बुंदेलखंड केसरी महाराज छत्रसाल के पिता चम्पत राय की बलिदानी गाथा !



हमारा देश कमाल का है और उससे भी ज्यादा कमाल के हैं हमारे इतिहासकार | छद्म धर्मनिरपेक्षता की आड़ में इतिहासकारों ने हमारे जननायकों की सतत उपेक्षा ही की | गोया उनकी नजर में अंग्रेजों की गुलामी तो उनकी नजर में गुलामी थी, किन्तु मुसलमानों की गुलामी में तो कुछ भी उल्लेखनीय है ही नहीं | यही कारण है कि मुग़ल सत्ता के कई अनवरत विरोधी वीर अचर्चित ही रह गए | छत्रसाल को भी इतिहासकार उपेक्षित ही कर देते, अगर महाकवि भूषण ने छत्रसाल दशक की रचना न की होती | भूषण ने लिखा – 

और राव राजा एक मन में न ल्याऊं अब. 

शिवा को सराहों कै सराहों छत्रसाल को | 

अतः छत्रसाल की तो चर्चा हो गई, लेकिन उनके पिता चम्पत राय के अमर बलिदानी संघर्ष को आज भारत में कितने लोग जानते हैं ? तो आईये आज उन्हीं चम्पतराय के जीवन पर नजर दौडाएं, क्योंकि छत्रसाल को समझना है तो उनके जनक को भी तो जानना पड़ेगा 

ओरछा के संस्थापक व प्रथम शासक रुद्रप्रताप की मृत्यु के बाद उनकी दूसरी रानी मेहरबान कुंवर अपने पुत्र उदयाजीत को लेकर ओरछा से कटेरा चली आई थीं | बाद में उदयाजीत ने महेबा नामक एक गाँव बसाया और अगली तीन पीढ़ियों ने उसी गाँव में लगभग महत्वहीन जीवन जिया | किन्तु चौथी पीढी के चम्पतराय ने सिद्ध किया कि उनकी रगों में भी राजकुल का ऊष्ण रक्त प्रवाहमान है | जुझारसिंह की नृशंस हत्या के बाद उनके अल्पायु बेटे प्रथ्वीराज के संरक्षक बनकर उन्होंने मुगलों के दांत खट्टे किये | ओरछा के आसपास उन्होंने छापामार आक्रमण शुरू किये | किन्तु शीघ्र ही मुग़ल फौजदार अब्दुल्ला खां, फिरोज जंग और बाक़ी खां के संयुक्त आक्रमण में उनकी करारी शिकस्त हुई | 18 अप्रैल 1640 को जुझार सिंह के जीवित बचे अंतिम बेटे प्रथ्वीराज भी गिरफ्तार कर लिए गए और अपनी अंतिम यात्रा के लिए ग्वालियर किले के बन्दीखाने में पहुंचा दिए गए | कुछ समय पश्चात ही एक अन्य लड़ाई में चम्पतराय के बड़े बेटे सारवाहन भी वीरगति को प्राप्त हुए | 

इन लगातार की पराजयों और विपत्तियों ने भी चम्पतराय को विचलित नहीं किया और यही महान व्यक्तित्वों की पहचान होती है | हाँ उन्होंने लड़ाई का तरीका बदल लिया | अब उन्होंने मुगलों से सीधी लड़ाई के स्थान पर छापामार युद्ध शुरू किया | उनके घोड़े की टापें अब ग्वालियर और मालवा तक के क्षेत्रों को रोंदने लगीं | हालत यह हो गई कि शाही क्षेत्र में उनके आतंक से किसानों ने जमीन जोतना भी छोड़ दिया और मुगलों की सेना को रसद मिलना भी बंद हो गई | विवश शाहजहाँ ने कूटनीति का सहारा लिया और ओरछा का नया शासक जुझार सिंह के छोटे भाई पहाड़ सिंह को ही बना दिया | अब अपने ही कुल के बांधव के साथ चम्पतराय कैसे युद्ध करते | उन्होंने विद्रोह समाप्त कर दिया और पहाड़सिंह को अपनी सेवायें समर्पित कर दीं | किन्तु पहाड़ सिंह तो मुगलों का ही हस्तक था, अतः उसने बादशाह की कृपा पाने के लिए चम्पतराय को पहले जहर देकर मारने की साजिश रची और बाद में हत्या कराने का प्रयत्न किया | किन्तु जनप्रिय चम्पतराय को दोनों ही बार पूर्व सूचना मिल गई और पहाड़ सिंह के प्रयत्न विफल हुए | 

अपने ही कुलबंधू के विश्वासघात ने इस वीर योद्धा का मन खट्टा कर दिया और उन्होंने शाहजहाँ के बड़े बेटे दारा शिकोह से मैत्री सम्बन्ध विकसित किये | कंधार की लड़ाई में उनकी वीरता व युद्ध कौशल के चलते दोस्ती इतनी परवान चढी कि चम्पतराय को कोंच की जागीर दे दी गई | किन्तु यह बेमेल दोस्ती ज्यादा चली नहीं | जल्द ही यह जागीर उनसे छीनकर पहाड़ सिंह को ही दे दी गई | अब चम्पतराय समझ चुके थे कि उनकी किस्मत में केवल संघर्ष ही लिखा है | वे पुनः अपने पुराने करतब दिखाने लगे | हाँ दारा से नाराज होने के कारण बीच में उन्होंने औरंगजेब और शहजादे मुहम्मद आजम की संयुक्त सेना का मार्गदर्शन भी किया,जिसके चलते दारा पराजित हुआ | पुरष्कार स्वरुप चम्पतराय को हाथी और मनसब अता किया गया | 

लेकिन यह भी केवल क्षणिक दौर था | जैसे ही औरंगजेब ने सत्ता प्राप्त की उसने फिर चम्पतराय के खिलाफ कार्यवाही शुरू कर दी | राजपूतों का जो इतिहास राजस्थान का है, वही बुंदेलखंड का भी है | ओरछा के पहाड़ सिंह, चंदेरी के देवीसिंह और मुगलों की संयुक्त सेना ने चम्पतराय के विरुद्ध चढ़ाई की | वेदपुर के किले में घिर जाने के कारण चम्पतराय के भाई सुजान सिंह ने आत्महत्या कर ली, उसकी पत्नियां उसके साथ सती हो गईं | 

चम्पत राय अपनी पत्नी लाल कुंवर और बारह वर्षीय बेटे छत्रसाल के साथ बचने के लिए सहरा पहुंचे, जहाँ के राजा इन्द्रमणि धन्धेरा की उन्होंने कई बार मदद की थी | वे उस समय गंभीर ज्वर से भी पीड़ित थे | किन्तु इन्द्रमणि उस समय धन्धेरा में नहीं थे, उनकी अनुपस्थिति में उनके नायब ने चम्पतराय को मुगलों को सोंप देने की योजना बनाई | एक तो वृद्धावस्था और दूसरे बुखार से तपते हुए चम्पतराय को उसने बहाने से मोरन गाँव की ओर रवाना किया | रास्ते में जैसे ही धन्धेरा सैनिकों ने उन पर प्रहार करने का प्रयत्न किया, उनकी पत्नी लालकुंवर ने वस्तुस्थिति समझकर अपने पेट में कटार भोंककर जीवन लीला समाप्त कर ली | पत्नी का यह कृत्य देखकर चम्पतराय को भी दगावाजी का अंदाज हो गया और उन्होंने भी पत्नी का अनुशरण करते हुए अपने पेट में कटार मार ली | 

थाग छुपन पाई नहीं, चढ्यो मरण को चाव, 

कटरा काट्यो पेट में, दये घाव पर घाव | 

दे दे घाव मरी ठकुरानी, चम्पतराय दगा तय जानी, 

यह संसार तुच्छ निर्धारयो, मारि कटारिन उदर विदार्यो | 

चम्पतराय के विश्वस्त सैनिक उनके बारह वर्षीय बेटे छत्रसाल को बचाकर सहरा ले गए | धन्धेरों ने मृत चम्पतराय का सर काटकर 7 नवम्बर 1661 को औरंगजेब की सेवा में प्रस्तुत किया | 

वे राजा नहीं थे, किन्तु दगावाजी भरे इतिहास में अपने ही बंधुओं के हाथों जान गंवाकर भी वे आपके और हमारे दिलों के राजा हैं | हैं या नहीं ?
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