धनी बाथरूम और कंगाल रसोई - डॉ अर्चना तिवारी

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अब कहाँ आ गए हम । हमारा प्राकृतिक सौंदर्य कहां गया । सेहत कैसी हो गयी। घरों में अब रसोई कंगाल होने लगी है। स्नानगृह यानी बाथरूम बहुत धनी...


अब कहाँ आ गए हम । हमारा प्राकृतिक सौंदर्य कहां गया । सेहत कैसी हो गयी। घरों में अब रसोई कंगाल होने लगी है। स्नानगृह यानी बाथरूम बहुत धनी यानी सम्पन्न होने लगे हैं। मानव शरीर के लिए आवश्यक रसों की निष्पत्ति के लिए स्थापित भारतीय रसोई की यह विपन्नता चिंता पैदा कर रही है। अब रसोई में किसिम किसिम के मसाले, आचार, मुरब्बे, घी, तेल , दालें, सोंठ, अजवाइन, अनाज, आदि नही मिलते। जरूरत भर के बंद पैकेट आते हैं और काम खत्म। दूसरी तरफ बाथरूम देखिये। किसिम किसिम के साबुन, शैम्पू, डिओ, ब्रुशेज और तरह तरह के रसायनों से भरे हुए बाथरूम हर घर मे स्थापित हो चुके हैं। पहले की रसोई पूरी तौर पर सेहत का ख्याल रखने के लिए हर पल तैयार रहती थी। कोई भी रोग होता था तो पहली औषधि रसोई में मिल जाती थी। आज बहुत से घर ऐसे हो गए हैं जिनमे साधारण दालचीनी या अजवाइन तक उपलब्ध नही । दूसरी तरफ निर्मित होने वाला भोजन भी अत्यंत अधूरा होता है। परिणाम देखिये कि कैसे रोगों की घुसपैठ घर घर मे हो चुकी है रसोई की कंगाली और बाथरूम की अमीरी की इस यात्रा को समझना बहुत आसान ही । याद कीजिये। अब से 30 या 40 साल पहले के दिन । पियरी माटी,मुल्तानी मिट्टी, और रेह से नहा धोकर जो पीढियां निकलीं उनसे ज्यादा सुंदर और आकर्षक कोई आज भी नही । एक नाम था । याद कीजिये, बचपन मे जब मार पड़ती थी । उस पैकेट की महक ही कुछ ऐसी थी कि 'दिल ललचाए रहा ना जाए'। 'एल्पेन लिबे' तो बहुत बाद में आई। हमारी तो 'एल्पेन लिबे' यही थी। सब दीवाने थे इसके...बच्चे भी और बच्चों की अम्मा भी। जन्म से पहले माँ खाती थी और जन्म के बाद बच्चा। वैसे यह खाने के लिए नहीं दी जाती थी बच्चे को। यह तो तख़्ती पोतने के लिए दी जाती थी। मगर बाल मन इसकी खुशबु से खुद को जुदा नहीं कर पाता था और रोकते-रोकते भी खा ही लेता था। एक और काम आती थी यह 'मुल्तानी मिट्टी'। उस ज़माने का फेस पैक होती थी। जिस समय दूध-क्रीम वाली साबुनें, विटामिन ई युक्त साबुनें और फेस वास् कहीं दूर पैदा होने के लिए तरस रहे थे तो उस समय हमारी माताएँ एवं बहनें इसी देशी फेस पैक को प्रयोग कर करके 'क्लियोपेट्रा' बन जाती थी। नहाने से लेकर सिर धोने तक में मुल्तानी मिट्टी का ही प्रयोग होता था। फिर प्रादुर्भाव हुआ 'काली साबुन' का। यह उस समय कपड़े धोने के साबुन के रूप में बाज़ार में उतारी गई थी जिस समय कपड़े कुछ बंजर किस्म की ज़मीनों से खोदी गई मिट्टी जिसे 'रेह' कहते थे, से धोये जाते थे। मगर हमारे कुछ समृद्ध भरतवंशियों के घर की जनानियां उसी 'काली साबुन' से नहाने भी लगी। शायद पचास पैसे की एक टिकिया आती थी उस समय जब मैंने होश संभाला था। फिर आई 'रामनारायण साबुन'। थोड़ी इम्प्रूवड़ थी। कीमत दुगनी। एक रूपये की एक टिकिया और बारह का पैक दस रूपये का। झाग ज्यादा। हाथों के लिए सॉफ्ट। फिर आई 'सनलाइट' साबुन। थोड़ी और इम्प्रूवड़। भयानक कब्ज होने पर एनिमा भी इसी का दिया जाता था। अभी तक नहाना, धोना और एनिमा एक ही साबुन से हो रहा था। फिर धमाकेदार एंट्री हुई 'सुपर 777' और 'लाल साबुन' की। 'लाल साबुन' बोले तो '........है जहाँ तंदरुस्ती है वहां'। 'लाइफबॉय' ने ही भरतवंशियों को सिखाया कि तंदरुस्त रहना है तो कपड़े धोने वाले नहीं 'लाइफबॉय' साबुन से नहाओ। 

फिर आई वो साबुन जिसने भरतवंशियों को 'कमल' सा खिला दिया, महका दिया। वैसे अब तक भरतवंशी 'काली साबुन' को लगभग भूल ही चुके थे। 'कमल' किसने खिलाया? 

जी हाँ 'ओके साबुन' ने। जो 'ओके साबुन से नहाए कमल सा खिल जाये, ओके नहाने का बड़ा साबुन'। वास्तव में बड़ा था। उस समय केजरीवाल होते तो इसी बात पर झंडा खड़ा कर देते। साजिश है जी साजिश। गहरी साजिश। 'कमल' खिलवा रहे हैं जी। वोटों की राजनीती करने में लगे हैं जी। 'कमल' ही क्यों? और भी तो फूल खिल सकते हैं जी। सब मिले हुए हैं जी। हम नहीं नहायेंगे जी 'ओके साबुन' से। चाहे जी हमें गोबर से नहाना पड़े। ये सब हम नहीं होने देंगे जी ।

वैसे अब तक सभी भरतवंशी समझ चुके थे कि नहाने के बाद अगर खुशबु ना आये तो जीवन व्यर्थ है। इसी मानसिकता का फायदा उठाते हुए भरतवंशियों के हमाम में 'हमाम' ने प्रवेश किया। हमारे जैसे राजा बाबु टाइप के बच्चे जब 'हमाम' से नहा कर गली से गुजरते थे तो समझो शामत ही आ जाती थी। आंटियां बस बाट सी देखती रहती थी जैसे हमारी। पूरा मुँह झूठा कर देती थी। आकर फिर से नहाना पड़ता था। फिर सभी को पछाड़ती हुई एक और साबुन आई और मार्किट में छा गई। 'तुम हुस्न परी तुम जाने जहां सबसे हसीं तुम सबसे जवां । सौंदर्य साबुन निरमा'। निरमा ने सबकी छुट्टी कर दी। खुशबु का जो चस्का भरतवंशियों को लगा वह आज तक बरकरार है। फिर आए कुछ मेडिकेटिड साबुन जैसे मार्गो, डेटोल, सेवलोन आदि-आदि। फिर आये ग्लिसरीन युक्त साबुन। फिर 'पियर्स' वगैरा ने मौसम के हिसाब से साबुन प्रयोग करना सिखाया। विश्वविद्यालय जाने पर साक्षात्कार हुआ 'मोती' से... गोल मटोल 150 ग्राम की मोटी सी साबुन। समझ नहीं आता था कि इसका नाम मोती है कि मोटी!!! मगर खुशबू लाजबाब थी। फिर मिली क्लियरसिल सोप... महंगी इतनी थी कि बस मुँह धोने के लिए ही अफोर्ड कर सकते थे हम इसे। 

फिर आई भरतवंशियों को लूटने की बारी। अब मिलाया जाने लगा साबुन में दूध, दूध की क्रीम, खीरा, हल्दी, केसर, बादाम और पता नहीं क्या-क्या। कई बार तो ऐसा लगता है कि नाश्ते में ये दूध क्रीम युक्त, खीरा, बादाम युक्त साबुन ही खा लूँ क्या? सब्जी बनाते समय साबुन का ही कुछ टुकड़ा डलवा दूँ क्या? और फिर आये विटामिन युक्त साबुन। खास तौर पर विटामिन ई वाले साबुन। अब कोई इनसे पूछे कि भाई एक व्यक्ति की दिन भर की विटामिन ई की आवश्यकता कितनी है? आपके साबुन में कितना विटामिन ई उपस्थित है? कितनी साबुन खाने से दिन भर की विटामिन ई की आवश्यकता पूरी हो सकती हैं? अगर खाने के बजाय सिर्फ़ नहाना हो तो कितनी टिकिया पर्याप्त होंगी? कितनी देर नहाना होगा? क्योंकि बस छूते ही त्वचा के अंदर तो घुस नहीं जायेगा विटामिन ई!!!! कुछ देर झाग वाग तो बनाने पड़ेंगे। रगड़ना वगड़ना पड़ेगा। तब तो अंदर जायेगा ना....विटामिन ई। 

बेवकूफ़ बनने का पूरा ठेका भरतवंशियों ने ही लिया हुआ है। केजरीवाल तक बेवकूफ़ बना डालता है इनको तो। विटामिन ई के नाम पर भोली भाली जनता को लूट रही हैं ये मल्टीनेशनल कंपनियां। लुटने वाले भी तो तैयार है ख़ुशी ख़ुशी। कोई यह तक पूछने की ज़हमत नहीं उठाता है कि भाई इस साबुन में अगर विटामिन ई डाला है तो कितना डाला है? कहीं मेंशन तो किया नहीं साबुन के रेपर पर। जितना पैसा विटामिन ई वाले साबुन में खर्च कर रहे हो उसके बजाय कुछ बादाम खा लो। विटामिन ई मिलेगा। कच्चा नारियल खाओ। विटामिन ई मिलेगा। तीन छोटे चम्मच सूरजमुखी या सरसों का तेल खाओगे तो दिन भर की आवश्यकता का 12 % विटामिन ई मिलेगा। आधी कटोरी पालक खाओगे तो दिन भर की आवश्यकता का 16% विटामिन ई मिलेगा। बीस ग्राम मूंगफली खाओगे तो दिन भर की आवश्यकता का 20% विटामिन ई मिलेगा। अवाकेडो, ऐस्पैरागस और ब्राकोलाई तो महंगी है क्या करोगे । चाहिए भी कितना? मात्र 8-10 मिलीग्राम रोज़ाना ही तो चाहिए। साबुन से तो नहीं मिलने वाला चाहे दस बार नहा लेना।

अब जरा सी नजर इन पर डालिये। इस प्रगति और विज्ञान के आधुनिक संस्कार की कथा यात्रा ठीक से समझ मे आ जायेगी।कुछ बड़े नामो और उनको होने वाली गंभीर बीमारियों की एक सूची है। यह सूची केवल उदाहरण है। पहले इस पर दृष्टिपात कीजिये। फिर विवेचना करते हैं।

सोनाली बेंद्रे - कैंसर
अजय देवगन - लिट्राल अपिकोंडिलितिस
(कंधे की गंभीर बीमारी)
इरफान खान - कैंसर
मनीषा कोइराला - कैंसर
युवराज सिंह - कैंसर
सैफ अली खान - हृदय घात
रितिक रोशन - ब्रेन क्लोट
अनुराग बासु - खून का कैंसर
मुमताज - ब्रेस्ट कैंसर
शाहरुख खान - 8 सर्जरी
(घुटना, कोहनी, कंधा आदि)
ताहिरा कश्यप (आयुष्मान खुराना की पत्नी) - कैंसर
राकेश रोशन - गले का कैंसर
लीसा राय - कैंसर
राजेश खन्ना - कैंसर,
विनोद खन्ना - कैंसर
नरगिस - कैंसर
फिरोज खान - कैंसर
टोम अल्टर - कैंसर...

ये वो लोग हैं या थे, जिनके पास पैसे की कोई कमी नहीं है/थी! खाना हमेशा डाइटीशियन की सलाह से खाते है। दूध भी ऐसी गाय या भैंस का पीते हैं । जो AC में रहती है और बिसलेरी का पानी पीती है। जिम भी जाते है। नियमित शरीर के सारे टेस्ट करवाते है। सबके पास अपने हाई क्वालिफाइड डॉक्टर है।

अब सवाल उठता है कि आखिर अपने शरीर की इतनी देखभाल के बावजूद भी इन्हें इतनी गंभीर बीमारी अचानक कैसे हो गई। क्योंकि ये प्राक्रतिक चीजों का इस्तेमाल बहुत कम करते है। या मान लो बिल्कुल भी नहीं करते।जैसा हमें प्रकृति ने दिया है , उसे उसी रूप में ग्रहण करो वो कभी नुकसान नहीं देगा। कितनी भी फ्रूटी पी लो , शरीर को आम के गुण नहीं दे सकती। अगर हम इस धरती को प्रदूषित ना करते तो धरती से निकला पानी बोतल बन्द पानी से लाख गुण अच्छा था। आप एक बच्चे को जन्म से ऐसे स्थान पर रखिए जहां एक भी कीटाणु ना हो। बड़ा होने से बाद उसे सामान्य जगह पर रहने के लिए छोड़ दो, बच्चा एक सामान्य सा बुखार भी नहीं झेल पाएगा! क्योंकि उसके शरीर का तंत्रिका तंत्र कीटाणुओ से लड़ने के लिए विकसित ही नही हो पाया। कंपनियों ने लोगो को इतना डरा रखा है, मानो एक दिन साबुन से नहीं नहाओगे तो तुम्हे कीटाणु घेर लेंगे और शाम तक पक्का मर जाओगे। समझ नहीं आता हम कहां जी रहे है। एक दूसरे से हाथ मिलाने के बाद लोग सेनिटाइजर लगाते हुए देखते हैं हम। इंसान सोच रहा है- पैसों के दम पर हम जिंदगी जियेंगे।

आपने कभी गौर किया है- पिज़्ज़ा बर्गर वाले शहर के लोगों की एक बुखार में धरती घूमने लगती है और वहीं दूध दही छाछ के शौकीन गांव के बुजुर्ग लोगों का वही बुखार बिना दवाई के ठीक हो जाता है। क्योंकि उनकी डॉक्टर प्रकृति है। क्योंकि वे पहले से ही सादा खाना खाते आए है।प्राकृतिक चीजों को अपनाओ । विज्ञान के द्वारा लैब में तैयार हर एक वस्तु शरीर के लिए नुकसानदायक है । यकीनन हमारी आधुनिकता की यह यात्रा हमें अच्छी दिशा में नही ले जा रही। बहुत ही घातक है यह राह। इस रास्ते को मोड़ना पड़ेगा। अपनी प्रकृति ओर। यही एक मात्र विकल्प है। सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः।

डॉ अर्चना तिवारी
9450887187

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धनी बाथरूम और कंगाल रसोई - डॉ अर्चना तिवारी
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