राष्ट्र गौरव महाराणा प्रताप भाग २ – चित्तौड़ का नर संहार



उदय सिंह को महज तीन कारणों से इतिहास में स्मरण किया गया | प्रथम तो पन्ना धाय द्वारा अपने पुत्र चन्दन का बलिदान देकर उनकी प्राण रक्षा, दूसरा उनके द्वारा उदयपुर बसाया जाना और तीसरा महाराणा प्रताप के पिता होने के कारण | जो भी हो पन्ना धाय द्वारा बचाए गए उदयसिंह को कुम्भलगढ़ में राजतिलक कर मेवाड़ का राणा बनाया गया। किन्तु जब अकबर ने २० अक्टूबर १९६७ को मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर चढ़ाई की तब जयमल और फत्ता आदि वीरों के हाथ में उसे छोड़ उदयसिंह अरावली के घने जंगलों में होते हुए उदयपुर पहुँच गए । इसके बाद भी अकबर की सेना महिनों तक किले में प्रवेश करने में असफल रही | इस युद्ध के एक महानायक कल्ला जी राठौड़ को राजपूताने में लोकदेव के रूप में पूजा जाता है | आईये इस युद्ध के साथ साथ उनकी उस लोकगाथा को भी हम स्मरण करें | 

कल्लाजी का जन्म राजस्थान प्रान्त के मेड़ता नगर में हुआ था। इनके पिताजी सामियाना जागीर के राव श्री अचलसिंहजी थे। कल्लाजी ने बाल्यकाल में ही अश्वारोहण, खडग संचालन, धनुर्विद्या, भाला आदि शस्त्र संचालन में निपुणता प्राप्त कर ली थी । उनके युद्ध कौशल और पराक्रम का प्रकाश चारों ओर फैलने लगा। एक बार अपनी भाभी के तानों को सुनकर कल्लाजी क्रोधित हो गए और मारवाड़ छोड़ मेवाड़ चले गए । कल्लाजी के काका जयमल मेवाड़ के सेना नायक थे, उन्होंने व स्वयं राणा उदयसिंह जी ने कल्लाजी व उनके साथियों का स्वागत किया। राणा उदयसिंह ने कल्लाजी के शौर्ये, पराक्रम एवं स्वाभिमान को देखकर उन्हें रनेला का जागीरदार घोषित किया। 

जब कल्लाजी अपने भाई तेजसिंह व साथीयों सहित अपनी नवीन राजथानी रनेला की ओर जा रहे थे, तभी तेज वर्षा के कारण उन्हें शिवगढ़ में रात्रि विश्राम करना पड़ा और यहीं पर वागड़ राज्य की राजकुमारी कृष्णकान्ता से उनका प्रथम परिचय हुआ । नवीन राजधानी रनेला पहुँचने के बाद धूमधाम से कल्लाजी का राज्यभिषेक हुआ। उधर अपनी पुत्री की भावना का अनुमान कर वागड़ के राजा कृष्णदास ने कुंवर कल्लाजी को राजकुमारी के योग्य समझते हुये विवाह सम्बन्ध का श्रीफल भेजा, जिसे कुंवर कल्लाजी ने सहर्ष स्वीकार किया। 

विवाह की निश्चित तिथि के दिन कुंवर कल्लाजी बारातियों सहित शिवगढ़ पहुंचे । जिस समय कल्लाजी दूल्हें की वेशभूषा धारण कर, सिर पर मोड़ बांधे, ढोल नगाडों की धूम के साथ अश्व पर सवार होकर तोरण को उद्यत हुए, उसी समय मेवाड़ से सैनिक सूचना लेकर पहुंचे कि चितौड़ पर अकबर ने विशाल सेना के साथ आक्रमण कर दिया है। चितौड़ पर संकट की सूचना पाते ही शूरवीर कल्लाजी ने राजकुमारी कृष्णकांता से वरमाला अवश्य ग्रहण की किन्तु पुनः आकर मिलने का वचन देकर रणभूमि को प्रस्थान कर दिया | 

दुर्गरक्षक वीर जयमल इनके आगमन पर अत्यन्त प्रसन्न हुए और कल्लाजी को अपने साथ दुर्ग की रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। वीरवर कल्ला, जयमल, फत्ता और ईश्वरदास आदि वीरों के नेतृत्व में देशभक्त, शूरवीर, राजपूत सैनिक जब अवसर मिलता तब शत्रुदल पर भूखे शेर की भांति महाकाल बन कर टूट पड़ते और फिर वापस किले में पहुँच जाया करते थे । 

जब बादशाह ने देखा कि किला आसानी से प्राप्त नही होगा तो उसने सुरंगे बनवाना आरम्भ किया। सुरंगे तलहटी तक पहुंच गई और उनमे बारूद भर कर आग लगाई गई, जिससे किले का बुर्ज उड़ गया और कई योद्धा हताहत हुए। परन्तु इसके बाद भी अकबर को युद्ध में सफलता नही मिली, जहाँ जहाँ दीवारें टूटीं, उन्हें राजपूतों ने पुनः बना लिया। 

एक रात्रि जयमल टूटी हुई प्राचीर की मरम्मत मशाल की रोशनी में करा रहे थे, तब अकबर ने अपनी “संग्राम” नामक बन्दुक से निशाना साध कर गोली चला दी, जो राव जयमलजी की जांघ में लगी और वे चलने फिरने में असमर्थ हो गए । दुर्ग में सेनाध्यक्ष जयमल के घायल होने से शोक की लहर छा गयी। 

रात्रि में सभी क्षत्रिय व क्षत्राणियों ने एकत्र होकर शाही फौज के बढते हुए दबाव, दुर्ग में गोला बारूद व भोजन की कमी और सेनाध्यक्ष के घायल होने कारण जौहर और शाका का फैसला किया। तारीख 24 फरवरी 1568 को फत्ता की पत्नी फूलकंवर के नेतृत्व में 13000 राजपूत रमणियो और कुमारियों ने गंगा जल का पान कर, चन्दन लेप लगाकर और अपने परिजनों को अंतिम बार मिल कर अपने सतीत्व की रक्षा के लिये हँसते – हँसते स्वयम को जौहर की अग्नि में समर्पित कर दिया। यह मेवाड़ का लगातार तीसरा साका था | 

क्षत्रीयों ने दुर्ग के गौमुख में स्नान कर केसरिया बाना धारण कर गंगा जल का पान व गीता पाठ सुन अमल पान किया। सेनाध्यक्ष राव जयमल ने सरदारों को अमल पान कराया। सेनाध्यक्ष के अन्तिम मनुहार को चित्तौड़ की सेना ने बड़े प्रेम से स्वीकार किया। अब राजपूतों के उत्साह की कोई सीमा न रही। इस युद्ध में घायल सेनापति जयमल को लड़ते – लड़ते युद्ध में वीरगति प्राप्त करने की इच्छा थी। लेकिन गोली जयमल की जांघ में लगी थी। युद्ध करना तो दूर वे चलने– फिरने से भी मजबूर हो गये थे। तब वीर शिरोमणी कल्लाजी राठौड़ ने काका जयमल जी की पीड़ा को दूर करने के किये उन्हें अपनी पीठ पर बैठा कर युद्ध करने का फैसला किया। 

25 फरवरी 1568 की सुबह राजपूतों व क्षत्रियों ने हाथों में तलवार धारण कर किले के विशाल कपाट खोल मुग़ल सेना पर आक्रमण कर दिया। वह नजारा अद्भुत व लोम हर्षक था जब शूरवीर रणबंकेश कल्लाजी राठौड़ व उनकी पीठ पर बैठे हुए 60 साल के उनके काका जयमल अपने दोनों हाथों में भवानी धारण कर मुगलों की सेना पर भूखे शेर की तरह टूट पड़े | 

जय एकलिंगनाथ, जय महादेव के नारों से वातावरण गूँज उठा | कल्लाजी व वीरवर जयमल का चतुर्भुज रूप रणभूमि में जहाँ से भी गुजरता, बहीं शत्रु सेना का मैदान साफ हो जाता। कल्ला राठौड़ और उनके कंधे पर बैठे घायल जयमल के दोनों हाथो में बिजली की तरह घूमती तलवारों ने असंख्य शत्रुओं का संहार किया, अकबर भी इस नज़ारे को आश्चर्यचकित होकर देख रहा था | इस भंयकर युद्ध में सैकडों घाव लगने के कारण राव जयमल का शरीर निश्चेष्ट हो गया और चित्तोड़ की रक्षा करते हुए यह वीर दुर्ग की हनुमान पोल व भैरव पोल के बीच वीर गति को प्राप्त हुआ, जहाँ उनकी याद में आज भी स्मारक बना हुआ है | महावीर कल्लाजी व वीर अग्रणी जयमल की विमल स्मृति एवं निर्मल कीर्ति बनाये रखने के लिए चित्तौड़ किले के भैरोंपोल में जहा कल्लाजी का शीश कटा तथा जहा जयमलजी ने वीरगति प्राप्त की वहा इनकी दो छतरी बनी हुयी है। 

बादशाह अकबर ने मुगल सेना को रणक्षेत्र से पीछे हटते देख राजपूतों पर मतवाले खूनी हाथियों को छोड़ दिया। अकबर ने अपने विशाल हाथियों की सूंड़ो में तलवारें की झालरें और दुधारे खांडे बंधवाई। इन हाथियों ने राजपूतों का घोर संहार करना आरम्भ कर दिया, लेकिन वीर क्षत्रिय राजपूत भीषण गर्जना कर विशालकाय हाथियों पर खड्ग लेकर टूट पडे । 

कई राजपूतों ने मतवाले हाथियों से लड़ते – लड़ते वीरगति प्राप्त की। “सर्वदलन” नामक हाथी ने जब एक राजपूत सैनिक को सूंड में पकड़ कर उठा लिया तो कल्लाजी ने तलवार के एक भीषण प्रहार से उस विशालकाय हाथी की सूंड काट दी। हाथी वही धराशायी हो गया। 

वीर कल्ला तलवारें चलाते हुए युद्ध कर रहे थे कि तभी एक मुगल ने पीछें से तलवार चला कर वीर कल्ला का सिर काट दिया। किन्तु बिना सिर के कल्लाजी का कंबध घोर संग्राम करता हुआ दोनों हाथों से तलवार लिये मुगलों की फौज को चीरता जा रहा था। भला इस कंबध को रोकने की शक्ति किसमें थी। शाही फौज रास्ता छोड़ कर खड़ी हो गई। मान्यता है कि कल्ला का कंबध योग शक्ति और गुरु आशीर्वाद से कृष्णकांता की याद में आधुनिक मंगलवाड़, कुराबड़, बम्बोरा जगत और जयसमन्द होता हुआ रनेला जा पहुंचा। 

शिवगढ़ में राजकुमारी कृष्णकांता ने तपोबल एवं विशुद्ध स्नेहाकर्षण शक्ति से यह अनुभव कर लिया की कल्लाजी ने मेवाड़ रक्षार्थ अपना शीश मातृभूमि को अर्पण कर दिया है। और अपने दिये हुये वचन के कारण मुझसे मिलने आ रहे है। तब सोलह श्रृंगार कर शिवगढ़ से विदा लेकर कृष्णकांता प्रिय मिलन को आतुर होकर दुल्हन के रूप में रनेला जा पहुंची। 

रनेला में कल्लाजी का कबंध नीले घोड़े पर सवार होकर दो हाथों में तलवार लेकर आया। वीर शिरोमणी कल्लाजी ने राजकुमारी को दिये हुये वचन को पूरा कर रनेला की पावन धरा पर अपना मानव देह त्याग दिया। 

विधिवत चन्दन की चिता तैयार की गई। राजपुताना परम्परा के अनुसार कृष्णकांता सती होने के लिये कल्लाजी के कबंध को गोद में लेकर चिता में विराजमान हो गई। हाथ जोड़ राजकुमारी ने मन ही मन भगवान को स्मरण किया कि मेरे स्वामी का सिर मुझको प्राप्त हो। राजकुमारी के सतीत्व की शक्ति से कल्लाजी का सिर भैरवनाथ व देवीय शक्ति की कृपा से उनकी गोद में आ गया। तब कल्लाजी का शीश कबंध से जोड़26 फरवरी 1568 को कल्लाजी के भाई तेजसिंह ने ईश्वर का स्मरण कर चिता में आग लगा दी। इस प्रकार वीर शिरोमणी कल्लाजी और महासती कृष्णकांता का प्रेम पूरे विश्व में अमर हो गया। 

यह तो हुई लोकगाथा – आईये अब इतिहास के पन्नों में भी झांके | रांगेय राघव अपनी पुस्तक अकबर में लिखते हैं कि अबुल फजल के अनुसार तीन सौ औरतों ने जौहर में प्राण दिए थे | किले में प्रवेश करते समय आठ हजार राजपूतों ने बड़े महंगे दामों अपने प्राणों को बेचा | उसके बाद अकबर ने कत्लेआम का हुकुम दिया, जिसमें तीस हजार आदमियों का क़त्ल हुआ | कहा जाता है कि मरे हुए आदमियों के जनेऊ को तौला गया, तो वह साढ़े चौहत्तर मन हुआ | इस प्रकार फरवरी १५६८ में अकबर ने निर्जन और खून से लथपथ चित्तौड़ पर अधिकार किया | धूर्तता की पराकाष्ठा देखिये कि उसने वीर जयमल और फत्ता की हाथी पर सवार मूर्तियाँ बनाकर अपनी राजधानी आगरा के किले के बाहर स्थापित करवा दीं और इतने भर से संतुष्ट होकर महा बुद्धिमान राजे राजबाड़े, जिनमें स्वयं राणा उदयसिंह के पुत्र जगमल भी सम्मिलित थे, उसकी जयजयकार करते रहे | 

इतिहासकार उसे महान कहते रहे, किन्तु उन लौहपीटों ने प्रतिज्ञा की कि जब तक चित्तौड़ आजाद नहीं होगा, वे एक जगह नहीं बसेंगे | स्वतंत्रता के बाद ही उनमें से कुछ वापस हुए, किन्तु तीन सौ से अधिक वर्षों में अधिकाँश की तो वह जीवन शैली ही बन चुकी थी, अतः आज भी वे अपनी गाड़ियों को ही अपना घर बनाए, सडकों के किनारे लोहे के औजार बनाते पूरे भारत में कहीं भी दिख जाते हैं | उन्हें देखकर मुझे तो सदा चित्तौड़ की याद ताजा हो जाती है | संभव है आपको भी कुछ ऐसी ही अनुभूति होती होगी |
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