राष्ट्र गौरव महाराणा प्रताप भाग ४ – महाराणा का महाप्रयाण



मुझे हैरत हुई, जब एक हिन्दू नामधारी मित्र ने मेरे पिछले एक विडियो में महाराणा प्रताप को महान कहे जाने पर टिप्पणी की कि जो प्रताप अकबर के भय से वन वन भटकते फिरे, आप उनको महान कैसे कहते हो ? आधुनिक विद्यालयों और महाविद्यालयों से पढकर निकले इन मित्रों को महानता की परिभाषा समझाना सचमुच बहुत कठिन है | मूर्धन्य साहित्यकार स्व. जयशंकर प्रसाद जी की एक कविता है – महाराणा का महत्व, जिसमें उन्होंने अकबर और अब्दुर्रहीम खानखाना के बीच हुई बातचीत का वर्णन किया है | 

रहीम मेवाड़ अभियान से असफल होकर लौटे थे, बीमार भी थे, तन से भी और मन से भी | हुआ कुछ यूं था कि १६ जून १५८० को जब अजमेर के सूबेदार दस्तम खान की मृत्यु हो गई, तब अकबर ने उसके स्थान पर रहीम को अजमेर का प्रमुख बनाकर भेजा | वह इसके पूर्व जब १५७९ में शहबाज खान प्रताप को कुचलने हेतु नियुक्त हुआ था, तब भी उसके साथ थे | अजमेर के सूबेदार अर्थात प्रताप के विरुद्ध अभियान के प्रमुख थे अब रहीम | एक दिन जब वह शेरपुरा में सकुटुम्ब ठहरे हुए थे, तभी प्रताप के बड़े बेटे कुंवर अमरसिंह ने उन पर हमला बोल दिया | रहीम को पराजित होकर पीछे हटना पड़ा, किन्तु उनकी पत्नी और बच्चे राजपूतों की गिरफ्त में आ गए | प्रताप को जैसे ही ज्ञात हुआ, उन्होंने पूरे परिवार को ससम्मान रहीम के पास भेज दिया | रहीम के मशहूर पदों में से एक पद उसी समय उनके मुंह से निकला था – 

धर्म रहसी, रहसी धरा, खिस जासे खुरसान, 

अमर विसंभर ऊपरें, रखियो नहचो राण | 

अर्थात इस संसार में सब कुछ नश्वर है, भूमि और धन चले जायेंगे, परन्तु भलाई सदा रहती है | उसके बाद वे अजमेर रहे पर प्रताप के विरुद्ध कुछ नहीं किया, अंततः अस्वस्थता के बहाने वापस आगरा पहुँच गए | 

हम बात कर रहे थे प्रसाद जी की उस कविता की, तो उसका भाव कुछ यूं था - अकबर ने पूछा – आपका स्वास्थ्य कैसे बिगड़ गया | सवाल के जबाब में रहीम ने जबाब दिया, जहाँपनाह सही बात आपको पसंद नहीं आयेगी, अतः न पूछें तो उचित होगा | लेकिन अकबर के आग्रह पर बोले कि शहंशाह आप सचमुच आप बहुत भाग्यशाली हैं, जो आपको ऐसा शत्रु मिला है, पर्वत की कन्दराएँ ही जिसके महल हैं, वन ही उद्यान, और फल फूल घांस ही जिसका आहार है, लेकिन जिसके पास ईमान है, दिल है – कविता का एक अंश इस प्रकार था - 

राजकुंवर ने बेगम को बंदी किया, फिर भी सादर उसे भेज कर पास में मेरे, मुझको कैसा है लज्जित किया, मनो वेदना से मैं व्याकुल हो उठा, इसीलिए यह रोग हुआ है असल में | 

यही है महानता की भारतीय परिभाषा, जिसे मुझ जैसे अनपढ़ देहाती समझ सकते हैं, किन्तु पाश्चात्य शिक्षा पद्धति से निकले सेक्यूलर बुद्धिजीवी नहीं | उन्हें तो स्त्रियों को माले गनीमत कहकर, लूट का माल समझने वाले लोग ही महान लगेंगे | खैर प्रतिक्रिया देने वाले उन जैसे मित्रों की जानकारी के लिए बता दूं कि हल्दीघाटी के युद्ध के बाद भी मानसिंह महज गोगुन्दा पर कब्जा जमा पाया, और वह भी मानसिंह के जाते ही वापस प्रताप ने जीत लिया | बाद में अकबर स्वयं आया और उसने गोगुन्दा, मोही, उदयपुर को जीता | बूंदी के अतिरिक्त सारे राजपूताने पर उसका कब्जा तो हो गया, लेकिन जैसे ही उसने पीठ फेरी, एक बार फिर उदयपुर और गोगुन्दा प्रताप के कब्जे में आ गए | 

१५ अक्टूबर १५७७ को नियुक्त किये गए शाहबाज खान को अवश्य कुछ सफलताएँ मिलीं | उसी समय का वह प्रसंग कहा जाता है जब राणा के बच्चे घांस की रोटी खा रहे थे और वह रोटी भी बनविलाव छीनकर ले गया | यह दृश्य देखकर क्षणिक कमजोरी के क्षणों में उन्होंने अकबर को समझौते का पत्र लिख दिया | हालांकि इस प्रसंग की पुष्टि किसी अन्य इतिहासकार ने नहीं की है, केवल अंग्रेजी इतिहासकार कर्नल टाड ने लोकोक्ति कहकर वर्णन किया है,और बीकानेर के इतिहास में उल्लेख है | जो भी ही प्रसंग कुछ इस प्रकार है - प्रसन्न अकबर ने उस पत्र की जानकारी बीकानेर नरेश राय कल्याणमल के छोटे बेटे राय प्रथ्वीराज को दी, जो अच्छे कवि भी थे | प्रथ्वीराज को प्रताप में अगाध श्रद्धा थी, उन्हें अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ और उन्होंने चार पंक्तियाँ लिखकर प्रताप के पास पहुंचाईं – 

पातल जो पतसाह, बोले मुख हुन्ता बयण, 

मिहर पछमदिस मांह, ऊगे कासप राववत, 

पटकूं मूंछां पाण, कै पटकूं निज तन करद, 

दीजै लिखे दीवान, इण दो महली बात इक | 

मेरे लिए यह विश्वास करना कि प्रताप ने अकबर को बादशाह कहकर संबोधित किया है, उतना ही असंभव है, जितना कि सूर्य को पश्चिम में उदित होते देखना | हे दीवान, मुझे बताईये कि मैं अपनी मूछों पर ताव देता रहूँ, या अपनी गर्दन पर तलवार का प्रहार कर दूं | 

कहते हैं कि इन पंक्तियों को पढ़कर प्रताप का आत्म गौरव जागृत हो उठा और उन्होंने भी जबाब लिख भेजा – 

तुरक कहा सी मुख पर्तो, इण तन सूं इकलिंग, 

उगे जाहीं ऊगसी, प्राची बीच पतंग, 

खुशी हून्त पाथल कमध, पटकों मूंछां पाण, 

पछटन है जेतै पतौ, कलमा सिर के वाण, 

भगवान एकलिंग की कृपा से इस मुंह से बादशाह के लिए सदा तुर्क संबोधन ही निकलेगा और सूर्य भी सदा पूर्व में ही उदित होगा | जब तक मुगलों के सिर पर प्रताप का खड्ग नाच रहा है, तब तक आप ख़ुशी ख़ुशी अपनी मूछों पर ताव देते रहो | 

यह संवाद हुआ या नहीं, इसको लेकर इतिहास कार जो भी कहें लेकिन इतना तय है की अकबर के अधीन रहने वाले राजपूतों में भी प्रताप के प्रति अतिशय सम्मान का भाव था | यही कारण है कि उनमें से कईयों ने बाद में स्वयम को स्वतंत्र कर लिया | शक्तिशाली शत्रु के सामने न झुकते हुए, पर्वतों की कंदराओं से जिस छापामार युद्ध शैली का श्रीगणेश महाराणा प्रताप ने किया था, उसे ही बाद में छत्रपति शिवाजी ने अपनाया और प्रसिद्धि व विजय प्राप्त की | इतिहास कहता है कि शाहबाज खां के बाद दस्तम खां, फिर रहीम और सबसे बाद में राव जगन्नाथ को अजमेर का प्रमुख बनाकर प्रताप का मुकाबला करने भेजा गया, लेकिन अंततः अकबर ही इन मुहिमों से तंग आया और १५८५ के बाद तो प्रताप को बिलकुल ही निरंकुश छोड़ दिया | १५९० आते आते केवल चित्तौड़, अजमेर और मंडलगढ़ को छोड़कर शेष राजपूताने पर एक प्रकार से महाराणा का निष्कंटक राज्य हो गया | यहाँ तक कि जयपुर से ५५ मील की दूरी पर स्थित धनवान नगर मालपुरा को भी उन्होंने लूट लिया | श्री लालकृष्ण आडवानी ने अपनी आत्मकथा में एक रोचक प्रसंग का वर्णन किया है – 

महाराणा प्रताप के राज्य मेवाड़ को, वहां के योध्दाओं के शौर्य एवं वीरता के चलते समूचे राजस्थान में गर्व से देखा जाता है... 

इसके विपरीत जयपुर राज्य का सम्मान नहीं था क्योंकि वह सदैव दिल्ली के मुगल शासकों के सामने झुकने को तैयार रहता था .... 

उस समय एक दौर ऐसा आया जब दिल्ली के शासकों ने जयपुर के महाराजा को सवाई उपाधि से विभूषित कर दिया जिसका भाव यह था कि अन्य राजाओं की हैसियत एक के बराबर होगी परन्तु जयपुर के राजा की सवाई - यानी एक और चौथाई ... 

लेकिन इस घटना के बाद राजस्थान की सभी रियासतों ने भी एक अभूतपूर्व निर्णय लिया..... 

उन्होंने तय किया कि वे "स" शब्द का उच्चारण ही बंद कर देंगे .... 

"स" को वे "ह" उच्चारण करेंगे | 

तो स्वाभाविक ही जयपुर के मुग़ल परस्त राजा को भी उन्होंने "सवाई" की जगह "हवाई" कहना शुरू कर दिया .... 

राजस्थान के कई इलाकों में लम्बे समय तक स को ह कहने की परंपरा जारी रही | अपने सहयोगियों को सम्मान देने में भी राणा प्रताप का कोई सानी नहीं था | हल्दीघाटी का युद्ध हो अथवा शाहबाज खां के नेतृत्व में आई मुग़ल सेना के साथ छापामार गोरिल्ला युद्ध का दौर, भीलों ने सदैव उनके रक्षा कवच का काम किया, तो प्रताप ने भी भील योद्धा पुंजा को अपने समकक्ष पदवी दे डाली | पुंजा भील से राणा पुंजा बना दिया | उस दौर में कौन कल्पना कर सकता था, इस सामाजिक समरसता की ? क्या इस वृतांत से हमें राम और शबरी का प्रसंग याद नहीं आता ? शायद इसीलिए देश की अधिसंख्य जनता तो महाराणा प्रताप के त्याग तपस्या और शौर्य को ही महान मानती आई है और महान मानेगी | मानते रहें सेक्यूलर ज्ञानी मानी लोग अकबर को महान | 

अंत में उनके मुश्किल दौर के अनन्य सहयोगी भामाशाह का पुण्य स्मरण | बहुत से लोग उन्हें केवल दानवीर के रूप में जानते हैं, दरअसल वे उनके कदम कदम पर सहयोगी रहे | जब शाहबाज खां ने कुम्भलगढ़ पर हमला किया था, तब वहां के सेना नायक भामाशाह ही थे | कुम्भलगढ़ के घेरे से सकुशल निकलकर भामाशाह मालवा चले गए, जहाँ रामपुरा के राव दुर्गा ने उन्हें सम्मानित अतिथि के रूप में रखा | किन्तु जैसा कि सर्व विदित ही है, कि बाद में वे चूलिया पहुंचकर प्रताप से मिले और उन्हें पच्चीस लाख रुपये और बीस हजार मोहरें समर्पित कीं | इस धन की सहायता से महाराणा ने अपनी सेना दुगुनी की और फिर सुलतान खान के नेतृत्व वाली सेना को परास्त कर दिबेर के दुर्ग पर अधिपत्य किया | इस युद्ध में सेनापति सुलतान खान, प्रताप के पुत्र अमरसिंह के हाथों मारा गया था | 

इतना ही नहीं तो भामाशाह के भाई ताराचंद ने भी शाहबाज खां से मालवा के बस्ती नामक ग्राम में सीधी टक्कर ली थी | घायल ताराचंद की राव साईँदास ने सेवा सुश्रुषा की व ठीक होने पर उन्हें महाराणा की नई राजधानी चबंद लाया गया | यहीं १५९७ में जब शिकार के दौरान एक चीते पर तीर मारने के लिए प्रताप ने शरीर पर अत्याधिक जोर डाला, तो मांसपेशियों में खिंचाव आ गया और थोड़े दिन अस्वस्थ रहकर १९ जनवरी १५९७ को ५७ वर्षीय महाराणा प्रताप ने अपनी जीवन यात्रा पूर्ण की |
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