सनातन जीवन संस्कृति में पवित्रता का विज्ञान, सेनिटाइजशन, क्वारंटाइन और महामारी - संजय तिवारी


दादी नवमी पूजती थीं। नवमी की पूजा के बड़े लोक विधान थे। साफ , सफाई और शुद्धता के साथ पवित्रता इसके केंद्र में था। घर की सफाई। देवकुली की सफाई। रसोई की सफाई। आंगन की सफाई। बर्तनों की सफाई। कपड़ो की सफाई। अन्न की सफाई। जल की सफाई। वायु की सफाई। अग्नि की सफाई। आकाश की सफाई। मिट्टी की सफाई।इस सफाई में शुद्धता और पवित्रता का और भी ध्यान रखना पड़ता था। पूजा के लिए प्रयोग होने वाले अन्न की धुलाई के बाद जब उसे सूखने के लिए पसारा जाता तो बच्चों की ड्यूटी लगती कि कोई चिड़िया चुरङ्ग उसे जूठा न कर दे। गेंहू पिसाने से लेकर उसको पूजा के लिए प्रयोग के समय तक पवित्र बनाये रखना बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती थी। फिर बर्तनों की बारी। केवल मिट्टी के बर्तन ही नवमी की पूजा में प्रयुक्त होते थे। ये बर्तन कुम्हार के घर से आते थे जिन्हें कोई नौकर नही लाता बल्कि दादी की तरह हर घर के सदस्य खुद लाते थे। नवमी की रात केले के पत्ते पर बेरहिन, रासियाव, लौंग का प्रसाद और 52 औषधियों वाले धार को घड़े में जल भर कर मिलाया जाता। धार से ही जलधार दिया जाता। इस पूरी प्रक्रिया में इस बात का विशेष ध्यान कि प्रसाद बनाने से लेकर पूजा सम्पन्न होने तक किसी अन्य व्यक्ति के सम्मुख न होना पड़े या कोई व्यवधान न हो। इसी पूजा का प्रमुख लोक मंत्र है-


निमिया के डाढ़ी मईया
लावेली हिंडोलवा
कि झूली झूली ना
मईया के लागली पियास
हो कि झूली झूली ना।

एक अन्य लोकोपसना हरवत। बैसाख की अक्षय तृतीया को। प्रत्येक घर का मुखिया हाथ मे कलश, पल्लव, नैवेद्य और कुदाल लिए, सिर पर गमछा लेकर मुह तक ढके हुए बिना किसी ओर देखे सीधे अपने खेत मे जाता था। नैवेद्य अर्पित कर, पांच छेव कुदाल चला कर, धरती से खेती की अनुमति लेकर सीधे अपने घर आता। उस दिन घर मे किसी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित। कोई आदान प्रदान वर्जित। घर मे मीठा अन्न बनता और पूरा परिवार प्रसाद ग्रहण करता था।

हर घर की प्राण प्रतिष्ठा केवल रसोई में रहती थी। कच्चा भोजन यानी पकाया हुआ अन्न किसी दशा में रसोई यानी चौके से बाहर नही जा सकता। घर का प्रत्येक व्यक्ति एक लोटा जल खुद लेकर आता, रसोई में भोजन करता। रसोई से बाहर पक्का भोजन जा सकता था । विज्ञान यह कि कच्चा भोजन बाहर आते ही संक्रमित हो सकता है। 

तात्पर्य यह कि लोकजीवन में हमारे रहन सहन, खान पान , क्रिया कलाप में प्रत्येक विंदु पूर्णतः विज्ञान से आच्छादित रहे हैं। हमने उन्हें गंवारपन और पोंगापंथ कह कर नकार दिया। अब हम मचानों में रहते हैं , फ्लैट में और कहते मकान हैं। अब हम जूते चप्पलों के साथ कुर्सियों पर बैठ कर रसोई से बहुत अलग लंच, डिनर , ब्रेकफास्ट आदि करते है। भोजन तो करते ही नही। अब घरों में रसोई नही किचेन होते है। रसोई जब तक रही उसने रसों की निष्पत्ति से हमारी अंतःस्रावी ग्रन्थियों को नियंत्रित किया। अब केवल किचेन बच गया है। अंतःस्रावी तंत्र बेहाल है। 

एक करोना। कितना रोना। विश्व मे तबाही आ गयी है। सेनिटाइजर। क्वारंटाइन। मास्क। याद कीजिये । इसी मौसम में हर साल चेचक जैसी विषाणु जनित बीमारियां फैलती थीं। तीन दिन, 5 दिन, 7 दिन या नौ दिन तक घर मे केवल धूप, लोहबान , कपूर और नीम जलाए जाते। कचूर ( अदरक की तरह का ही एक गांठ वाला पौधा) से संबंधित व्यक्ति को स्नान कराकर 52 औयहाधियो के धार वाले जल से स्नान कराया जाता। इस अवधि में घर मे किसी का आना जाना प्रतिबंधित था। कोई छौंक नहीं। कोई उत्सव नही। किसी से मिलना नही। यह सब उपक्रम सेनिटाइजशन और क्वारंटाइन नही तो और क्या था।

आज करोना फैल गया तो उपाय करने पड़ रहे। यदि अपनी सनातन जीवन संस्कृति को तथाकथित पश्चिमी प्रगतिशीलता के आगे समर्पित न किया होता तो इतनी मशक्कत नही करनी पड़ती। जो विशुद्ध विज्ञान था उसे अज्ञानता की बलि चढ़ाकर अब अज्ञानता और म्लेच्छ मति में विज्ञान की तलाश हो रही है। म्लेच्छ जीवन की असंस्कृत सभी आपदाएं तो हमने खुद बटोर लीं। मांस, शराब, अनियमितता, अपवित्रता, अशुद्धि, अजीवन, अमानवीयता, अज्ञानता। म्लेच्छ आचरण को सभ्यता के नाम पर अपनाते गए और खुद से लेकर घर, समुदाय, परिवार, समाज और मनुष्यता को खंडित करते गए। आज मानवता पर एक विषाणु के आक्रमण ने जो संकट खड़ा किया है उसका समाधान कोई मलेछ सभ्यता नही दे सकती। आइये, सनातन के साथ। कोई खतरा नही रहेगा।

लेखक भारत संस्कृति न्यास के संस्थापक एवं वरिष्ठ पत्रकार है 

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें