बंगाल की शेरनी (रॉयल टाइग्रेस) रानी भवशंकरी रॉय



बात 16 वीं शताब्दी की है, जब दिल्ली पर मुग़ल बादशाह अकबर का शासन था | उन दिनों आज के पश्चिम बंगाल के हुगली और हावड़ा जिले भूरिश्रेष्ठ राज्य के अंग थे व कृष्ण राय उसके शासक । भूरीश्रेष्ठ का अपभ्रंस आम बोलचाल की भाषा में भुरशूट था, जो आज बंगाल की एक तहसील भर है किन्तु उस दौर में इसे एक समृद्ध राज्य के रूप में जाना जाता था । कृष्ण रॉय के बाद, उनके पुत्र शिव नारायण और फिर, शिव नारायण के पुत्र, रुद्र नारायण के शासन काल में भी इसकी समृद्धि बढ़ती ही गई। स्वयं अबुल फजल ने अपने प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ आईना ए अकबरी में उल्लेख किया है कि भुरशूट बंगाल में दूसरा राजस्व उत्पन्न करने वाला स्थान था, तथा वहां की भूमि पूरे भारत में सबसे उर्बरा भूमि थी। 

भुरशूट के शासकों ने अपने राज्य की रक्षा के लिए तीन किलों का भी निर्माण करवाया था | गढ़ भवानीपुर, पंडुआ और राजबलहाट के इन किलों की सुरक्षा चारों और विभिन्न खाई और टीलों के माध्यम सुनिश्चित की गई थी । राज्य के पास एक सुव्यवस्थित, प्रशिक्षित और सशस्त्र सेना भी थी । 

पंडुआ के सेनापति दीनानाथ चौधरी एक बहादुर, बलवान और बुद्धिमान ब्राह्मण थे। उनकी ही बेटी थीं हमारी कथा नायिका भवशंकरी जो इतिहास में बंगाल की 'रॉय बाघिनी' के नाम से प्रसिद्ध हुई। बेटे को जन्म देते समय मां का स्वर्गवास हो जाने के कारण भवशंकरी की शिक्षा दीक्षा और प्रशिक्षण अपने पिता की देखरेख में ही हुआ । पिता दीनानाथ ने उन्हें युद्ध कौशल, राजनीति, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र के साथ घुड़सवारी, तलवारबाजी, तीरंदाजी का भी व्यावहारिक प्रशिक्षण प्रदान किया। उनके निर्देशन में भवशंकरी एक उत्कृष्ट सेनानी के साथ अत्यंत धार्मिक भी बनीं, वे देवी चंडी की अनन्य भक्त थीं। भवशंकरी ने अपने विवाह के लिए शर्त रखी थी कि वह उसी व्यक्ति से विवाह करेगी, जो उसे तलवारबाजी में हरा देगा | अनेक योद्धा आये और भवशंकरी से पराजित हुए | 

एक बार जब वे पास के जंगलों में शिकार के लिए गईं तभी उनकी भेंट अपने भावी पति से हुई। हुआ कुछ यूं कि जंगल में भवशंकरी पर एक जंगली भैंसे ने हमला कर दिया। किन्तु भवशंकरी ने होंसला नहीं खोया और भैंसे को अपने भाले से मार गिराया । उस समय भुरशूट के शासक राजा रुद्रनारायण, दामोदर नदी में एक नाव से गुजर रहे थे। उन्होंने इस पूरी घटना को देखा और भवशंकरी के शौर्य से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने किनारे पर आकर भवशंकरी को अपना परिचय देकर उनके सम्मुख शादी का प्रस्ताव रखा | भवशंकरी ने उन्हें अपनी शर्त के बारे में बताया तो राजा रुद्रनारायण ने उनसे कहा कि मैं राजा हूँ और तुम मेरी प्रजा की एक महिला | मैं तुमसे युद्ध कैसे कर सकता हूँ | इस पर भवशंकरी ने अपनी शर्त को परिवर्तित किया, और कहा कि शादी के पूर्व उन्हें अपनी कुलदेवी राजवल्लभी के सम्मुख तलवार के एक ही वार से दो रॉक व एक मेढ़े की बलि देनी होगी । शर्त पूरी करने के बाद, रुद्रनारायण ने भवशंकरी से विवाह किया। 

शादी के बाद, शाही जोड़े ने गढ़ भवानीपुर के पास एक नये महल में अपने दाम्पत्य जीवन का प्रारम्भ किया । भवशंकरी से प्रभावित राजा राजकाज में उनकी सलाह लेते व भवशंकरी भी सक्रिय रुचि लेतीं । देश के चारों और छाये संकट के बादलों का उन्हें पूरा अनुमान था | 1570 इस्बी के उस कालखंड में आर्यावृत्त के महान सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्या और समुद्रगुप्त के शौर्य से निर्मित शक्तिशाली अखंड भारत स्वप्नवत रह गया था । बंगाल में तो विशेष रूप से मुग़ल और अफगान पठानों के बीच हुकूमत की रस्साकसी चल रही थी । उन विधर्मी आक्रान्ताओं की अत्याचारी नीति से हिन्दुओं में त्राहि त्राहि मच रही थी । बहुत से बंगाली हिन्दू इस्लाम धर्म अपनाने को मजबूर हो रहे थे और जो अपने धर्म को छोड़ना नही चाहते थे, वे अपनी सारी जमीन जायदाद को छोड़कर रातोरात पड़ोसी राज्य कामरूप (असम), उत्कल (ओड़िसा) या फिर और दक्षिण की और भाग रहे थे । अतः भवशंकरी ने पहली बार हर समर्थ नवयुवक के लिए सैन्य प्रशिक्षण अनिवार्य किया, पुराने किलों को मजबूत किया, कुछ नए किले निर्माण किए, दूसरे शब्दों में कहा जाए तो राज्य की समग्र सुरक्षा व्यवस्था चुस्त दुरुस्त की। उन्होंने छौनापुर (वर्तमान तारकेश्वर) के एक मंदिर और उससे सटे किले के बीच एक उन्नत सुरंग बनवाई, जिसके माध्यम से वह मंदिर में नियमित रूप से प्रार्थना करने पहुँचती थी। कहा जाता है की देवी दुर्गा ने उन पर प्रसन्न होकर वरदान दिया कि उन्हें युद्ध में कोई नहीं हरा सकता। तीन दिनों तक निराहार तपस्या के बाद उन्हें देवी के आशीर्वाद के रूप में गढ़ भवानीपुर के पास की झील में एक तलवार मिली। भवशंकरी ने अपनी अंगरक्षक के रूप में केवल महिला सेनानियों को रखा था, जो सब अत्यंत साहसी और प्रशिक्षित सेनानी थीं। 

कुछ समय बाद, भवशंकरी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिनका नाम प्रतापनारायण रखा गया। लेकिन, जब प्रतापनारायण केवल पाँच वर्ष के थे, तभी उनके पिता राजा रुद्रनारायण की मृत्यु हो गई। दुखी रानी ने 'सती' होने का निर्णय लिया | उस समय राजगुरू हरिदेव भट्टाचार्य उनसे मिलने पहुंचे और गंभीरता पुर्बक कहा कि “महारानी हम तो आपको एक वीर देशभक्त और धार्मिक स्त्री समझते थे, लेकिन अब आपके सती होने की निर्णय ने मुझे अपने विचार बदलने के लिए मजबूर कर दिया है । रानी ने हैरानी से पूछा, “ऐसा क्यों आचार्य ? मैं महाराज की अर्धांगिनी थी और हर शादीशुदा हिन्दू औरत अपने पति की मृत्यु की बाद सती होना एक पुण्य कर्म समझती है। 

जवाब मैं हरिदेव भट्टाचार्य ने कहा कि रानी जी शायद आप भूल रही हैं कि आप एक नन्हे पुत्र की माता भी हैं, जिसके जीवन मैं अब आपके सिवाय और कोई नही हैं और साथ ही आप ये भी भूल चुकी हैं कि आप कोई साधारण स्त्री नही हैं वल्कि भुरशूट राज्य की रानी भी हैं और इस वक़्त हमारी मातृभूमि पढ़ विदेशी अफगान और मुगलों का खतरा मंडरा रहा हैं। इस समय अगर हमारी मातृभूमि को किसी की सख्त जरुरत है तो वो सिर्फ और सिर्फ आप हैं | ऐसे विपरीत समय मैं आप अपने सारे कर्तव्य भूल कर कैसे सती हो सकती हैं ?” राजगुरू की बाते सुन कर रानी भवशंकरी देवी को अपना राजधर्म समझ में आ गया और उन्होंने सती होने का निर्णय बदल दिया और राज्य की परिस्थिति व बाल राजा को मार्गदर्शन की आवश्यकता मानकर 'ब्रह्मचारिणी' के रूप में जीवन बिताने का निर्णय लिया | एक महिला भिक्षुणी के समान जीवन जीते हुए भवशंकरी ने अपने बेटे प्रतापनारायण की ओर से राज्य पर शासन करना शुरू किया। 

पठान सेना नायक उस्मान खान को यह समय उपयुक्त प्रतीत हुआ | एक कम उम्र के राजा की ओर से एक दुखियारी विधवा द्वारा शासित भूरिश्रेष्ठ राज्य हथियाना उसे बहुत आसान काम लगा | वह उस समय उड़ीसा पर काबिज था | उस्मान खान को भुरशूट के दगाबाज सेना नायक चतुर्भुज चक्रवर्ती का सहयोग मिल गया | चतुर्भुज ने उसे जानकारी दे दी कि रानी प्रतिदिन पूजा के लिए मंदिर पहुँचती है | अतः उस्मान खान ने हिन्दू सन्यासी के भेष में अपने दो सौ चुनिंदा पठान सैनिकों के साथ भुरशूट में प्रवेश किया। । लेकिन पठान अपनी पहचान छुपाने में असफल रहे और जब वे मंदिर पहुंचे तो सैनिक उनकी मरम्मत करने के लिए तैयार थे । 

रानी भवशंकरी शिवजी की पूजा करने लगीं और दिखावे के लिए मंदिर परिसर के अंदर केवल उनकी निजी महिला अंगरक्षक मौजूद थीं। रानी स्वयं भी हमेशा की तरह अपनी तलवार और आग्नेयास्त्र से लैस थीं । उस्मान खान और उसके सैनिकों को लगा कि मौका अच्छा है और उन्होंने मंदिर को चारों ओर से घेर लिया । लेकिन उन पर चौतरफा मार पड़ना शुरू हो गई | सामने से रानी भवशंकरी और उनकी महिला अंगरक्षक तो पीछे से भुरशूट के जांबाज सैनिक । पठान टुकड़ी को सपने में भी गुमान नहीं था कि उनकी ऐसी दुर्गति होगी | भीषण युद्ध में अधिकांश पठान मारे गए। उस्मान खान किसी तरह बहुत कम बचे हुए सैनिकों के साथ भागने में कामयाब रहा और हिंदू सन्यासी के भेष में आमजन को चकमा देते हुए वापस उड़ीसा भाग गया। इस लड़ाई को इतिहास में कस्तसनगढ़ की लड़ाई के रूप में अंकित किया गया। 

कस्तसनगढ़ की लड़ाई में पठानों की करारी पराजय के बाद भी उस्मान खान ने भुरशूट पर कब्जा करने के मंसूबे नहीं छोड़े | उधर भवशंकरी ने पठानों को हराने के बाद, अपनी राजधानी लौटते ही सबसे पहले सेनापति चतुर्भुज चक्रवर्ती को हटाया, लेकिन चूंकि उस समय उसके खिलाफ कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं था, इसलिए दंडित न करते हुए एक कम महत्वपूर्ण पद देकर केवल पदावनत किया । रानी का यह निर्णय आगे चलकर घातक सिद्ध हुआ | भारतीय इतिहास में माफ़ करने की जो नीति रही, वह सदा नुक्सान देह ही साबित हुई | देशद्रोही चतुर्भुज को फांसी नहीं देने का फैसला कुछ ही महीनों में गलत साबित हुआ। खैर अभी तो इस कहानी पर ही आगे बढ़ते हैं | जिस भूपति कृष्ण रॉय ने सबसे पहले पठान सैनिकों को पहचान कर उनकी जानकारी रानी भवशंकरी को दी थी, रानी ने उन्हें ही अपनी सेना का नया सेनापति बनाया । 

उस्मान खान ने एक बार फिर से चतुर्भुज चक्रवर्ती से संपर्क किया। चतुर्भुज ने उसे पुनः वह समय और स्थान बता दिया, जब रानी भवशंकरी के साथ सबसे कम सैनिकों और अंगरक्षकों की मौजूदगी थी। पूर्व योजना के अनुसार, उस्मान खान ने अपने सैनिकों के साथ भुरशूट क्षेत्र में प्रवेश किया और जंगल के अंदर छौनापुर किले के पास डेरा डाला। लेकिन रानी की लोकप्रियता चरम पर थी | जन सामान्य में उनके प्रति सहज श्रद्धा थी | इसलिए एक शिकारी ने जब शिविर में पठान सैनिकों को देखा तो तुरंत इसकी सूचना भुरशूट सेना तक पहुंचाई । लेकिन दुर्भाग्य से सैनिकों ने यह सूचना सेना नायक भूपति कृष्णा रॉय की अनुपस्थिति में तत्कालीन उप सेनानायक चतुर्भुज चक्रवर्ती को दी, लेकिन स्वाभाविक ही उस गद्दार ने इस खबर को दबा लिया । 

लेकिन एक दिन बाद ही पठान सैनिकों की उपस्थिति की जानकारी भूपति कृष्णा रॉय तक पहुंच ही गई और उन्होंने बिजली की गति से तुरंत रानी और अपने बफादार सैनिकों को सचेत कर दिया । उधर चतुर्भुज चक्रवर्ती शनैः शनैः अपना दल लेकर पठान सेनाओं की तरफ बढ़ रहा था | इसबार उसकी नियत उनके साथ मिलकर रानी से निर्णायक युद्ध करने की थी। 

भूपति कृष्ण रॉय को चतुर्भुज चक्रवर्ती की शैतानी योजना समझने में देर नहीं लगी और उसने चतुर्भुज को पठान सेनाओं में शामिल होने से रोकने के लिए पहले अपने सैनिकों के साथ चतुर्भुज को ही सबक सिखाना उचित समझा । दूसरी ओर रानी भवशंकरी ने पठानों के हमले की प्रतीक्षा करने के स्थान पर खुद उस्मान खान की पठान सेना पर हमला कर दिया। इस समय रानी का वह निर्णय सही साबित हुआ, जिसमें उन्होंने नौजवानों के लिए सैन्य प्रशिक्षण अनिवार्य किया था | चांडाल, बागड़ी, सामान्य ग्रामीण, वनवासी समाज और आसपास रहने वाले जन सामान्य भी संयुक्त रूप से रानी के नेतृत्व में पठानों पर टूट पड़े । 

भीषण युद्ध प्रारंभ हुआ। रानी भवशंकरी साक्षात देवी दुर्गा का अवतार प्रतीत हो रही थीं । हाथी पर सवार रानी की रुद्रगणशक्ति नामक तोप लगातार अग्निवर्षा कर शत्रुदल पर कहर ढा रही थी, देवी के आशीर्वाद से प्राप्त उनकी तलवार दुश्मनों के लहू से अपनी प्यास बुझा रही थी । मैदान में खून पानी की तरह बह रहा था । जब आम जन संगठित होकर जागता है, तो शत्रु कितना भी शक्तिशाली हो, भितरघाती जयचंदों सहित उसका समूल नाश हो ही जाता है | इस बार भी ऐसा ही हुआ | संपूर्ण पठान बल को समाप्त कर दिया गया। ख़ास बात यह कि इस हार के बाद पठान कभी बंगाल नहीं आए। यह युद्ध बशुरी के युद्ध के रूप में प्रसिद्ध है। 

इस लड़ाई की खबर सम्राट अकबर तक पहुँची तो उन्होंने भी तौबा कर ली, और कभी भुरशूट पर आक्रमण करने का प्रयत्न नहीं किया। इतना ही नहीं तो अकबर ने रानी भवशंकरी को 'रॉय बाघिनी' (रॉयल टाइग्रेस) की उपाधि दी। रानी ने अपने राज्य पर कुशलता से शासन किया और जब उनका पुत्र प्रतापनारायण वयस्क और परिपक्व हो गया, तो शासन सत्ता उसे सौंपकर इस महान रानी ने अपना अंतिम समय काशी में देवाराधन में व्यतीत किया । 

भारत के इतिहासकारों ने इस महान रानी भवशंकरी राय के गौरवशाली अध्याय को उल्लेख योग्य ही नहीं माना । लेकिन रानी भवशंकरी के महलों के जर्जर खंडहर आज भी इस वीर रानी की गाथा को गा रहे हैं, जिनकी वीरता को मुगल बादशाह अकबर ने भी स्वीकार किया था | दुर्भाग्य यह है कि आज की पीढी के कान ऐसी गाथाओं को सुनने में असमर्थ हो गए हैं । पश्चिम बंगाल के वर्तमान हावड़ा जिले के विभिन्न स्थानों पर देवी चंडी के विभिन्न रूपों की जो पूजा की जाती है, जानकार लोगों को उस चंडी भक्त देवी रानी की याद दिलाती हैं । 

भवशंकरी की गाथा आज भारत के सम्मुख उपस्थित अनेक समस्याओं और चुनौतियों का समाधान भी सुझाती है | ध्यान दीजिये कि उस कालखंड में बंगाल सहित पूरे हिंदुस्तान मैं हिन्दू महिलाओ को कोई सुरक्षा नही थी। किसी भी समय कोई भी मुस्लिम आक्रान्ता किसी भी हिन्दू महिला को अपनी हवस का शिकार बनाने केलिए जबरदस्ती उठा कर ले जाता था | अतः दीनानाथजी ने अपनी इकलौती कन्या को सामरिक प्रशिक्षण देना शुरु किया और भवशंकरी देवी को घुरसवारी, तीरंदाजी, तलवारबाज़ी, भाले, बन्दुक और टॉप चलाने मैं माहिर बनाया। यहाँ तक कि समरभूमि मैं वो अकेली दस लोगों पर भारी पडती थीं । उन्होंने अकेले जंगली भेंसे को मार गिराया था | आज जब हम निर्भया जैसे अमानुषिक अपराध होते देखते हैं, सीमाओं पर संकट के बादल देखते हैं, घर में जयचंदों की फ़ौज देखते हैं, तब इसका समाधान केवल भवशंकरी के समान महिला प्रशिक्षण और बाह्य आक्रमणों से बचाव के लिए आमजन का सैन्य प्रशिक्षण ही आवश्यक प्रतीत होता है |
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