चौरीचौरा के बहाने इतिहास के गुम पन्नो की तलाश - संजय तिवारी




भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के गुम हो गए पन्नो की तलाश की एक स्वर्णिम यात्रा शरू हुई है। इतिहास संकलन योजना और भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के साथ मौलाना अबुल कलाम आजाद इंस्टीट्यूट ऑफ असिओटिक स्टडीज कोलकाता के संयुक्त तत्वावधान में दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में दो दिनों की एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में सहभागी बनने का अवसर प्राप्त हुआ। मेरे अनुज आचार्य हिमांशु चतुर्वेदी के अथक परिश्रम से आयोजित इस कार्यक्रम में सबसे खास बात यह रही कि स्वाधीनता के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि चौरी चौरा के शहीदों के परिवारो को पहली बार इतिहास के मंच से सम्मानित किया गया। यह क्षण वास्तव में बहुत ही अनोखा रहा। इस अवसर पर भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष प्रो अरविंद पी जामखेतकर , पूर्व अध्यक्ष आचार्य दयानाथ त्रिपाठी , इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय संगठन मंत्री आचार्य बालमुकुंद जी पांडेय और ऑर्गनाइजर के संपादक मेरे मित्र प्रफुल्ल केतकर जी का सानिध्य प्राप्त हुआ। अनुज आचार्य प्रत्यूष दुबे के शोध को आज इतिहास में विस्तार मिला।

चौरीचौरा कांड भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास का वह पन्ना है जिसको लेकर समय समय पर चिंताएं सामने आती रही हैं। इन चिंताओं की वजह इस पन्नेके बहुत से तथ्यों का खो जाना रहा है। जालियां वाला बाग से लेकर चौरीचौरा तक इतिहास में बहुत से तथ्य गायब कर दिए गए जिन पर कभी तथाकथित बड़े इतिहासकारों ने कलम तक नही चलाई। गांधी जी की चंपारण की एक मात्र पूर्वांचल यात्रा को मेकिंग ऑफ महात्मा बनाकर पेश तो किया गया लेकिन यह किसी ने नही बताया कि चौरीचौरा कांड के बाद गांधी ने अचानक असहयोग आंदोलन वापस क्यो लिया। गोरखपुर से उस समय प्रकाशित हो रहे एक मात्र अखबार स्वदेश ने इस बारे में बहुत लिखा है लेकिन उसे लेकर भी कोई काम नही हुआ। स्वदेश के संपादक दशरथ द्विवेदी को तो पत्रकारिता के इतिहास में भी जगह नही दी गयी और खुद गोरखपुर ही उनको याद नही करता। ऐसे में यदि चौरीचौरा को लेकर प्रो हिमांशु चतुर्वेदी ने हिम्मत से पहल की है तो वह निश्चय ही बधाई के पात्र हैं। अब यह उम्मीद प्रबल हो गयी है कि इसी के साथ भारत की नई पीढ़ी को अपने वास्तविक उस इतिहास का पता चल सकेगा जिसको साजिशन सामने नही आने दिया गया।

आज यकीनन प्रफुल्ल केतकर जी को सुनना बेहद आकर्षक रहा। चौरीचौरा और जलियांवाला बाग , ये दो ऐसी घटनाएं हैं जिनके बीच का समय बहुत कुछ अपने मे समेटे हुए है।

वस्तुतः चौरीचौरा का सच अब सामने आ रहा है। थाना जलने से पहले पुलिस की बर्बरता की कहानी अब इतिहास में दर्ज हो रही है। अब यह दर्ज होने जा रहा है कि चौरीचौरा से तत्कालीन राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ ब्रितानी हुकूमत कितनी डर गई थी। कैसे बड़े नेताओं ने इस घटना को कमजोर किया और महामना मदनमोहन मालवीय अकेले पड़ गए। इतिहास के पृष्ठों से इस महत्वपूर्ण घटना को किस तरह महत्वहीन बताया गया । कैसे फांसी पा चुके परिवारो को स्वाधीनता सेनानी मानने में 45 साल लग गए। आखिर स्वाधीन भारत की सरकारें इतनी भ्रमित क्यो थीं ।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के वास्तविक दृश्यावलोकन प्रारंभ को गया है। यह सुखद इसलिए है क्योंकि अब यह भ्रम टूट जाएगा कि भारत को आजादी केवल अहिंसा से मिली। अब उन रणबांकुरों का इतिहास प्रकाशमान होने जा रहा है जिनकी वीर गाथा को किसी साजिश के कारण इतिहास के पन्नो से गायब कर दिया गया था।
हिमांशु को बधाई ।

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें