राष्ट्र गौरव महाराणा प्रताप भाग ३ – हल्दीघाटी का महासमर



३ मार्च १५७२ को उदयपुर से १९ मील उत्तर पश्चिम में स्थित गोकुंदा में उदयसिंह की मृत्यु हुई | लेकिन २५ रानियों के पति और बीस से अधिक पुत्रों के पिता उदयसिंह ने सबसे बड़े बेटे प्रताप के स्थान पर अपनी चहेती रानी के पुत्र जगमल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया | राजस्थान की दुर्गति में इस बहु पत्नी प्रथा का भी बड़ा योगदान रहा है | प्रारंभ में तो राजा लोग अपनी शक्ति बढाने के लिए आसपास के अन्य राजाओं के परिवारों की कन्याओं से विवाह करते थे, किन्तु धीरे धीरे इसमें विलासिता का पुट भी आ गया | खैर उदयसिंह द्वारा मृत्यु पूर्व किया गया यह निर्णय स्पष्ट ही इतना अन्यायपूर्ण था कि सभी सरदारों ने एकजुट होकर धावा बोल दिया | जिस समय जगमल राजसिंहासन पर बैठने की तैयारी कर रहा था, सभी सरदार वहां जा पहुंचे और उसे एक अन्य आसन पर बैठने को निर्देशित किया | उन वरिष्ठों की बात टालने का साहस जगमल में नहीं था | वह बिना ना नुकुर किये चुपचाप निर्दिष्ट स्थान पर बैठ गया | अब तलाश शुरू हुई प्रताप की | तो मालुम हुआ कि वे तो अपने घोड़े पर जीन कसकर राज्य छोड़ने की तैयारी कर रहे है | उन्हें ससम्मान लाया गया और विधि विधान के साथ राणा बनाया गया | प्रथा के अनुसार सरदारों ने नजराने पेश किये और आसमान प्रताप की जयजयकार से गूँज उठा |

बाद में जगमल अजमेर के मुगल सूबेदार के माध्यम से अकबर की शरण में पहुँच गया और अकबर ने उसे जहाजपुर की जागीर प्रदान कर दी | बाद में जब जगमल के श्वसुर राव मानसिंह स्वर्गवासी हुए, तब अकबर द्वारा उसे उनके राज्य सिरोही का शासक घोषित कर दिया गया | किन्तु राव मानसिंह अपना उत्तराधिकारी जिन सुरतान को बना गए थे, उनके साथ हुए संघर्ष में १७ अक्टूबर १५८३ को जगमल मारा गया | एक अन्य सौतेले भाई शक्तिसिंह तो एक साधारण से विवाद में प्रताप से रुष्ट होकर पहले ही मुगलों के ताबेदार बन चुके थे | तो यह थी वह परिस्थितियां जिनके बीच प्रताप ने राज्यसिंहासन संभाला | चित्तौड़ की भीषण पराजय के बाद और भ्रातृ विरोध के बीच इस उत्तरदायित्व को निभाना कितना कठिन था, यह आसानी से समझा जा सकता है |

अकबर ने भी राजपूतों की चली आ रही प्रथा का अनुशरण किया और उनकी कन्याओं से विवाह कर उन्हें अपना सहयोगी रिश्तेदार बना लिया | कुछ ने स्वार्थवश मन से तो कुछ ने बुझे मन से अपने परिवारों की कन्याएं अकबर के हरम में पहुंचा दीं | जिस समय प्रताप ने राज्यभार ग्रहण किया उस समय राजपूताने में केवल मेवाड़, बूंदी और सिरोही ही ऐसी रियासतें थीं, जिन्होंने अकबर से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किये थे | जोधपुर नरेश राव चंद्रसेन और सिरोही के राव सुरतान ही अकबर के सामने डटे हुए थे, हालांकि उनकी सीमाएं भी बहुत घट गई थीं | अकबर के साथ अपनी पुत्रियों का विवाह करवाने बाले राजा फिर भी अपनी नाक ऊंची रखने को कहते थे, कि हमने अकबर के परिवार की कोई कन्या अपने यहाँ स्वीकार नहीं की और इस प्रकार हमारा रक्त दूषित नहीं हुआ, हम वर्णशंकर होने से बचे हुए हैं | अजीब परिभाषा थी |

प्रताप के सामने भी दो विकल्प थे | या तो वह भी अन्य राजपूत सरदारों की तरह पहले मेवाड़ को बादशाह के अधीन कर दे फिर जागीर के रूप में उसे प्राप्त कर, देश का सबसे बड़ा मनसबदार बन जाए, उसके राजकुमार सुख समृद्धि में पलें बढ़ें, और दूसरा यह कि वह अपनी मान मर्यादा और स्वतंत्रता की रक्षा कर संघर्ष और विपन्नता को आमंत्रित करे | किन्तु उन्होंने दूसरा मार्ग ही चुना, और माना कि स्वतंत्रता की देवी का पूजन अर्चन तो झोंपड़ी में रहकर भी किया जा सकता है | 

प्रताप पर आक्रमण तो बाद में हुआ, किन्तु उन्होंने उसकी तैयारी पहले ही शुरू कर दी | अरावली पर्वत माला में बसने वाले भीलों को उन्होंने अपना प्रमुख रक्षा कवच बनाया | मैदानी इलाकों में कृषकों को आज्ञा दे दी गई कि फसल न उगायें | किसी भी खेत में हरियाली नहीं दिखनी चाहिए | मुगलों को मेवाड़ की भूमि से एक दाना भी रसद नहीं मिलना चाहिए | और वह समय जल्द ही आ गया | गुजरात जीतने के बाद अकबर तो आगरा चला गया, पर राजपूताने में शेष बचे राजाओं को अपनी अधीनता स्वीकार करने की प्रेरणा देने हेतु मानसिंह व अन्य सेनापतियों को छोड़ गया | मानसिंह ने पहला धावा डूंगरपुर के रावल आसकरण पर बोला | आसकरण का राज्य लूट लिया गया और वे स्वयं पहाड़ों में जाने को विवश हुए | इस प्रकार प्रताप के पहले सहयोगी को कमजोर कर उनका एक हाथ काट दिया गया | इस प्रकार प्रताप को एक परोक्ष धमकी का सन्देश देने के बाद मानसिंह भाई बंदी निभाने के बहाने जून १५७३ में उदयपुर पहुंचे | कहा गुजरात से आगरे जा रहा था, मेवाड़ रास्ते में था, तो राजपूत जाति के सिरमौर प्रताप को प्रणाम करने चला आया | राणा प्रताप ने भी सौजन्य दिखाया व उनका स्वागत व उचित आदर सत्कार किया | मेहता नैणसी, राज प्रशस्ति और जयसिंह चरित में इस भेंट का अद्भुत वर्णन किया गया है –

राणा ने उदयसागर झील पर मानसिंह के स्वागत में बड़ा भारी भोज दिया | राणा के पुत्र कुंवर अमरसिंह स्वयं अतिथि सत्कार की सब व्यवस्थाएं देख रहे थे | किन्तु प्रताप ने भोजन के समय यह कहकर साथ बैठने से इनकार कर दिया कि उनका पेट गड़बड़ है | मानसिंह समझ गए कि चूंकि आमेर की राजकुमारी अकबर को ब्याही गई है, इस कारण प्रताप साथ में भोजन से इनकार कर रहे हैं | मानसिंह ने एक संक्षिप्त सा उत्तर दिया, किन्तु उसमें मेवाड़ पर आक्रमण की धमकी टपक रही थी | जबाब भी माकूल मिला, प्रताप बोले – मानसिंह चाहे अपनी इच्छा से आयें या अपने फूफा अकबर की आज्ञा से, यथोचित सत्कार किया जाएगा | सिसौदिया सरदार भीमसिंह तो तमक ही उठे और कहा – हाथी पर पहला वार मेरा ही होगा | अब मानसिंह को विदा लेने की भी जरूरत महसूस नहीं हुई | 

कहा जाता है कि मानसिंह के प्रस्थान के बाद भोज के स्थान को खोदकर पवित्र करने के लिए गंगाजल डाला गया | जिन सोने चांदी के पात्रों में भोजन परोसा गया था, उन्हें भोजन सहित सरोवर में फेंक दिया गया | भोज में सम्मिलित प्रत्येक राजपूत ने स्नान कर अपने वस्त्र बदले | यह सब समाचार गुप्तचरों ने मानसिंह को दिए और उनके माध्यम से अकबर तक पहुंचे | आपको जानकार हैरत होगी साथ ही प्रताप के महाप्रताप पर गर्व और गौरव भी अनुभव होगा कि यह सब सुनकर भी अकबर ने तुरंत हमला करने की जल्दबाजी नहीं दिखाई | उसने मेवाड़ के स्वाभिमानी राजा को मनाने हेतु अक्टूबर १५७३ में ईदर के राजा और प्रताप के श्वसुर नारायण दास को प्रताप के पास मध्यस्थ बनाकर भेजा | परन्तु राणा कहाँ मानने वाले थे | हद्द देखिये कि इसके बाद दिसंबर १५७३ में अकबर के नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल राणा से मिलने मेवाड़ गए | बहाना बही पुराना था, मालगुजारी का हिसाब देखने गुजरात गया था, लौटते में आपसे मिलने चला आया | किन्तु वह भी राणा के प्रति गहरा आदर भाव लेकर बैरंग वापस हुए | 

कुल मिलाकर चित्तौड़ के पिछले आक्रमण से सबक लेकर बादशाह बहुत चौकन्ना था | वह जानता था कि जब राणा उदयसिंह के भाग जाने के बाद भी जयमल फत्ता जैसे सरदारों ने इतनी वीरता से मुकाबला किया था, तो इस बार तो प्रताप स्वयम नेतृत्व करने वाले हैं | अकबर यह भी जानता था कि जो राजपूत उसके साथ हैं, अन्दर ही अन्दर मेवाड़ से सहानुभूति रखते हैं | अंततः बहुत सोच विचार के बाद उसने स्वयं आक्रमण न करते हुए, ३ अप्रैल १५७६ को मानसिंह को प्रताप पर आक्रमण करने वाली सेना का प्रमुख बनाया | उसके साथ सेनापति आसफ खान, सैयद हाशिम, रणथम्भोर का सेना नायक महत्तर खां आदि सहयोगी नियुक्त हुए और मानसिंह ने चालीस हजार सैनिकों की विशाल सेना सहित अजमेर से कूच किया | 

इधर राणा प्रताप तो अपने राज्यारोहण के बाद से ही तैयारी में जुटे हुए थे | उन्होंने आव्हान किया कि राजपूत माता की कोख से उत्पन्न प्रत्येक पुत्र शस्त्र धारण करे | लेकिन आसपास का कोई भी राजा तो मदद को बचा ही नहीं था | बमुश्किल तीन हजार राजपूत युद्ध हेतु सन्नद्ध हुए, लेकिन जो थे वे सभी सर हथेली पर लेकर जान निछावर करने को उद्यत थे | राणा कुम्भलगढ़ से दक्षिण दिशा में खमनूर की ओर बढे, उनकी यह गतिविधि इतनी गुप्त थी कि शत्रुदल को पता भी नहीं चला कि वे उसके इतने नजदीक पहुँच चुके है | इसी बीच संध्या के समय लोहसिंह नामक ग्राम में गुप्तचरों ने प्रताप को सूचना दी कि मानसिंह महज एक हजार सैनिकों के साथ समीप ही शिकार खेल रहा है | किसी ने सलाह दी कि अच्छा अवसर है, रात को ही धावा बोल दिया जाए, किन्तु प्रताप और बुजुर्ग सरदार झाला को यह राय धर्म विरुद्ध प्रतीत हुई, और मानसिंह बच गया |

और आखिरकार २१ जून १५७६ को हल्दीघाटी की पीली जमीन पर दोनों सेनायें आमने सामने हुईं, जो शीघ्र ही रक्त से लाल होने वाली थी | मानसिंह ने सेना के अगले भाग में अपने चाचा जगन्नाथ को नियुक्त किया, सैयद हाशिम की टुकड़ी को जरूरत के लिए अलग रखा गया | दक्षिण में सैयद अहमद खां बरहा, तो बाईं और गाजी खां बख्सी अपने सैन्य दल के साथ मुस्तैद हुए | स्वयं मानसिंह हाथी पर सवार होकर सेना के बीचों बीच खड़ा था | उसके साथ मेहत्तर खां और राय माधव सिंह कछवाहा की सैन्य टुकड़ियां थीं |

राणा की ब्यूह रचना में दक्षिण में ग्वालियर नरेश रामशाह, बाईं ओर मानसिंह झाला और अक्षयराज के सुपुत्र मानसिंह सनोगरा, सेना के अग्र भाग में हाकिमसूर पठान, चंदावत किशनदास, और चित्तौड़ के महान सेनापति स्वर्गीय जयमल के पुत्र रामदास और भीमसिंह थे | प्रताप से साथ पनरवा के राजा पुंज, पुरोहित गोपीनाथ और मेहता रत्नचंद थे | जैसे ही युद्ध शुरू हुआ, रण बाँकुरे मेवाडियों के प्रहार से मुग़ल सेना की अग्रिम पंक्ति के छक्के छूट गए और वह पीछे हटकर अपनी मध्यपंक्ति से जा मिली | विशाल मुग़ल सेना की यह टुकड़ी राजपूतों के उन्मत्त हमले के सामने एक घड़ी भी नहीं ठहर पाई | राजपूतों को अपनी तलवार का जौहर दिखाने का अवसर लम्बे समय बाद मिला था, जिसका वे भरपूर रणोत्सव मना रहे थे | अग्रिम पंक्ति आगे बढ़ गई तो मध्य पंक्ति में चेतक पर सवार प्रताप के सामने मुग़ल सेनानायक गाजी खां आ गया | उसने अपने दल के साथ थोड़ी देर मुकाबला किया भी किन्तु फिर स्वयं घायल हो मैदान छोड़ गया | घबराई हुई पीछे खडी मुग़ल सेना ने तलवार छोड़कर तीर चलाने शुरू किये तो साथ में चल रहे मुग़ल इतिहासकार बदायूंनी ने एक सरदार से पूछा कि बादशाही राजपूतों और राणा के सैनिकों में कैसे पहचान होगी, तुम तो दोनों को मार रहे हो | उसने नफ़रत से मुंह बिचकाकर कहा - कोई भी मरे आखिर हैं तो काफिर ही | स्वाभाविक ही जब यह भाव हो तो सहज कल्पना की जा सकती है कि बादशाही सेना के राजपूतों ने क्या किया होगा ? जिनमें खुद्द्दारी थी वे अपने बंधुओं के साथ मिलकर मुग़ल सेना पर टूट पड़े होंगे और जो थोडा खुदगर्ज होंगे वे मैदान छोड़कर भाग गए होंगे | एक और बड़ा अंतर था – मुग़ल सेनापति हाथी पर सवार होकर केवल नजारा देख रहा था, जबकि प्रताप चेतक पर सवार होकर रणचंडी का खप्पर शत्रु रक्त से भर रहे थे | उनके नेतृत्व से उत्साहित राजपूतों के प्रहार और भीलों द्वारा पहाडी से फेंके जाने वाले बड़े बड़े पत्थरों से कुचली मुग़ल सेना का बायाँ भाग मध्य भाग और अग्रिम पंक्ति टूट चुकी थी, और लग रहा था कि प्रताप जीतने ही बाले हैं, किन्तु तभी लड़ाई का रुख बदल गया | योजनाबद्ध पीछे रखा गया हाशिम खां नगाड़े बजाता हुआ मैदान में आ गया | मैदान छोड़कर भागती हुई मुग़ल सेना को लगा कि स्वयं बादशाह अकबर युद्ध क्षेत्र में आ धमके हैं | चाल सफल हुई और भागती हुई सेना लौट पड़ी | एक बार फिर उनका संख्याबल बढ़ गया | अति उत्साह में राणा प्रताप मानसिंह का मान मर्दन करने के लिए मध्यक्षेत्र में पहुँच गए और चेतक ने अपनी अगली टापें मानसिंह के हाथी के मस्तक पर टिका दीं | राणा के भाले की चोट से बचने को मानसिंह हौदे में छुप गया, महावत मारा गया और हाथी बेकाबू होकर मैदान से भाग निकला | मानसिंह बच गया किन्तु राणा प्रताप शत्रुदल से घिर गए | झाला ने उनकी पताका छीनकर और उनका छत्र अपने सर रखकर मुगलों का ध्यान अपनी और आकृष्ट किया और अपना आत्मोत्सर्ग किया | 

इस युद्ध में ग्वालियर के राजा रामशाह ने अपने तीन पुत्रों के साथ वीरगति पाई, तो जयमल के पुत्र रामदास ने भी अपने परम प्रतापी पिता के पदचिन्हों का अनुशरण करते हुए, मातृभूमि की रज में स्वयं को समर्पित किया | इतिहासकारों ने युद्ध में मारे गए सैनिकों की संख्या अलग अलग अपने अपने नजरिये से लिखी है | बदायूंनी ने ५००० बादशाही और ३००० राजपूती सैनिकों को लड़ाई में मारा गया लिखा है, तो राजस्थानी इतिहासकारों ने बीस हजार राजपूत तो अस्सी हजार बादशाही सेना लिखी है | दोनों ही आंकड़े सत्य से परे हो सकते हैं, किन्तु इतना तय है कि बादशाही सेना को खासी क्षति हुई |

उधर लगभग मूर्छित और अतिशय घायल प्रताप को उनका स्वामीभक्त घोडा चेतक लेकर युद्ध क्षेत्र से बाहर हो गया | लेकिन दो मुगलों ने चेतक को पहचानकर उसका पीछा किया | लेकिन नहीं नहीं यह दो नहीं तीन घुड़सवार उनका पीछा कर रहे थे | तीसरा घुड़सवार जल्द ही शेष दो को पीछे छोड़कर आगे निकल गया | उसने जोर से आवाज लगाई - 

ओ नीले घोड़े रा असवार, म्हारा मेवाड़ी सरदार, राणा सुणता ही जाजो जी |

मेवाड़ी राणा सुणता ही जाजो जी |

राणा थारी डकार सुणने, अकबर धूज्यो जाय,

हल्दीघाटी रंगी खून सूं, नालो बहतो ज्याय,

चाली मेवाड़ी तलवार, बह गया खूणा रा खंगाल,

राणा सुणता ही जाजो जी, मेवाड़ी राणा सुणता ही जाजो जी |

चेतक चढ़ गयो हाथी पर और मानसिंह घबराय,

भालो फेंक्यो महाराणा जद, ओहदों टूट्यो जाय,

रण में घमासान मचवाय, बैरी रणसू भाग्या जाय,

राणा सुणता ही जाजो जी, मेवाड़ी राणा सुणता ही जाजो जी |

झालो गयो सुरगा रे माही, पातल लोह लवाय,

चेतक तन स्यूं बहे पनालो, करतब बरन्यो ना जाय,

म्हाने जीवा सु नहीं प्यार, म्हाने मरणो है एक बार,

राणा सुणता ही जाजो जी, मेवाड़ी राणा सुणता ही जाजो जी |

शक्तिसिंह री गर्दन झुक गई, पड्यो पगा में आय,

प्यार झूम ग्यो, गले लूम ग्यो, वचन न मुंडे आय,

दोनूं आंसूदा ढरकाए, वारी बाहाँ कोण छुड़वाय, 

राणा सुणता ही जाजो जी, मेवाड़ी राणा सुणता ही जाजो जी |

नीले घोड़े रा असवार, म्हारा मेवाड़ी सरदार,

राणा सुणता ही जाजो जी, मेवाड़ी राणा सुणता ही जाजो जी |

कहने की आवश्यकता नहीं कि जब बिछुड़े हुए दोनों भाई मिल गए तो पीछा करने वाले मुग़ल सैनिकों का क्या हुआ होगा |
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