विजय नगर साम्राज्य की गौरव गाथा (भाग 1) – जन्म की कहानी



यह कहानी है उस दौर की जब दक्षिण भारत एक ओर तो मुस्लिम आक्रमणों से भय कम्पित था तो दूसरी ओर शैव, भागवत, वीरशैव और जैनों के बीच साम्प्रदायिक वैमनस्य भी चरम पर था | संस्कृति एक होते हुए भी, शत्रु एक होते हुए भी, एकता का भाव दूर दूर तक नजर नहीं आता था | जितने दुर्ग, जितने बंदरगाह, उतने ही राजा | मदुरै के राजा के भाई ने तो स्वयं राजा बनने के लिए दिल्ली के बादशाह को आमंत्रित किया | ऐसे में चोरासी दुर्गों के दुर्गपालों और एक सौ आठ बंदरगाहों को एक ही शासन के अंतर्गत लाने का असंभव सा कार्य किया एक शताधिक आयु के कौपीनधारी सन्यासी विद्याशंकर महाराज ने, जिन्हें आमजन आदर से भगवान कालमुख कहकर सम्मान देते थे | लेकिन दुर्भाग्य कि आज अधिकाँश भारतीय उस अद्भुत गाथा से सर्वथा अपरिचित हैं | जिसमें मानवीय जीवन मूल्यों की मधुर सुवास भी है और स्वार्थान्ध अधः पतन की सडांध भी | तो अपने गौरवशाली इतिहास को अपनों तक पहुंचाने की सनक में शुरू करता हूँ विजय नगर की यह कहानी – 

तेरहवीं शताब्दी में जिन दिनों दिल्ली का बादशाह अलाउद्दीन खिलजी राजस्थान और गुजरात को लूट रहा था, मंदिरों का विध्वंस कर रहा था, उसका सेना नायक मलिक काफूर कर्नाटक को लूटने खसोटने में लगा था | काफूर ने कर्नाटक में कृष्णा व कावेरी की पावन धाराओं के बीच होयसल राज्य के महा प्रतापी यादव राजा बल्लाल देव को पराजित किया और बल्लाल देव न केवल उसके सामंत बन गए, बल्कि जब काफूर ने मालाबार केरल पर चढ़ाई की, तब विवश बल्लाल देव को उसका साथ भी देना पड़ा | लेकिन बल्लालदेव के ही सेनानायक संगमरॉय को उनकी यह दीनता बिलकुल पसंद नहीं आई और उन्होंने संघर्ष जारी रखा | नाराज होकर बल्लाल देव ने संगम रॉय को जेल में डाल दिया | 

तभी समय का चक्र घूमा अलाउद्दीन ने जब गुजरात के राजा कर्ण को पराजित किया, तब वह महारानी देवल देवी के साथ दो नौजवानों को भी गुलाम बनाकर अपने साथ लेकर आया था, उनमें से एक गुलाम माणिक सुलतान का विश्वासपात्र मलिक काफूर बन गया तो दूसरा खुसरू खान | महारानी की शादी उसने अपने बेटे खिज्र खान से करवा दी | लेकिन संभवतः इन लोगों के मन में कहीं न कहीं हिन्दू चेतना जागृत रही और मौक़ा पाकर काफूर ने अलाउद्दीन खिलजी को जहर देकर मार डाला, उसकी बेगमों को जेल में डाल दिया, शहजादे खिज्र खान की आँखें निकलवा दीं और अलाउद्दीन के तीन साल के बेटे के नाम पर खुद शासन करने लगा | लेकिन यह सब महज पैंतीस दिन चला और एक दिन खुसरू खान ने सोते समय मलिक काफूर की गर्दन रेत दी और स्वयं नसुरुद्दीन के नाम से सुलतान बन बैठा | अलाउद्दीन के सभी बेटे क़त्ल कर दिए गए और इस तरह अलाउद्दीन को उसकी नृशंसता का फल मिला, जैसे कर्म बैसा फल | वंश नाश हो गया उसका | किन्तु महज कुछ माह बाद 8 सितम्बर 1320 को अलाउद्दीन खिलजी का एक तुर्की गुलाम गयासुद्दीन तुगलक दिल्ली की गद्दी पर बैठा जिसे पांच वर्ष बीतते न बीतते उसके ही बेटे मुहम्मद बिन तुगलक ने षडयंत्र पूर्वक मौत के घाट उतार दिया और खुद शहंशाह बन बैठा | 

जब दिल्ली में इतनी आपा धापी मची हुई थी, तब बल्लाल देव को केवल अपने राज्य से संतोष न रहा, उन्होंने सप्त सामंत अर्थात सात राजाओं को हराकर चक्रवर्ती सम्राट बनने की ठानी | उदयगिरी, चंद्रगिरी, पेनुकोंडा तथा काम्पिली को उन्होंने पराजित भी कर दिया | किन्तु वारंगल के प्रतापी राजा प्रताप रूद्र और तमिल पांड्य संघ के कृष्णाजी नायक पर उनका बस नहीं चल रहा था | मदुरा के युवराज पद को छोड़कर सोमैय्या नायक ने पांड्य संघ के सेनानायक बनकर म्लेच्छों के दांत खट्टे कर रखे थे | मलिक काफूर भी उन्हें जीत नहीं पाया था | ऐसे में जन्माष्टमी के अवसर पर भगवान वेंकटेश के सामने बल्लाल देव ने प्रतिज्ञा की कि अगली जन्माष्टमी के अवसर पर अगर शैव्य सोमैय्या नायक को उनके श्रीचरणों में न झुका पाए तो आत्मदाह कर लेंगे | 

बहुत प्रयत्न किया किन्तु यह संभव न हो पाया | सम्मुख युद्ध में सोमैय्या को हराना तो दूर की बात है दो बार तो खुद बल्लाल देव सोमैया की गिरफ्त में पहुँचते पहुंचते बचे | पूरा वर्ष बीत चला, जन्माष्टमी नजदीक आ चली | बल्लालदेव को अपनी मृत्यु सामने दिखाई देने लगी | भगवान कृष्ण के जन्मदिवस पर क्या वेंकटेश के सामने उन्हें आत्मदाह ही करना होगा, इसे चिंता ने उनका दिन का चैन और रातों की नींद छीन ली | ऐसे में महारानी लक्ष्मी देवी ने उन्हें संगम रॉय की याद दिलाई | कहा वही उनकी इज्जत बचा सकते हैं | लेकिन जिस व्यक्ति को बारह वर्षों से जेल में डाल रखा था, क्या वह उनकी मदद करेगा ? मरता क्या न करता, बुलवाया गया संगम रॉय को | राजा की बात तो वे क्या मानते लेकिन रानी उनकी मुंहबोली बहिन थी, जब रानी ने आँचल फैलाकर दीन भाव से अपने सुहाग को बचाने की प्रार्थना की, तो संगम रॉय पिघल गए | बोले मैं सोमैय्या को ले आऊंगा, लेकिन मेरी एक शर्त है कि होयसल राज्य में उनका स्वागत एक राजा के समान ही होगा | आश्वासन मिलने पर संगम रॉय महज पच्चीस सैनिकों के साथ गए और रात को सोते समय सोमैय्या का अपहरण कर ले आये | जो काम हजारों सैनिकों के साथ बल्लाल्देव एक वर्ष में नहीं कर पाए, वह काम संगम रॉय ने एक रात में कर दिखाया | 

जन्माष्टमी पर सारी प्रजा एकत्र थी | सबको इंतज़ार था महाशैव्य पांड्य नायक सोमैया का | क्या आज वे भगवान विष्णू के विग्रह व्यंकटेश के सम्मुख सर झुकायेंगे ? एक जंगले में बंद सोमैया को मंदिर परिसर में लाया गया | उन्हें अपमानजनक ढंग से स्त्रियों के कपडे पहनाये गए थे | मंदिर के प्रांगण में सोमैया निर्विकार भाव से आँख बंदकर खड़े थे | दंड नायक ने उन्हें राजाज्ञा सुनाई कि आप पराजित हैं, परम्परानुसार भगवान व्यंकटेश के सम्मुख सर झुकाईये | इसके पहले कि सोमैया कोई जबाब देते भीड़ को चीरते हुए संगम रॉय वहां पहुँच गए और बल्लाल देव को उनके वचन की याद दिलाई | कहा सोमैया पराजित होकर नहीं आये हैं, उन्हें अपहरण कर लाया गया है, उनका यह अपमान न्यायसंगत नहीं है | लेकिन बल्लाल देव अहंकार में चूर थे | संगम रॉय को ही गिरफ्तार करने का आदेश दे डाला | अपना सर धुनते हुए संगम रॉय सोमैय्या के सामने पहुंचे और दीनता पूर्वक बोले – हे वीर पुरुष, मैं तुम्हारा अपराधी हूँ, मुझे क्षमा करो | सोमैया ने पहली बार अपनी आँख खोली और धीर गंभीर स्वर में कहा – दुखी मत होओ, जीवन और मृत्यु तो महाकाल के हाथ में है, हमारे चारों ओर तुर्कों के दल विनाश के घोर पारावार की भांति गरज रहे हैं और हम आज भी आपस में ही लड़ रहे हैं, अपने ही समाज वीरों को अपमानित कर रहे हैं | तभी सैनिक आगे बढे और संगम रॉय को अपनी गिरफ्त में ले लिया | लेकिन उसी दौरान एक नौजवान की सिंह गर्जना ने पूरे वातावरण को कम्पित कर दिया | नौजवान धीर गंभीर स्वर में बल्लालदेव से बोला – होयसल राज – मैं श्रीमन्नारायण की इस प्रतिमा के सम्मुख खड़े होकर तुम्हें द्वन्द युद्ध के लिए ललकारता हूँ | मैं आप पर वचन भंग का आरोप लगाता हूँ | यदुकुल भूषण अगर भूल न गए हों तो यही मर्यादा है कि सच झूठ का निर्णय करने के लिये जब कोई आभीर के लिए ललकारता है, तो राजसत्ता, धर्मसत्ता और प्रजाजन कोई हस्तक्षेप नहीं करता | 

गुमसुम खडी प्रजा, और अवाक खड़े राजा पर एक नजर डालते हुए वह नौजवान आँख बंद कर खड़े सोमैया के सामने झुककर बोला हे पांड्यसंघ के धुरंधर, मैं हरिहर, संगम रॉय का पुत्र आपके श्रीचरणों में प्रणाम निवेदन करता हूँ | 

जब स्वार्थ के वशीभूत होकर व्यक्ति सत्य को झुठलाता है, तब उसका अंतर्मन उसे धिक्कारता है, व्यक्ति ऊपर से भले ही शक्तिशाली दिखाई दे, किन्तु अन्दर से कमजोर हो जाता है | युद्धभूमि में अनेकानेक शूरमाओं को परास्त करने वाले बल्लाल देव के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ | प्रजा के सम्मुख इस अनजान नौजवान से अगर हार गया तो जीना मुहाल हो जाएगा अतः टालने के लिए बोले – युवक आभीर बराबरी बालों में होता है, मैं चक्रवर्ती सम्राट और तुम एक साधारण किसान | यह तो बराबरी नहीं हुई, मैं तुम्हारे खून से हाथ नहीं रंगना चाहता | यहाँ से जाओ, भगवान श्री कृष्णचन्द्र के जन्मोत्सव में खलल पैदा न करो | 

युवक आगे बढ़ा और गरज कर बोला – यादवेन्द्र तुम आज आभीर से बचना चाहते हो, लेकिन कल जब मैं वारंगल की सेना के साथ एक सिपाही के रूप में तुम्हारा सामना करूंगा, तब तुम बच नहीं पाओगे | इतना कहते हुए युवक हरिहर उन सिपाहियों की तरफ बढ़ा, जो उसके पिता संगम रॉय को पकडे खड़े थे | कुछ तो वातावरण का प्रभाव और कुछ युवक की आँखों से निकलती चिंगारियों का प्रभाव सैनिक संगम रॉय को छोड़कर पीछे दुबक से गए | अपने पिता का हाथ अपने हाथ में लेकर हरिहर वहां से निकल गया | 

कुछ समय तो वातावरण बोझिल ही रहा, किन्तु फिर बल्लाल देव की त्योरियां चढ़ गईं | संगम रॉय और हरिहर पर आया क्रोध सामने पिंजरे में आँखें बंद करके खड़े सोमैया पर उतरा | गरज कर बल्लाल बोले अरे दुष्ट अभिमानी | त्रिलोकीनाथ भगवान के सामने भी इतना हठ, उनके श्रीविग्रह के दर्शन करने के स्थान पर उनके सामने भी आँखें बंद किये खड़ा है | 

सोमैया शांत स्वर में बोले, मेरे अपने राज्य में अनेकों विष्णू मंदिर हैं, मुझे उनके सामने सर झुकाने में कभी कोई संकोच नहीं हुआ | किन्तु यहाँ जिस प्रकार मुझे छल से पकड़कर लाया गया है, और बल पूर्वक मुझे झुकाने की कोशिश हो रही है, उसके पीछे मूल उद्देश्य व्यंकटेश के प्रति श्रद्धा नहीं बल्कि मेरे गौरवशाली राज्य को अपमानित करना है, जो मैं जीते जी होने नहीं दूंगा | बल्लाल देव मानो हिंसक जानवर बन गए | क्रोध से होठ चबाते हुए दंड नायक से बोले – इस अधम की आँखों की पलकें काट दो, जब पलक ही नहीं रहेंगी तो बंद क्या करेगा, उसे व्यंकटेश के दर्शन करना ही होंगे | 

ठठा कर हँसे सोमैया और अपनी उँगलियों से अपनी आँखों की पुतलियाँ उखाड़ कर हथेली पर ले लीं और गुहार लगाई, लो व्यंकटेश इस शैव्य का यह उपहार | एक बार तुम भी शिव के सम्मुख अपने नेत्र कमल चढाने को उद्यत हुए थे, स्वयं शिव ने तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर तुम्हें रोका था और सुदर्शन चक्र प्रदान किया था | आज मैं तुम्हें अपने नेत्र अर्पित कर प्रार्थना करता हूँ कि म्लेच्छों के आक्रमणों से इस धर्म भूमि की रक्षा करो | हमें प्रेरणा दो ताकि हम आपस में लड़ने के स्थान पर एकजुट होकर शत्रुदल का संहार करने को कमर कसें | 

समूचे मंदिर परिसर में हाहाकार मच गया | श्रद्धालु किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो उठे | जो धर्मगुरू वहां उपस्थित थे, उनकी पेशानी पर पसीने की बूँदें दिखाई देने लगीं | और बल्लाल देव के तो मानो प्राण ही निकल गए | जीभ हलक से चिपक गई, सांस लेने में भी कठिनाई होने लगी | वह ठगे से खड़े इस महायोद्धा का यह अंतिम शौर्य देख रहे थे | लेकिन अभी तो यह शुरूआत भर थी | यह जन्माष्टमी अभी और भी कुछ दिखाने जा रही थी बल्लाल देव को | 

अभी सोमैया के इस अतुलनीय कृत्य का प्रभाव कम भी नहीं हुआ था कि तभी मंदिर प्रांगण में तमिल वीर कृष्णा जी नायक का पदार्पण हुआ | उनके हाथों में एक थाल था, जिस पर एक रेशमी कपड़ा ढका हुआ था | बल्लाल देव के सामने पहुंचकर उन्होंने कहा – महाराज वारंगल की राजमाता रुद्राम्मा ने आपके लिए यह सौगात भेजी है | बल्लालदेव को लगा कि वारंगल जीतकर सप्त सामंतचक्रवर्ती सम्राट बनने की उनकी महत्वाकांक्षा शायद पूर्ण होने का प्रतीक है इस थाल में ढकी भेंट | वर्तमान विषम स्थिति कुछ समय के लिए उनकी आँखों से ओझल हो गई | उनके इशारे पर एक सैनिक ने वह थाल कृष्णा जी से लेकर उसके ऊपर का कपड़ा हटाया | जिसकी भी नजर उस थाल में रखी भेंट पर पडी, उसकी चीख निकल पडी | कुछ कमजोर ह्रदय के लोग तो अचेत हो गए और अनेक लोग जन्माष्टमी का महोत्सव छोड़कर अपने घरों को रवाना हो गए | खुद बल्लाल देव अपना सर पकड़ कर जमीन पर जा बैठे | 

भगवती रुद्राम्मा यदुवंश की वह अमर नारी थीं, जिनके पिता ने कोई पुत्र न होने के कारण उन्हें ही पुरुष वेश में राजगद्दी पर बैठाया था | इस अनोखी नारी ने आजीवन पुरुष वेश में ही वारंगल को म्लेच्छों के आक्रमणों से सुरक्षित रखा | शत्रु की सेना यह सुनते ही कि वारंगल की सेना के हरावल दस्ते में भगवती रुद्राम्मा आ रही हैं, तितर बितर हो जाया करती थी | जब रुद्राम्मा वृद्ध हो गईं, तब उन्होंने अपने पौत्र प्रतापरुद्रदेव का राज्याभिषेक किया और स्वयं वान्य्प्रस्थी हो गईं | 

प्रताप रूद्र देव भी अपनी दादी के ही समान वीर था, इसीलिए बल्लाल देव भी उसे कभी जीत नहीं पाए | बल्लाल्देव ही क्यों दिल्ली के सुलातन गयासुद्दीन तुगलक के सबसे बड़े शहजादे उलूग खान को भी प्रताप रूद्र देव ने तीन तीन बार हराया | लेकिन इस बार उसने बड़ी तैयारी से आक्रमण किया था | कलिंग के गजपति राजा और देवगिरी के यादव राजा भी इस बार उसके साथ थे | ऐसा नहीं था कि बल्लाल देव को इस आक्रमण की जानकारी न हो, किन्तु वह तो इससे खुश था कि वारंगल कमजोर होगा और तुर्कों के जाने के बाद वह स्वयं उस पर आसानी से अधिकार कर सकेंगे | 

वारंगल का साथ केवल तमिल पाण्ड्य संघ के कृष्णा जी नायक ने दिया और वह तुर्कों के विरुद्ध प्रताप रूद्र देव का साथ देने मैदान में आ डटा | लेकिन शत्रु सेना इस बार अपार थी | वारंगल के किले में एक प्रकार से कैद हो गए थे सभी | जब महीनों तक तुर्क घेरा डाले पड़े रहे तो अन्न भण्डार घटने लगा | निर्णय हुआ कि जब तक खाने को अन्न है, तब तक युद्ध चलता रहे, अंतिम दिन माँ बहिने बहुएं जौहर करें और पुरुष मृत्यु का वरण करने किले से बाहर जाकर शत्रु पर टूट पड़ें | तभी दुर्ग के जैन संरक्षक सम्प्रतिनाथ ने उपाय सुझाया कि प्रतिदिन हम में से कुछ सैनिक दुर्ग के बाहर जाकर दुश्मन के दांत खट्टे करें | इससे उनके हिस्से की अन्न सामग्री बचेगी और युद्ध लंबा चलेगा | तब तक शायद दक्षिण के अन्य राजाओं को समझ में आ जाए कि तुर्क केवल वारंगल के नहीं, बल्कि समूची हिन्दू जाति के शत्रु हैं | 

सबकी बात पसंद आई और सबसे पहले उपाय सुझाने वाले जैन नायक सम्प्रतिनाथ ही अपने कुछ साथियों के साथ दुर्ग से बाहर निकले | वे बज्र की तरह शत्रुदल पर टूट पड़े | दो दिन तक बिना अन्न जल ग्रहण किये सम्प्रतिनाथ जूझते रहे और अंत में यह महावीर वीरगति को प्राप्त हुए | उनके बाद राजकवि विद्यानाथ ने कलम छोड़कर शमशीर उठाई | अच्छे अच्छे वीर भी उनका रणोन्माद देखकर चकित रह गए | उनके बाद वैष्णव यादव वीर वीरपाल देव ने तीन दिन शत्रुसेना का संहार किया | फिर बारी आई तमिल वीर रामैया की | इसी तरह एक एक कर वीर आते गए और दुर्ग का अन्न भण्डार बचाने की खातिर आत्माहुति देते गए | दो माह निकल गए और तब दुर्ग में केवल राजमाता रुद्राम्मा, महाराज प्रताप रूद्र और कृष्णा जी नायक ही बचे | उस दिन रुद्राम्मा बोलीं – पुत्र प्रताप मैंने जानबूझकर तुम्हें युद्ध में नहीं जाने दिया, तुम्हारे लिए मेरे मन में एक अन्य ही भूमिका निर्धारित थी | मैं देव प्रतिमा के सम्मुख तुम्हारी बलि दूंगी | बिना कोई हीला हवाला किये प्रताप रूद्र ने अपना शीश झुका दिया और उस महा पराक्रमी वृद्धा राजमाता रुद्राम्मा ने अपने प्रिय पौत्र का सर तलवार के एक ही वार से धड से अलग कर दिया | 

उसके बाद राजमाता कृष्णा जी की तरफ उन्मुख होकर बोलीं – पुत्र अब तुम्हें सबसे बड़े उत्तरदायित्व को निबाहना है | मेरे पौत्र का यह शीश लेकर तुम्हें होयसल नरेश बल्लाल देव के पास जाना है और उन्हें मेरा यह सन्देश देना है कि दक्षिण प्रांत में यादव अधिपत्य के तीन राज्य थे, लेकिन तीनों एक दूसरे के विरोधी | नतीजा यह निकला कि देवगिरि के नरेश की तो खाल उधेड़ कर उसमें भुस भरवाया गया और आज प्रताप रूद्र का शीश भी तुम्हारे सम्मुख है | हमारे आदिदेव भगवान कृष्ण चन्द्र ने तपस्वी मुचकुंद की मदद से त्रेता युग में काल यवन का संहार किया था | इस कलियुग में अब यह उत्तरदायित्व तुम्हारे कन्धों पर है | सर्व समाज को साथ लेकर एकजुट कर ही यह वृहद कार्य संभव हो सकेगा | अतः तुम्हारे ही कुल की इस वृद्धा का आग्रह है कि व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को तिलांजली दो और समूचे दक्षिण की रक्षा का प्रयास करो | अन्यथा जिस प्रकार दो यादव राज्य समाप्त हुए हैं, तुम भी नहीं बचोगे | 

और फिर कृष्णा जी नायक उस सर को लेकर शत्रुदल को चीरता हुआ आखिर बल्लाल देव तक पहुँच ही गया | जैसे ही राजमाता का सन्देश कृष्णा जी ने बल्लाल देव को सुनाया वह कृष्ण प्रतिमा के सम्मुख दंडवत गिर पड़े | उनकी आँखों से अश्रुधारा बह रही थी और होठ बुदबुदा रहे थे – हे दीनबंधु दीनानाथ कितना पातकी हूँ मैं अधम | क्या मैं आपका वंशज यादव कहलाने योग्य हूँ | और फिर उनके अंतर्मन की पीड़ा एक चीत्कार बनकर कंठ से फूट निकली, जिसने समूचे दक्षिणांचल में बसने वाले हर वासिंदे के मनो मस्तिष्क को गुंजा दिया | एक कन्दरा में 80 वर्ष से तपस्यारत विद्याशंकर जी की आत्मा ने भी वह चीख सुनी और तपस्वी उठ खड़े हुए | 

बल्लाल देव भूकंप में हिलते हुए वृक्ष के समान वारंगल नरेश प्रताप रूद्र के छिन्न मस्तक को अवाक देख रहे थे, उनके कानों में राजमाता रुद्रम्मा मानो कह रही थीं ... शैव और वैष्णव, जैन और वीर शैव....ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, सब एक हो जाओ...संगठन में ही शक्ति है....एक हो जाओगे तो ही जीवित रहोगे ...तुर्क तुम्हें लूटने नहीं, तुम्हें और तुम्हारी महान संस्कृति को समाप्त करने आ रहे हैं | 

फिर दिमाग में सवाल उठा ... कैसे..कैसे होगा यह एकत्व...सम्प्रदाय भिन्न....भगवान भिन्न...भक्ति का तरीका भिन्न ...उनके मन अभिन्न कैसे हो सकते हैं ? फिर जैसे किसी निष्कर्ष पर पहुंच गए ...अगले ही दिन सभा बुलाई गई, जिसमें कर्नाटक के दुर्गपालों, राजकीय अधिकारियों, सभासदों के साथ साथ कर्नाटक राज्य के कुलगुरू वेदान्त देशिक महाराज, जैनाचार्य नागकीर्ती महाराज, श्रंगेरी मठ के शंकराचार्य श्री क्रियाशक्ति विद्यातीर्थ आदि सभी धर्म गुरू भी विशेष रूप से आमंत्रित किये गए | जन्माष्टमी के समारोह में खलबली मचाने वाले संगम रॉय, बल्लाल देव को द्वंदयुद्ध के लिए ललकारने वाला उनका बेटा हरिहर, अपनी आँखें नारायण को स्वयं अर्पित करने वाले सोमैय्या नायक तथा वारंगल से राजमाता का सन्देश लाने वाले कृष्णा जी नायक भी वहां उपस्थित थे | और अनामंत्रित ही वहां पहुँच गये थे बुजुर्ग सन्यासी विद्याशंकर महाराज...भगवान कालमुख | 

विद्याशंकर महाराज वाल्यकाल में ही सन्यासी हो गए थे | बुद्धि से वृहस्पति जैसे इस सन्यासी ने सत्य की खोज में एक एक कर हरेक सम्प्रदाय का अनुशीलन किया, गहन अध्ययन किया, यहाँ तक कि हर सम्प्रदाय में उन्हें आचार्य माना गया | अतः हर सम्प्रदाय में उनके प्रति आदर का भाव था | और आज वे भी तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित अपनी गुफा से तपस्या छोडकर राजसभा में पहुँच गए | इस संकट काल में उनके आगमन को सभी ने ईश्वरीय कृपा ही माना और उनसे आशीर्वाद लेकर सभा की कार्यवाही प्रारम्भ हुई | 

सबके सम्मुख महाराज बल्लाल देव ने अपना राजमुकुट विद्याशंकर जी के श्रीचरणों में रखते हुए कहा कि मैंने आज तक बहुत दुष्कर्म किये, कुछ राज्य के लिए..कुछ स्वार्थ के लिए...मैंने विदेशियों की दासता भी स्वीकार की..अपनों को कष्ट दिए...किन्तु मुझे अपने विगत जीवन पर पश्चाताप है और अब मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ | भगवन कर्नाटक का अपना राज्य मैं आपके चरणों में समर्पित करता हूँ | जब तक शरीर में प्राण रहेंगे...मैं आपके नेतृत्व में जूझूंगा ...किन्तु मेरा मानना है कि मेरे पुराने इतिहास को देखते हुए जन सामान्य को मुझपर भरोसा नहीं होगा...जबकि आपके मार्गदर्शन में सबका साथ मिल सकेगा,.जैसी कि भगवती रुद्रम्मा की अंतिम इच्छा थी | 

देश काल की परिस्थिति के अनुसार विद्याशंकर जी की उपस्थिति में सर्वानुमति से कार्य विभाजन हुआ | सोमैया नायक दक्षिणापथ के महकर्नाधिप तथा हरिहर को राज्य का महामंडलेश्वर नियुक्त करते हुए विद्याशंकर जी बोले...भूलना मत...धर्म पर संकट है...और जब धर्म पर संकट होता है तब एक ही धर्म होता है..वह है विजय ...तो आज से सबका एक ही धर्म होना चाहिए ...विजय धर्म ...उसके बाद विद्याशंकर जी ने उपस्थित जनों से भिक्षा में उनकी संतानें मांगी ....हरिहर के पिता संगम रॉय ने हरिहर से छोटे अपने तीनों पुत्र उन्हें समर्पित कर दिए | उनके अतिरिक्त सभी समाजों के पांच अन्य किशोरों को साथ लेकर भविष्य के अनुरूप उन्हें ढालने महाराज पुनः अपने आश्रम को रवाना हो गए | 

उसी सभा में विध्वंश हो चुके वारंगल के अधिपति के रूप में कृष्णा जी नायक का राज्याभिषेक हुआ | तत्पश्चात छिन्न भिन्न राज्य के सभी बांधवों को एकजुट करने के दृढ संकल्प के साथ बल्लाल देव सामान्य वेश में एक घोड़े पर सवार होकर निकल पड़े | सभी दुर्गों को सुद्रढ़ बनाकर रक्षा व्यवस्था सुदृढ़ करने | अब राज्य चलता था कालमुख विद्याशंकर के नाम से, राज्य चलाता था मंडलेश्वर हरिहर, उन्हें सलाह देने नियत थे महा प्रधान दादैया सोमैया | और इस प्रकार बिना किसी रक्तपात के चारों भाषाओं तमिल तेलगू कन्नड़ मलयालम, चार सम्प्रदाय वैष्णव, शैव्य, जैन, वीर शैव्य, चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र ने मतभेद भूलकर विजय धर्म का वरण किया और उस समन्वय ने एक महान और बलशाली राज्य को जन्म दिया | 

किन्तु अभी बलिदान और होने थे | तेरहवीं सदी के प्रारम्भ में अलाउद्दीन खिलजी के सेना नायक मलिक काफूर ने दक्षिण भारत पर हमला बोला और मालाबार पर अधिकार कर लिया | वहां उसने जलालुद्दीन अहसान शाह नामक एक तुर्क को सूबेदार नियुक्त किया | पांड्य राजकुमार सुन्दर ने अपने भाई और तत्कालीन राजा वीर पंडया को अपदस्थ करने के लिए अहसान शाह की मदद मांगी और उसे मदुरा पर आक्रमण के लिए प्रेरित किया | मदुरा के पाण्ड्य राजा बाली के दो विवाह हुए, पहली रानी के पुत्र थे सोमैय्या तो दूसरी रानी के वीर और सुन्दर | सबसे बड़े ने अपनी विमाता की इच्छा का सम्मान करते हुए स्वेच्छा से युवराज पद छोडकर अपनी ननिहाल तंजोर जाना पसंद किया और वीर पंड्या पिता की मृत्यु के बाद मदुरा के अधिपति हुए | किन्तु गद्दार छोटे भाई सुन्दर के मार्गदर्शन में अहसान शाह ने मदुरा को फतह किया और वीर मारे गए | सुन्दर को भी सिवा बदनामी के कुछ नहीं मिला | हाँ इतना अवश्य हुआ कि मदुरा के मंदिर नष्ट हुए, हिन्दू प्रजा पर अकथनीय अत्याचार हुए | हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए श्रीरंगम मंदिर की देव प्रतिमाओं को फेंककर यह सूबेदार मंदिर में स्वयं रहने लगा | जहाँ कभी वेदपाठ गूंजता था, उस मंदिर प्रांगन में वेश्याओं की पायल झंकृत होने लगी | 

जब दिल्ली में सत्ता संघर्ष चल रहा था, तब अहसान शाह ने स्वयं को सूबेदार के स्थान पर मदुरा का सुलतान घोषित कर दिया | फिर जो दिल्ली में हो रहा था मदुरा में भी हुआ | तास नामक एक अमीर अहसान शाह को मारकर खुद सुलतान बन बैठा | लेकिन वह भी कुछ दिनों का महमान ही सिद्ध हुआ | अपनी अय्यासी के चक्कर में मारा गया और एक सुबह उसका सर किले की दीवार पर लटकता दिखाई दिया | नया सुलतान गयासुद्दीन आया तो फिर उसे मारकर उसका भानजा नसीरुद्दीन सुलतान बना | 

हरिहर और सोमैया का स्पष्ट मानना था कि पहले अपने राज्य को सुसंगठित व सबल बनाया जाए, तब तक अगर कोई आक्रमण हो तो आत्मरक्षा की जाए किन्तु स्वयं होकर युद्ध में न उलझा जाए | किन्तु बल्लालदेव की विष्णुभक्ति ने जोर मारा और उन्होंने भूल कर दी | भगवान रंगनाथ के मंदिर की दुर्दशा सुन सुनकर वे व्यथित हो गए थे, या हो सकता है उन्होंने प्रायश्चित स्वरुप आत्माहुति का इरादा कर लिया हो, जो भी हो उन्होंने महज पांच हजार सैनिक एकत्रित कर मदुरा पर चढ़ाई कर दी | अपने भीम पराक्रम से सुलतान नसीरुद्दीन को पराजित भी कर दिया | किन्तु उनकी सहृदयता शत्रु बन गई | नसीरुद्दीन ने पराजय स्वीकार करते हुए कहा कि मैं मदुरा आपके सुपुर्द करता हूँ, बस युद्ध में मारे गए लोगों का अंतिम संस्कार करने की अनुमति दे दें और मुझे सकुशल निकल जाने दें | बल्लालदेव को भला इसमें कहाँ आपत्ति हो सकती थी | किन्तु सावधानी हटी दुर्घटना घटी के अनुरूप नसीरुद्दीन ने धोखा किया व असावधान बल्लाल देव की ह्त्या कर दी और उनका सिर रसायनों के लेप से सुरक्षित कर दुर्ग के कंगूरे पर लटका दिया | यह अलग बात है कि दलित वर्ग का एक योद्धा विद्याशंकर महाराज का शिष्य चतुरता पूर्वक न केवल उस शीश को उतार लाया, बल्कि सुलतान की भी ह्त्या कर आया | 

अगले सात वर्षों में बहुत कुछ हुआ | संगम रॉय युद्ध भूमि में मारे गए, समाज के विभिन्न वर्गों के आठ शिष्यों को सर्व गुण संपन्न बनाकर विद्याशंकर महाराज ने समाधि ली, ठीक उसी दिन ...एक सुसंगठित समाज रचना का महान कार्य करने के बाद हरिहर भी परलोक सिधारे, हरिहर के छोटे भाई बुक्का नए महा करणाधिप बने और जिस स्थान पर विद्याशंकर महाराज ने समाधी ली थी वहीं विजय धर्म के अनुयाईयों ने एक नई राजधानी का निर्माण किया – नाम करण हुआ - विजय नगर !
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