भरतपुर का जाट साम्राज्य (भाग -3) - इतिहास पुरुष सूरजमल जाट



मुग़ल दरबार का गृहयुद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा था | बादशाह आलमगीर द्वितीय तो महज बजीर इमाद के हाथों की कठपुतली भर रह गया था | ऐसे में नवम्बर १७५६ में नबाब नजीबुद्दौला ने कंधार के बादशाह अहमद शाह दुर्रानी को लूट के लिए आमंत्रित किया और उसे सहयोग का आश्वासन दिया | १९ दिसंबर को जब यह समाचार दिल्ली वासियों को मिला कि अब्दाली क्रूरता पूर्वक पंजाब को लूटता हुआ दिल्ली की तरफ बढ़ रहा है, तो वहां भगदड़ मच गई | अमीर लोग अपनी जान ओ माल बचाने के लिए आगरा मथुरा भरतपुर की तरफ कूच करने लगे | बजीर इमाद ने मदद के लिए मराठाओं और सूरजमल को पत्र लिखे और दिल्ली से पलायन कर गया | एक फरवरी को फरीदाबाद के नजदीक अंता जी मानकेश्वर के नेतृत्व में मराठा व जाटों ने संयुक्त रूप से अफगानों का सामना किया, किन्तु बुरी तरह पराजित हुए | इसके बाद अहमदशाह की दिल्ली लूट शुरू हुई | लेकिन उसके सहयोगी नजीब ने उसे बता दिया कि दिल्ली के सारे प्रमुख धनपति जाट राजा सूरजमल के इलाके में शरण लिए बैठे हैं और स्वयं उसके पास भी भरपूर धन है | बस फिर क्या था अब्दाली ने तुरंत एक पत्र द्वारा सूरजमल को अपने सामने हाजिर होने का हुकुम भेजा | 

उधर मराठा सेना नायक अंता जी मानकेश्वर भी सूरजमल से आग्रह कर रहे थे कि वह इस विदेशी आक्रान्ता का उनके साथ मिलकर सामना करे | सूरजमल ने उनसे साफ़ कहा कि पचास हजार दुर्दांत अफगान सेना का सामना करने लायक हम लोगों में शक्ति नहीं है, मैं अहमद शाह को पत्र व्यवहार और थोडा बहुत धन भेजकर पंद्रह दिन अटकाता हूँ, तब तक आप उससे लड़ने लायक सेना बुलवाईये | अगर आपकी फ़ौज आ जाती है, तो मैं भी साथ देने को तैयार हूँ, अन्यथा विवश होकर मैं जैसे भी होगा खुद का बचाव करूंगा | यह एक चतुरता पूर्ण योजना थी, लेकिन दुर्भाग्य कि यह हुआ नहीं | अन्ताजी ने ईमानदारी पूर्वक सारी परिस्थिति से पेशवा और उनके भाई रघुनाथ राव को अवगत करा दिया | किन्तु मराठा सेना नहीं आई और खिसियाया हुआ निर्दयी अब्दाली जाट क्षेत्र पर चढ़ दौड़ा | सूरजमल के बेटे जवाहरसिंह ने पहले बल्लभगढ़ के नजदीक और बाद में मथुरा से आठ किलोमीटर पहले चौमुंहा गाँव के बाहर मरणान्तक युद्ध किया | दोनों पक्षों के हजारों सैनिक मारे गए, लेकिन यह लड़ाई बेमेल थी | बचे खुचे जाट बल्लभगढ़ के दुर्ग में चले गए और मथुरा विध्वंश शुरू हुआ | जदुनाथ सरकार के शब्दों में १ मार्च को जब प्रातःकाल अफगान सेना अनारक्षित मथुरा में प्रविष्ट हुई, तब लोगों के चेहरों से दो दिन पूर्व की होली का रंग भी साफ़ नहीं हुआ था | भक्तों के खून से कृष्णजन्मस्थली एक बार फिर लाल हो गई | क्या हुआ होगा, उसकी कल्पना ही कर लीजिये, वह वर्णन पढने भर से मन भर आता है, उसे बोल पाना और आपको सुनाना कमसेकम मेरे बस में नहीं है | संक्षेप में हत्या, लूट और बलात्कार का नंगा नाच हुआ | मंदिरों की मूर्तियाँ अपमानित की गईं | मृत साधू सन्यासिओं पुजारियों के मुंह के पास मृत गायों के कटे सर रखे गए | अहमद शाह ने काफिरों के प्रत्येक सिर पर पांच रुपये देने की घोषणा की थी, उसके तम्बू के बाहर हजारों कटे सिरों की पहाडी सी बन गई | 

मथुरा वृन्दावन में तो “वैष्णव जन तो तेने रे कहिये जे पीर पराई जाने रे” गाने वालों की पीर किसी ने नहीं सुनी और वे चुपचाप निरीह भाव से मर गए | लेकिन गोकुल में २००० विभूति रमाये नागा साधू अवश्य अपने त्रिशूल और चिमटों के साथ मैदान में आ डटे | एक एक ने दस दस को मारकर इनमें से हरेक ने वीरगति पाई| इससे इतना भर हुआ, कि इन नंग धडंगों के पास क्या मिलेगा, सोचकर हतोत्साहित सेना वापस हो गई और गोकुल लुटने से बच गया | 

उसके बाद शुरू हुआ आगरा लूटो अभियान | लेकिन धनी मानी लोगों ने आगरा के किले में शरण ले ली थी, इसलिए अपेक्षा के अनुरूप धन नहीं मिला और किला जीता न जा सका | लम्बे समय तक घेरा डालकर बैठने की इन विदेशियों की इच्छा भी नहीं थी और साथ ही तब तक प्राकृतिक प्रकोप शुरू हो गया | जमुना में इतने शव गिरे थे कि उनके सड़ने से इलाके में हैजा फ़ैल गया | प्रतिदिन सौ दो सौ सैनिक काल के गाल में समाने लगे और वे लूट के धन को लेकर अपने घरों को वापस जाने को उतावले हो गए | और इस प्रकार भरतपुर और डीग पर चढ़ाई किये बिना अब्दाली का यह पहला आक्रमण समाप्त हुआ | लौटकर जाती अब्दाली की सेना को आला जाट ने रोककर छापामार शैली में थोडा बहुत लूटा भी | 

अगले दो वर्ष तक मराठा और जाट संबंधों में कोई तनाव नहीं हुआ, दोनों अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में अपनी शक्ति बढाते रहे | नवम्बर १७५९ में सम्राट शाह आलम द्वितीय ने अब्दाली को पत्र लिखा कि बजीर और जाट मिलकर मुझे हटाकर अपने किसी नामधारी को सिंहासन पर बैठाना चाहते हैं, कृपया आईये | इस पात्र की जानकारी मिलने पर बजीर ने १९ नवम्बर को सम्राट की हत्या कर दी तथा शाहजहाँ द्वितीय के नाम से कामबख्श के पौत्र को गद्दी पर बैठा दिया | 

सम्राट की हत्या का समाचार पाकर अब्दाली तेजी से दिल्ली की ओर बढ़ा | ९ जनवरी १७६० को उसकी सेना ने दिल्ली से दस किलोमीटर दूर बरारी घाट पर तैनात मराठा सेना पर हमला कर दिया | यहाँ जयप्पा के छोटे भाई दत्ताजी सिंधिया की गोली लगने से मौत हो गई और बेटे जनकोजी भी घायल हो गए | इस दुर्घटना से मराठा सेना में भगदड़ मच गई, और वे घायल जनको जी को लेकर मैदान छोड़ गए | दिल्ली पर अधिकार कर और अपने विश्वस्त याकूब खान को उसका नियंत्रण सोंपकर अब्दाली जाटों और मराठाओं से दो दो हाथ करने निकला | उसने अलीगढ़ में बैठकर अवध के नबाब शुजाउद्दौला सहित भारत भर से सहयोगियों को एकत्रित किया | इस बार मराठाओं ने भूल नहीं की और मराठा सेना पेशवा के भाई रघुनाथ राव भाऊ के नेतृत्व में आ गई | होलकर सिंधिया, सूरजमल और यहाँ तक कि बजीर इमाद की सेनायें भी उनके साथ मिल गईं, अतः आसानी से इस संयुक्त सेना ने १६ जुलाई को दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया | लेकिन विधाता को कुछ और मंजूर था | सूरजमल ने भाऊ को सलाह दी कि आप इतने बड़े लाव लश्कर के साथ आये हो, जो यहाँ की परिस्थिति के अनुकूल नहीं है | आप अपने साथ आई महिलाओं को या तो ग्वालियर किले में सुरक्षित कर दो या फिर मेरे किसी किले में और फिर दिल्ली में रूककर ही अब्दाली का इन्तजार करो | लेकिन दक्षिण में लगातार मिली विजयों के कारण भाऊ अति आत्मविश्वास में थे, उन्होंने इस सलाह पर ध्यान ही नहीं दिया | कुछ अन्य प्रसंग भी हुए, जिनसे सूरजमल ने स्वयं को अपमानित महसूस किया, जैसे कि भाऊ ने लाल किले के दीवाने आम की स्वर्ण जडित छत से सोना चांदी निकाल लिया तथा दिल्ली का बजीर अपने नजदीकी नारों शंकर को बना दिया | जबकि सूरजमल ने बजीर इमाद को वचन दिया हुआ था कि बजीर उसे ही बनाया जाएगा | वचन भंग होता देख वह दुखी ह्रदय से एक रात मराठा सेना का साथ छोड़कर भरतपुर लौट गया | इमाद भी अब्दाली की शरण में पहुँच गया | 

बाद में मल्हार राव भी स्त्री बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी ले युद्ध भूमि से हटने को विवश हुए | अब्दाली भले ही विदेशी आक्रान्ता था, किन्तु इस्लाम के नाम पर देश के सभी मुस्लिम शासक उसके साथ आ गए, जबकि हिन्दू शक्तियां हठ और अहंकार में छिन्न भिन्न हो गईं | नतीजा हम सब जानते हैं | पानीपत में यह युद्ध इस्लाम और हिंदुत्व के बजाय इस्लाम विरुद्ध मराठा हुआ और मराठा पराजित हुए | दिल्ली पर शाह आलम को गद्दी सोंपकर और इमाद को बजीर व अपने सबसे विश्वस्त नजीब को मीर बख्शी बनाकर जीत का परचम लहराते हुए २० मार्च १७६१ को अब्दाली अपने मुल्क वापस चला गया | नजीब से सूरजमल के युद्ध लगातार जारी रहे और अंततः सूरजमल ने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया | २५ दिसंबर १७६३ को दिल्ली से आठ किलोमीटर दूर हिंडोन नदी के पश्चिमी तट पर जब वह असावधानी में चंद सहयोगियों के साथ युद्ध क्षेत्र के आसपास की स्थिति देख रहा था, नजीब के सिपाहियों की एक टुकड़ी वहां आ पहुंची व उसे पहचान कर टूट पड़ी | और इस प्रकार ५६ वर्ष की आयु में हमारे इस वीर सेनानी की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु हुई | उसका शव भी बरामद नहीं हुआ, केवल दांतों का अंतिम संस्कार हुआ |
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