भरतपुर का जाट साम्राज्य (भाग -2) - निर्माण गाथा



चूडामन ने ही अपने भाई की मृत्यु के बाद उसके अबोध पुत्र बदनसिंह की भी परवरिश की थी | वह अत्यंत बुद्धिमान, पराक्रमी और योग्य था, अतः लोकप्रिय भी | किन्तु जिस मोहकम सिंह ने अपने अजेय पिता चूडामन को अपमानित कर आत्महत्या के लिए विवश कर दिया, वह अपने चचेरे भाई को क्या छोड़ता ? मोहकम ने पिता की मृत्यु के बाद रास्ते का काँटा मानकर सबसे पहले उसे ही गिरफ्तार किया, किन्तु समाज में हुई तीव्र प्रतिक्रिया से विवश होकर छोड़ने को विवश होना पड़ा | आहत बदनसिंह ने आमेर के राजा जयसिंह के पास शरण ली | जयसिंह को तो मानो कोई ईश्वरीय वरदान मिल गया | दिल्ली सल्तनत ने जाट समस्या को सुलझाने की जिम्मेदारी उसे दे ही रखी थी | उसने भी आव देखा न ताव, बदनसिंह के नेतृत्व में दस हजार घुड़सवार और पचास हजार पैदल सैनिकों के साथ एक विशाल सैन्य दल थून की और रवाना हो गया | 

चूडामन के जीवित रहते लाख कोशिश करने पर भी जयसिंह थून को जीत नहीं पाया था, लेकिन इस बार स्थिति भिन्न थी | बदनसिंह उस क्षेत्र के चप्पे चप्पे से बाकिफ था | सबसे पहले तो इस सेना ने थून के चारों ओर के घने जंगल का सफाया किया, जो एक रक्षा कवच का काम करता था | उसके बाद थून पर हमला हुआ | प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने उस युद्ध का वर्णन करते हुए लिखा कि 18 नवम्बर 1722 को थून का पतन हुआ | मोहकम सिंह ने भागकर अपनी जान बचाई और जोधपुर नरेश अजीत सिंह के पास जाकर शरण ली | चूडामन ने जिन सैनिकों को एकत्रित व संगठित किया था, उनमें से युद्ध के बाद जो जिन्दा बचे, उन्हें विवश किया गया कि वे अपनी तलवारों को गलाकर हलों के फाल बनवाएं | थून शहर को उजाड़कर जमीन को गधों से जुतवाया गया, क्योंकि लोक मान्यता थी कि इससे वह क्षेत्र अभिशप्त हो जाता है | जयसिंह की इज्जत मुग़ल दरबार में और बढ़ गई, उसे राज राजेश्वर की उपाधि मिली | इसके बाद आजीवन बदनसिंह विनम्रता पूर्वक स्वयं को जयसिंह का अनुचर कहता रहा | 

उसके बाद बीस वर्ष तक बदनसिंह निरंतर शक्ति संचय करता रहा और थून और सिनसिनी की राख से ऐक विशाल एवं शक्तिशाली जाट राज्य का संस्थापक बना | बदनसिंह ने अपने प्रभाव को बढाने के लिए हर प्रकार के हथकंडे अपनाए | यहाँ तक कि अनेक विवाह भी किये तो चुनचुनकर शक्तिसंपन्न जाटों से रिश्ता जोड़ने की खातिर | इतने विवाह किये कि एक अंग्रेज इतिहासकार ने चुटकी ली कि वृद्धावस्था में उसे अपने बच्चों के नाम भी स्मरण नहीं रहते थे | उसके बेटे जब चरणस्पर्श कर आशीर्वाद लेते तो अपनी माँ के नाम के साथ अपना नाम बताते | बदनसिंह को सबसे बड़ी सफलता तब मिली, जब जयसिंह ने उसे मेवात के खूंखार मेवों से निबटने की जिम्मेदारी सोंपी | और यहाँ से ही प्रारम्भ हुआ, हमारे कथा नायक सूरजमल का शौर्य प्रदर्शन | इस अभियान की सफलता के बाद मेवात बदनसिंह के अधीन कर दिया गया और उसे बाकायदा आगरा दिल्ली और जयपुर के राजमार्ग पर पथकर रोड टेक्स लेने का अधिकार मिल गया | 

अब प्रभुत्व संपन्न बदनसिंह ने अपनी नई राजधानी के लिए स्थान की खोज शुरू की, क्योंकि थून के साथ अप्रिय यादें जुड़ी हुई थीं, तो सिनसिनी में पेयजल का अभाव था | एक महात्मा प्रीतमदास की सलाह के अनुसार उसने डीग को चुना | एक बड़ा रोचक प्रसंग इससे जुड़ा हुआ है | नई राजधानी निर्माण हेतु भूमि पूजन व नीव खोदने का शुभारम्भ करने हेतु महात्मा जी को ही बुलाया गया | महात्मा प्रीतम दास ने ही शुरूआत की किन्तु जब वे ग्यारह वार फावड़ा चला चुके तो बदनसिंह ने उन्हें रोक दिया और कहा बाबाजी आप थक गए होंगे, बस करो | महात्मा हँसे और बदनसिंह के कंधे पर हाथ रखकर बोले | ग्यारह पर रोक दिया अतः तुम्हारा वंश ग्यारह पीढी तक ही राज्य करेगा | यह भविष्यवाणी आगे चलकर सत्य सिद्ध हुई | 

डीग के किले बगीचों और महलों का निर्माण सन १७२५ में शुरू हुआ और लगभग अस्सी वर्ष तक लगातार चलता रहा | जो भी नया राजा बनता, वो नया भवन, नया मंडप, नए तालाब बनवाता या कुछ न कुछ परिवर्तन करता |इस समय बदनसिंह के पास जन-धन-साधन सभी कुछ था | इस विशाल निर्माण कार्य की देखरेख के लिए उसने जीवन राम वनचारी को अपना निर्माण मंत्री नियुक्त किया | बांसी पहाडपुर से संगमरमर और बरेठा से लाल पत्थर डीग-भरतपुर-कुम्हेर और वैर तक पहुंचाने के लिए एक हजार बैल गाड़ियां, दो सौ घोड़ा गाडी, पंद्रह सौ ऊँट गाडी और पांच सौ खच्चरों को लगाया गया | इन चार स्थानों के अतिरिक्त वृन्दावन-गोवर्धन और बल्लभगढ़ में भी बीस हजार स्त्री पुरुष पचास वर्ष तक लगातार निर्माण कार्यों में जुटे रहे | वृन्दावन में सूरजमल की दो रानियों – रानी किशोरी और रानी लक्ष्मी के लिए दो सुन्दर हवेलियाँ बनवाई गईं, दो अन्य रानियों गंगा और मोहिनी ने पानी गाँव में सुन्दर मंदिर बनवाये | डींग से पन्दरह मील पूर्व में बसे सहर में बदनसिंह ने अपने निवास के लिए एक सुन्दर भवन बनवाया | डींग से बीस मील दक्षिण पश्चिम में स्थित सोघर के जंगल काट दिए गए, दलदलें पाट दी गईं और वहां विशाल एवं भव्य भरतपुर का किला बना | १७४५ में लाल पत्थर से बना डीग का भव्य गोपाल महल बनाकर तैयार हुआ, जो राजपूत वास्तुकला और शाहजहाँ के महलों के लालित्य का अनूठा सम्मिश्रण है | गोपाल भवन के सामने अत्यंत सुन्दर एक संगमरमर का हिंडोला है, जिसे स्वयं सूरजमल दिल्ली से बैलगाड़ियों पर लदवाकर लाया था | ख़ास बात यह कि इतनी सावधानी से लाया गया कि इसके संगमरमर का एक टुकड़ा भी नहीं टूटा | 

बदनसिंह का पूरा जोर शांतिपूर्ण जाट राज्य की स्थापना पर रहा | दीर्घकाल के पश्चात संघर्ष और अराजकता का दौर समाप्त हुआ, किसान शांतिपूर्वक खेती किसानी में जुटे, आम जन खुशहाल होने लगा | बदनसिंह के कार्यकाल में कोई बडी कूटनीतिक गतिविधि नहीं हुई और ना ही उसने हथियारों से कोई महान युद्ध ही लड़ा | उसके कालखंड में जाटों ने जितने भी युद्धों में भाग लिया, वह वस्तुतः सूरजमल या प्रताप सिंह ने ही लडे | किन्तु धैर्यपूर्ण परिश्रम और युक्तियुक्त प्रशासन के लिए, बदनसिंह को याद रखा जाता है | बदन सिंह की राजनीति का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जाटों और आमेर के कछवाह राजाओं के बीच पुश्तों से चली आ रही अदावत दूर हुई और मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बने | वह समझदारी के साथ, मुग़ल दरवार की अस्थिर गुटबाजी में नहीं उलझा, यहाँ तक कि वह अपने जीवनकाल में कभी दिल्ली भी नहीं गया, बल्कि उसके स्थान पर वह दिल्ली दरवार के प्रभावशाली व्यक्तित्व आमेर के जयसिंह के प्रति सम्मान का भाव व्यक्त करता रहा | उसने जयपुर में अपने रहने के लिए एक हवेली भी बनवाई | वह हवेली जहाँ है, आज भी उसके आसपास का क्षेत्र उसके नाम पर बदनपुरा कहलाता है | 

यूं तो बीस बेटे थे बदनसिंह के, किन्तु सबसे ज्यादा प्रेम व स्नेह वे सूरजमल और प्रताप सिंह से करते थे | वृद्धावस्था में जब आँखों से दिखना लगभग बंद ही हो गया था, तब उन्होंने १७३८ -३९ में सूरजमल को ही एक प्रकार से सारा राजकाज सोंप दिया था | प्रताप सिंह को भी वैर का राज्य दिया | राज्य के इस बंटवारे के बाद भी अगले कुछ वर्षों तक बदनसिंह डीग में राज्यसभा की अध्यक्षता करता रह | किन्तु २ नवम्बर १७४५ को प्रताप सिंह की असामयिक मृत्यु से क्षुब्ध होकर बदनसिंह ने राजकाज से स्वयम को पूरी तरह पृथक कर लिया | ७ जून १७५६ को जाट साम्राज्य का यह प्रथम अधिष्ठाता डीग में अपनी अंतिम यात्रा को निकल गया, प्रभु चरणों में विलीन हो गया | 

किसान की वेशभूषा में रहने वाला, ठेठ वृजभाषा में बात करने वाला सूरजमल जाट एक अनोखा व्यक्तित्व था | एक के बाद एक युद्ध जीतने में महारथी, तो शिष्ट व्यवहार में भी कोई सानी नहीं | उसके दुर्धर्ष युद्धों में भी मानवीय सद्गुणों की छाप दिखाई देती है | यह जाट योद्धा वचन का भी पक्का था | जयपुर नरेश सवाई जयसिंह का स्वर्गवास २१ सितम्बर १७४३ को हो गया और उसके बाद उनके दोनों पुत्रों ईश्वरीसिंह और माधोसिंह में सत्ता संघर्ष छिड़ गया | सवाई जयसिंह को पिता बदनसिंह द्वारा दिए गए बचन के अनुसार सूरजमल ने पूर्ण निष्ठा के साथ ईश्वरीसिंह का साथ दिया | माधोसिंह के साथ उसके मामा उदयपुर के महाराणा और मल्हारराव होल्कर जैसे दिग्गज होते हुए भी अगस्त १७४८ में मोतीडूंगरी के नजदीक हुए युद्ध में और उसके बाद २० अगस्त १७४८ को बगरू में हुए भीषण संग्राम में सूरजमल ने ईश्वरीसिंह की निश्चित पराजय को विजय में बदल दिया | बूंदी के राजपूत कवि भी यह लिखने को विवश हुए – 

सहयो भले ही जट्टनी, जाय अरिष्ट अरिष्ट, जिहिं जाठर रविमल्ल हव आमेरन को इष्ट ! 

अर्थात जाटनी ने प्रसव पीड़ा व्यर्थ सहन नहीं की, जिसके गर्भ से रविमल अर्थात सूरजमल जैसा आमेर का शुभ चिन्तक शत्रुजेता पैदा हुआ | यहाँ से ही सूरजमल और होलकर का वैमनस्य प्रारम्भ हुआ जो आगे भी चलता रहा | आईये पहले दिल्ली के तत्कालीन हालात पर नजर डालते हैं | 

औरंगजेब के समय से ही जाट और गूजर दिल्ली सल्तनत के लिए सरदर्द रहे थे | बल्लभगढ़ में ऐसा ही एक जाट प्रमुख था गोपाल सिंह, जिसने तियागाँव के गूजरों के साथ मिलकर अनेक शाही काफिलों को लूटा | तंग आकर फरीदाबाद के मुग़ल अधिकारी मुर्तजा खां ने उसे ही परगने का चौधरी नियुक्त कर दिया | अब गोपाल सिंह को लूटपाट करने की जरूरत नहीं रही, क्योंकि जितनी भी मालगुजारी आती, उसमें एक रुपये पर एक आना उसे मिलता था | औरंगजेब की मृत्यु के बाद गोपालसिंह के बेटे चरणदास को इस एक आने से संतोष नहीं हुआ और उसने मालगुजारी पूरी ही हड़पना शुरू कर दिया | नतीजा यह निकला कि मुग़ल फ़ौज ने कार्यवाही की और चरणदास को पकड लिया गया | चरणदास का बेटा बलराम अपने पिता से भी ज्यादा समझदार था, उसने मुर्तजा खां से समझौता किया कि वह सारी बकाया मालगुजारी चुका देगा, लेकिन इस हाथ दे, उस हाथ ले अर्थात आप मेरे पिता को मुक्त करो और धन ले लो | समझौते के मुताबिक़ चरणदास को सिपाहियों के पहरे में वल्लभगढ़ के पास एक तालाब पर लाया गया, और जब रुपयों से भरी बैलगाड़ी आई और एक दो बोरियों के रुपये जांच लिए गए तो चरणदास को छोड़ दिया गया | जब तक मुगलों को यह पता चलता कि आधे से ज्यादा बोरों में रद्दी कागज़ भरे हुए हैं, तब तक तो दोनों पिता पुत्र भरतपुर में सूरजमल की शरण पा चुके थे | मुगलों की हालत इतनी खस्ता थी कि तत्कालीन बजीर सफ़दरजंग ने महज हाथ जोडकर माफी मांगने पर बलराम को माफी भी दे दी | बदले में सूरजमल ने रुहेलों के खिलाफ सफदरजंग की मदद की और बादशाह अहमदशाह ने पिता बदनसिंह को महेंद्र की उपाधि देकर राजा और सूरजमल को राजेन्द्र की उपाधि के साथ कुमार बहादुर का खिताब और मथुरा का फौजदार बना दिया | फादर बैदेल ने लिखा की यह जाटों की शक्ति के असाधारण उत्कर्ष का समय था | 

कुछ समय बाद बजीर सफ़दर जंग ने एक विवाद में बादशाह के एक मुंहलगे खोजे की हत्या कर दी | नाराज बादशाह ने सफदरजंग को पद से हटाकर उसकी सारी जागीरें जब्त कर लीं | सूरजमल ने सफ़दरजंग का साथ देते हुए जमकर तबाही मचाई और दिल्ली को पूरे दिल से लूटा | तारिख ए अहमदशाही के अनुसार जाटों ने मकान ढहा दिए, लाखों लाख लुटे, कई उपनगर तो बेचिराग हो गए | विवश बादशाह ने संधि की और सफदर जंग की जागीरें वापस कर दी गईं | तो ऎसी थी उस समय की मुग़ल सल्तनत | क्या इसे राज कहा जाएगा ? 

बादशाह के नये बजीर इमाद ने मराठा पेशवा से मदद की गुहार लगाई और सूरजमल को सबक सिखाने हेतु मदद मांगी और मल्हारराव को सूरजमल से बदला लेने का अवसर मिल गया | बजीर इमाद खां और होल्कर सैन्य दल ने डीग और भरतपुर के बीच स्थित कुम्हेर के किले में सूरजमल को घेर लिया | सूरजमल ने हर चंद समझौते की कोशिश की | मराठा दो करोड़ रूपये मांग रहे थे और वह चालीस लाख तक देने को तैयार हो गया, लेकिन बात बनी नहीं | कुम्हेर में रसद पर्याप्त थी, अतः खाने पीने की तो जाटों को कोई दिक्कत नहीं थी, किन्तु मुग़ल और मराठा की संयुक्त सेना में लगभग अस्सी हजार सैनिक थे जो लगातार आसपास बसे लोगों को रोंद रहे थे | अपनी प्रजा का यह कष्ट सूरजमल के लिए असहनीय था | तभी वह दुर्घटना घटी, जिसमें सूरजमल के मानवीय सद्गुणों की झलक सामने आई | १५ मार्च १७५४ को होलकर का युवा व जुझारू इकलौता बेटा खांडेराव जब दुर्ग के नजदीक घेरा बंदी का निरीक्षण कर रहा था उसी समय बुर्ज से चलाया गया तोप का एक गोला उस पर आ गिरा और उसका प्राणांत हो गया | यह ज्ञात होते ही सूरजमल ने युद्ध रोक दिया | इतना ही नहीं तो मल्हार राव व खांडेराव के अल्पबयस्क पुत्र को शोक सन्देश के साथ वस्त्र भी भेजे | बाद में अंतिम संस्कार स्थल पर खांडेराव का एक स्मारक बनाने में भी सूरजमल ने सहयोग किया | शत्रु के साथ भी ऐसा व्यवहार भारतीय संस्कृति के अलावा और कहाँ देखने को मिलेगा ? खांडेराव की पत्नी अहिल्याबाई बाद में अपने साधू स्वभाव के कारण इतिहास प्रसिद्ध हुईं | इस प्रसंग की लिंक विडियो के अंत में दी गई है | 

मल्हार राव ने इसके बाद भी कुम्हेर से घेरा नहीं उठाया | उनका ह्रदय बदले की आग से जल रहा था तथा वह सूरजमल को सबक सिखाने पर आमादा थे | सूरजमल को भी चिंता होने लगी कि आखिर कब तक कुम्हेर में घिरा बैठा रहेगा | ऐसे में उनकी प्रिय पत्नी रानी हंसिया ने सुझाव दिया कि मराठाओं में व्याप्त गुटबाजी का लाभ उठाना चाहिए | सूरजमल ने इस सुझाव पर अमल करते हुए अपने विश्वस्त तेजराम कटारिया के हाथों एक पत्र जयप्पा सिंधिया को भेजा जिसमें सहायता और मित्रता की प्रार्थना के साथ अपनी पगड़ी भेजी | उन दिनों मित्रों के बीच पगड़ी बदल की प्रथा थी | जयप्पा ने भी वीरोचित व्यवहार किया और पगड़ी के बदले उत्साह वर्धक पत्र, अपनी पगड़ी और कुलदेवी के प्रसाद स्वरुप एक विल्बपत्र भेजा | जयप्पा और सूरजमल के बीच मैत्री का समाचार जल्द ही सार्वजनिक हो गया, उससे मल्हारराव के होंसले भी पस्त हो गए और अंततः तीन साल में तीस लाख रुपये का महज वायदा लेकर मल्हार राव ने घेरा उठा लिया | सूरजमल की धाक और बढ़ गई | कहाँ दो करोड़ की मांग और बिना युद्ध के सूरजमल द्वारा चालीस लाख देने की पेशकश और कहाँ महीनों की घेराबंदी के बाद युवा पुत्र का वियोग और महज तीस लाख का वायदा, वह भी तीन साल में, मल्हार राव ने सचमुच बहुत कुछ खोया | 

इस युद्ध के बाद सूरजमल की उदारता का एक और प्रसंग सामने आया | सूरजमल के पिता बदन सिंह का चचेरा भाई मोहकम सिंह, जिसने बदनसिंह को गिरफ्तार तक किया था, युद्ध में होलकर के साथ था | युद्ध के बाद असहाय स्थिति में वह सूरजमल के पास पहुंचा | सूरजमल ने पूरे सम्मान के साथ उसका स्वागत किया और अपने राज्य के सभी तालुकों से प्रति गाँव एक रूपया उसे देना निश्चित किया | तो ऐसा था सूरजमल – वीरता – बुद्धिमत्ता और उदारता का सम्मिश्रण !
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