बुन्देल केसरी छत्रसाल !



पूत के पाँव पालने में ही दिखने लगते है | 4 मई 1649 को जन्मे छत्रसाल ने भी किशोरावस्था से ही अपनी वीरता का परिचय देना शुरू कर दिया था | एक बार औरंगजेब ने रणदूलह खां को विन्ध्यवासिनी का मंदिर विध्वंस करने भेजा | मंदिर के वार्षिकोत्सव के दौरान ही मंदिर विध्वंश करने का उन लोगों का विचार था | जब सब भक्तगण मंदिर में पूजन अर्चन में व्यस्त थे, उस समय छत्रसाल ने सागर के राजा शुभकरण के पुत्र दलपतिराय के साथ मिलकर न केवल उसके सैन्यदल का सफाया कर दिया, बल्कि उसे भी बंधक बना लिया | यह अलग बात है कि ढान्ढ़ेर के राजा कंचुकी राय की दगाबाजी के कारण यह सूचना बादशाह औरंगजेब तक पहुँच गई | तो यह था वह दौर जब बुन्देल खंड के राजाओं में दो धाराएँ बह रही थीं | एक ओर बुंदेलखंड की स्वतंत्रता के लिए प्राणपण से जूझने वाले सेनानी थे तो दूसरी ओर येन केन प्रकारेण मुग़ल शासकों की कृपा चाहने वाले स्वार्थान्ध राजा थे | फिर चाहे ओरछा के पहाड़सिंह हों, सागर के शुभकरण हों या ढान्ढ़ेर के कंचुकी राय | लेकिन नौजवान दिलों में आग भड़क रही थी, इसीलिए सागर के युवराज दलपतिराय और छत्रसाल के मैत्री सम्बन्ध रहे | यहाँ तक कि उनके पिता ने उनसे सम्बन्ध भी विच्छेद कर लिए | 

जब बादशाह की सेनाओं ने बुंदेलखंड पर आक्रमण किया और दगाबाजों के कारण किशोर छत्रसाल की आँखों के सामने ही उनके वीर पिता और ओजस्विनी मां ने अपने पेट में कटार मारकर अपनी जीवन लीला समाप्त की | उसके बाद शुरू हुआ छत्रसाल का वास्तविक संघर्ष पूर्ण जीवन | 

माता पिता के देहांत के बाद उन्होंने अपने बड़े भाई अंगद सिंह के साथ मिलकर प्रतिशोध का विचार किया | लेकिन जुझार सिंह, उनके बेटे प्रथ्वीराज और चम्पतराय के दुखद अंत ने स्थानीय राजाओं को इतना आतंकित कर दिया था कि कोई भी मुगलों के क्रोध को आमंत्रित नहीं करना चाहता था | सब ओर से निराश होकर छत्रसाल ने अवसर की प्रतीक्षा करना ही उचित समझा तथा आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह की सेना में नौकरी कर ली | जैसा कि सब जानते हैं - जयसिंह औरंगजेब के वरिष्ठ सेनापति थे | उनके नेतृत्व में जब मुग़ल सेना दक्षिण विजय को निकली, तब छत्रसाल और उनके बड़े भाई अंगदसिंह भी जयसिंह के साथ थे | तब कौन जानता था कि यह यात्रा छत्रसाल का एक अलग ही भविष्य लिखने वाली है | मुगलों के विरुद्ध शिवाजी की अभूतपूर्व सफलताओं ने देश भर के हिन्दुओं के मन में आशा का दीप जला दिया था | तो फिर भला छत्रसाल जैसा धर्मनिष्ठ युवा मुगलों के साथ मिलकर शिवाजी से युद्ध कैसे कर सकता था ? एक दिन मौक़ा पाकर छत्रसाल शिकार के बहाने मुग़ल सेना से निकल भागे और भीमा नदी के तट पर पहली बार उनकी शिवाजी से भेंट हुई | वे कुछ समय तक शिवाजी के पास पूना रहे | इस समय में उन्होंने शिवाजी के युद्ध कौशल, उनकी कूटनीति और शासन तंत्र की बारीकियां समझीं और उसके बाद शिवाजी की प्रेरणा से वापस बुंदेलखंड लौटे | लेकिन एक रूपांतरित व्यक्तित्व के साथ | उनके मन में भी हिन्दू पद पादशाही का विचार जन्म ले चुका था | अपनी मातृभूमि को विधर्मियों के आतंक से मुक्त कराने का संकल्प अब उनका जीवन लक्ष्य बन चुका था | लेकिन न उनके पास साधन थे, न सहयोगी, न सेना | बुंदेलखंड में एक इंच भूमि भी ऐसी न थी, जिसे वे अपनी कह सकें | उनके साथ था तो केवल उनका होंसला और जीवट | 

लेकिन तभी एक ऐसी घटना घटी जिसने पूरे बुंदेलखंड को धधका दिया और छत्रसाल को जन नायक बना दिया | 9 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने आदेश प्रसारित किया कि बुंदेलखंड के सभी हिन्दू मंदिर नष्ट कर दिए जाएँ और फिदाई खां के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने ग्वालियर से प्रस्थान किया | किन्तु बुंदेलों ने डबरा से छः किलोमीटर पहले सिंध नदी के किनारे धूमघाट पर उसे करारी शिकस्त दी | छत्रसाल के पास इस घटना के पूर्व तक महज 30 घुड़सवार और 300 पैदल सैनिक थे, किन्तु बुंदेलखंड का जन सामान्य उन्हें हिन्दू धर्म का रक्षक समझने लगा था और यही कारण रहा कि धीरे धीरे उनकी शक्ति बढ़ने लगी | उनके पिता चम्पतराय के पुराने साथी भी उनसे आ मिले और जो साहसी नौजवान देश धर्म के लिए जूझने और मर मिटने की भावना रखते थे, उनके झंडे के नीचे एकत्रित होने लगे | देखते ही देखते छत्रसाल की शक्ति इतनी बढ़ गई कि वे अपने पूर्वजों के रक्त से सिंचित भूमि पर मुगलों की सत्ता को खुली चुनौती बन गए | उन्होंने सबसे पहले अपने माता पिता की मौत का बदला लेने के लिए धन्धेराओं पर आक्रमण किया | पराजित धन्धेराओं ने अपनी कन्या का विवाह उनसे करके पारिवारिक सम्बन्ध कायम किये | मऊ को अपनी सैन्य छावनी बनकर छत्रसाल ने एक के बाद एक सिरोंज, धामोनी, मैहर, पठारी, सागर सब उनके झंडे तले आ गए | यहाँ से मुगलों को जाने वाली चौथ अब छत्रसाल को मिलने लगी | अंत में दिल्ली के बादशाह ने अप्रैल 1673 में रुहल्ला खां के नेतृत्व में एक विशाल सैन्य दल छत्रसाल से निबटने के लिए भेजा गया | किन्तु गढ़ाकोटा के पास हुए युद्ध में बुंदेलों ने अद्भुत शौर्य दिखाया और छत्रसाल के हाथों करारी शिकस्त और भारी नुक्सान उठाकर रुहल्ला खां वापस लौट गया | लेकिन यह अंतिम युद्ध तो था नहीं | कभी तहब्बर खां, तो कभी सदरुद्दीन तो कभी रणदूल्हा खां, तो कभी अब्दुल समद आते रहे और पराजित होते रहे | बहलोल खान, मुराद खां जैसे कई सेनापति तो छत्रसाल के साथ युद्ध में अपनी जान भी गँवा बैठे | छत्रसाल का कार्यक्षेत्र अब भेलसा और उज्जैन तक विस्तृत हो गया | 

अंत में परेशान होकर औरंगजेब ने 1 जनवरी 1707 को छत्रसाल को राजा की उपाधि और चार हजार का मनसब प्रदान किया | 20 फरवरी 1707 को औरंगजेब की मृत्यु के बाद चतुर छत्रसाल ने दिल्ली के सत्ता सन्घर्ष में किसी का पक्ष नहीं लिया | किन्तु उनके सम्बन्ध शहजादा आजम और उसके विरोधी बहादुरशाह दोनों से ही बने रहे | इतना ही नहीं तो उन्होंने बहादुरशाह की मौत के बाद भी जहांदारशाह और फर्रुखशियर के झंझट में भी स्वयं को नहीं फंसाया | किन्तु फर्रुखशियर के सम्राट बनने के बाद उससे जरूर सम्बन्ध प्रगाढ़ किये | फर्रुखशियर ने भी उनके इनाम इकरार में और वृद्धि की | किन्तु 18 फरवरी 1719 को सैयद भाईयों ने जब फर्रुखशियर को पदच्युत कर दिया, उसके बाद छत्रसाल के सम्बन्ध फिर दिल्ली से बिगड़ गए | 

बाजीराव और छत्रसाल | 

छत्रपति शिवाजी महाराज के साथ मिलकर बुंदेलखंड लौटने के बाद छत्रसाल ने जो पहला काम किया, वह था पुरानी शत्रुता भूलकर सभी राजाओं को एकजुट कर उनके ह्रदय में स्वतंत्रता की लौ जागृत करने का | उनके प्रयत्न कारगर हुए | यहाँ तक कि ढान्ढ़ेर के कंचुकीराय और सागर के शुभकरण जो उनके पिता के खून के प्यासे थे, उनसे न केवल मैत्री सम्बन्ध कायम किये बल्कि उनकी पुत्रियों से विवाह कर उन्हें अपना संबंधी भी बना लिया | संयोग ने भी उनकी मदद की और ओरछा के शासक पहाडसिंह भी असमय काल कवलित हो गए और उनका एक और विरोधी मार्ग से हट गया | पहाडसिंह निसंतान थे अतः ओरछा एक प्रकार से उनके अधिपत्य में ही आ गया | अब स्वतंत्रता के जयघोष से जागृत बुंदेलखंड के वे एकछत्र नायक थे | 

सन १६७५ में छत्रसाल की भेंट प्रणामी पंथ के प्रणेता संत प्राणनाथ से हुई | प्राणनाथ पूर्व में गुजरात की जामनगर रियासत के प्रधान मंत्री हुआ करते थे, किन्तु उनका मन संसार से उचट गया और वे प्रणामी सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू देवचन्द्र जी के शिष्य बन गए | 5 सितम्बर 1655 को देवचन्द्र जी की मृत्यु के बाद उन्होंने देवचन्द्र जी के उपदेशों का प्रचार प्रसार पूरे देश में करने का उत्तरदायित्व संभाला | जो भूमिका महाराष्ट्र में समर्थ रामदास जी की रही, लगभग उसी भूमिका का निर्वाह स्वामी प्राणनाथ ने बुंदेलखंड में किया | मुगलों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों और मठ मंदिरों के विध्वंश को लेकर उन्होंने बुंदेलखंड वासियों के ह्रदय में संघर्ष की अग्नि प्रज्वलित की और जैसे ही छत्रसाल के रूप में उपयुक्त नायक मिला, उनके पीछे सारे समाज को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | उन्होंने छत्रसाल को आशीर्वाद दिया- 

छत्ता तोरे राज में धक धक धरती होय 

जित जित घोड़ा मुख करे तित तित फत्ते होय। 

प्राणनाथ ने ही छत्रसाल को पन्ना में हीरे की खदान होने की जानकारी देकर पन्ना को राजधानी बनाने का सुझाव दिया, और स्वयं प्राणनाथ ने ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत १७४४ की गोधूलि बेला में विधिवत छत्रसाल का पन्ना में राज्यभिषेक किया। अब तक छत्रसाल की विजयपताका सागर, दमोह, एरछ, जलापुर, मोदेहा, भुस्करा, महोबा, राठ, पनवाड़ी, अजनेर, कालपी और विदिशा तक फहराने लगी थी । उनके आतंक के कारण अनेक मुगल फौजदार स्वयं ही छत्रसाल को चौथ देने लगे। 

औरंगजेब के बाद दिल्ली में लगातार सत्ता संघर्ष चलता रहा और छत्रसाल का एकछत्र शासन बेखटके बुंदेलखंड पर कायम रहा | किन्तु वृद्धावस्था सब की आती है, महाराज छत्रसाल की भी आई | जब वे लगभग अस्सी वर्ष के हुए, उस समय इलाहाबाद के नवाब मुहम्मद बंगस का ऐतिहासिक आक्रमण हुआ। बंगश के साथ युद्ध काफी लम्बा चला | एक युद्ध में छत्रसाल के तीसरे बेटे जगतराज बहुत अधिक घायल होकर युद्धक्षेत्र में गिर पड़े और उनके सैनिक पराजित होकर पीछे हट गए | यह समाचार जब जगतराज की पत्नी जैतकुंअर को मिला तो वह स्वयं युद्धभूमि में पहुँच गई | उन्हें देखकर पराजित सेना में भी जोश का संचार हो गया और वे रानी के नेतृत्व में पुनः शत्रु पठानों से लोहा लेने टूट पड़े | रानी ने भी असाधारण शौर्य का प्रदर्शन किया और अपने घायल पति को उठाकर डेरों में लौट आईं | छत्रसाल स्वाभाविक ही बहुत प्रसन्न हुए | 

जैतपुर में छत्रसाल पराजित हो रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में उन्हेांने बाजीराव पेशवा को पुराना संदर्भ देते हुए सौ छंदों का एक काव्यात्मक पत्र भेजा जिसकी दो पंक्तियाँ थीं 

जो गति भई गजेंद्र की, वही गति हमरी आज।बाजी जात बुंदेल की, बाजी रखियो लाज ॥ 

जब बाजीराव को यह संदेश प्राप्त हुआ तब वह अपना भोजन ग्रहण कर रहे थे। बाजीराव भोजन छोड़कर तुरंत उठ खड़े हुए और घोड़े पर सवार हो गए। यह देखकर उनकी पत्नी ने कहा कि कम-से-कम आप भोजन तो ग्रहण कर लें और तब जाएँ। तब उन्होंने अपनी पत्नी को उत्तर दिया, "अगर देरी करने से छत्रसाल हार गये तो इतिहास यही कहेगा कि बाजीराव खाना खा रहा था इसलिए देर हो गयी।" वे यह निर्देश देते हुए कुछ सैनिकों को लेकर तुरंत निकल गये कि जितनी जल्दी हो पूरी सेना पीछे से आ जाये। 

फलतः बाजीराव की सेना आने पर बंगश की पराजय ही नहीं हुई वरन उसे प्राण बचाकर अपमानित हो, भागना पड़ा। छत्रसाल युद्ध में टूट चले थे, लेकिन मराठों के सहयोग से उन्हेांने कलंक का टीका सम्मान से पोंछ डाला। 

छत्रसाल योद्धा होने के साथ एक अच्छे कवी भी थे उनकी काव्य प्रतिभा का एक उदाहरण देखिये - 

रैयत सब राजी रहे ताजी रहै सिपाही। छत्रसाल तेहिं भूप को बाल न बाँको जाहि।।
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