भरतपुर का जाट साम्राज्य (भाग -1) - बलिदानों की नींव

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मेरी यह दृढ मान्यता है कि भारत को लेकर किसी इतिहासकार ने तटस्थ लेखन नहीं किया | गुलामी के काल में चाहे मुस्लिम लेखक हो या अंगेज, जिस...



मेरी यह दृढ मान्यता है कि भारत को लेकर किसी इतिहासकार ने तटस्थ लेखन नहीं किया | गुलामी के काल में चाहे मुस्लिम लेखक हो या अंगेज, जिसने भी लिखा, अपने अपने नजरिये से लिखा, लेकिन दुर्भाग्य की पराकाष्ठा देखिये कि स्वतंत्र भारत में भी जिन लोगों ने भारत के सकारात्मक पक्ष को उजागर किया, उसे सत्तासीनों ने चर्चित नहीं होने दिया और चर्चा के केंद्र बिंदु बने वे इतिहासकार जिन्होंने तटस्थ लेखन के नाम पर भारतीय नायकों को या तो महत्व ही नहीं दिया या फिर खलनायक बनाकर चित्रित किया | भारत की बहादुर कौम जाटों के साथ भी ऐसा ही हुआ है | 

1025 ईसवी में सोमनाथ से लौटती हुई महमूद की सेना पर जाटों का साहसिक आक्रमण सर्व विदित है | 1192 में कुतबुद्दीन ऐबक को भी जाटों से दो दो हाथ करने में छक्के छूट गए थे | तैमूर ने जब पंजाब पर आक्रमण किया तो उसे भी जाटों का सामना करना पड़ा था | लेकिन इसके बाद भी अठारहवीं शताब्दी के शाह वलीउल्लाह ने लिखा कि शाहजहाँ के शासनकाल तक जाटों को केवल खेतीबाड़ी करने की अनुमति थी | उन्हें घोड़े की सवारी करने तथा बन्दूक रखने की अनुमति भी नहीं थी | दिल्ली के मुग़ल बादशाह और जयपुर राज घराने के बीच हुई खतो किताबत में जाटों के लिए अपमान जनक “जाट ए बदजात” शब्द प्रयोग मिलता है | उन लोगों ने एक कहावत को जन्म दिया कि जाट और घाव तो बंधा ही भला | स्वाभाविक ही प्रारम्भ से ही दिल्ली की मुग़ल सल्तनत सदा जाटों से सतर्क रही | उस समय के एक सूदन नामक कवि की प्रसिद्ध रचना है सुजान चरित्र, जिसमें हमारे कथानायक सूरजमल की वीरता का वर्णन है | उसमें कवि के अनुसार सूरजमल उपाख्य सुजान सिंह की मान्यता थी कि - 

बदी करे तासों बदी, करत दोषु नहीं कोय, 

अब याको हों मारिहों, होनी होय सु होय | 

जो मेरे साथ बुरा करेगा, उसके साथ बुरा करने में कोई दोष नहीं है, चाहे कुछ हो जाए, मैं उसे नहीं छोडूंगा | दूसरे शब्दों में कहें तो इस बहादुर कौम की मान्यता थी कि जो तोकूं काँटा बुवे, ताहि बोहि तू भाला, वो भी लाला याद करेगा, पड़ा किसी से पाला | अब सवाल उठता है कि मुख्यतः भगवान श्री कृष्ण की लीलाभूमि में बसने वाले जाटों की ऐसी मानसिकता बनी क्यूं ? तो उस दौर की कुछ घटनाओं पर नजर डालते हैं – 

मथुरा का लम्पट फौजदार मुर्शिद कुली खां तुर्कमान जन्माष्टमी के अवसर पर गोवर्धन के विशाल मेले में, हिन्दुओं की तरह माथे पर तिलक लगाकर और धोती पहिनकर शामिल हो गया | एक सुन्दर स्त्री पर उसकी नजर थी, भेड़ों की रेवड़ पर जैसे भेडिया झपटता है, बैसे ही उसे दबोचकर वह नदी किनारे खडी नाव में घसीट ले गया और तेजी से आगरे की तरफ रवाना हो गया | लेकिन उसे किये का दंड मिला और 1638 में वह जाटों के हाथों मारा गया | मथुरा के केशव देव मंदिर को खँडहर बनाकर उस पर मस्जिद बनाने की घटना तो सभी जानते हैं | 

ऐसी सामाजिक दुरावस्था के दौर में पहला जाट विद्रोही 1669 में सामने आया. नाम था उसका गोकलिया | उसने मुग़ल सल्तनत को ऐसी चुनौती दी कि उनके छक्के छूट गए | सिनसिनी में पैदा हुए इस सूरमा में जबरदस्त संगठन क्षमता थी और था अदम्य साहस व जीवट | यही था सूरजमल का पहला चर्चित पूर्वज | उसने जहाँ एक ओर तो आगरा और दिल्ली के बीच आने जाने वाले मुग़ल काफिलों को लूटना शुरू किया, तो दूसरी ओर इलाके के जाट अहीर और गूजरों से कहा कि वे अत्याचारी मुगलों को मालगुजारी देना बंद कर दें | फिर क्या था गोकलिया के चारित्रिक गुणों और जुझारू तेवरों ने जाट समाज के साहसी व क्रांतिवीर युवाओं को उसके झंडे के नीचे संगठित कर दिया | दुराग्रही इतिहासकारों ने लिखा कि यह लूट तथा हिस्सेदारी का संगठन था | इन लोगों ने इन बहादुरों के माथे पर लुटेरा शब्द की चिप्पी चिपका दी | 

लेकिन सचाई यह है कि यह संगठित शक्ति अत्याचारी औरंगजेब के विरुद्ध जाटों का विद्रोह था | जब मथुरा के फौजदार अब्दुल नवी खान ने जाटों के प्रमुख गढ़ मौजा सोहरा पर हमला किया, तो वह स्वयं ही मारा गया | इसके बाद औरंगजेब ने पहले तो रदन्दाज खां को मथुरा का फौजदार बनाकर जाट विद्रोह को थामने का प्रयत्न किया, किन्तु जब सफलता नहीं मिली तो खुद औरंगजेब 28 नवम्बर 1669 को सेना लेकर आया | और फिर 4 दिसंबर को दो सौ घुड़सवार, एक हजार तीरंदाज, पच्चीस तोपों के साथ हसन अली खां और रजीउद्दीन भागलपुरी के नेतृत्व में आई इस विशाल सेना का मुकाबला गोकुला ने बड़ी बहादुरी से किया, किन्तु तोपखाने का उनके पास कोई तोड़ नहीं था | तीन दिन की घमासान लड़ाई के बाद वह तिलपत गाँव बलिदान और शौर्य की लोमहर्षक गाथा का प्रत्यक्षदर्शी बना | चार हजार मुग़ल सैनिक और पांच हजार जाट मारे गए | युवा जाट योद्धा जब सर पर कफ़न बांधकर युद्धक्षेत्र में उतरे तो महिलाओं को अपने हाथों से मारकर गाँव से निकले | अधिकाँश वीरगति को प्राप्त हुए, किन्तु गोकुला, उनके चाचा उदय सिंह और गोकुला के दो मासूम बच्चे – एक लड़का एक लड़की जिन्दा पकड़ लिए गए | गोकुला और उदयसिंह को आगरा लाया गया और जब उन्होंने मुसलमान बनने से इनकार कर दिया तो आगरा कोतवाली के सामने उनकी बोटी बोटी काटकर फेंक दी गई | गोकला की नाबालिग बेटी की शादी गुलाम शाह कुली से कर दी गई तो लडके को मुसलमान बनाकर कुरान पढ़ाने के लिए जवाहर खां नाजिर की सरपरस्ती में दे दिया गया | 

कुछ मित्र कहते हैं कि इस तरह की घटनाओं का वर्णन करने से भारत की गंगा जमुनी तहजीब को चोट पहुँचती है और हिन्दू मुसलमानों के बीच खाई बढ़ती है | नहीं वन्धुओ, इन घटनाओं का जिक्र बेहद जरूरी है | दिल पर हाथ रखकर कहिये कि आपमें से कितनों को पहले से गोकुला जाट की जानकारी थी ? क्या उसका शौर्य और बलिदान इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिए जाने योग्य है ? मित्रो आज के मुसलमानों में ही कोई गोकुला का वंशज भी होगा | क्या उसे यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि भाई औरंगजेब ने तुम्हारे पिता के साथ जुल्म किया था, इसलिए हिन्दुओं के ही समान तुम भी औरंगजेब को नापसंद करो ? और जो औरंगजेब के वंशज मुसलमान देश में हैं, उन्हें भी अपने इस पूर्वज के दुष्कृत्यों के प्रति क्या शर्मिंदगी का अहसास नहीं होना चाहिए ? इन घटनाओं के जिक्र के बिना, मुसलमान बंधुओं को आईना नहीं दिखाया जा सकता | जब तक हर भारतवासी के मन में शत्रु कौन मित्र कौन यह भाव समान नहीं होंगे, तब तक गंगा जमुनी तहजीब की बात केवल जवानी जमाखर्च भर रहेगी | एक हाथ से ताली नहीं बजती | दुर्भाग्य से वोट की राजनीति ने इतिहास की सही व्याख्या नहीं होने दी और नफ़रत की दीवार खडी होती रही | हिन्दूओं में तो यह मानने वाले कई मिल जायेंगे कि भारतीय मुसलमानों में पिंच्यानवे प्रतिशत गोकला जैसे लोगों के वंशज हैं, लेकिन दुर्भाग्य से मुसलमान स्वयं को महज औरंगजेब का वंशज ही मानते आ रहे हैं | जरूरी है उन्हें अपने वास्तविक पूर्वजों से जोड़ने की | मेरे लेखन और वक्तव्यों का महज यही लक्ष्य है | मार्क्स ने कहा था – गुलाम को गुलामी का अहसास करा दो, वह विद्रोह कर देगा | आज जरूरी है मुसलमानों को उनके वास्तविक पूर्वजों का अहसास कराने की, उसके बिना गंगा जमुनी तहजीब केवल सपना भर है | 

गोकुला का बलिदान व्यर्थ नहीं गया, उसने जाटों के दिलों में स्वतंत्रता का अंकुर पैदा कर दिया | औरंगजेब की क्रूरता और दमनपूर्ण नीति ने गोकुला के बलिदान की आभा को ज्वाजल्यमान बनाये रखा | जून 1681में एक बार फिर ग्रामीणों ने हल छोडकर हथियार उठाये, जिसमें आगरा का फौजदार मुल्तफत खान मारा गया | अब नेतृत्व कर रहे थे सिनसिनी के जाट नेता राजाराम और सोगर दुर्ग के स्वामी रामचेहरा | एक घटना ने इन दोनों को पूरे अंचल का नायक बना दिया | हुआ कुछ यूं कि सिनसिनी से चार मील उत्तर की ओर आऊ नामक गाँव का दरोगा लालबेग बहुत ही अय्यास और बदमाश था | एक दिन एक अहीर अपनी नव विवाहिता पत्नी के साथ गाँव के कुए पर पानी पीने रुक गया | अय्यास दरोगा के भिश्ती ने उस अहीर युवती की सुन्दरता का बखान लालबेग से किया, बस फिर क्या था, सिपाही दोनों को पकड़कर थाने ले आये | अहीर को तो मारपीट कर भगा दिया गया और युवती पहुँच गई लालबेग के हरम में | जल्द ही इस काण्ड की जानकारी राजाराम को मिली | बस फिर क्या था – घांस और चारे की गाड़ियों में छुपकर राजाराम और उसके तूफानी सैनिक गाँव में पहुँच गए और असावधान सिपाहियों पर हमला कर दिया | लालबेग भी मारा गया | इस एक घटना ने राजाराम को बहुत प्रसिद्धि प्रदान कर दी | 

राजाराम और रामचेहरा की जुगलबंदी ने अव्यवस्थित जाट समुदाय को छापामार आक्रमणों में पारंगत ऐसी सुव्यवस्थित सेना का रूप प्रदान कर दिया, जिसने आगरा जिले में एक प्रकार से मुग़ल सत्ता का अंत ही कर दिया था | सुविधाजनक स्थानों पर और दुर्गम जंगलों में छोटी छोटी गढ़ियाँ बनाई गईं, जिन पर गारे की ढलुआ परतें चढ़ा कर उन्हें बेहद मजबूत बनाया गया | राजाराम गोकला की ह्त्या का बदला लेने पर आमादा था | 

3 मई 1686 को क्रुद्ध सम्राट ने सेनापति खान ए जहाँ को जाटों को सबक सिखाने हेतु रवाना किया | किन्तु उसके आगमन के समाचार ने जाटों के होंसले और बुलंद कर दिए और उन्होंने धौलपुर के नजदीक तूरानी योद्धा अगहर खान के काफिले पर हमला करके उसे व उसके अस्सी सैनिकों को मार डाला | राजाराम के दुस्साहस तथा खान ए जहाँ की असफलता से चिढ़े औरंगजेब ने दिसंबर 1687 में आमेर के राजा रामसिंह को मथुरा की फौजदारी सोंपकर शहजादे बेदार बख्त को भी उसकी मदद के लिए भेजा | इससे कोई अंतर नहीं पड़ा और 27 फरवरी 1688 को तो जाटों ने मानो घोषित रूप से गोकुल की ह्त्या का बदला ले ही लिया | सीधे आगरा पर चढ़ाई कर सिकंदरा स्थित शहंशाह अकबर के मकबरे को ध्वस्त कर दिया | इतना ही नहीं तो ताजमहल के बेशकीमती दरवाजे भी, जिन पर बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे और सोने चांदी के पत्तर चढ़े हुए थे, तोड़कर लूट लिए गए | औरंगजेब ने आंधी के बीज बोये थे और उसके लिए बवंडरों की फसल तैयार थी | हिन्दू मंदिरों के लगातार विध्वंश और उनके स्थान पर मस्जिदों के निर्माण ने समाज में जो क्रोध और प्रतिशोध की ज्वाला प्रज्वलित कर दी थी, यह उसका प्रगटीकरण था | 

लेकिन अति आत्मविशवास घातक साबित हुआ | मेवात के बाग़थेरिया में जमींदारी को लेकर चौहान और शेखाबतों में संघर्ष हुआ | फटे में टांग अडाते हुए राजाराम चौहानों की और से कूद पड़े | 4 जुलाई 1688 को बीजल गाँव के निकट हुए इस भीषण युद्ध में मेवात के फौजदार सिपहदार खां के सिपाहियों की गोलियों से राजाराम और सोघरिया सरदार की मौत हो गई | और इस तरह बेदार बख्त का अभियान बिना कुछ किये धरे ही सफल हो गया | विद्रोहियों का मनोबल कमजोर करने के लिए राजाराम का सर आगरा कोतवाली पर लटका दिया गया और जनवरी 1690 को शाही सेना ने सिनसिनी पर अधिकार कर लिया | राजाराम का बेटा जोरावर भी गिरफ्तार कर दक्षिण भेज दिया गया, जहाँ औरंगजेब ने उसे नृशंसता पूर्वक मरवा दिया | राजाराम के दूसरे बेटे फतहसिंह ने इस्लाम कबूल कर लिया व फतहउल्लाह बनकर मुग़ल मनसबदार हो गया | 

लेकिन केवल जाटों ने ही नहीं, बल्कि पूरे बृजमंडल ने सिनसिनी को अब आजादी का प्रतीक मान लिया | करौली के यादव, नदवई के चौहान, बयाना – हिण्डोंन- भुसावर के पंवार, यहाँ तक कि मेवात के मेव भी जाटों के साथ हो गए | जाटों के विरुद्ध अभियान की बागडोर अब कछवाहा राजा विशनसिंह को सोंप दी गई | जबकि नए जाट नायक थे सिनसिनी के ही चूडामन, जिसका चुनाव जाटों की महापंचायत में हुआ | चूडामन जाट का जीवन चरित्र स्वतंत्रता के लिए जाट संघर्ष का ज्वलंत वृतांत है | चूडामन में जहाँ संगठन कौशल था, बहीं अवसरों का चतुरता पूर्वक लाभ उठाने का बुद्धि कौशल भी | बैंडल के अनुसार वह अपने पूर्वजों से भी अधिक साहसी था, उसने अपने सैनिकों की संख्या बढाई, उन्हें बंदूकची और ऐसा सिद्धहस्त घुड़सवार बनाया, जो घोड़े पर ही सवार रहते अचूक निशाना लगा सकते थे | फिर तो उसने आगरा और दिल्ली के बीच अनेक मंत्रियों, शाही तोपखाने और प्रान्तों से भेजे जाने वाले राजस्व को भी लूटा | अंततोगत्वा 1704 में चूडामन ने सिनसिनी को मुक्त करा ही लिया लेकिन 9 अक्टूबर 1705 को आगरा के नाजिम मुखत्यार खान ने दूसरी बार सिनसिनी पर शाही आधिपत्य कायम कर दिया | 

सिनसिनी पर बार बार होते हमलों को देखते हुए चूडामन ने अपनी राजधानी थून को बना लिया | औरंगजेब की मौत के बाद उसके अयोग्य बेटों में जो सत्ता संघर्ष हुआ, उसका भरपूर लाभ इस समझदार जाट नायक ने उठाया | वह पहले तो आजम के साथ रहा और मुअज्जम को लूटा और फिर जब देखा कि आजम हार रहा है तो मौके का फायदा उठाकर उस पर भी टूट पड़ा | दोनों मुगलों की नगदी, सोना, अमूल्य रत्नजटित आभूषण, शस्त्रास्त्र, घोड़े, हाथी और रसद उसके हाथ लगी | इसी प्रकार बाद में बादशाह बहादुरशाह की मौत के बाद भी जब उसके बेटे जहांदारशाह ने अपने तीन भाइयों को मारकर खुद को बादशाह घोषित किया और फर्रुखशियर से उसका संघर्ष हुआ, तब भी चूडामन ने बारी बारी से दोनों को लूटकर उनका बोझ हलका किया | उसने उन सैयद बंधुओं को भी लूटा, जिन्होंने फर्रुखशियर को अँधा कर दिया था तो सैयद बंधुओं की ह्त्या के बाद सम्राट बने मुहम्मद शाह के शिविरों को भी लूटा | चतुर चूडामन इन सबके साथ भी रहा किन्तु सहानुभूति इन में से किसी के साथ नहीं थी, उसके मन में तो सदा मुगलों के प्रति बदले की भावना ही रही | 

लेकिन जब बिपुल संपत्ति आती है, तो अपने साथ संकट भी लाती है | लक्ष्मी को चंचला कहा गया है, यह किसी एक की नहीं होती | चूडामन की दुर्भाग्यपूर्ण मौत भी यही कहानी कहती है | उसका एक अत्यंत धनवान संबंधी निसंतान मर गया | रिश्तेदारों ने उसकी सारी जायदाद चूडामन के बड़े बेटे मोहकम सिंह को सोंप दी | छोटे जुलकरण को यह नागवार लगा व उसने भाई से कहा कि इसमें मेरा भी हिस्सा होना चाहिए | बस फिर क्या था दोनों में झगडा होने लगा | चूडामन ने बीच बचाव की कोशिश की तो मोहकम ने उसे गालियाँ देकर अपमानित कर दिया | स्वाभिमानी चूडामन के लिए यह बर्दास्त से बाहर था | वह चुपचाप एक घोड़े पर बैठकर निकला और जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठकर वह विषपान कर लिया, जो उसने किसी दुश्मन के हाथों पराजित होने की दशा में आत्महत्या के लिए अपने पास रखा हुआ था | दुश्मन उसे कभी पराजित नहीं कर पाया, किन्तु मोह ममता ने उसे हरा दिया | इतिहास हमें कुछ न कुछ बैयक्तिक शिक्षा भी देता है |

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क्रांतिदूत : भरतपुर का जाट साम्राज्य (भाग -1) - बलिदानों की नींव
भरतपुर का जाट साम्राज्य (भाग -1) - बलिदानों की नींव
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