यदि ये प्रवासी हैं तो बाकी के लोग ? - संजय तिवारी



वे प्रवासी हैं। और बाकी के लोग ? वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रशासनिक अफसर, व्यापारी, बिल्डर, ठेकेदार, नेता , और इन सभी से ज्यादा वे जो इन स्वदेसी श्रमिको को लगातार प्रवासी लिख और बोल रहे है- मीडिया के धुरंधर। पता नही इनको प्रवासी का अर्थ नही मालूम या फिर जानबूझ कर ऐसा कर रहे हैं। अपने ही देश के भीतर भला कोई प्रवासी कैसे हो गया भाई ? तब तो दिल्ली की पूरी मीडिया का 80 फीसद हिस्सा प्रवासियों का ही है, खास कर हिंदी पट्टी यानी उत्तर प्रदेश और बिहार का। देश मे हिंदी के सभी बड़े प्रिंट घरानों और इलेक्ट्रॉनिक चैनलों में घुसकर देखिये। सब प्रवासी ही तो हैं। लेकिन ताज्जुब है कि ये मजदूरों को तो प्रवासी प्रवासी का तमगा दिए जा रहे हैं और खुद की अवस्था नही देख पा रहे।

खैर, यह दुखद और त्रासदपूर्ण स्थिति है। श्रमिक पलायन को यदि प्रवासी पलायन घोषित किया जा रहा है तो यह सोचना पड़ेगा कि राष्ट्र कहां खड़ा है और ऐसा करने वाले लोग कौन सा नैरेटिव सेट करने में जुटे है। स्थापना यह है कि हम श्रमिकों के विस्थापन के दर्द में डूब गए। वे रोहिंगयाओ की स्थापना कर मस्ती में डूब गए। हम कोरोना संक्रमण में लॉक डाउन में उलझे tv पर मजदूरों की पदयात्राओ की पीड़ा में सरकार और व्यवस्था को गरियाने में मस्त। वे बड़े आराम से अपने अपने शहरों को उत्तर भारतीय आबादी से खाली करा कर रोहिंगयाओ को बसाने में जुटे रहे। जो काम वे पिछले दशकों से नही कर पा रहे थे , महज महीने भर में कर के निश्चिंत हो गए।

जरा गौर कीजिए। मजदूर कहां से आ रहे हैं। केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र, तेलंगाना , महाराष्ट्र, राजस्थान और थोड़ा गुजरात से। ये कहा जा रहे है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और नेपाल। जिन शहरों से ये लाखों लोग निकले हैं उन शहरों में अब इनके वाले काम कौन कर रहा या करेगा, इस पर भी गौर कीजिए। रोहिंगयाओ का बहुत बड़ा हब है दिल्ली। सबसे पहले दिल्ली से ही मजदूरों के पलायन की कहानी शुरू हुई थी। पलायन करने वालो की संख्या बहुत बड़ी थी। यह कोरोना लॉक डाउन के शुरुआती दिन थे। पूरी दिल्ली भारतीय मजदूरों से खाली हो गयी। इसमें दिल्ली की सरकार की भूमिका प्रमाणित भी हुई लेकिन उस समय दिल्ली सरकार की इस साजिश पर बहुत चर्चा नही हुई। उस के बाद से अभी तक अलग अलग प्रदेशो से भारतीय मजदूरों का पलायन चल ही रहा है। अखबार और टेलीविजन के लोग अब इनको प्रवासी मजदूर की संज्ञा दे चुके है। अजीब बात है। अपने ही देश मे प्रवासी। ऐसा शब्द प्रयोग करते न तो किसी को शर्म आ रही और न ही कोई इसका विरोध कर रहा। सैकड़ो की संख्या में पंजीकृत मजदूर यूनियनें और अन्य श्रमिक संगठन कहां हैं, कुछ पता नही।

अब साजिश को समाझिये। अधिकांश गैर भाजपा शासित प्रदेशों के सभी महानगर भारतीय श्रमिको से लगभग खाली करा दिए गए है। इन श्रमिको के स्थान अभी तक उन शहरों में अवैध आबादी के रूप में रह रहे बांग्लादेशी घुसपैठिये और रोहिंग्या ने ले लिए हैं। जिनके बाकायदा ठेकेदार है जो इनके कागजात बनवा कर काम दिलाते है। जब तक लॉक डाउन खत्म होगा तब तक इन सभी अवैध लोगो के पास राशन कार्ड और आधार कार्ड तो बन ही चुका होगा। तब तक यह अवैध आबादी भारत के उस सम्बंधित नगर या महानगर की अधिकृत श्रमिक आबादी बन चुकी होगी। इनके बड़े बड़े राजनीतिक पैरोकार अपनी जड़ें मजबूत कर चुके होंगे।

यह साजिश कितनी गहरी है, इसकी कल्पना करते ही आत्मा हिल जाती है। इस साजिश को समझ सकें तो समझ लीजिए।

संजय तिवारी 
संस्थापक – भारत संस्कृति न्यास
वरिष्ठ पत्रकार 
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