श्रीमन्नारायण की आराधना ही है पितृपूजा - संजय तिवारी

प्रितिपक्ष की पितृ पूजा भी श्रीमन्नारायण की ही आराधना है। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि वह पितरों में अर्यमा नामक पितर हैं। यह कह कर श्री कृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि पितर भी वही हैं। पितरों की पूजा करने से भगवान विष्णु यानि उसी परब्रह्म की ही पूजा होती है। भारतीय जीवन संस्कृति की अति महत्वपूर्ण विशेषता है अपने पूर्वजो के प्रति सम्मान की भावना। इसी सम्मान की अभिव्यक्ति के लिए हमारी सांस्कृति यात्रा में पितृपक्ष के रूप में वर्ष के पंद्रह दिन एक वार्षिक पड़ाव के रूप में आते है। इन दिनों में भारत की संस्कृति में विशवास करने वाला प्रत्येक मनुष्य अपने पितरो को याद करता है। यह अद्भुत परंपरा है जो सृष्टि के साथ ही विधान के रूप में चली आ रही है। सृष्टि में इस पृथ्वी नाम के उपग्रह पर मनुष्य जो जीवन व्यतीत करता है उसके बाद भी उसकी जीवन यात्रा चलती रहती है। सूक्ष्म रूप ग्रहण करने के बाद पृथ्वी वाला शरीर छोड़ चुके प्राणी की उस अनंत यात्रा को सफल और सुगम बनाने के लिए आवश्यक होता है कि उसके वंशज उसे श्रद्धा और सम्मान के साथ उस यात्रा के योग्य सुविधा संपन्न करे। इसी कार्य के लिए हमारे यहाँ पितृ पक्ष का विशिष्ट महत्व होता है।

श्राद्धपक्ष 

पितृ पक्ष को श्राद्ध पक्ष के रूप में जाना जाता है, पितृपक्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को चालू होता है और सर्वपितृ अमावस्या पर 16 दिनों के बाद समाप्त होता है। पितृ पक्ष में हिन्दू अपने पूर्वज (पितृ) की पूजा करते हैं, खासकर उनके नाम पर भोजन दान और तर्पण के द्वारा। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार पितृ पक्ष के 16 दिनों में पितरों को यमलोक से मुक्त किया जाता है और उन्हें पृथवी पर जाने की इजाजत होती है। इन दिनों में श्रध्दापूर्वक पितरो को याद कर उनके लिए विधि पूजन , पिंड दान और तर्पण का विधान हमारे शास्त्रो में बताया गया है। पितर दो प्रकार के होते है -

आजान पितर -

जिन पितरो की अंतिम क्रिया और संस्कार पूरी विधि और श्रद्धापूर्वक की जाती है वे आज़ान पिटर कहलाते है। इन पितरो को अपने वंशजो से पूर्ण श्रद्धा मिलती है और ये तृप्त होकर आज़ान पितर बन कर स्थापित होते है। वह से फिर अपने अपने प्रारब्ध के अनुसार इनकी मुक्ति या पुनर्जन्म की व्यवस्था बनाती है। इन्हें अपने वंशजो से किसी प्रकार की अतृप्ति नहीं होती। 

मर्त्यपितर -

वे पितर जिनका श्रद्धा कर्म और अंतिम क्रिया विधि पूर्वक नहीं होती है वे सदैव अतृप्त होकर मर्त्य पितर के रूप में भटकते रहते है। इनको आज़ान बनाने का अवसर नहीं मिलपाता और ये सदैव अपने वंशजो की प्रतीक्षा में रहते है। पितरलोक में इनको स्थान ही नहीं मिलता। ये पितरलोक में प्रवेश के लिए अपने वंशजो द्वारा श्राद्ध कर्म किये जाने की हमेशा प्रत्यक्ष करते है।

शास्त्रो के अनुसार जब मनुष्य का अंतिम संस्कार विधिपूर्वक करने के बाद उसकी संतान के द्वारा पिंडोदक और पिंडछेदन की क्रिया सम्पन करा दी जाती है तब उस आत्मा को आजान पितर के रूप में पितरलोक में स्थान मिल जाता है और अपने वंशजो से उसकी कोई अन्य अपेक्षा शेष नहीं रह जाती। पितरो के प्रति इसी श्रद्धा की पूर्ति के लिए शास्त्रो ने विधान तय कर इस कार्य के लिए उत्तर भारत में गया जी नामक स्थान को निर्धारित किया है जहा प्रतिवर्ष पितृपक्ष में लोग अपने पितरो को अपनी श्रद्धा पूर्ण कर आजान पितर के रूप में पितरलोक में स्थापित करने जाते है।

सूक्ष्म शास्त्रीय विभाजन 

आजान और मर्त्य पितरों के स्वरुप को शाश्त्रो ने और भी सूक्षम रूप से विभाजित किया है। इस विभाजन को भी समझ लेना उचित होगा। पितरों के पर, मध्यम, और अवर रूप से तीन विभाजन बताये गए हैं। पितरों का एक अन्य प्रकार का विभाजन उनके स्थान एवं स्थिति की दृष्टि से भी किया गया है। यहाँ पितरों के स्थान से तात्पर्य है कि वह ऋषि- प्राणात्मक-ऊर्जा जो कि सृष्टि के किसी कार्य विशेष के सम्पादन हेतु जहाँ स्थित है तो समझने की दृष्टि से उस स्थान के नाम से उस पितृ- प्राणात्मक -ऊर्जा को नाम विशेष से जाना जाता है। इस प्रकार स्थान के आधार पर पितरों का विभाजन किया गया है। पितर प्राणात्मक ऊर्जा की अन्तरिक्ष में तीन स्थितियाँ हैं। इसी कारण उनके तीन प्रकार के विभाजन हैं—वसु नाम से जाने जाने वाले पितर, रुद्र नाम से जाने जाने वाले पितर और आदित्य रूप से जाने जाने वाले पितर। इनमें वसु नामक पितर पिता कहे गये हैं। रुद्र नामक पितर पितामह यानि दादा कहे गये हैं, एवं आदित्य नामक पितर प्रपितामह यानि परदादा रूप से कहे गये हैं। इसका एक वर्णन मनुस्मृति में प्राप्त होता है—

वसून्वदन्ति तु पितृन् रुद्राँश्चैव पितामहान्।
प्रपितामहाँस्तथादित्यान् श्रुतिरेषा सनातनी।।

मनुस्मृति 3.284

शास्त्र कहते हैं कि मुख्य देव एक ही है जिसे प्राण कहा जाता है। यह प्राण अग्निरूप है, जिसे अर्क कहते हैं। इसी एक देव के लोक भेद से तीन स्वरूप हैं, पृथ्वी सम्बन्धी अग्नि, अन्तरिक्ष सम्बन्धी वायु और द्युलोक सम्बन्धी आदित्य। जिस प्रकार अग्नि के ये तीन भेद बताये हैं। उसी प्रकार अग्नि के पूरक सोम के भी लेाक में समझाने की दृष्टि से तीन भेद बताये गये हैं। द्युलोक में सोम, अन्तरिक्ष में वायु और पृथ्वी पर जल से यह सोम भी तीन प्रकार का होता है। पत्थर से जल और जल से वायु में ठोस की मात्रा कम होती चली जाती है। जिसे वेद विज्ञान की भाषा में कहा गया है कि घनता का कम होना कहा जाता है।

जल यह पितृ कार्य में अत्यावश्यक तत्त्व है यहाँ सक्षिप्त में बता दें कि यह जल ब्रह्माण्ड में चार प्रकार का बताया गया है। सूर्य से भी ऊपर यानि हमारे सौर मण्डल से बाहर जल का जो स्वरूप है उसे अम्भ: कहा है जो कि अत्यन्त विरलावस्था है। हमारे सौरमण्डल में भी स्वतन्त्र रूप से जल की मात्रा पायी जाती है। इस प्रकार सौरमण्डल में पाये जाने वाले जल को मरीचि: कहते हैं, पृथ्वी पर दृश्यमान् जल मर: कहा जाता है तथा चन्द्रमा में जो जल है व श्रद्धा कहा है।

इसी प्रकार यम नामक प्राण पितृप्राण के भी तीन प्रकार है उनके पुन: आपस में चौदह भेदोपभेद हैं।सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एंव लय यानि नाश इनके ही अधीन होता है। यानि तीन प्रकार की प्राणात्मक अग्नि पितरीय ऊर्जा, तीन प्रकार की सोमपितरीय ऊर्जा एवं तीन प्रकार की यमपितरीय ऊर्जा के द्वारा ही सृष्टि उत्पन्न् होती है, ठहरती है और नष्ट हो जाती है। इसी कारण इस ऊर्जा को ही पितर नाम से जाना जाता है। इन तीन प्रकार की ऊर्जाओं में सोम नामक ऊर्जा उत्पत्ति से सम्बन्धित है, अग्नि जीवन चलने से सम्बन्धित है एवं यम मृत्यु से सम्बन्धित ऊर्जा का स्वरूप है। यही सृष्टिक्रम है। इन ऊर्जाओं का हमारे सौर मण्डल में चतुर्दिक अर्थात् चारों ओर संचरण चलता रहता है। जिस प्रकार चुम्बकीय तरंगों का संचरण सभी दिशाओं में होता है। अब यहाँ से पितरों को समझने के लिये पृथ्वी पर आधारित होकर सोचना होगा। ऐसे में यह तीन प्रकार पित्रात्मक ऊर्जाओं का पृथ्वी के चारो ओर संचरण होता है। यह समझा जाना चाहिये एवं तीना पित्रात्मक ऊजाओं का एक निश्चित मार्ग है।

आग्नेयपितृ:

दक्षिणाकाश से उत्तर की ओर गतिशील हैं, इन्हें आंगिरस या अवर पितृ अथवा आग्नेय पितृ भी कहा है।

याम्यपितर

ये मध्याकाश से निरन्तर नीचे की ओर गिरते हैं, ये मध्यम पितर कहे जाते हैं।

भृगु पितर

ये उत्तराकाश से दक्षिण की ओर गतिशील रहते हैं। इन्हें पर पितृ या सौम्य पितृ भी कहा जाता है।

ये तीनों प्रकार के पितर नित्य हैं एवं प्रकृति रूप से पितर हैं। कहने का तात्पर्य है इनका जन्म नहीं हो रहा ।
यहाँ तक जो हमने पितरों की उत्पत्ति आदि का वर्णन किया है यह तो सृष्टि की उत्पत्ति की प्राकृतिक व्याख्या है। विभिन्न तत्त्वों एवं ऊर्जाओं के मिलने से जो परिस्थितियाँ बनती हैं। वही वर्णित हैं। यह प्रक्रिया ईश्वर से सृष्टि उत्पत्ति की प्रक्रिया है।

इन तीन प्रधान पितरों से तीन पितरों की उत्पत्ति होती है। दिव्यपितृ, ऋतुपितृ, तथा प्रेतपितृ।

दिव्यपितृ:— दिव्यपितृ पुन: तीन प्रकार के कहे गये हैंं— अन्नविधा:, अन्नादविधा: और अनुभयविधा:। इनमें अन्नविधा: पुन: तीन प्रकार के हैं—

(अ) अग्निष्वात्त अग्नि में रहने से अग्निष्वात्त कहे गये हैं। ये अग्निष्वात्त पितर, भृगु नामक ऋषि प्राणात्मक ऊर्जा से प्राणित है।

(ब) बर्हिषद: औषधि व वनस्पति आदि में रहने से बर्हिषद कहे गये हैं। बर्हिषद पितर अंगिरस नामक ऋषि प्राणात्मक ऊर्जा से प्राणवान् है।

(स) सोमसद:— जल स्नेह आदि आर्द्रद्रव्यों में रहने वाले पितर सोमसद कहे गये हैं। ये पितर अत्रि नामक ऋषि प्राणात्मक ऊर्जा से अनुप्राणित हैं।

अन्नविधा: पितृ भी तीन प्रकार के हैं

हविर्भुज:

इन पितरों में अंगिरस अथवा पुलह नामक ऋषि प्राणात्मक ऊर्जा का समावेश होता है। 

आज्यपा: 

इनमें पौलस्त्य नामक ऋषि ऊर्जा प्रवाहित होती है। 

सोमपा: 

इन पितर में काव्य व वैराज नामक ऋषि प्राणात्मक ऊर्जा का संचरण होता है। अनुभयविध पितृ सुकाली अथवा सुस्वधा नाम से कहे गये हैं। इनका प्रत्यक्ष रूप से एक ही प्रकार कहा है। इनमें सोमप व वसिष्ठ ऋषि विद्यमान हैं।

पूजा से ही पितृ दोष से मुक्ति 

विवाह के कई वर्षो बाद भी संतान सुख प्राप्त नहीं हो पा रहा हो ,वंश वृद्धि नहीं हो पा रही हो ,यदि आपके परिवार में अस्थिरता का वातावरण हो, परिवारजन मानसिक तनाव के दौर से गुजर रहे है , घर मे कलह क्लेश का वातावरण हमेशा बना रहता है , यदि आपको पग पग पर बाधा का सामना करना पड़ रहा है ,यदि आप किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित है तो मत्स्यपुराण का संकेत यह कहता है कि आपके घर मे पितृ दोष है यानि आपके घर के पितृ अतृप्त हैं| क्या आप अपने घर के पितरो की शांति के लिए साल मे एक बार आने वाले पितृ पक्ष मे पिंड दान, तर्पण और उनके निमित्त किये जाने वाले श्राद्ध श्रदा पूर्वक करते है ? जिस तरह आप अपने और अपने परिवार जनों के जन्म दिन मनाते है, शादी की साल गिरह बड़ी धूम धाम से मनाते है , साल मे आने वाले कई त्योहारों को श्रधा पूर्वक मनाते है और लाखो रुपये खर्च कर देते है पर क्या आप उतने ही धूम धाम से साल मे सिर्फ 15 दिन चलने वाले पितृ पक्ष पर्व मे अपने पितरो को ,आपके उन परिजनों को जो अब इस दुनिया मे नहीं है के नाम से श्राद्ध करते है, क्या आप पितृ पक्ष मे पिंड दान और तर्पण करके ब्रह्मिनो को भोजन कराते है ? जो मनुष्य अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार, श्रद्धा, तर्पण आदि विधिपूर्वक न करके उसे सिर्फ व्यर्थ व औपचारिक समझते हैं उन्हें पैतृक प्रकोप से शारीरक कष्ट, आंतरिक पीड़ाएँ, बुरे स्वप्न, या स्वप्न में पूर्वजों का दर्शन, संतानहीनता, अकाल मृत्यु, धन, हानि, परिवार में कलह, दुर्घटना व अपमान प्राप्त होता है। उस घर व उस परिवार का किसी प्रकार का कल्याण नहीं होता है.वही जो मनुष्य पितृ पक्ष मे तत्परता से श्राद्ध आदि कर्म करते हैं, उनके पूर्वजों को गति से सुगति प्राप्त होती हैं। परिणमतः उनकी (श्राद्ध) कर्ता की प्रगति व उन्नति होती है। सुख, शांति, यश, वैभव, स्वस्थ जीवन, पुत्र, धन आदि उसे प्राप्त होते हैं।

अपात्र से न कराएं श्राद्ध 

श्राद्ध करने का सीधा संबंध पितरों यानी दिवंगत पारिवारिक जनों का श्रद्धापूर्वक किए जाने वाला स्मरण है जो उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता हैं। अर्थात पितर प्रतिपदा को स्वर्गवासी हुए हों, उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही होगा। इसी प्रकार अन्य दिनों का भी, लेकिन विशेष मान्यता यह भी है कि पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते हैं जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, यानी दुर्घटना, विस्फोट, हत्या या आत्महत्या अथवा विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है। साधु और सन्यासियों का श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन और जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है।जीवन मे अगर कभी भूले-भटके माता पिता के प्रति कोई दुर्व्यवहार, निंदनीय कर्म या अशुद्ध कर्म हो जाए तो पितृपक्ष में पितरों का विधिपूर्वक ब्राह्मण को बुलाकर दूब, तिल, कुशा, तुलसीदल, फल, मेवा, दाल-भात, पूरी पकवान आदि सहित अपने दिवंगत माता-पिता, दादा ताऊ, चाचा, पड़दादा, नाना आदि पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करके श्राद्ध करने से सारे ही पाप कट जाते हैं। यह भी ध्यान रहे कि ये सभी श्राद्ध पितरों की दिवंगत यानि मृत्यु की तिथियों में ही किए जाएं।यह मान्यता है कि ब्राह्मण के रूप में पितृपक्ष में दिए हुए दान पुण्य का फल दिवंगत पितरों की आत्मा की तुष्टि हेतु जाता है। अर्थात् ब्राह्मण प्रसन्न तो पितृजन प्रसन्न रहते हैं। अपात्र ब्राह्मण को कभी भी श्राद्ध करने के लिए आमंत्रित नहीं करना चाहिए। मनुस्मृति में इसका खास प्रावधान है।

किसका श्राद्ध कौन करे

पिता के श्राद्ध का अधिकार उसके पुत्र को ही है किन्तु जिस पिता के कई पुत्र हो उसका श्राद्ध उसके बड़े पुत्र, जिसके पुत्र न हो उसका श्राद्ध उसकी स्त्री, जिसके पत्नी नहीं हो, उसका श्राद्ध उसके सगे भाई, जिसके सगे भाई न हो, उसका श्राद्ध उसके दामाद या पुत्री के पुत्र (नाती) को और परिवार में कोई न होने पर उसने जिसे उत्तराधिकारी बनाया हो वह व्यक्ति उसका श्राद्ध कर सकता है।पूर्वजों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध शास्त्रों में बताए गए उचित समय पर करना ही फलदायी होता है।

तर्पण और श्राद्धकर्म के लिए श्रेष्ठ समय 

पितृ शांति के लिए तर्पण का श्रेष्ठ समय संगवकाल यानी सुबह 8 से लेकर 11 बजे तक माना जाता है। इस दौरान किया गया जल से तर्पण पितरों को तृप्त करने के साथ पितृदोष और पितृऋण से मुक्ति भी देता है। इसी प्रकार शास्त्रों के अनुसार तर्पण के बाद बाकी श्राद्ध कर्म के लिए सबसे शुभ और फलदायी समय कुतपकाल होता है। ज्योतिष गणना के अनुसार यह समय हर तिथि पर सुबह 11.36 से दोपहर 12.24 तक होता है।ऐसी धार्मिक मान्यता है कि इस समय सूर्य की रोशनी और ताप कम होने के साथ-साथ पश्चिमाभिमुख हो जाते है। ऐसी स्थिति में पितर अपने वंशजों द्वारा श्रद्धा से भोग लगाए कव्य बिना किसी कठिनाई के ग्रहण करते हैं।

श्राद्ध की विधि 

जिस तिथि को आपको घर मे श्राद्ध करना हो उस दिन प्रात: काल जल्दी उठ कर स्नान आदि से निवृत्त हो जाये . पितरो के निम्मित भगवन सूर्य देव को जल अर्पण करे और अपने नित्य नियम की पूजा करके अपने रसोई घर की शुद्ध जल से साफ़ सफाई करे, और पितरो की सुरुचि यानि उनके पसंद का स्वादिष्ट भोजन बनाये | भोजन को एक थाली मे रख ले और पञ्च बलि के लिए पांच जगह 2 - 2 पूरी या रोटी जो भी आपने बनायीं है उस पर थोड़ी सी खीर रख कर पञ्च पत्तलों पर रख ले| एक उपला यानि गाय के गोबर का कंडे को गरम करके किसी पात्र मे रख दे| अब आप अपने घर की दक्षिण दिशा की तरफ मुख करके बैठ जाये| अपने सामने अपने पितरो की तस्वीर को एक चोकी पर स्थापित कर दे| एक महत्वपूर्ण बात जो मै बताना चाहता हू वो यह है की पितरो की पूजा मे रोली और चावल वर्जित है। रोली रजोगुणी होने के कारण पितरों को नहीं चढ़ती, चंदन सतोगुणी होता है अतः भगवान शिव की तरह पितरों को भी चन्दन अर्पण किया जाता है। इसके अलावा पितरों को सफेद फूल चढ़ाए जाते हैं तो आप भी अपने पितरो को चन्दन का टिका लगाये और सफ़ेद पुष्प अर्पण करे| उनके समक्ष धूप और शुद्ध घी का दीपक जलाये. हाथ जोड़ कर अपने पितरो से प्रार्थना करे।

नारायण पूजा ही है पितृपूजा 

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि वह पितरों में अर्यमा नामक पितर हैं। यह कह कर श्री कृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि पितर भी वही हैं पितरों की पूजा करने से भगवान विष्णु की ही पूजा होती है। विष्णु पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी के पृष्ठ भाग यानी पीठ से पितर उत्पन्न हुए। पितरों के उत्पन्न होने के बाद ब्रह्मा जी ने उस शरीर को त्याग दिया जिससे पितर उत्पन्न हुए थे।पितर को जन्म देने वाला शरीर संध्या बन गया, इसलिए पितर संध्या के समय शक्तिशाली होते हैं।

गरूड़ पुराण से यह जानकारी मिलती है कि मृत्यु के पश्चात मृतक व्यक्ति की आत्मा प्रेत रूप में यमलोक की यात्रा शुरू करती है। सफर के दौरान संतान द्वारा प्रदान किये गये पिण्डों से प्रेत आत्मा को बल मिलता है। यमलोक में पहुंचने पर प्रेत आत्मा को अपने कर्म के अनुसार प्रेत योनी में ही रहना पड़ता है अथवा अन्य योनी प्राप्त होती है।कुछ व्यक्ति अपने कर्मों से पुण्य अर्जित करके देव लोक एवं पितृ लोक में स्थान प्राप्त करते हैं यहां अपने योग्य शरीर मिलने तक ऐसी आत्माएं निवास करती हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि चन्द्रमा के ऊपर एक अन्य लोक है जो पितर लोक कहलाता है। शास्त्रों में पितरों को देवताओं के समान पूजनीय बताया गया है। पितरों के दो रूप बताये गये हैं देव पितर और मनुष्य पितर। देव पितर का काम न्याय करना है। यह मनुष्य एवं अन्य जीवों के कर्मो के अनुसार उनका न्याय करते हैं।

ऋणों से मुक्ति 

पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। वे उच्च शुद्ध कर्मों के कारण अपनी आत्मा के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध करने वाले सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्र्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।भारतीय वैदिक वांगमय के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को इस धरती पर जीवन लेने के पश्चात तीन प्रकार के ऋण होते हैं। पहला देव ऋण, दूसरा ऋषि ऋण और तीसरा पितृ ऋण। पितृ पक्ष के श्राद्ध यानी 16 श्राद्ध साल के ऐसे सुनहरे दिन हैं, जिनमें हम उपरोक्त तीनों ऋणों से मुक्त हो सकते हैं। महाभारत के प्रसंग के अनुसार, मृत्यु के उपरांत कर्ण को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इनकार कर दिया था। कर्ण ने कहा कि मैंने तो अपनी सारी सम्पदा सदैव दान-पुण्य में ही समर्पित की है, फिर मेरे उपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है? चित्रगुप्त ने जवाब दिया कि राजन, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है, लेकिन आपके उपर अभी पितृऋण बाकी है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे, तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा। इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को यह व्यवस्था दी कि आप 16 दिन के लिए पुनः पृथ्वी मे जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्धतर्पण तथा पिंडदान विधिवत करके आइए। तभी आपको मोक्ष यानी स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी। जो लोग दान श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करते, माता-पिता और बडे बुजुर्गो का आदर सत्कार नहीं करते, पितृ गण उनसे हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी, दुखी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है।

मातृ ऋण 

जन्मकुण्डली में यदि चंद्र पर राहु केतु या शनि का प्रभाव होता है तो जातक मातृ ऋण से पीड़ित होता है। चन्द्रमा मन का प्रतिनिधि ग्रह है अतः ऐसे जातक को निरन्तर मानसिक अशांति से भी पीड़ित होना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति को मातृ ऋण से मुक्ति के प्श्चात ही जीवन में शांति मिलनी संभव होती है।

पितृ ऋण 

पितृ ऋण के कारण व्यक्ति को मान प्रतिष्ठा के अभाव से पीड़ित होने के साथ-साथ संतान की ओर से कष्ट संतानाभाव संतान का स्वास्थ खराब होने या संतान का सदैव बुरी संगति जैसी स्थितियों में रहना पड़ता है। यदि संतान अपंग मानसिक रूप से विक्षिप्त या पीड़ित है तो व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन उसी पर केन्द्रित हो जाता है। जन्म पत्री में यदि सूर्य पर शनि राहु-केतु की दृष्टि या युति द्वारा प्रभाव हो तो जातक की कुंडली में पितृ ऋण की स्थिति मानी जाती है।

देव ऋण 

देव ऋण अर्थात देवताओं के ऋण से भी हम पीड़ित होते हैं। हमारे लिए सर्वप्रथम देवता हैं हमारे माता-पिता, परन्तु हमारे इष्टदेव का स्थान भी हमारे जीवन में महत्वपूर्ण है। व्यक्ति भव्य व शानदार बंगला बना लेता है अपने व्यावसायिक स्थान का भी विज्ञतार कर लेता है, किन्तु उस जगत के स्वामी के स्थान के लिए सबसे अन्त में सोचता है या सोचता ही नहीं है जिसकी अनुकम्पा से समस्त ऐश्वर्य वैभव व सकल पदार्थ प्राप्त होता है। उसके लिए घर में कोई स्थान नहीं होगा तो व्यक्ति को देव ऋण से पीड़ित होना पड़ेगा। नई पीढ़ी की विचारधारा में परिवर्तन हो जाने के कारण न तो कुल देवता पर आस्था रही है और न ही लोग भगवान को मानते हैं। फलस्वरूप ईश्वर भी अपनी अदृश्य शक्ति से उन्हें नाना प्रकार के कष्ट प्रदान करते हैं।

ऋषि ऋण 

ऋषि ऋण के विषय में जान लेना बहुत ही आवश्यक है। जिस भी ऋषि के गोत्र में हम जन्में हैं, उसी का तर्पण करने से हम वंचित हो जाते हैं। आज अधिकाँश लोग अपने गोत्र को भूल चुके हैं। अतः हमारे पूर्वजों की इतनी उपेक्षा से उनका श्राप हमें पीढ़ी दर पीढ़ी परेशान करेगा। इसमें कतई संदेह नहीं करना चाहिए। जो लोग इन ऋणों से मुक्त होने के लिए उपाय करते हैं, वे प्रायः अपने जीवन के हर क्षेत्र में सफल हो जाते हैं। परिवार में ऋण नहीं है, रोग नहीं है, गृह क्लेश नहीं है, पत्नी-पति के विचारों में सामंजस्य व एकरूपता है संताने माता-पिता का सम्मान करती हैं। परिवार के सभी लोग परस्पर मिल जुल कर प्रेम से रहते हैं। अपने सुख-दुख बांटते हैं। अपने अनुभव एक-दूसरे को बताते हैं। ऐसा परिवार ही सुखी परिवार होता है।

अन्य ऋण

माता-पिता के अतिरिक्त हमें जीवन में अनेक व्यक्तियों का सहयोग व सहायता प्राप्त होती है गाय बकरी आदि पशुओं से दूध मिलता है। फल फूल व अन्य साधनों से हमारा जीवन सुखमय होता है इन्हें बनाने व इनका जीवन चलाने में यदि हमने अपनी ओर से किसी प्रकार का सहयोग नहीं दिया तो इनका भी ऋण हमारे ऊपर हो जाता है। जन कल्याण के कार्यो में रूचि लेकर हम इस ऋण से उस ऋण हो सकते हैं।

संजय तिवारी
संस्थापक - भारत संस्कृति न्यास
वरिष्ठ पत्रकार 

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