मंगल पाण्डेय के समान महायोद्धा खाज्या नायक, जिसनें ब्रिटिश आर्मी से बगावत कर प्राप्त की अमरता



आज की युवा पीढ़ी उन अनगिनत वीर योद्धाओं के बारे में नहीं जानती जिन्होंने माँ भारती को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने हेतु अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया क्योंकि चंद चापलूस और झोलाछाप इतिहासकारों नें एक ही परिवार के गुण गाने में अपनी कलमों का उपयोग किया | यही कारण है कि जिन महान वीर हुतात्माओं के कारण देश ने स्वतंत्रता प्राप्त की उनके शोर्य, पराक्रम और बलिदान से अधिकांश देशवासी, खासकर वर्तमान युवा पीढ़ी परिचित ही नहीं है | आइये आज आप सभी का परिचय कराते है एक ऐसे ही वीर और महान योद्धा खाज्या नायक से जिन्होंने मंगल पाण्डेय के समान ब्रिटिश आर्मी से बगावत कर अमरता को प्राप्त किया |

खाज्या नायक निमाड़ क्षेत्र के सांगली ग्राम निवासी गुमान नायक के पुत्र थे | सन् 1833 में पिता गुमान नायक की मृत्यु के बाद वे सेंधवा घाट के नायक बने । उस इलाके में कैप्टन मॉरिस ने विद्रोही भीलों के विरूद्ध एक अभियान छेड़ा था जिसमें खाज्या नायक ने भी सहयोग दिया था | इसके चलते खाज्या नायक को ईनाम दिया गया और उन्हें अंग्रेजों नें सेंधवा घाट क्षेत्र में यात्रा करने वाले व्यापारियों की रक्षा की जिम्मेदारी सोंपी | वह घने जंगलों के बीच से गुजरने वाली बैलगाड़ियों की रखवाली करने वाले पुलिस दस्ते के प्रमुख थे | खाज्या ने 1831 से 1851 तक इस काम को पूर्ण निष्ठा से किया। एक बार गश्त के दौरान उन्होंने एक व्यक्ति को यात्रियों को लूटते हुए देखा। इससे वह इतने क्रोधित हो गये कि बिना सोचे-समझे उस पर टूट पड़े। इससे उस अपराधी की मृत्यु हो गयी। शासन ने कानून अपने हाथ में लेने पर उन्हें दस साल की सजा सुनायी। किन्तु कारावास में अनुशासित रहने के कारण उनकी सजा घटा कर पाँच साल कर दी गयी।

यहीं से खाज्या का जीवन पलटा और उसने दो सौ आदिवासी लोगों का एक दल बना लिया । अंग्रेजों द्वारा उन्हें 1856 में सजा माफ़ी दी गयी थी और फिर वार्डन के लिए नौकरी दी गई, किन्तु खाज्या ने नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद जाने का निश्चय किया | विदेशी सत्ता को वो पहले फ़ौज में रह कर बाद में जेल में रह कर अच्छे से समझ चुके थे, अतः वह शासन से बदला लेने का सही समय तलाशने लगे। इतिहासकार डा. एस.एन.यादव के अनुसार जब 1857 में भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह भड़क उठा, तो अंग्रेज अधिकारियों ने खाज्या और अनेक पूर्व सैनिक व सिपाहियों को फिर से काम पर रख लिया | पर खाज्या के मन में अंग्रेज शासन के प्रति घृणा बीज तो अंकुरित हो ही चुका था और वो अंग्रेजों के साथ रह कर उन्हें नुक्सान पहुचना चाह रहे थे | वो पूरी तरह से सोची समझी रणनीति के चलते कार्य कर रहे थे |

कुछ समय बाद उन्होंने ब्रिटिश पल्टन छोड़ दी और बड़वानी (मध्य प्रदेश) क्षेत्र के क्रान्तिकारी नेता भीमा नायक से मिले, जो रिश्ते में उनके बहनोई लगते थे। इन दोनों ने मिलकर भीलों की सेना बनाई और निमाड़ क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण बनाने में जुट गए । भील यूं तो शिक्षा और आर्थिक रूप से बहुत पीछे थे; पर उनमें वीरता और महाराणा प्रताप के सैनिक होने का स्वाभिमान कूट-कूटकर भरा था। एक बार ये अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े हो गये, तो फिर पीछे हटने का कोई प्रश्न ही नहीं था। इस सेना ने अंग्रेजों के खजाने लूटे, उनका वध किया और अंग्रेजों के पिट्ठुओं को भी नहीं बख्शा। शासन ने इन्हें गिरफ्तार करने के अनेक प्रयास किये; पर जंगल और घाटियों के गहरे जानकार होने के कारण वीर भील योद्धा मारकाट कर सदा बचकर निकल जाते थे। अंततः अंग्रेजी हुकूमत ने खाज्या नायक और उसके साथियो की खबर देने वाले को 1 हजार रुपये पुरष्कार देने का फरमान जारी किया | शायद आपको पता होगा की उस 1 हजार रूपया अभी के 10 लैक्स के लगभग बराबर होगा । फिर भी खाज्या नायक और उनकी भील सेना नहीं रुकी और लोगो को ये लोग संगठित करते रहे।

खाज्या नायक एक धार्मिक व्यक्ति थे | एक दिन खाज्या पूजा करने के लिए नदी में सूर्य को नमस्कार कर रहे थे तभी 11 अप्रैल 1858 को बडवानी और सिलावद के मध्य स्थित अमाल्यापणी गाँव में अंग्रेजी सेना का खाज्या नायक की भील सेना से संघर्ष हो गया। अंग्रेजी सेना के पास आधुनिक हथियार थे, जबकि खाज्या नायक और उनकी सेना के पास वही पुराने हथियार थे। प्रातः 8 बजे से लेकर संध्या 3 बजे तक युद्ध चला | अंग्रेजों के भेजे रोहिद्दीन ने खाज्या की पीठ पर गोली चला दी और खाज्या गिर पड़े। जब युद्ध समाप्त हुआ तो खाज्या नायक अपने पुत्र दौलत सिंह तथा भील सैनिको के साथ वीरगति को प्राप्त कर चुके थे।

कुरान की शपथ लेने के बाद भी खाज्या नायक से विश्वासघात किया रोहिद्दीन ने

सन् 1860 की शुरूआत में खाज्या नायक पर जब ज्यादा दबाव पड़ा तो वह बड़वानी चला गया और वहाँ भी विद्रोह का वातावरण बनने लगा। बर्च, होसिलबुड तथा एटकिन्स को खाज्या नायक को पकड़ने के लिए भेजा गया। खाज्या नायक ने अपने दल के दो हिस्से किये और एक को अम्बापावनी और दूसरे को ढाबाबावली में रखा। 1 जुलाई को दोनों पक्षों का सामना हुआ। विद्रोही भागने लगे और एक बीहड़ में जाकर छुप गये। अँधेरा होने और बारिश होने के कारण ब्रिटिश टुकड़ी ने पीछा करना बंद किया और अगले दिन भूरागढ़ रवाना हो गयी और वहाँ से 25 मीन दूर पलसनेर लौट आयी। इसके बाद हिसलवुड और स्काट की मुठभेड़ खाज्या नायक के दल से हुई। विद्रोहियों के बारूद के ढेर को तोप के गोले से उड़ दिया गया और विद्रोहियों के करीब 1500 लोग मारे गये और 150 लोग पकड़े गये जिन्हें पेड़ पर बाँधकर गोली से उड़ा दिया गया। सेना के हाथ बहुत सा सामान लगा जिसमें चांदी की 70 सिल्लियाँ भी थीं। खाज्या के सभी साथी भाग गये या बंदी बना लिये गये।

इसके बाद लै0 एटकिन्स की कमाने में एक टुकड़ी खाज्या नायक के विरूद्ध भेजी गयी। खाज्या के साथ भील, मकरानी और अरब लडाके भी थे। गोलीबारी में एटकिन्स गंभीर रूप से घायल हो गया और अब जमादार मोतीलाल कमाण्ड करने लगा। इसके बावजूद खाज्या नायक पकड़ा नहीं जा सका। इस पराजय के बाद सभी मकरानियों ने खाज्या का साथ छोड़ दिया और उसके साथ कुछ ही भील रह गये। उसे साथियों की तलाश थी। पुलिस अधिकारी को जब इसके बारे में पता चला तो उसने सादा वेश में रोहिद्दीन नाम के एक मकरानी जमादार को खाज्या के पास नौकरी की तलाश में भेजा। रोहिद्दीन वहाँ गया जहाँ खाज्या अपना पड़ाव डाले हुए था। उसे खाज्या के आदमियों ने पकड़कर खाज्या के पास पेस किया। खाज्या ने उसे कुरान की शपथ दिलाई कि वह कभी विश्वासघात नहीं करेगा। भीमा नायक भी इन दिनों खाज्या के पास था। भीमा ने खाज्या को चेतावनी दी कि यह मकरानी बड़ा शातिर है और वह धोखा देगा, उस पर विश्वास मत करो। पर रोहिद्दीन की कसमों पर विश्वास कर खाज्या ने उसे अपने पास रख लिया। भीमा नायक जब तक खाज्या के पास था तब तक रोहिद्दीन खाज्या को पूरी तरह विश्वास में नहीं ले सका। कुछ दिन बाद भीमा चला गया तब रोहिद्दीन को मौका मिला। खाज्या नायक एक धार्मिक व्यक्ति था और पूजा करने के लिए नदी किनारे जाया करता था। एक दिन जब खाज्या स्नान करके सूर्य की ओर मुँह करके खड़ा था तभी रोहिद्दीन ने गोली चला दी और खाज्या गिर पड़ा। यह द्रश्य देख कर खाज्या की बहिन आयी तो रोहिददीन ने उसे भी मार डाला। यह घटना 3-4 अक्टूबर 1860 की है। रोहिद्दीन ने खाज्या के 14 साल के बेटे को पकड़ लिया और खाज्या का सिर काटकर मिसरी खाँ तथा शेख नन्नू के साथ सिरपुर ले आया । उस समय कलेक्टर तथा कुल और भी अधिकारी मौजूद थे। खाज्या नायक के शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया।

भले ही आज देशवासी इनको भूल गया हो लेकिन आज भी निमाड़ क्षेत्र में इनको एक महापुरुष की तरह पूजा जाता है। इतिहास के पृष्ठों में न जाने कितने ऐसे महापुरुष दफ़्न है जिनके बलिदान के बारे में हमें अवश्य जानना चाहिए, क्योंकि हमें आजादी आसानी से नहीं मिली है, आज जो हम खुली हवा में सास ले पा रहे है तो इसका कारण वो बलिदानी पुरुष है जिन्होंने अपने प्राण को त्यागने के लिए एक पल भी नहीं सोचा और इसका कारण क्या था ? बस उनकी आने वाली पीढ़ी खुली हवा में सांस ले सके। लेकिन हम अपने महापुरषो को इतना भूल चुके है, कि आज के युवाओ को 10 महापुरषो के बारे में भी ज्ञात नहीं होगा | अतः क्रांतिदूत आप सब से विनती करता है अपने इतिहास को जाने, तभी हम बचेंगे और हमारा देश बचेगा।

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