पुष्यमित्र शुंग (भाग 1) - तत्कालीन भारत

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यह तो सभी जानते हैं कि कैसे चाणक्य की प्रेरणा व मार्गदर्शन में चन्द्रगुप्त मौर्य ने न केवल समूचे भारत को एकजुट करने में सफलता पाई बल...



यह तो सभी जानते हैं कि कैसे चाणक्य की प्रेरणा व मार्गदर्शन में चन्द्रगुप्त मौर्य ने न केवल समूचे भारत को एकजुट करने में सफलता पाई बल्कि यूनान के उस तथाकथित महान सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस को पराजित कर विदेशी आक्रान्ताओं से भी देश की रक्षा की | चन्द्रगुप्त व उनके पुत्र बिन्दुसार तक तो देश हित ही शासन का मूल मन्त्र रहा, किन्तु बिन्दुसार के पुत्र अशोक की महत्वाकांक्षाओं ने जोर मारा और उन्होंने साम्राज्य विस्तार के लिए कलिंग पर हमला किया | यह भी सर्वज्ञात है कि कलिंग विजय के दौरान हुए भीषण रक्तपात के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म अंगीकार किया और फिर उसके बाद केवल बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार पर ध्यान केन्द्रित किया | आज अनेक देशों में बौद्ध दिखाई देते हैं, उसके मूल में सम्राट अशोक और उनके बाद उनके वंशजों के प्रयत्न ही मूल कारण हैं | 

लेकिन समय के साथ उसी वंश के अंतिम शासक राजा ब्रहद्रथ के जमाने में स्थिति कैसी हो गई, यह जानना आज की परिस्थितियों के सम्यक विवेचन की द्रष्टि से बहुत उपयोगी है | अहिंसा और पंचशील की नीतियाँ परवान चढ़ रही थीं, सेना पर खर्च करना व्यर्थ माना जा रहा था | राज्य के दो ही प्रमुख खर्च थे – पहला तो राज परिवार की सुख सुविधा और दूसरा बौद्ध मठों के सर घुटाये पीतवस्त्र धारी सन्यासियों का भरण पोषण | धम्मं शरणम गच्छामि, संघं शरणम गच्छामि का गान करते हुए युवा सन्यासी दल गाँव गाँव शहर शहर घूमते दिखाई देते थे | स्वाभाविक ही यह अत्यंत ही विवेकहीनता का दौर था | जो राज्य गांधार अर्थात आज के अफगानिस्तान से लेकर कामरूप तक और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कावेरी नदी तक विस्तृत था, उसकी सीमाएं धीरे धीरे घटने लगीं | सेनाओं के अभाव की स्थिति यह थी कि सीमारक्षा तो दूर की बात है, कर बसूलने के लिए भी कोई सक्षम तंत्र नहीं बचा था | जो कर दे दे तो ठीक, न दे तो ठीक | 

तो ईसा से बीस वर्ष पूर्व के ऐसे दौर में गांधार के यवन राजा एन्सरीज के कार्यकाल में कुछ गांधार सैनिकों ने यूंही टहलते टहलते मगध राज्य की सीमा में प्रवेश किया, और सीमावर्ती धन धान्य संपन्न प्रदेश से लाखों स्वर्ण मुद्राएँ और सुन्दर स्त्रियों को लूटकर वापस अपने देश पहुँच गए | राजा को मालूम पड़ा तो उसे भय लगा, क्योंकि उसके मनोमस्तिष्क में सेल्यूकस की अपमानजनक पराजय की यादें ताजा थीं, लेकिन बाद में उसे जानकारी प्राप्त हुई कि दौ सौ वर्ष पूर्व का वह दौर तो अब समाप्त हो चुका है और अब तो लगभग सैन्य विहीन मगध का राज्य केवल सद्भावना के आधार पर चल रहा है | उसे लगा कि कहाँ हमारा उजाड़ रेगिस्तानी इलाका और कहाँ वह हराभरा सुरम्य क्षेत्र, मुझे तो वहां का ही राजा होना चाहिए | और फिर वह अपने दल बल के साथ भारत में प्रविष्ट हुआ और धीरे धीरे एक एक गाँव शहर पर कब्जा करते हुए सुरम्य वादियों पर अधिकार जमाने लगा | कहीं कोई प्रतिकार नहीं हुआ | 

एन्सरीज की मृत्यु के बाद उसका बेटे डेमेट्रियस की महत्वाकांक्षा और अधिक थी, अतः अब यवन अगले बीस वर्षों में खरामा खरामा पहले हस्तिनापुर और उसके बाद कौशाम्बी तक चले आये | जहाँ भी जाते वहां पहले लूटमार करते और फिर स्थानीय नागरिकों के सहयोग से ही राज्य चलाते | मगध के तत्कालीन राजा शांति, सद्भाव और अहिंसा की बातें लिखकर अपने विरोध पत्र भेजकर अपना कार्य समाप्त मान लेते | 

जब डेमेट्रियस के सेनापति ने अपनी दो लाख के सैन्य दल के साथ कौशाम्बी को घेर लिया, तो वहां के सेना नायक ने तो युद्ध की रणनीति बना ली, किन्तु वहां के अहिंसक आयुक्त ने शान्ति वार्ता करना उचित समझा | एक शांति आयोग यवन सेनापति के पास गया और समझौता हुआ कि कौशाम्बी बिना रक्तपात के यवनों को सोंप दी जाए और बदले में कौशाम्बी के नागरिकों की धन सम्पदा, सम्मान और प्राणों की रक्षा का दायित्व यवन लेंगे | 

लेकिन जैसे ही कौशाम्बी पर यवन अधिपत्य हुआ, अच्छे अच्छे भवन, सुन्दर बस्तुओं और युवा स्त्रियों की लूट शुरू हो गई | बेचारा आयुक्त बेचारगी की मूर्ती बनकर डेमेट्रियस के सामने पहुंचा और संधि का हवाला देकर अपना विरोध प्रदर्शित किया | नतीजा वही हुआ, जो होना था | यह सृष्टि तो जीवहिं जीव अहारा के सिद्धांत पर चलती है, हर बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, डेमेट्रियस तो इस नीति का अनुयाई था, उसने पंचशील के सिद्धांत नहीं रटे थे | आयुक्त को उसकी उद्दंडता का दंड दिया गया और बेचारा अपनी जान से गया | 

इस घटना की जानकारी जब पाटलीपुत्र पहुंची तो पानी सर से ऊपर चला गया, यह मानकर मगध के राजा ब्रहद्रथ ने राज्य परिषद की बैठक बुलाई | राज्य परिषद में बौद्ध धर्मगुरू बादरायण सहित तीन बौद्ध प्रतिनिधि, महामात्य चंद्रभानु, सेनापति, कोषाध्यक्ष, प्रधान न्यायाधीश व राजा स्वयं स्थिति की मीमांसा करने हेतु बैठे | सेनापति ने कहा कि विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करने योग्य सेना नहीं है, पुनः सेना बनाई जाना है तो उसके लिए धन चाहिए | कोषाध्यक्ष ने बताया कि राजकोष में धन है ही नहीं, जितनी नियमित आय है, खर्च सदैव उससे अधिक होता है | धर्म गुरू बादरायण ने कहा कि युद्ध तो हिंसक होता है, वह करना ही क्यों ? राजा बदलने से क्या फर्क पड़ता है, ब्रहद्रथ हों या डेमेट्रियस | आज की स्थिति में तो यही उपयुक्त है कि कोई योग्य अधिकारी दूत बनकर यवन डेमेट्रियस के पास जाकर उनका मन परिवर्तित करने का प्रयास करे | मुझे तो भगवान तथागत तथा मानव प्रकृति पर पूर्ण विश्वास है, अगर पूर्ण सद्भाव से यह कार्य किया जाए तो उसका मन निश्चय ही बदलेगा | और यही निर्णय अंतिम रहा व शांति सन्देश लेकर महामात्य चंद्रभानु कौशाम्बी को रवाना हुए | 

कौशाम्बी में उनके साथ अंगरक्षकों के स्थान पर महज पचास पीतबसनधारी घुटे सिर के बौद्ध भिक्षु थे | नगर वासियों के हंसी ठट्ठे से बेपरवाह इस मंडली ने अपने आने के प्रयोजन की जानकारी डेमेट्रियस तक पहुंचाई | डेमेट्रियस दो दिन बाद इन लोगों से मिला | दोनों के बीच हुई चर्चा में महामात्य चंद्रभानु ने मगध के राजा ब्रहद्रथ को धार्मिक बताते हुए डेमेट्रियस से आग्रह किया कि वह मगध के साथ मित्रता पूर्ण सम्बन्ध रखे | धूर्त डेमेट्रियस बोला – हाँ मित्रता की बात मैं मान लेता हूँ, इसलिए तुम्हारे धार्मिक राजा की मदद करना चाहता हूँ, वह धार्मिक है तो धर्मकार्य करे और मुझे मित्र मानकर राज मेरे हवाले कर दे | 

महामात्य ने कहा लेकिन आप तो प्रजा पर अत्याचार कर रहे हैं, जो अन्याय पूर्ण है | 

बस फिर क्या था – डेमेट्रियस भड़क गया | उसने महामात्य को प्राणदंड की तुरंत घोषणा कर दी | महामात्य ने कहा कि दूत अवध्य होता है तो डेमेट्रियस हंसकर बोला – यह आपके यहाँ का नियम होगा, हम तो दूत को केवल गुप्तचर जासूस ही मानते हैं और नहीं चाहते कि आप वापस जाकर यहाँ की जानकारी अपने राजा को दें | महामात्य का तो उसी समय सर काट दिया गया, जबकि शेष भिक्षुओं को सूली पर चढ़ा दिया गया | 

तो भारत ने ऐसा अपमान जनक पराभव काल भी देखा है | लेकिन यह दौर अस्थाई था | 

महामात्य चंद्रभानु व उनके साथ गए भिक्षुओं की जघन्य ह्त्या की जानकारी राजा ब्रहद्रथ के पास तो बाद में पहुंची, आमजन तक पहले पहुँच गई | युवाओं के भुजदंड आक्रोश में फड़कने लगे तो बुजुर्गों के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी होने लगीं | भारत में आदिकाल से यह विशेषता रही है कि संकट काल में कोई न कोई महापुरुष मार्गदर्शन को उत्पन्न होता है तो कोई पराक्रमी संकटों से जूझने को सामने आता है | और यह जुगलबंदी हर आतताई व दुष्ट शक्तियों का खात्मा करती है | ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं –विश्वामित्र और राम से लेकर चाणक्य और चन्द्रगुप्त, छत्रपति शिवाजी महाराज और समर्थ स्वामी रामदास तो ऐसे ही हमारी इस कहानी में महर्षि पतंजलि और पुष्यमित्र शुंग | 

तत्कालीन मगध साम्राज्य के राज पुरोहित थे अरुण दत्त | इन अरुणदत्त के ही सुपुत्र और महर्षि पतंजलि के शिष्य थे पुष्यमित्र | महर्षि पतंजलि व पुष्यमित्र ने राज्य के सेनापति, कोषाध्यक्ष व नगर के प्रतिष्ठित धनी मानी लोगों से विचार विमर्श शुरू किया | विदेशी आक्रमणकारियों के अत्याचार से बचने का एक ही तरीका है, सशक्त समाज व सबल सैन्य दल | इसके लिए प्राथमिक आवश्यकता है सबल सेना, ताकि देश और समाज आक्रमण का मुंहतोड़ जबाब दे सके | यूं तो यह सबके मन की ही बात थी किन्तु समस्या यह थी कि न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी | जब राज्यकोष में धन ही नहीं है, तो सेना बनेगी कैसे ? महर्षि ने समाधान यह सुझाया कि पुष्यमित्र व उनकी युवा टोली गाँव गाँव घूमकर इस संकट की जानकारी लोगों को दें और युवाओं को प्रेरित करें कि वे देश पर आये संकट के इस दौर में बिना किसी वेतन के सेना में भर्ती होने को तैयार हो जाएँ | देश की सुरक्षा केवल राजा की नहीं, सम्पूर्ण समाज की जिम्मेदारी है | 

सेनापति ने कहा कि राज परिषद में बौद्धों का बाहुल्य है और वे सेना निर्माण को हिंसा वृत्ति को प्रोत्साहन बताकर इसका भी विरोध करेंगे और इसके अतिरिक्त युवाओं को प्रशिक्षण व शस्त्रास्त्र पर भी तो व्यय होगा वह कहाँ से आएगा ? 

पुष्यमित्र ने कहा कि सेना तैयार हो जाने के बाद हम उसे महाराज को सोंपें, तब तक यह योजना गुप्त रखी जाए | नवीन सेना को शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित करके महाराज को भेंट कर दी जाए | यदि वे इस भेंट को स्वीकार कर लेंगे तो निसंदेह डेमेट्रियस से युद्ध होगा और विजय हमारी होगी | किन्तु यदि महाराज इस भेंट को स्वीकार नहीं करते हैं तो हम स्वयं मुकाबला कर डेमेट्रियस को देश से बाहर कर देंगे और उसके बाद राज्य मगध सम्राट को सोंप देंगे | 

परिस्थितियों का तकाजा था, सेनापति, कोषाध्यक्ष व अन्य प्रमुख लोगो को योजना पसंद आई और सब सहयोग को तैयार हो गया | फिर तो धन की व्यवस्था में भी कोई परेशानी नहीं आई | महर्षि के कई शिष्य धनपतियों ने सहर्ष इस योजना हेतु उदार हस्त से धन प्रदान कर दिया, आखिर यह संकट उनके अपने भविष्य से भी तो जुडा हुआ था | डेमेट्रियस की नृशंसता का सबसे अधिक शिकार भी तो यही वर्ग होता था | 

इसके बाद महर्षि पतंजलि के शिष्य युवाओं की टोलियों ने गाँव गाँव घूमकर डेमेट्रियस की नृशंसता का ऐसा खाका खींचा कि गाँव गाँव से युवाओं की टोलियाँ की टोलियाँ सेना में अवैतनिक भर्ती हेतु निकलने लगीं और देखते ही देखते दो लाख नौजवानों का प्रशिक्षण पूरे मगध में स्थान स्थान पर प्रारम्भ हो गया | 

सब कुछ योजनानुसार हुआ, किन्तु अंत में जब राजा ब्रह्द्रथ को सेना सोंपने का समय आया, तब बादरायण ने उन्हें भड़का दिया, कि यह सेना आपके आदेश के बिना निर्मित हुई है, अतः इसे बनाने वाले अपराधी हैं | आप सेना के अवलोकन के लिए अवश्य जाएँ किन्तु बहां जाकर सेना को विसर्जित करने का आदेश दें तथा सेना निर्माण करने वाले पुष्यमित्र व सेनापति को मृत्युदंड देने की घोषणा करें | इससे डेमेट्रियस प्रसन्न होगा तथा आपकी मित्रता स्वीकार कर लेगा | इस प्रकार युद्ध टल जायेगा और किसी प्रकार की हिंसा नहीं होगी | 

उधर महर्षि पतंजलि के शिष्य गण भी सचेत थे, उन्होंने इस संभावना को भी सैन्य समूह में प्रचारित कर दिया था | अब जो लोग विगत दो वर्षों से केवल यवनों से मुकाबला करने को अवैतनिक प्रशिक्षण ले रहे थे, उनकी निराशा और क्रोध का सहज अनुमान लगाया जा सकता है | राजा ब्रहद्रथ को इस परिस्थिति व मनःस्थिति का रत्त्ती भर भी अनुमान नहीं था| वह अपने पांच सौ अंगरक्षकों के साथ नवीन सेना के शिविर में पंहुचा और जैसे ही उसने सेना को विसर्जित करने की घोषणा की, ऎसी प्रतिक्रिया हुई मानो एक तूफ़ान को छेड़ दिया गया हो | देखते ही देखते ब्रहद्रथ का मस्तक कटकर भूमि पर लुढ़कता नजर आया | वातावरण में पुष्यमित्र की जय जय कार गूंजने लगी | कुछ दिनों बाद ही महर्षि पतंजलि की एक विदुषी शिष्या से विवाह कर पुष्यमित्र का राज्यारोहण हुआ | 

इस घटना की जानकारी मिलने पर डेमेट्रियस ने मगध के पडौसी राज्य साकेत अर्थात आज की अयोध्या के राजा को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न किया, ताकि मगध पर कौशाम्बी और साकेत दोनों तरफ से हमला किया जा सके | किन्तु उसकी यह योजना असफल हो गई | विजय के बाद मगध राज्य का बंटवारा कैसे होगा, इस पर कोई फैसला नहीं हो पाया | नाराज होकर डेमेट्रियस ने पहले साकेत पर आक्रमण करने हेतु सेना रवाना की | लेकिन वह भूल गया था कि अब मगध पर एक अक्षम शासक नहीं, बल्कि एक जागरूक राष्ट्रभक्त का शासन है, जो आक्रमण होने पर जबाब देने में नहीं, आक्रमण की संभावना को ही समाप्त करने में यकीन करता है | डेमेट्रियस की अधिकाँश सेना साकेत पर आक्रमण को गई है, यह जानकारी मिलते ही पुष्यमित्र ने अपनी सेना के दोभाग किये | एक भाग ने तो कौशाम्बी पर हमला कर दिया और दुसरे दल ने साकेत पर हमला करने गए यवनों पर पीछे से आक्रमण किया | कौशाम्बी में बैठे डेमेट्रियस को तो यह समझ में ही नहीं आया कि यह हो क्या गया ? लगातार संधि प्रस्ताव देने वाला मगध इतना बदल कैसे गया | खैर वह तो भागकर वापस अपने गांधार देश में ही जाकर रुका, उधर साकेत पर हमला करने गई यवन सेना की भारी दुरगति हुई | एक और से तो साकेत की सेना मार रही थी तो दूसरी और से मगध की सेना | उस दल के अधिकाँश यवन मारे गए | 

इसे कहते हैं जागृत समाज | 

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पुष्यमित्र शुंग (भाग 1) - तत्कालीन भारत
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