विजय नगर साम्राज्य की गौरव गाथा (भाग 3) – राजा कृष्णदेव राय



१३३६ से १४८५ तक हरिहर बुक्का के वंशजों ने विजय नगर साम्राज्य पर राज किया, उनके बाद सलुवा वंश के नरसिंह देव राय व उनके वंशज १५०५ तक विजय नगर के राजा रहे | फिर आया तुलुवा वंश जिसमें महा प्रतापी कृष्णदेवराय का जन्म हुआ | लोभ और मोह को हमारे मनीषियों ने पाप का मूल माना है | नरसिंह नायक के साथ भी ऐसा ही हुआ | उनका अन्तकाल नजदीक आया तो उन्हें अपने आठ वर्षीय पुत्र के भविष्य की चिंता सताने लगी | उनके सौतेले भाई कृष्णदेव प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय थे | उन्हें लगा कि मेरे बाद निश्चय ही इनका राजतिलक संपन्न होगा, मेरे नाबालिग पुत्र को कौन राजा मानेगा | अतः उन्होंने अपने महामात्य तिम्मारुसू को आदेश दिया कि कृष्णदेव की जीवनलीला समाप्त कर दी जाए | लेकिन जाको राखे साईयाँ मार सके न कोय, महामात्य समझदार थे, समाज और संस्कृति के लिए क्या करना चाहिए, इसका बुद्धि विवेक उनमें था | कृष्णदेव को गुप्तरूप से चंद्रगिरी भेजकर सुरक्षित कर दिया और राजा को भेड़ की आँखें लाकर दिखा दीं | जल्द ही राजा नरसिंह का देहावसान हो गया, मंत्रीमंडल और प्रजा ने कृष्णदेव राय को बुलाकर हम्पी के विरूपाक्ष मंदिर में ससम्मान राजतिलक किया | 

तुलुवा राजवंश के तीसरे शासक कृष्णदेवराय को विजयनगर साम्राज्य का सबसे महान सम्राट माना जाता है, जिन्होंने 1509 से 1529 तक शासन किया । कन्नड़, तेलगू और तमिल लोक गाथाओं में कृष्णदेव राय को कन्नड़ राज्य रामा रामन्ना, आंध्र भोज और मोरू रायारा गंडा अर्थात "तीन राजाओं का राजा" जैसे नामों से वर्णित किया गया है । दक्षिण भारतीय कवि मुकु तिम्माण ने उन्हें तुर्कों के संहारक रूप में वर्णित किया है । 

कृष्णदेव राय ने अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित परंपरा को कायम रखते हुए, राजतिलक के बाद सबसे पहले तो अपने सभी अठारह प्रान्तों के मंडलेश्वरों से सौहार्द्र स्थापित किया उसके बाद जिन पडौसी शत्रुओं से मित्रता स्थापित हो सकती थी, उनसे मैत्री सम्बन्ध बढाए | गोवा के पुर्तगाली उनके मित्र बने, इतना ही नहीं तो विजय नगर की सेना को आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित करने में भी पुर्तगालियों ने मदद की | अब बारी आई, उन शत्रुओं की, जिनसे मित्रता संभव ही नहीं थी | 

दक्षिण के सुल्तानों द्वारा विजयनगर के कस्बों और गाँवों को लगातार छापे मारकर लूटा जाता था, किन्तु यह दौर कृष्णदेव राय के शासन काल में समाप्त हो गया । 1509 में, कृष्णदेवराय की सेनाओं ने बीजापुर के सुल्तान समशुद्दीन ज़फ़र खान को दीवानी में हुए युद्ध में तगड़ी शिकस्त दी, यहाँ तक की स्वयं सुल्तान भी गंभीर रूप से घायल हो गया । यूसुफ आदिल खान को मारकर रायचूर दोआब को अपने आधीन कर लिया । जीत का यह सिलसिला यहीं नहीं रुका, कृष्णदेव राय ने बीदर, गुलबर्गा और बीजापुर को विजयनगर में फिर से मिलाया और सुल्तान महमूद को रिहा कर अपने अधीन राजा बनाने के बाद उन्हें "यवन राज्य संस्थापक" भी कहा जाने लगा । गोलकुंडा के सुल्तान कुली कुतुब शाह को कृष्णदेवराय के प्रधान मंत्री, तिम्मारसु ने हराया । 

आज के उडीसा और तत्कालीन कलिंग के गजपति राजा वर्षों से विजय नगर के शत्रु और विदेशी आक्रान्ताओं के मित्र रहते आये थे, यहाँ तक कि प्रारम्भिक दौर में वारंगल के पतन के समय वे तुर्क सेना के साथ ही थे | कृष्णदेव राय ने उन्हें सबक सिखाने की ठानी | किन्तु उसमें सबसे बड़ी बाधा थी कलिंग और विजय नगर की सीमा पर स्थित उफनती कृष्णा नदी | कृष्णदेव राय ने चतुरता पूर्वक पहले तो नदी से नहरें खुदवाकर अपने राज्य की कृषि भूमि को सिंचित किया और फिर कलिंग पर सैन्य आक्रमण किया | अर्थात एक तीर से दो शिकार | नदी में पानी कम हो चुका था अतः आसानी से विजयनगर की सेना ने गजपति का मान मर्दन कर दिया | पहले उदय गिरि, उसके बाद कंदकूर, उसके बाद कोंडूवीरू, फिर बीडर और यहाँ तक कि अंत में कलिंग की राजधानी कोंडपल्ली पर भी विजय नगर की विजय पताका फहराने लगी | तत्कालीन गजपति राजा प्रताप रूद्र को भागने की भी जगह शेष नहीं रही | पराजित गजपति राजा ने कृष्णदेव राय को एक भावुक संधिपत्र भेजा, जिसे सहृदयतापूर्वक कृष्णदेव राय ने स्वीकार कर लिया और जीता हुआ राज्य गजपति राजा को वापस लौटा दिया | अभिभूत राजा प्रताप रूद्र ने अपनी पुत्री जगन्मोहिनी का विवाह कृष्णदेव राय के साथ कर मैत्री सम्बन्ध और प्रगाढ़ कर लिए | इस प्रकार दशकों से तुर्कों और उनके बाद मुगलों का मित्र रहा यह राजवंश अब विजय नगर मित्र हो गया | 

पुर्तगाली यात्री डोमिंगो पेस और फर्नाओ नुनिज़ भी उनके शासनकाल के दौरान विजयनगर आये थे । उनके यात्रा-वृत्तांतों में किये गए वर्णन के अनुसार कृष्णदेव राय न केवल एक योग्य प्रशासक थे, बल्कि एक उत्कृष्ट सेनापति भी थे, जो स्वयं युद्ध का नेतृत्व करते थे । कृष्णदेव राय को तिम्मारुसू जैसे सक्षम प्रधानमंत्री मिले थे, जिन्हें सम्राट सदा पिता तुल्य मानते थे । 

कृष्णदेवराय का शासन विजयनगर की सैन्य सफलताओं का इतिहास है। उन्हें युद्ध की योजनाओं को अचानक बदल कर हारी हुई लड़ाई को जीत में बदलने के लिए जाना जाता था। उनके मुख्य दुश्मनों में बहमनी सुल्तान थे (जो पाँच छोटे राज्यों में विभाजित होने के बाद भी निरंतर खतरा बने हुए थे), ओडिशा के गजपति ( जो सलुवा विजय नगर के स्थापना काल से ही लगातार विरोधी रहे) और पुर्तगाली (एक ऐसी बढ़ती हुई समुद्री शक्ति जिसने समुद्री व्यापार को बहुत कुछ अपने कब्जे में कर लिया था)। 

दक्कन में सफलता 

1516-1517 में, कृष्णदेवराय ने गोदावरी नदी को पार कर धरणीकोटा कम्मा जैसे गजपति के कई सामंतों को हराया। ओडिशा के गजपति का आंध्र प्रदेश और ओडिशा के एक विशाल भूभाग पर शासन था। उम्मतुर की सफलता से उत्साहित कृष्णदेव राय ने गजपति राजा प्रतापरुद्र देव के नियंत्रण वाले तटीय आंध्र क्षेत्र में मुहिम शुरू की और विजयनगर सेना ने 1512 में उदयगिरि किले को घेर लिया । यह अभियान एक साल तक चला जिसमें गजपति सेना भुखमरी के कारण बिखर गई। गजपति से दूसरी भिडंत कोंडवीडु में हुई, जहाँ विजयनगर की सेनाओं को कई महीनों की घेराबंदी के बाद भी सफलता नहीं मिल रही थी । तभी महामात्य तिम्मारुसू को किले के अनारक्षित पूर्वी द्वार में एक गुप्त प्रवेश द्वार की जानकारी मिल गई, फिर क्या था तिम्मारसु ने रात के अँधेरे में अकस्मात हमला कर किले पर कब्जा कर लिया | इस दौरान गजपति सम्राट प्रतापरुद्र देव के पुत्र, राजकुमार वीरभद्र पकडे गए । इसके बाद कृष्णदेव राय में सलुवा तिम्मारसु को कोंडावेदु का गवर्नर बना दिया गया। 



इधर कृष्णदेवराय ने कलिंग पर आक्रमण की योजना बनाई, तो गजपति सम्राट प्रतापरुद्र ने कृष्णदेवराय को कलिंगनगर के किले में घेरकर हराने की योजना तैयार की। लेकिन चतूर तिम्मरसु को प्रतापरुद्र के ही एक तेलगू सेवक के माध्यम से उसकी योजना की जानकारी मिल गई अतः विजयनगर की सेना ने कलिंगनगर के स्थान पर गजपति साम्राज्य की राजधानी कटक पर आक्रमण कर दिया । अंततः प्रतापरुद्र ने विजयनगर साम्राज्य के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया, और अपनी बेटी राजकुमारी जगनमोहिनी का विवाह भी कृष्णादेव राय से करवा दिया। 

भारत में पुर्तगाली प्रभुत्व पहली बार 1510 में शुरू हुआ, जब उन्होंने गोवा पर अधिकार कर लिया । कृष्णदेवराय ने पुर्तगालियों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित कर पुर्तगाली व्यापारियों से बंदूकें और अरबी घोड़े प्राप्त किए। उन्होंने विजयनगर शहर में पानी की आपूर्ति में सुधार हेतु भी पुर्तगाली विशेषज्ञता का उपयोग किया। 

कृष्णदेव राय ने गोलकोंडा की लड़ाई में बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिल शाह को कुचल दिया, और उसके कमांडर मदुरुल-मुल्क को पकड़ लिया | इतना ही नहीं तो मुहम्मद शाह द्वितीय के बेटे की बहमनी सल्तनत को भी बहाल किया। 

19 मई 1520 को उन्होंने एक लम्बी घेराबंदी के बाद बीजापुर के इस्माइल आदिल शाह से रायचूर के किले को भी छीन लिया | इस दौरान 16,000 विजयनगर सैनिक मारे गए । रायचूर के युद्ध में सेनापति पेम्मासनी रामलिंगा नायुडू ने अपरिमित शौर्य का प्रदर्शन किया, जिसके लिए उन्हें कृष्णदेवराय द्वारा प्रतिष्ठित और प्रशंसित किया गया । कहा जाता है कि रायचूर की लड़ाई में सात लाख पैदल सिपाहियों, बत्तीस हजार घुड़सवारों और 550 हाथियों का इस्तेमाल किया गया था। अपने इस अंतिम युद्ध में कृष्णदेव राय ने बहमनी सल्तनत की प्रारंभिक राजधानी गुलबर्ग के किले को मिट्टी में मिला दिया। और उसके साथ ही पूरे दक्षिण भारत में उनका दबदबा कायम हो गया । 

जब कृष्णदेवराय आदिल शाह के कब्जे बाले बेलगाम पर हमले की तैयारी कर रहे थे, उसी समय वे गंभीर रूप से बीमार हो गए और 1529 में उनकी मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु से पहले, उन्होंने अपने भाई अच्युता देव राय को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था । 





पूर्व दिशा से निश्चिन्त होकर कृष्णदेव राय ने अब पश्चिम की मुस्लिम सल्तनतों की तरफ रुख किया | उनकी नजर आदिल शाही के प्रमुख किले रायचूर पर थी | उन्होंने सात लाख सैनिकों, 500 हाथी और बारह हजार घोड़ों के सैन्य दल के साथ रायचूर को घेर लिया | स्वयं कृष्णदेव राय घोड़े पर बैठकर युद्ध का नेतृत्व कर रहे थे | विजय नगर की सेना का उत्साह चरम पर था | समाचार पाकर बीजापुर से इस्माईल आदिल शाह भी अपनी फौजें लेकर कृष्णा नदी पारकर आ गया | भीषण युद्ध हुआ और सुसंगठित विजय नगर की सेना के सामने सुलतान की करारी हार हुई | इतना ही नहीं तो सेनापति सलावत खान जीवित पकड़ा गया, सुलतान के छः हजार अरबी घोड़े, 100 हाथी, 400 तोपें असंख्य तम्बू ढोने वाले गधे व बैल भी विजय नगर की सेना के हाथ लगे | और इस सोलह हजार सैनिकों की शहादत के बाद रायचूर के किले पर कृष्णदेव राय का अधिकार हो गया | 

कृष्णदेव राय की इस महाविजय के समाचार ने देश भर के मुस्लिम शासकों को चिंतित कर दिया | उन्होंने कृष्णदेव राय को पत्र लिखकर सन्देश भेजा कि या तो आदिल शाह को जीता हुआ रायचूर वापस करो, अन्यथा हम लोग आकर तुम्हें दंड देंगे | सन्देश वाहक के हाथों ही कृष्णदेव राय ने प्रति उत्तर भिजवाया – आप लोग क्यों आने का कष्ट करते हो, मैं ही बीजापुर आ जाता हूँ | और फिर हुआ वह गौरव पूर्ण अभियान, जिसमें कृष्णदेव राय बीजापुर पहुंचे, लेकिन उनका सामना करने के स्थान पर इस्माइल वहां से पलायन कर गया | लौटते हुए कृष्णदेव राय ने मुद्गल दुर्ग, सागर तथा कलबुर्गी के किलों को भी आसानी से जीत लिया | कलबुर्गी में बहमनी वंश के तीन शहजादे आदिल शाह द्वारा कैद कर रखे गए थे, उन्हें मुक्त कर कृष्णदेव राय ने उनमें से एक को कलबुर्गी का राजा घोषित कर दिया जबकि शेष दो को भी पचास पचास हजार स्वर्ण मुद्राएँ देकर संतुष्ट किया | इतिहास में कृष्णदेव राय को “यवन राज्य स्थापनाचार्य” लिखा गया | उत्तर में तुंगभद्रा नदी से लेकर पूर्वी घाट, पश्चिमी घाट के समुद्र तक और दक्षिण में सेतुबंध रामेश्वर तक विजय दुंदभी गूँज रही थी | राजमाता रुद्रम्मा, उनके पुत्र प्रताप रूद्र, होयसल नरेश और बाद में राज सन्यासी बल्लाल देव के त्याग बलिदान और आत्माहुति से सिंचित, स्वामी विद्याशंकर के आशीर्वाद व महा प्रतापी हरिहर बुक्का के प्रयासों से निर्मित विजय नगर साम्राज्य कृष्णदेव राय के काल में अपनी उन्नति के चरम पर पहुँच गया था | लगातार दस वर्षों तक युद्ध भूमि में पराक्रम दिखाकर साम्राज्य को निर्भय करने के बाद कृष्णदेव राय ने अपना ध्यान आमजन को खुशहाल बनाने पर दिया | नहरों द्वारा कृषि भूमि को सिंचित करने का कार्य तो उन्होंने युद्धकाल में ही प्रारम्भ कर दिया था, अब तुंगभद्रा नदी से भी नहरें निकाली गई | व्यापार को उन्नत किया | स्थिति यह हो गई थी कि राजधानी हम्पी के बाजारों में हीरे मोतियों के ढेर सब्जी की तरह बेचे खरीदे जाते थे | उनके दरबार में संगीत के प्रकांड विद्वान लक्ष्मीनारायण, रामभद्र, धूर्जटी अल्लसानी पेद्दन जैसे कवि तथा तेनाली राम जैसे चतुर सुजान विद्यमान थे | ललित कलाओं तथा स्थापत्य कला का भी पर्याप्त विकास उस कालखंड में हुआ | भारत की संस्कृति और गौरव को संरक्षित रखने वाले इस प्रतापी राजा का शासन काल महज 21 वर्ष रहा और सन 1529 में उदर रोग के चलते वे स्वर्ग सिधारे | किन्तु तिरुपति के वेंकटेश्वर मंदिर में कृष्णदेव राय, महारानी तिरुमला देवी व रानी चिन्नादेवी की मूर्तियाँ आज भी उस गौरवपूर्ण काल की याद दिलाती हैं | त्रिसमुद्रदोडेय अर्थात तीनों समुद्रों के अधिपति श्री कृष्णदेवराय को क्या भारतीय इतिहास में उचित स्थान मिला है, अगर नहीं तो क्यों ? इस प्रश्न का उत्तर जरूर खोजा जाना चाहिए !
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