विजय नगर साम्राज्य की गौरव गाथा (भाग 2) – विजय ही विजय



महामंडलेश्वर हरिहर रॉय की देखरेख में विजय नगर एक ऐसा राज्य बना, जहाँ हर धर्म का सम्मान था, किन्तु साथ ही एक राष्ट्रीय अनुशासन भी | एक बात गौर करने योग्य है कि हरिहर और उनके बाद बुक्का दोनों ही के हाथों में पूरे शासन सूत्र थे, लेकिन इन दोनों ने स्वयं को राजा घोषित नहीं किया | प्राचीन लेखों में दोनों का वर्णन महामंडलेश्वर के रूप में ही मिलता है | कारण भी साफ़ है, इन दोनों को ही पद और नाम की नहीं, बल्कि संस्कृति को सुरक्षित और संरक्षित करने की चिंता थी | इसीलिए आमजन से खुले ह्रदय से इनका समर्थन किया | विदेशी आक्रमण की चिंता और उनसे भी बढ़कर घर के भेदियों का खतरा, गरीबी का नग्न नृत्य आज से कई गुना ज्यादा था उन दिनों | ऐसे में स्वामी कालमुख विद्याशंकर के आश्रम से निकले उनके एक शिष्य माधव पंडित ने नव घोषित विजय नगर के महामात्य का पदभार संभाला | इस टोली ने सबसे पहले ध्यान केन्द्रित किया राज्य को सुरक्षित और सबल बनाने पर | इसके लिए प्राथमिक आवश्यकता थी धन की और ध्येय के प्रति समर्पित आम जन की | 

चारों सम्प्रदायों का समर्थन प्राप्त करने के लिए एक व्यवस्था बनाई गई कि न्याय व्यवस्था राजगुरू देखेंगे | और राजगुरू किसी एक सम्प्रदाय का नहीं, बल्कि चारों सम्प्रदायों के मान्य गुरुओं में जो सबसे अधिक आयु का होगा, उसे मान्य किया जाएगा | इसी प्रकार संस्कृति की रक्षा के लिए जरूरी माना गया कि प्रत्येक घर, गाँव, शहर से योद्धा आगे आना चाहिए | यह तभी संभव था, जब प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव करे कि यह राज्य मेरा है, यह परंपरा मेरी है, और तुर्कों से युद्ध मैं और किसी के लिए नहीं, स्वयं के लिए लड़ रहा हूँ | दक्षिण भारत में उस समय कुरुबों, पांचालों, बेसबागों, हौलेयों और पालेरों का एक विशाल वर्ग ऐसा था, जिसे समाज में कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे | उन्हें हिन्दू राज्य में पाने को कुछ नहीं था, तो तुर्क राज्य में कुछ खोने का खतरा भी नहीं था | निम्न वर्ग चूंकि मुख्यतः कृषि पर आधारित है, अतः विजय धर्म के इन नए क्षत्रपों ने उनके हित में भूमि संबंधी व्यवस्था और भूमि करों को सुनियोजित किया | श्रम संबंधी नियम बनाए गए | अभी तक जो जमीन जमींदारों की होती थी, अब कुरुबा को जमीन का मालिक करार दे दिया गया, दुसरे शब्दों में कहें तो जमीन जो जोते उसकी | जमींदारों को केवल कृषि भाग का अधिकार रह गया | दोनों के बीच विवाद होने पर मध्यस्थता के लिए राजगुरू द्वारा नियुक्त धर्माधिकारी निर्णय करेगा, यह नियम बना | उन्हें प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया, यहाँ तक कि राज्य की सर्वोच्च महासमिति में भी श्रेष्ठि वर्ग के साथ अन्त्यज प्रतिनिधि भी आवश्यक कर दिया गया | लेकिन हद तो तब हुई, जब आज की भाषा में कहें तो बंधुआ प्रथा व उस समय की शब्दावली में परचेरी की प्रथा के नियम बने, जिसके अनुसार सेवक की सेवा शर्तों को प्रतिवर्ष नवीनीकरण आवश्यक कर दिया गया | मालिकों को उनकी आवास व भोजन व्यवस्था सुनिश्चित करने और पति पत्नी बच्चों को साथ रखने का नियम बना | पहले काम न होने पर सेवकों को बेच दिया जाता था, अब यह संभव नहीं रहा, अगर काम नहीं है, तो उन्हें मुक्त करो, अपना नया स्वामी वे स्वयं ढूंढेंगे | और सबसे बड़ी बात यह कि तुर्कों से किसी भी प्रकार के व्यापार संबंधों पर रोक लगा दी गई | 

इसका सबसे पहले मुखर विरोध हुआ जैन व्यापारियों की नगरी श्रवण बेलगोला से | आईये आगे बढ़ने से पूर्व श्रवण बेलगोला के इतिहास पर चर्चा कर लेते हैं | बेलगोला का अर्थ होता है – श्वेत सरोवर | श्रवण बेलगोला अर्थात साधुओं का श्वेत सरोवर | चन्द्रगिरी और इंद्रगिरी पर्वतों के बीच स्थित सरोवर के दोनों किनारों पर अनेक चैत्य और जिनालय स्थित हैं | एक धाम है आचार्य भद्रबाहू का | आचार्य भद्रबाहु उज्जयिनी में अकाल का संकेत पाकर अपने समस्त शिष्यों के साथ यहाँ चले आये थे और यहीं उन्हें कैवल्य पद प्राप्त हुआ | आचार्य भद्रबाहु के शिष्य आचार्य चाणक्य और चन्द्रगुप्त के धाम भी यहाँ स्थित हैं | पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ और उनके दुसरे पुत्र भरत के धाम भी हैं | भगवान आदिनाथ के बड़े बेटे थे बाहुबली | कथा है कि बाहुबली और भरत के बीच राज्याधिकार को लेकर संघर्ष हुआ | एक महायुद्ध में बाहुबली विजई हुए | किन्तु विजय के बाद महाविजय भी मिली, जब उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ | विजेता बाहुबली विरक्त हो गए और राजपाट छोटे भाई भरत को सोंपकर साधना में लीन हो गए | इन्हीं बाहुबली की एक ही पत्थर से बनी विराट प्रतिमा इन्द्रगिरी के शिखर पर आज भी खडी है, जिन्हें भगवान गोमटेश्वर के नाम से पूजा जाता है | यह एक ही पत्थर से बनी संसार की सबसे ऊंची और जीवंत प्रतिमा है, स्थापत्य की बेजोड़ कृति| पचास हाथ ऊंची, मानव जाति की श्रद्धावंत कला का बेजोड़ नमूना यह प्रतिमा बिना किसी आधार के खडी है | 

कथा यह भी है कि इससे भी अधिक ओजपूर्ण और विराट प्रतिमा यहाँ थी, किन्तु कालान्तर में जब संशयवाद मूलसंघ में प्रविष्ट हो गया, तव वह अचानक लुप्त हो गई | भगवान महावीर के निर्वाण की नौवीं दशवीं सदी के संधिकाल में एक महान विजय के अभिनन्दन के निमित्त गंगाराज का दंड नायक चामुंड राय इस लुप्त प्रतिमा की खोज में निकला, उसने अनेक वनों में ढूँढा, अनेक कष्ट सहे, यहाँ तक कि मरणासन्न हो गया, पर अलोप प्रतिमा का दर्शन असाध्य रहा | तब उसे स्वप्न आया कि नई प्रतिमा के निर्माण के पूर्व उस प्रतिमा के दर्शन संभव नहीं है | सुबह उठकर तू चंद्रगिरी से एक बाण छोड़ना, वह जिस जगह गिरे, बहीं भगवान गोमटेश्वर की दूसरी प्रतिमा प्रतिष्ठित करना | उस बलबंत योद्धा द्वारा चलाया गया बाण इन्द्रगिरी शिखर पर गिरा और बहीं चामुंडराय ने प्रतिमा की स्थापना की | चौदह सौ वर्ष बाद भी यह प्रतिमा ऐसी प्रतीत होती है, मानो हाल ही में बनी हो | मिश्र की सबसे ऊंची प्रतिमा भी गोमटेश्वर से दो हाथ छोटी है | 

बेलगोला के व्यापारी सातों समुद्रों का प्रवास करते, उनके मणिग्राम में फारस के घोड़े, शिराई की शराब, तेहरान का इत्र, सौराष्ट्र के मोती, ब्रह्म देश का रेशम, चीनी वस्त्र, सभी वस्तुएं उपलब्ध थीं | आज तक उनके कार्यों में किसी राजतंत्र ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया था, वे स्वयंभू सत्ता थे | क्या तुर्क क्या हिन्दू राजा, सबकी जरूरतें उनके माध्यम से ही पूरी होती थीं | युद्ध सामग्री की आपूर्ति भी वे ही करते थे | फिर विजय धर्म बालों का इतना दुस्साहस कि तुर्कों से व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाएं, उनके आश्रित सेवकों को उनके विरुद्ध भड़काएं | वे क्रोध से भर गए | उनके असंतोष की जानकारी महामंडलेश्वर हरिहर के पास पहुंची तो वे स्वयं जैन व्यापारियों के पास बातचीत को पहुंचे | किन्तु वणिक समाज कुछ सुनने समझने को ही तैयार नहीं था, उन्होंने एक प्रकार से हरिहर राय को अपमानित कर दिया | 

किन्तु उसका परिणाम यह निकला कि उनका सारा कामकाज ठप्प हो गया | समुद्र में जहाज लंगर डालकर खड़े हो गए, व्यापार का यातायात रुक गया | व्यापारियों के सेवकों होलेय और पालेरों ने विद्रोह कर काम करने से मना कर दिया | जगह जगह आगजनी और तोड़फोड़ होने लगी | 

एक कहावत है कि दुबले और दो आषाढ़, इधर सेवकों के विद्रोह के कारण बेलगोला के व्यापारियों की जान सांसत में थी, उधर जैनाचार्य श्री आर्यभद्रदेव ने आकर आगामी बसंत पंचमी को गोमटाभिषेक होने की सूचना प्रदान कर दी | गोमटाभिशेक का कोई पूर्व निर्धारित समय नहीं होता, जब कभी मूलसंघ के प्रधान आचार्य महाराज श्री को स्वयं केवली भगवान अनहद संकल्प के रूप में आदेशित करते हैं, तब इस बाहुबली की प्रतिमा का गोमटाभिशेक किया जाता है | तो स्थिति यह बनी कि एक माह भी शेष नहीं रहा, इतनी कम अवधि में इतना बड़ा कार्यक्रम कैसे होगा | सेवक कोई है नहीं | पूरा समाज चिंतातुर हो गया | लेकिन ऐसी स्थिति में हरिहर स्वयं आये दलबल के साथ और अभिषेक की सारी व्यवस्थाएं संभाली | घर घर अभिषेक की तैयारियां शुरू हुईं | नौ नदियों का जल लाया गया, हजार घड़े भर सोने चांदी के फूल गढ़े गए, हजार घड़े शहद आया, कल्याणी सरोवर के तट से प्रतिमा के पादपद्म तक श्रीफल का मार्ग बन गया | श्रीफल का ही ऊंचा मंच बनाया गया | विजय धर्म के परमशैव महामंडलेश्वर हरिहर राय की उपस्थिति में क्या वैष्णव, क्या शैव्य क्या वीर शैव, जैन समाज के उस भव्य आयोजन में सम्मिलित हुए | इतनी बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहले कभी बेलगोला नहीं पहुंचे थे | 

और फिर बसंत पंचमी का वह शुभ दिन भी आया जब हजार श्वेत वर्णी गायें, हजार श्याम वर्णी गायें व हजार नीलाभ गायों के दूध से भगवान गोमटेश्वर की उस विराट प्रतिमा का अभिषेक प्रारम्भ हुआ | किन्तु यह क्या ? अभिषेक की सामग्री मस्तक से नीचे बाम्बियों तक पहुँच ही नहीं रही थी | प्रतिमा की जंघाएँ एकदम सूखी दिखाई दे रही थी | क्या यह अभिषेक महाप्रभु को स्वीकार नहीं था | भक्तों की आखें भीग गईं, महिलाओं के कंठ से निकलने वाले गीत रुद्ध हो गये | तभी वहां एक होलेय वृद्धा पहुंची | उसके हाथ की एक तुम्बी में थोडा सा दूध था | उसने कांपते हाथों से अपना पात्र आचार्य श्री को सोंपकर कहा – मेरी यह श्रद्धा भी प्रभु के चरणों में समर्पित कीजिए | अभिषेक के समय जो भी सामग्री भक्तजन लाते हैं, वह अर्पित करने की अनिवार्यता है | उसी परिपाटी के अनुरूप आचार्य श्री ने तुम्बी हाथ में ली और दूध प्रतिमा के मस्तक पर अर्पित किया और अचम्भा हो गया | मस्तक से बाम्बी तक , जंघा के ऊपर से बहता हुआ यह दुग्ध धार पाद पद्मों तक अखंड धारा के रूप में प्रवाहित हो गई | पूरा वातावरण गूँज उठा – गुलाई माता की जय, भगवान गोमटेश्वर की जय | सवासौ से अधिक वर्षों बाद यह गोमटाभिषेक संपन्न हुआ था | 

कहने की आवश्यकता नहीं कि सेवक और मालिक का भेद मिट चुका था | भगवान ने सेवक की भाव पूर्ण भेंट स्वीकार की थी | मालिकों का दर्प चूर चूर हो चूका था | नगरश्रेष्ठि ने हरिहर को आशीर्वाद देते हुए कहा कि मंडलेश्वर जब भी विजय धर्म प्रवर्तक स्वामी विद्याशंकर महाराज की आज्ञा होगी, तब बेलगोला के व्यापारी मिलकर एक प्रहर तक स्वर्ण बरसाएंगे | युद्ध हो या धर्म – दो ही साधन होते हैं – मृत्यु के सम्मुख अभयता और उपयोगी सामग्री की आपूर्ति | प्रथम आवश्यकता को आप संभाल लेना, द्वितीय की पूर्ति का भार हम वणिकों पर छोड़ देना | कालांतर में बेलगोला विजयनगर की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ती का प्रमुख आधार बना | 

मदुरा के सुलतान नासिरुद्दीन ने राज सन्यासी बल्लाल देव को धोखे से मारकर उनका सिर किले की दीवार पर टांग दिया था | रंगनाथ मंदिर की देवदासी आनंदी अतिशय रूपवती थी, अतः जो भी मदुरा का सुलतान बनता, उसे अपने हरम में रखता | शरीर से वह मुस्लिम सुलतान की दासी होती, लेकिन मन अपने स्वामी भगवान रंगनाथ को ही समर्पित था | उसने ही भालारी बिबोया को यह भेद बताया था कि प्रतिदिन सुलतान एक नियत समय पर बल्लाल देव के कटे सिर को देखने दुर्ग की प्राचीर पर जाता है, उसने ही बिबोया के उस स्थान तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त किया था और सिर लेकर सकुशल निकल जाने के लिए घोड़े का प्रबंध भी | अस्तु भालारी बिबोया का अभियान सफल रहा और वह बल्लाल देव का सिर लेकर और सुलतान का सिर काटकर अपने राज्य में पहुँच गया | स्वाभाविक ही नवनिर्मित विजयनगर साम्राज्य में क्रोधाग्नि भड़क उठी, क्या आम क्या ख़ास सभी बदला लेने को आतुर हो गए | 

नासिरुद्दीन के बाद उसके चाचा गयासुद्दीन दमगनी ने मदुरा का तख़्त संभाला हुआ था | विजय नगर के महामात्य माधव ने संगम राय के तीसरे बेटे महामंडलेश्वर बुक्का के छोटे भाई कुमार कम्पन को मदुरा अभियान का दायित्व सोंपा | यद्यपि बुक्का स्वयं मदुरा पर आक्रमण करना चाहते थे, लेकिन माधव महामात्य का मानना था कि उन्हें दिल्ली के बादशाह मुहम्मद तुगलक पर ही ध्यान केन्द्रित रखना चाहिए | अतः बुक्का रॉय महामात्य माधव की सलाह मानकर योद्धाओं की भर्ती, हाथियों के प्रशिक्षण, हथियारों की व्यवस्था आदि के द्वारा शक्ति संचय में जुट गए | 

कम्पन को भी सीधे आक्रमण के बजाय कूटनीति से काम लेने का मन्त्र दिया गया | तदनुरूप कम्पन श्रवण बेलगोला के श्रेष्ठी की मदद से सुलतान के भानजे मलिक फिरोज के साथी और मदुरा के प्रतिष्ठित व्यापारी पुत्र मुबारक के कर्मचारी बन गए | कुछ ऎसी चाल चली कि महत्वाकांक्षी मलिक फिरोज ने सैयद मंजूर शाह, मोपलाओं और पिंडारियों की मदद से मदुरा में विद्रोह कर दिया | लेकिन उसने जैसा सोचा था बैसा नहीं हुआ | सुलतान तो मारा गया लेकिन इस अराजकता का लाभ उठाकर पिंडारियों का नेता इकबाल स्वयं सुलतान बन बैठा | पिंडारियों ने मदुरा में भीषण लूटपाट और हत्याएं कीं | इस दौर में कुमार कम्पन ने बड़ी कुशलता से एक सेवक का अभिनय करते हुए अपने तात्कालिक मालिक मुबारक की प्राणरक्षा की | 

नये सुलतान इक़बाल शाह की नजर मुबारक की प्रेयसी पर थी, अतः उसने जहाँ एक और तो उसके पिता का क़त्ल करबा दिया और दूसरी ओर उसकी मंगेतर के पिता की हत्या के झूठे आरोप में उसे हाथी से कुचलने की सजा दे दी | लेकिन इस बार भी कुमार कम्पन देवदासी आनंदी की मदद से उसे बचाकर अपने राज्य में ले आये | मुबारक को महामात्य माधव के पास छोड़कर स्वयं कुमार कम्पन वापस मदुरा लौटे और रंगनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी वृद्ध चंद्रशेखर में आत्म विश्वास जागृत किया | और फिर क्या था चंद्रशेखर ने आमजन को पिंडारियों पर आक्रमण के लिए प्रेरित किया | एक बार फिर संघर्ष हुआ और महज एक दिन सुलतान रहकर पिंडारियों का नेता इकबाल भी जहन्नुम नसीन हो गया | मौका पाकर मलिक फिरोज ने स्वयं को सुलतान घोषित कर दिया | 

उधर मुबारक आश्चर्य से महामात्य माधव की दिनचर्या देख रहा था | एक कुटिया में महामात्य का लेखन चल रहा था | मुबारक हैरत में था, यह कैसा महामात्य है – जिसकी देह पर रेशम के वस्त्र नहीं, महज एक सादा धोती, दास दासियों की भीड़ नहीं, सुरक्षा के लिए अंगरक्षकों की टुकड़ी नहीं, अंग पर एक भी आभूषण नहीं, हाथ में किसी हथियार की जगह कलम | लिखने को कोई मुंशी भी नहीं | अरे जहाँ बजीरे आजम का पड़ाव होता है, बहां तो कोई छोटा मोटा शहर ही बस जाता है, प्रार्थियों से लेकर अधिकारियों की रेलमपेल होती है, कहाँ बजीरे आजम और कहाँ यह महामात्य | 

आखिर मुबारक ने पूछ ही लिया – क्षमा कीजिए चार कोस की दूरी पर ही आपका शत्रुदल गरज रहा है, और आप निश्चिन्त हैं | उत्तर में देवगिरी, पूर्व में तुर्क सहयोगी कलिंग के गजपति, दक्षिण में मदुरा की सल्तनत | ऐसी हालत में भी आपको कोई फ़िक्र नहीं | 

महामात्य माधव पंडित हंसकर बोले – हम अपना धर्म अपना शासन दूसरों पर लादने नहीं निकले हैं और हमने इस राज्य की स्थापना अपनी संस्कृति और अपने संस्कार के अभेद्य दुर्ग के रूप में की है | हमें अपनी सत्ता बढाने की भूख नहीं है, जिन राजाओं और दुर्गपालों ने अपने राज्य और भूभाग इस महासाम्राज्य में विलय किये हैं, त्याग की भावना से स्वेच्छा से किये हैं | भारतीय संस्कृति के इस भाव को आप नहीं समझ पायेंगे | 

मुबारक ने अब अपनी जिज्ञासा सामने रखी, जो उसके दिमाग लो लगातार परेशान कर रही थी, उसने सवाल किया –कुमार कम्पन ने आखिर मेरे बालिद के पास जाकर नौकरी क्यों की ? 

महामात्य ने सहज भाव से जबाब दिया – हम मदुरा के रंगढंग देखना चाहते थे | मदुरा हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है, हमें उसे जीतना ही है, अतः उसकी शासन स्थिति देखना हमारे लिए आवश्यक था | देर सबेर विजय नगर पर दिल्ली से आक्रमण होगा ही, दौलतावाद का भी कोई ठिकाना नहीं, कब आक्रमण कर दे, अतः हम अपनी पीठ की तरफ से बेखबर नहीं रह सकते | 

मुबारक ने आख़िरी सवाल किया – मदुरा में सुलतान की जो दशा हो, उससे मुझे मतलब नहीं, लेकिन मदुरा के तुर्कों का क्या होगा, उनके माल असबाब का क्या होगा, हमारी मस्जिदों का क्या होगा ? क्या आपकी सेना की पगधूली में उनको ख़तम होना होगा ? क्या उन्हें गुलाम बनाया जाएगा ? 

महामात्य धीर गंभीर स्वर में बोले – मैं विजयनगर के महामात्य के रूप में जमानत दे सकता हूँ, किसी भी आमजन को नहीं सताया जाएगा, वह तुर्क हो या हिन्दू | हर देवस्थान की पवित्रता का पूरा ध्यान रखा जाएगा | हाँ हिन्दुओं के जिन देवस्थलों को बलात कब्जाया गया है, उन्हें निश्चित रूप से वापस लिया जायेगा | मुबारक खान विजय नगर की सेना लुटेरों की सेना नहीं है | उसका काम गुलाम बनाना नहीं, गुलामों को आजाद कराना है | 

अभिभूत मुबारक के मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा – महामात्य जी मदुरा विजय के इस अभियान में, आपकी सेवा करने हेतु मैं पूरे मन से तैयार हूँ | 

बार बार के सुलतानी बदल से मदुरा के आमजन परेशान हो ही चुके थे, अतः मौका अनुकूल देखकर जब विजय नगर की सेना ने मदुरा में प्रवेश किया तो रास्ता साफ़ था | रत्ती भर भी विरोध नहीं हुआ, क्योंकि मदुरा का जाना पहचाना व्यापारी मुबारक उस सेना के मुखिया के रूप में आगे आगे चल रहा था | सबने पलक पांवड़े बिछाकर उनका स्वागत किया | बिना किसी रक्तपात के मदुरा विजय अभियान संपन्न हुआ | भगवान रंगनाथ के भव्य मंदिर में पुनः उनकी प्राण प्रतिष्ठा हुई | 

मदुरा का नया सुलतान अपने सहयोगी मुबारक को बनाकर कुमार वापस अपने आगामी दायित्व हेतु विजय नगर लौट आये | दूर फिजा में रंगनाथ मंदिर से प्रार्थना के स्वर गूँज रहे थे – 

कावेरी मध्यदेशे फणिपतिशयने शेष पर्यंक भागे, 

निद्रा मुद्राभिरामं कटि निकट शिरः पार्श्व विन्यस्त हस्तं 

पद्मा धात्री कराभ्यां परिचित चरणं रंगराजं भजेSहं !
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