14 वर्ष की आयु में अफगानों का काल बना बालक जिसके शोर्य का प्रतीक है तिरंगे का हरा रंग





इतिहास का शवोच्छेदन करने वाले भारतीय इतिहासकारों नें हिंदू जाति को कायर कहते हुए हजार वर्ष तक उसके गुलाम रहने की घोषणा का महापाप किया | इन तथाकथित इतिहासकारों के द्वारा हमारी नयी पीढ़ी को झूठा इतिहास पढ़ाया जा रहा है | । हमारा दुर्भाग्य है कि स्वतंत्रता के पश्चात इस देश की शिक्षा नीति इस देश के अतीत के स्मारकों को उत्कीर्ण कर उन्हें पूज्यनीय बनाने के लिए लागू नही की गयी अपितु उन्हें अपमानित और तिरस्कृत करने के लिए लागू की गयी। वर्तमान पीढ़ी उसी अपमानित और तिरस्कृत करने की भावना से लिखे गये इतिहास को पढ़कर अपने अतीत के बारे में जो कुछ समझ पा रही है, वह उसके लिए निराशाजनक है।

जबकि वास्तविकता यह है कि जब भी हमारे इतिहास के पन्नों को खोला जाए तो उसमें एक से बढ़ कर एक वीर योद्धाओं का वर्णन मिलेगा | भारतभूमि की रक्षा करने वाले इन वीर सपूतों में एक वीर था, ‘सरदार हरी सिंह नलवा’ | हरी सिंह एक वीर, प्रतापी और कुशल सेनानायक थे | तत्कालीन समय में अफगान शासकों के हरी सिंह का नाम सुनते ही पांव कांपने लगते थे | महज 14 वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी वीरता का ऐसा प्रमाण दिया कि उन्हें ‘बाघ मार’ तक कहकर बुलाया गया | कुछ विद्वानों का मानना है कि राजा हरि सिंह नलवा की वीरता को, उनके अदम्य साहस को पुरस्कृत करते हुए भारत के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे की तीसरी पट्टी को हरा रंग दिया गया है।

हरी सिंह नलवा ऐसे प्रतापी पुरुष थे कि आज भी अफगान माताएँ अपने बालक को नलवा के नाम से डराती है | अगर हम पाकिस्तान के नार्थ ईस्ट फ्रंटियर के कबीलाई (ग्रामीण) इलाकों में जाएं तो नलवा का खौफ साफ दिखाई देता है। जब कोई बच्चा रोता है तो मां उसे चुप कराने के लिए कहती है- ‘सा बच्चे हरिया रागले’ अर्थात सो जा बच्चे नहीं तो हरी सिंह नलवा आ जाएगा। जब पठानों ने आक्रमण किया और हिन्दू महिलाओ के साथ दुर्व्यवहार करने की कोशिस की तब नलवा ने पठानों को परास्त कर उन्हें महिलाओ के कपडे पहना कर वापिस भेजा था | जिसे आज ये पठान बड़े चाव के साथ पहनते है अतः आज जो ये पठान औरतो जैसे बुर्के पहनते है, ये भी नलवा के पहनाये हुए है |

हरी सिंह नलवा का जन्म सन 1791 में पंजाब के गुजरांवाला में पिता सरदार गुरदियाल सिंह उप्पल तथा माता धरम कौर के घर हुआ. वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे, इसी कारण उन्हें घर से खूब दुलार मिलता था, लेकिन दुर्भाग्यवश महज़ 7 साल की उम्र में ही उनके सर से पिता का साया उठ गया. 1798 में पिता की मृत्यु के बाद हरी सिंह को उनकी माता ने पाला. आगे वह 10 साल की आयु में अमृतपान करके एक सच्चे सिख बन गए.

जिस उम्र में बच्चों को खिलौनों का शौक होता है, उस उम्र में हरी सिंह ने अस्त्र शस्त्र, मार्शल आर्ट और घुड़सवारी की शिक्षा पूर्ण कर ली थी. उनके बल तथा पराक्रम का एक छोटा सा नमूना तब देखने को मिला जब 1805 ई.. में बसंतोत्सव के उपलक्ष्य में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा प्रतिभा की खोज नामक एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया. इत्तेफाक से इस दौरान हरी सिंह अपनी एक विवादित ज़मीन का विवाद सुलझाने महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंचे थे.

यहाँ हरी सिंह ने महाराजा को बताया कि उनके दादा और पिता महाराजा के पूर्वजों महा सिंह और चेतर सिंह के अधीन अपनी सेवाएं दे चुके हैं. उसके बाद हरी सिंह ने प्रतियोगिता में भाला फेंकने, तीरंदाज़ी और घुड़सवारी में अपनी प्रतिभा का सर्वोच्च प्रदर्शन दिखाया. महाराजा रणजीत सिंह उनकी पृष्ठभूमि और छोटी सी उम्र में ही उनके इस बेहतरीन युद्ध कौशल से बहुत प्रभावित हुए.

हरी सिंह से प्रसन्न होकर महाराजा ने उन्हें अपने दरबार में अपने खास सहायक का पद सौंप दिया. परन्तु, हरी सिंह को दरबार में नहीं अपितु युद्ध भूमि में अपना कौशल दिखाना था, इसीलिए एक वर्ष के भीतर ही, उन्हें सेना की एक टुकड़ी का सेनानायक घोषित कर दिया गया. महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेना की जिस टुकड़ी की कमान 14 वर्षीय बालक हरी सिंह के हाथों में सौंप दी थी उसमें 800 सैनिक थे | हैरत की बात तो यह थी कि इस उम्र में न सिर्फ उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों को संभाला बल्कि, जंग में दुश्मनों के साथ पूरी ताक़त के साथ लोहा भी लिया. हरी सिंह अपने युद्ध कौशल से लगातार कोई न कोई बड़ा कारनामा करते आ रहे थे. महाराजा से उनकी नजदीकियां काफ़ी हद तक बढ़ गयी थीं. इसी दौरान रणजीत सिंह एक बार जंगल में शिकार खेलने गये. उनके साथ कुछ सैनिक और हरी सिंह भी थे. उसी समय एक विशाल आकार के बाघ ने उन पर हमला कर दिया. जिस समय डर के मारे सभी दहशत में थे, हरी सिंह मुकाबले को सामने आए. इस खतरनाक मुठभेड़ में हरी सिंह ने बाघ के जबड़ों को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर उसके मुंह को बीच में से चीर डाला. चौदह वर्ष के बालक द्वारा इस तरह का साहसिक कार्य सबके लिए हैरान कर देने वाली बात थी. कहते हैं कि इस घटना के बाद हरी सिंह को ‘बाघ मार’ व नलवा नाम से जाना जाने लगा. राजा नल शेरों का शिकार करने के लिए प्रसिद्ध थे. इसी कारण से बाघ को मारने के बाद हरी सिंह को राजा नल के समान वीर मान कर उन्हें नलवा कहा जाने लगा.

हरी सिंह नलवा की बहादुरी के चर्चे विदेशों तक फैले हुए हैं. 2014 में आस्ट्रेलिया की विश्वप्रसिद्ध पत्रिका 'बिलिनियर अस्ट्रेलियनस‘ द्वारा जारी की गयी इतिहास के दस सबसे महान विजेताओं की सूची में सबसे पहला स्थान हरी सिंह नलवा को दिया गया.

इतना ही नहीं यहां तक कहा जाता है कि अमेरिका-अफगानिस्तान युद्ध जब अपने चरम पर था, तब सभी अमेरिकी जनरल अपने सैनिकों में जोश भरने के लिए हरी सिंह नलवा के किस्से सुनाते थे. हरी सिंह के नाम से अफगानी थर-थर कांपते थे. युद्ध मैदान में अनेकों बार अफगानियों को धूल चटाने के बाद उनके मन में हरी सिंह को लेकर ऐसा भय बैठ गया था कि वह हरी सिंह का सामना करने से भी घबराते थे.

युद्ध के मैदान में हरी सिंह के दोनों हाथों में केवल तलवारें ही नहीं, अपितु दुश्मनों का काल झूलता था. उनके एक वार से दुश्मन का सिर धड़ से अलग हो जाता था. हरी सिंह नलवा ने 1813 में अटक, 1814 में कश्मीर, 1816 में महमूदकोट, 1818 में मुल्तान, 1822 में मनकेरा, 1823 में नौशहरा आदि समेत 20 से अधिक युद्धों में दुश्मनों के पसीने छुड़ाते हुए ऐतिहासिक विजय प्राप्त कीं.

1836 में उन्होंने जमरूद पर भी अपना कब्जा जमा लिया था. इसी बीच मार्च 1838 में महाराजा के पोते नौ निहाल सिंह की शादी का आयोजन रखा गया. इस समारोह में ब्रिटिश कमांडर इन चीफ़ को खास तौर पर न्योता भेजा गया. ब्रिटिश कमांडर इन चीफ़ के आगे अपनी शक्ति प्रदर्शन करने हेतु सारे पंजाब से सिपाहियों को वापिस बुला लिया गया.

इसका फायदा उठाकर दुश्मन ने जमरूद पर हमला करने की योजना बना रखा था. उनको लगा था कि हरी सिंह नलवा शादी समारोह में भाग लेने के लिए अमृतसर चले गए थे, परन्तु ऐसा नहीं था. हरी सिंह को इस बात की भनक पहले ही लग चुकी थी कि उसके जाते ही जमरूद पर हमला हो सकता है. इसी कारण वह पेशावर में ही रुक गए.

फिर वहीं हुआ जिसकी उम्मीद की जा रही थी. विरोधियों ने जमरूद पर चढ़ाई कर दी. इधर अफगानियों से रक्षा के लिए हरी सिंह द्वारा बनाए गए किले में हरी सिंह के प्रतिनिधि महान सिंह अपने 600 सिख सैनिकों के साथ राशन पानी के आभाव से जूझ रहे थे.

हरी सिंह खबर मिलते ही पेशावर से जमरूद पहुँच गए, जहाँ उनके सैनिक अफगानियों द्वारा हर तरफ से घिरे हुए थे. हरी सिंह के अचानक से युद्ध मैदान में आ जाने से अफ़गानी पूरी तरह से बौखला गए. उन्होंने उन पर हमला बोल दिया. वह जल्दी से जल्दी हरी सिंह को मार देना चाहते थे. उन्हें पता था कि जब तक हरी सिंह खड़े हैं, उनके मंसूबे पूरे नहीं हो सकते.

दोनों सेनाओं के बीच घमासान मच गया. हरी सिंह का स्वास्थ्य ठीक नहीं था, बावजूद इसके उन्होंने दुश्मनों का गोला बारूद छीन लिया. हालांकि इस कोशिश में वह बहुत बुरी तरह से घायल हो गये थे. ऐसी स्थिति में उनका एक कदम भी आगे बढ़ाना आसान नहीं था. फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. वह लगातार दुश्मन को मारते रहे. इसी बीच एक सिपाही ने पीछे से आकर उन पर वार कर दिया. वार इतना जोरदार था कि हरी सिंह नहीं बच सके और वीरगति को प्राप्त हो गए.

हैरान कर देने वाली बात तो यह थी कि अपने अंतिम समय में भी उन्हें अपने लोगों की चिंता थी. उन्होंने अपने सैनिकों को यह हिदायत दी कि उनकी मृत्यु की सूचना दुश्मनों को ना मिलने पाए. सैनिकों ने हरी सिंह की आज्ञा का पालन किया. उनकी शहीदी की खबर अफगानियों तक नहीं पहुँचने दी.

चूंकि, दुश्मनों के मन में हरी सिंह नलवा का खौफ़ इस तरह से पसरा हुआ था कि वह हरी सिंह की मृत्यु के बाद भी उन्हें जीवित समझ कर अपने स्थान से आगे नहीं बढ़े. कहते हैं वह एक सप्ताह तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे थे. इतने समय में लाहौर की सिख सेना यहाँ पहुँच चुकी थी और अफगानियों को अपनी जान बचाकर वहां से भागना पड़ा.

इस तरह से हरी सिंह नलवा ने मृत्यु को प्राप्त कर लेने के बाद भी ना केवल जमरूद तथा पेशावर को बचाया, अपितु अफगानियों को उत्तर भारत की सीमाओं से भी खदेड़ दिया.

सरदार हरी सिंह नलवा का भारत के इतिहास में सराहनीय योगदान रहा है. परन्तु उनकी प्रसिद्धी कभी भी पंजाब की सीमाओं से बाहर नहीं पहुंच पाई. उनकी बहादुरी की वजह से इतिहास का वो दौर हमने देखा जब पेशावरी पश्तूनों पर पंजाबी भारतीयों का राज था. कुशल रणनीति और शेरदिल बहादुरी उन्हें एक श्रेष्ट सेनानायक बनाती थी. आज भी सिख योद्धाओं में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है.

 


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