हठीले हमीर की वीरगाथा


शरणागत वत्सलता

अलाउद्दीन खिलजी को अधिकाँशतः आम जन चित्तोड़ की महारानी पद्मिनी के जौहर के परिप्रेक्ष में जानते हैं | किन्तु महारानी पद्मिनी के अमर जौहर के दो वर्ष पूर्व रणथम्भोर में भी उसके कारण ही एक और जौहर हुआ था, उसके विषय में कम चर्चा हुई है | जबकि रणथम्भोर चौहान राजपूतों के अनूठे पराक्रम और शौर्य की अमर गाथा है तथा उस पर हम्मीर रासो नामक महाकाव्य भी लिखा गया है | यह कहानी है रणथम्भोर के शासक शरणागत वत्सल वीर हठीले हमीर की | 

एक बार दिल्ली का बादशाह अलाउद्दीन खिलजी अपनी बेगमों के साथ जंगल में शिकार को गया | लेकिन तभी भयानक आंधी तूफ़ान आ गया और सब लोग एक दूसरे से बिछड़ गए | उसकी एक प्रिय बेगम जिसका नाम हमीर रासो में “रूप विचित्रा” लिखा गया है, संभव है यह नाम उसके हिन्दू होने का द्योतक हो, या गलत ही हो, जो भी हो, वह बेगम भी निर्जन बियाबान जंगल में एक शेर के सामने पहुँच गई | लेकिन इसके पहले कि शेर उसका शिकार करता, बादशाह की सेना के ही एक बहादुर मंगोल सरदार महिमा शाह ने अपने वाण से उसका काम तमाम कर दिया और बेगम की जान बचाकर उसे सकुशल डेरे तक पंहुचा दिया | बहादुर महिमा शाह अलाउद्दीन की शक्की फितरत जानता था, अतः उसने बेगम को सख्त ताकीद दी कि उसके द्वारा की गई प्राणरक्षा की बात बेगम कभी भी बादशाह को न बताये | महिमा शाह और मीर गभरू ये दो भाई बादशाह की सेना के सबसे बहादुर सेनानियों में से थे | बेगम ने उस समय की ये घटना बादशाह को नहीं बताई और बात आई गई हो गई | 

एक दिन आधी रात को जब अलाउद्दीन शयन कक्ष में अपनी उसी बेगम के साथ था, करम का मारा एक चूहा वहां आ निकला, जिसे देखकर बेगम थोडा डरी, किन्तु बादशाह ने एक तीर से उसे मार डाला | जब हंसते हुए अलाउद्दीन ने बेगम से कहा – देखा इसे कहते हैं मर्दानगी, तो झेंपकर बेगम बोली – जाओ जाओ ज्यादा बहादुरी मत दिखाओ, असली मर्द तो वह था, जिसने जंगल में एक शेर को मारकर मुझे बचाया था और आपकी तरह शेखी भी नहीं बघारी | बादशाह की त्योरियां चढ़ गईं और उसने डपट कर पूरा किस्सा जाना | बस फिर क्या था, महिमा शाह को तुरंत तलब किया | डरी हुई बेगम ने दरख्वास्त की, कि यदि आप मेरी जान बचाने वाले को प्राण दंड देना चाहते हैं, तो पहले मेरी भी जान लीजिये | बेगम की प्रार्थना मानकर उस बहादुर महिमा शाह को बादशाह ने जान से तो नहीं मारा, पर अपने राज्य से जाने का फरमान सुना दिया | महिमा शाह अपने भाई मीर गभरू से आख़िरी बार मिलकर दिल्ली से रुखसत हुआ | 

क्रूर अलाउद्दीन से तिरस्कृत महिमा शाह भारत के जिस भी राजा के पास जाता, वह बादशाह के डर से उसे तुरंत अपने यहाँ से विदा कर देता | किन्तु जब वह राव हमीर की ड्योढी पर पहुंचा तो उसे दम दिलासा तो मिला ही सम्मान के साथ शरण भी मिली | उन दिनों चौहान वंश के वीर हमीर की कीर्ति पताका चारों ओर फहरा रही थी | उस समय मालवा के धार से लेकर पुष्कर और आबू तक के राजाओं को उन्होंने युद्ध में पराजित कर अपने शौर्य का परिचय दिया था | उधर बादशाह के गुप्तचरों ने जब यह समाचार उसे दिया तो अलाउद्दीन पूँछ कुचले सर्प की तरह क्रोधित हो उठा | उसने पहले तो हमीर के पास दूत द्वारा सन्देश भेजा कि या तो उसके अपराधी को शरण ना दे, अन्यथा परिणाम भुगतने को तैयार रहे | किन्तु रणथम्ब से जबाब तुर्की बतुर्की ही आया | हमीर ने जबाब भेजा कि आपको जो दिखे सो करो, मैं तो जीवन पर्यंत अपने प्रण का पालन करूंगा, शरणागत की रक्षा करूंगा | 

क्रोधित अलाउद्दीन अपने लाव लश्कर के साथ चढ़ दौड़ा | निरपराध प्रजाजनों का कत्लेआम करते हुए, उसने नल हारणों गढ़ को तो जीत लिया, लेकिन उसके बाद हमीर सिंह के पांच सरदारों अभय सिंह परमार, भूरसिंह राठौर, हरिसिंह बघेला, रणदूला चौहान और अजमत सिंह ने ऐसा पराक्रम दिखाया कि शाही फ़ौज के पैर उखड गए | उसने एक बार फिर संधि की कोशिश करते हुए हमीर के पास सन्देश भेजा कि अगर महिमा शाह को उसके हवाले कर दिया जाए, तो वह वापस दिल्ली लौट जाएगा और फिर कभी इधर का रुख नहीं करेगा | लेकिन हमीर का जबाब फिर वही आया – सूर्य चाहे पश्चिम से उदय होने लगे, समुद्र मर्यादा छोड़ दे, शेष प्रथ्वी छोड़ दें, अग्नि शीतल हो जाए, परन्तु राव हमीर का अटल प्रण नहीं टल सकता | इस नश्वर शरीर के लिए मैं शरणागत को त्यागकर अपने कुल में कलंक नहीं लगा सकता | हमीर का पत्र पाने के बाद लाल पीले हुए अलाउद्दीन ने एक बार फिर रणथम्ब किले को चारों और से घेर लिया | राजपूत सेना की कमान अब हमीर के चाचा रणधीर ने संभाली | उधर किले से सेना तीरों और गोलों की बारिश कर रही थी, इधर रणधीर अपने जांबाज सैनिकों के साथ शत्रुदल में घुस पड़े | मुस्लिम सेना नायक मुहम्मद अली उसके बाद अजमत खान उसके बाद बादित खान के लहू से उनकी तलवार ने अपनी प्यास बुझाई | अलाउद्दीन ने भी इस दुर्जेय किले पर कब्जे में कठिन समझकर रणधीर के स्वामित्व के किले छाड़गढ़ की ओर रुख किया, जहाँ उनका परिवार रहता था | अलाउद्दीन ने सोचा था कि अपने परिवार पर संकट देखकर शायद रणधीर शरण में आ जाएगा, किन्तु ये राजपूत तो किसी और ही मिट्टी के बने थे | राव रणधीर के दो बेटों ने मुस्लिम सेनानायक जमाल खान का बहुत बहादुरी से सामना किया और खोपड़ी के दो टुकडे कर उसे काल के गाल में पहुंचा दिया | किन्तु अंततः दोनों वीर सपूत मातृभूमि की बलिवेदी पर निछावर हो गए | उस युद्ध का रोमांचक विवरण हमीर रासो में कुछ इस प्रकार किया गया है – 

तबै वीर बालन्नसी कोप कीनो, महातेग जम्माल के माथ दीनो, 

कट्यो टोप ओपं लगी जाय मथ्थं, तबै मीर बालन्न भयं लुत्थबत्थं | 

कटार कुमार चलायो सुभारी, पर्यो मीर जम्माल भू में सुथारी, 

सबै साथी जम्माल के कोपि धाये, तिन्हें मार बालन्न धरणी गिराए ! 

किते सेल खेलं, करे वार पारं, भभक्के घटे घाव छुट्टे पनारं, 

बहे तेग बेगं, परे शीश भारी, उड़े घोर रुंडम, परे मुंड कारी | 

महिमा शाह की अद्भुत शौर्य गाथा

अपने दोनों पुत्रों के अमर बलिदान की गाथा सुनकर नरकेसरी रणधीर का सीना गर्व से फूल गया | छाड़गढ़ में रहने वाले अपनों को बचाने के लिए उन्होंने अपने सैन्यदल के साथ अलाउद्दीन पर हमला कर दिया | छाड़गढ़ में रहने वालों ने जब देखा कि उनका स्वामी युद्ध क्षेत्र में है, तो वे भी किले से बाहर आकर खुले युद्ध में शत्रु सेना पर टूट पड़े | राजपूत सेनानी प्राणों का मोह त्याग चुके थे | इस युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए राव रणधीर सहित तीस हजार राजपूतों का बलिदान हुआ और छाड़गढ़ का किला अलाउद्दीन के अधीन हो गया | किले में मौजूद महिलाओं ने जौहर की ज्वाला में दिव्यपथ गमन किया | 

छाड़गढ़ को जीतकर एक बार फिर अलाउद्दीन ने रणथंभ पर चढ़ाई की | लेकिन ऊंचे पहाड़ों पर बना और चारों ओर गहरी खाईयों से घिरा यह अभेद्य दुर्ग मानो उसे मुंह ही चिढाता रहा | खाईयों को लकड़ी से पाटने की कोशिश की जाती तो ऊपर से बरसने वाले आग के गोले उन्हें जला डालते, नीचे से चलाई जाने वाली तोपों के गोले तो ऊपर बुर्ज तक नहीं पहुँच पाते, किन्तु ऊपर से छूटे गोले जरूर अलाउद्दीन की फ़ौज का भारी नुक्सान करते | बादशाह को समझ में नहीं आ रहा था, की वह करे तो क्या करे | वह घेरा डाले इस इन्तजार में पड़ा रहा कि कभी तो किले में रसद ख़त्म होगी और आमने सामने की लड़ाई के लिए हमीर को विवश होना पड़ेगा | ग्यारह महीने इसी तरह बीत गए | किन्तु तभी उसके हाथ में एक गद्दार आ गया | हमीर का खजांची सुरजनसिंह उससे मिल गया और उसने रसद छुपा दी | स्वाभाविक ही किले के अन्दर मौजूद लोगों को खाने पीने की कठिनाई होने लगी | 

यह स्थिति देखकर एक दिन महिमा शाह ने हमीर से कहा कि अब बहुत हुआ राव साहब, अब तो आप मुझे अलाउद्दीन के पास जाने की अनुमति दे दो | यह सुनते ही हमीर की आँखों से शोले बरसने लगे | उन्होंने गरज कर कहा कि तुम क्या मुझे कायरता का पाठ पढ़ा रहे हो | अगर तुम्हे शाह के पास भेजकर मैं स्वयं राज भोग करूंगा तो मरने के बाद अपने पूर्वजों को क्या मुंह दिखाऊंगा | ऐसे कायरता पूर्ण कृत्य से तो शाका करना बेहतर है | किन्तु तुम क्यों हमारी तरह जान देते हो | गुपचुप किले से निकल कर कहीं और चले जाओ | यह जबाब सुनकर महिमा शाह उस समय तो उनके सामने से हट गया, किन्तु कुछ समय बाद वह फिर हमीर के पास पंहुचा और बोला – राव साहब मेरी बेगम आपसे कुछ कहना चाहती है, कृपया मेरे आवास पर पधारें | 

हमीर ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और उसके निवास स्थान पर पहुंचे | किन्तु वहां जाकर जो नजारा उन्होंने देखा, उससे उन जैसे कठोर ह्रदय योद्धा की आँखें भी छलछला आईं | रुंधे कंठ से बोले भाई महिमा ये क्या किया तुमने | उनकी आँखों के सामने महिमा शाह की पत्नी का शव पड़ा था | सर अलग, धड अलग | महिमा शाह ने कहा अब तो आप मुझे जाने के लिए नहीं कहेंगे, मैं और मेरे बेटे अब आपके साथ ही रणक्षेत्र में अलाउद्दीन से दो दो हाथ करने को तत्पर हैं | आँखों में आंसू लिए हमीर अपने महल में लौट आये | उसी दिन दरवार बुलाया गया | सभी सरदारों से हमीर बोले – अब धर्म के लिए प्राण न्योछावर करने का समय आ गया है, अतः जिनको अपनी मृत्यु प्यारी हो केवल वे ही मेरे साथ रहें और अगर जीवन प्यारा है तो खुशी से जहाँ चाहें वहां जा सकते हैं | किसी के जबाब की प्रतीक्षा किये बिना राव हमीर सभा से उठ गए | 

दूसरे दिन अरुणोदय होते ही हमीर ने गंगाजल स्नान किया, केसरिया बाना पहना और अपने इष्टदेव भगवान शिव की आराधना उपरांत रण भूमि प्रस्थान हेतु बाहर निकले | किले के प्रांगण में सभी शूरवीर राजपूत शस्त्रास्त्रों से सन्नद्ध योद्धा वेश में पहले से ही उपस्थित थे | चारों और हर हर महादेव का निनाद गूँज उठा | हाथी, घोड़े, ऊँट पर सवार, तो विकराल कालिका का अवतार सी तोपें चलाने को सन्नद्ध सेनानी, साथ में पैदल हथियारबंद हजारों योद्धा, जंग रंग में मदमाते किले से बाहर निकल पड़े | टिड्डीदल के समान विशाल मुस्लिम सेना से जूझने | देखते ही देखते दोनों सेनायें समुद्र की तरह उमड़ कर एकदूसरे पर टूट पडीं | तेगा, तलवार, छुरी, कटार, फर्सा एक दूसरे से टकराकर झंकार कर रहे थे, तो अल्लाहो अकबर और हर हर महादेव के निनाद से आसमान कम्पित हो रहा था | क्षण मात्र में वह रणभूमि साक्षात करुणा और बीभत्स रस का प्रतिरूप हो गई | कहीं शूरवीर सिपाहियों के शव, तो कहीं मृत हाथी, घोड़ों, ऊंटों के चट्टानों की तरह पड़े शरीर | रक्त से कीचड़ जैसी हो चुकी थी धरती | 

ऐसे में बादशाह के सामने पहुंचा महिमा शाह | अलाउद्दीन गरज कर बोला, जो कोई इसे जीवित पकड़कर लाएगा उसे तीस हजारी जागीर के साथ नौबत, निशान और तलवार ईनाम में दी जायेगी | यह सुनते ही खुरासान नामक एक सरदार आगे बढ़ा | लेकिन इस समय तो महिमाशाह साक्षात काल का अवतार प्रतीत हो रहा था, उसकी एक न चली और देखते ही देखते उसका मृत शरीर भी चील कौओं का शिकार बनने के लिए जमीन पर गिरा नजर आने लगा | बादशाह पर भी उसकी वीरता का प्रभाव पड़ा और बेसाख्ता उसके मुंह से निकला – मीर महिमा शाह मैं सच्चे दिल से तेरी तारीफ़ करता हूँ | तू कहाँ काफिरों की तरफ से लड़ रहा है, लौट आ, मैं तुझे माफ़ करता हूँ | अगर तू मेरे साथ आ आ जायेगा तो मैं सारे फसाद की जड़ उस बेगम को भी तुझे ही सोंप दूंगा | 

महिमाशाह ने सहज भाव से कहा, आपकी सारी बातें फिजूल हैं, मैं गद्दार नहीं हूँ, अब तो मैं इस जनम में क्या अगले जन्म में भी राव हमीर का साथ नहीं छोड़ सकता | 

जब जननी जनमे बहुरि, धरूं देह कहुं आनि, 

तऊ न तजों हमीर संग, सत्य वचन मम जानि ! 

बादशाह ने कुढ़कर अब उससे लड़ने के लिए उसके भाई मीर गभरू को ही आदेश दिया | दोनों भाई आख़िरी बार गले मिले और फिर जूझ पड़े अपने जीवन के अंतिम संग्राम में | दोनों समान बली थे , पहले दोनों भाई तलवार से लडे और फिर अंतिम सांस तक रोमांचक द्वन्द युद्ध हुआ | समान बल के दोनों सहोदरों ने लड़ते लड़ते एक साथ रणभूमि में अपने प्राण त्यागे | 

हमीर का महाप्रयाण

रणभूमि में महिमा शाह और उसके भाई मीर गभरू की रक्तरंजित लाशें साथ साथ पड़ी हुई थीं | युद्ध कुछ समय के लिए रुक गया था | एक ओर हाथी पर बादशाह अलाउद्दीन खिलजी तो दूसरी ओर घोड़े पर सवार राव हमीर उन बहादुरों सम्मान में मौन खड़े थे | अलाउद्दीन में मानो श्मशान वैराग्य जागा और वह हमीर से बोला | जिस महिमा शाह के कारण युद्ध हुआ, अब वह इस फानी दुनिया से ही जा चुका है | मैं आपकी वीरता और बहादुरी से प्रसन्न हूँ और आपको अपनी तरफ से पांच परगने और देता हूँ | आप स्वच्छंदता पूर्वक रणथम्भ का राज्य कीजिए | मैं अब कभी इस ओर नहीं आऊंगा | 

हमीर ने जबाब दिया, मुझे भीख में दिया कुछ भी नहीं चाहिए | जो भी कुछ लूंगा, अपने बाहुबल से लूंगा | अलाउद्दीन चिढ गया और उसने अपनी सेना को आक्रमण की आज्ञा दे दी | युद्ध एक बार फिर शुरू हो गया | इस युद्ध में हमीर की तरफ से भीलों के सरदार भोजराज तो बादशाह की ओर से सिकंदर नामक कंधार योद्धा ने अतुलनीय पराक्रम दर्शाया | दोनों पक्षों के हजारों सैनिक मारे गए | उस महायुद्ध का वर्णन हमीर रासो में कुछ इस प्रकार किया गया है – 

छुटे बाण कम्मान ज्यों मेघ धारा, 

लगे बाज गज्जम हुवे वारपारा , 

परे शीश भूमे, उठे रुंड घोरं, 

दुहूँ सेन देखंत कोतुक्क जोरं, 

किलक्कै जु काली, हँसे बार बारं, 

करें भैरवं घोर, शोरं अपारं ! 

हमीर ने अब आरपार की लड़ाई की हठ ठान ली अतः वे अपने सेनानियों से बोले – हे वीरवर योद्धाओं, अब मेरी यही इच्छा है कि तोप वाण बन्दूक की लड़ाई छोड़कर केवल तलवार, कटार से काम लो और अपने पराक्रम से युद्ध में विजय प्राप्त करो या फिर स्वर्ग की सीढी चढो | राव जी का इशारा समझकर सभी राजपूत अब मरने मारने पर उतारू हो गए | इन भूखे शेरों की मार से भयभीत मुस्लिम सेना भयभीत भेड़ों की तरह जान बचाने को भागने लगी | यहाँ तक कि अलाउद्दीन अकेला पड़ गया और राजपूत सैनिक उसके हाथी को घेरकर उसे राव हम्मीर के सम्मुख ले आये | हम्मीर ने एक बार फिर वही गलती की, जो उनके पूर्वज प्रथ्वीराज ने सत्रह बार मुहम्मद गौरी को छोड़कर की थी | हमीर ने कहा कि विवश शत्रु को क्या मारना, इन्हें ससम्मान छोड़ दो | सर झुकाए अलाउद्दीन ने पराजय की कसक मन में लिए दिल्ली की तरफ कूच कर दिया | 

विजय के उन्माद में राजपूत सेना नाचते गाते जीते हुए मुग़ल निशानों को उछालते हुए और नगाड़ों को बजाते हुए रणथम्भ किले की तरफ बढी | धुल के इस उठते गुबार को किले की तरफ बढ़ते देखकर किले में मौजूद महारानी रंगदेवी ने समझा कि यह मुग़ल सेना जीतकर किले की तरफ बढ़ रही है | किले में उपस्थित सभी महिलाओं ने जौहर की ज्वाला प्रज्वलित की और उसमें अपने आप को दग्ध कर लिया | कुमारी राजकुमारी ने तालाब में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए | जब विजई हम्मीर ने किले में पहुंचकर यह दृश्य देखा तो शोक सागर में डूब गए | उन्होंने शिव मंदिर में जाकर अपने ही हाथों से अपना शीश कमल खंग से काटकर शिवजी को अर्पित कर दिया | 

खैर यह तो हुई हमीर रासो में वर्णित कहानी, जिसमें कवि की कल्पना का पुट भी हो सकता है |किन्तु नयनचंद्र सूरी नामक एक जैन संत ने पंद्रहवीं शताब्दी में लिखित अपने संस्कृत काव्य हम्मीर में वर्णन कुछ भिन्न प्रकार से है | उसके अनुसार जौहर पहले हुआ और उसके बाद राजपूत सेना युद्ध के लिए उतरी | राजपूतों ने अत्यंत वीरता से युद्ध किया, यहाँ तक कि अलाउद्दीन खिलजी के भाई उलुग खां और नुसरत खां भी युद्ध में मारे गए | लेकिन अंततोगत्वा सभी राजपूती सेनानियों ने लड़ते लड़ते वीरगति पाई | स्वयं हमीर भी जब तक शरीर में सामर्थ्य रहा तलवार चलाते रहे, किन्तु जब अनेक भालों से बिंधकर शरीर युद्ध भूमि में गिरा, तो शत्रु के हाथों पकडे जाने और अपमानित होने की आशंका से उन्होंने हर हर महादेव कहते हुए अपने मस्तक को अपने हाथ से काट दिया | सचाई जो भी, राजस्थान की लोक मान्यता पहली गाथा के पक्ष में है, तो इतिहासकार दूसरे अभिमत को सत्य मानते हैं | लेकिन दो बातें स्पष्ट है -राज ललनाओं का जौहर और हमीर का वीरतापूर्ण प्राणोत्सर्ग | कौन ऐसा स्वदेशाभिमानी होगा, जिसका मस्तक हमीर की गाथा पढ़कर गर्व से उन्नत न होता होगा | 

कितना विचित्र है कि 7 जुलाई 1272 को जन्मे और 11 जुलाई 1301 को मात्र 29 वर्ष की आयु में शरीर त्यागने वाले इस महान योद्धा की कहानी सैकड़ों बाद भी हम और आप कह सुन रहे हैं और न जाने कितने हजार वर्षों तक कही सुनी जाती रहेगी – 

सिंह सुवन, सत्पुरुष वचन, कदली फलै इक बार । 

तिरिया तेल हमीर हठ, चढ़ै न दूजी बार।। 

सिंह की संतान एक, सत्पुरुष के वचन एक, केले में फल एक ही बार, स्त्री को तेल एवं उबटन एक ही बार, अर्थात उसका विवाह एक ही बार, कुछ ऐसी ही है हमारे कथानायक राव हमीर की हठ । जो ठाना उस पर दुबारा विचार नहीं किया।
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