीर में पिरामिड के तल पर उन लोगों के साथ प्रत्यक्ष तालमेल स्थापित किया, जो अतीत में कभी दिल्ली के पास तक नहीं फटके थे। इसके साथ ही, वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र भी अपने पक्ष में हुआ। 

इस बढ़ते दबदबे के साथ, अब भारत अपने विचारों को उच्च और शक्तिशाली लोगों को सुना सकता है। भारत की सामर्थ्य ने पाकिस्तान को बौना बना दिया है | सर्जिकल स्ट्राइक और पुलवामा हमले के बाद बालाकोट में लिये गये बदले को दुनिया ने भारत द्वारा अपने लोगों और क्षेत्र की सुरक्षा के लिए की गई, वास्तविक कार्रवाई के रूप में स्वीकार किया गया । कांग्रेस के शासन में और मोदी के सत्ता में आने से पहले, इसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। 

मोदी सरकार ने न केवल कश्मीर या पाकिस्तानी आतंकवाद के बारे में, बल्कि पाकिस्तान के असंदिग्ध बुरे चरित्र के बारे में भी दुनिया की धारणा बदल दी है। इसने भारत को विश्व राजनीतिक परिद्रश्य को संभालने में सक्षम बनाया, यहां तक ​​कि उसने अमेरिका को 370 समाप्त करने के अपने कदम के बारे में पहले से ही सचेत कर दिया। यह है स्थानीय राजनीति से विश्व-राजनीति तक विस्तारित अनुच्छेद 370 को रद्दी की टोकरी में फेंकने का होमवर्क। 

इस गहन होमवर्क के साथ, 2019 के चुनावों में मिले भारी जनादेश की दम पर,, जिसमें विपक्ष को पूरी तरह से खारिज कर दिया गया, स्वाभाविक ही मोदी और शाह के लिए अनुच्छेद 370 को रद्द करने का समय आ गया था। भाजपा और भाजपा के पूर्ववर्ती अवतार जनसंघ द्वारा लंबे समय से किये यह वादा किया जाता रहा था कि अगर उसे पूर्ण बहुमत मिलता है, तो धारा 370 को समाप्त किया जाएगा | इसे निरस्त कर, मोदी सरकार ने न सिर्फ अपने वादे को पूरा किया है, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि कांग्रेस और यहां तक ​​कि पंडित नेहरू भी इस अनुच्छेद को समाप्त कर देना चाहते थे, लेकिन नहीं कर पाए।
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