पितृ पूजा का मतलब प्रेतपूजा नही - संजय तिवारी
0
टिप्पणियाँ
पितृपक्ष में पितरों की पूजा का अर्थ प्रेतपूजा कदापि नही है। यह ऐसी पूजा है जिसमे अपनी समस्त सनातन संस्कृति की आराधना शामिल है। समस्त ऋषि, समस्त दिशाएं, समस्त लोक, समस्त देवी और देवता, समस्त अंतरिक्ष, ब्रह्मांड, और उसमें विचरण कर रहे हमारे कुल के पूर्वज। यह वास्तव में अपनी सनातनता की आराधना है। यह पूरे वर्ष प्रतिदिन संभव नही इसलिए वर्ष के इन 15 दिनों में इनके महाप्रस्थान की तिथियां प्रतीक्षा की तिथि होती है। यह पवित्रतम पक्ष है जिसमे हमारे पूर्वज हमारे समीप होते हैं। वे हमारे देवता हैं इसीलिए इन दिनों में अपनी सामान्य पूजा के देवताओं से पूर्व उनको अभिषिक्त किया जाता है।
पितृपक्ष वस्तुतः सृजन और सृष्टि में जीवन का महाविज्ञान है जिस पर बहुत शोध और अध्ययन की आवश्यकता है। यह विज्ञान गहन है। हमारे अस्तित्व की आधारशिला है। इस महाविज्ञान को अपनी सांस्कृतिक पराधीनता में यदि भूल गए हैं तो इसके दोषी हम स्वयं हैं न कि हमारे शास्त्र और परंपराएं।
देवी-देवताओं और परमात्मा की उपासना का विधान हमारी परंपराओं में हैं लेकिन विशिष्ट अवसरों पर पितरों का स्मरण और उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्त करना भी हमारी जीवन संस्कृति का वह अनिवार्य अंग है जिससे हम मुक्त नहीं हो सकते। उत्तरक्रिया से लेकर साल भर मृत्यु तिथि, संवत्सरी - वार्षिक तिथि और श्राद्ध के समय पितरों को हमसे यह अपेक्षा रहती है कि हम उनके लिए वह सब करें जो पितरों की ऊध्र्वगामी यात्रा के लिए मददगार हो और ऊपर तक के लोकों या कि पुनर्जन्म की उनकी यात्रा सहज हो जाए।यह वैज्ञानिक तथ्य है कि अपने पितरों के लिए जो कुछ इन दिनों में करते हैं उसका फल उन्हें प्राप्त होता है और उनकी प्रसन्नता हमारे लिए वरदान बनी रहकर जीवन को आसान व निष्कण्टक बनाती है। यही कारण है कि श्राद्ध और विशिष्ट अवसरों पर हमें पितरों के प्रति श्रद्धा भाव से विधि-विधान को प्रसन्नतापूर्वक निभाना चाहिए। ऎसा नहीं करने पर पितरों की अप्रसन्नता का अनिष्ट सामने आता ही है।
हमारी जन्मकुण्डली और गोचर में विद्यमान ग्रहों-नक्षत्रों की पूर्ण अनुकूलताओं और सम सामयिक माहौल के सकारात्मक तथा अपने पक्ष में अनुकूल होने के बावजूद हमारे साथ नकारात्मक घटनाएं घटती रहें, सफलता के शिखरों तक पहुंच जाने के बाद आकस्मिक संकट आ जाए और सफलता एक ही झटके में दूर चली जाए, किसी उपलब्धि के करीब पहुँच जाने के बाद अचानक कोई न कोई व्यवधान आ जाए, इसका सीधा और स्पष्ट संकेत यही है कि पूर्वजों अर्थात पितरों के प्रति हमारी कोई न कोई उदासीनता रही है और पितर हमसे अप्रसन्न हैं।
हममें से काफी लोग हैं जो देवी-देवताओं की उपासना से भी अधिक महत्त्व पितरों को देते हैं और पितरों को प्रसन्न करने के लिए जो-जो जतन करते हैं उनकी भी कोई सीमा नहीं है। कुछ लोग अपने वाहनों से लेकर घरों तक पर पितृ कृपा लिखवाते हैं, कुछ लोग रोजाना पितरों के नाम से दीया जलाते हैं और भोग-चढ़ावा आदि काफी जतन करते हैं। ये लोग पितरों को अपने मामूली से मामूली कामों के लिए प्रार्थनाओं द्वारा आह्वान करते हुए तंग करते रहते हैं जबकि पितरों का स्मरण उनकी मृत्यु तिथि या श्राद्ध के सिवा करने का कोई विधान नहीं है। किसी यात्रा या अनुष्ठान से पूर्व नांदीश्राद्ध या पितर पूजा का अवसर संभव है लेकिन पितरों का रोजाना स्मरण उनकी ऊध्र्वगति को बाधित करता है और उन्हें नीचे के लोकों में आने पर कष्ट का अनुभव होता है।
कई बार पितर हमसे अप्रसन्न होते हैं तब किसी न किसी सूक्ष्म प्रभाव से कोई न कोई संकट खड़ा कर देते हैं। यह इस बात का संकेत होता है कि हम पितरों के प्रति अपनी कोई न कोई जिम्मेदारी भुला बैठे हैं और ऎसे में हम उनकी अवहेना करते हैं तब पितरों द्वारा आभासी अनिष्ट दिखाया जाता है।
इन सारी बातों का सार यही है कि हमारे दिवंगत पितरों की मुक्ति के लिए प्रयास करना हमारी जिम्मेदारी है। पितरों की स्वाभाविक ऊपरी लोकों की ओर जाने की यात्रा को बाधित न करें बल्कि शास्त्रोक्त उन प्रयासों को अपनाएं जिनसे पितरों को मुक्ति प्राप्त हो। पितरों को अपनी ऎषणाओं के लिए मंत्रों, प्रार्थनाओं या टोनों-टोटकों से बाँधकर रखने से अन्ततोगत्वा हमारा ही नुकसान है।
पितरों को हमसे यही अपेक्षा रहती है कि हम उन्हें किसी न किसी प्रकार के धर्मशास्त्रीय अनुष्ठानों, श्राद्ध, दान-पुण्य, भागवत सप्ताह, तर्पण आदि विधि-विधानों से मुक्त करें। पितरों की मुक्ति होने पर उनका हमें जो आशीर्वाद प्राप्त होता है वह जीवन भर के लिए आनंद का सृजन करने वाला होता है।
संस्थापक - भारत संस्कृति न्यास
वरिष्ठ पत्रकार
|
एक टिप्पणी भेजें