राष्ट्र गौरव महाराणा प्रताप भाग 5 – तेजस्वी वंशज महाराणा राजसिंह



महाराणा प्रताप ने अपने अंतिम समय में अपने उत्तराधिकारी अमरसिंह और सरदारों से प्रतिज्ञा करवाई थी कि जिस पताका को उन्होंने प्राणपण से ऊंचा रखा है, उसे उनके देहांत के बाद भी झुकने नहीं दिया जाएगा | दिल्ली के सिंहासन पर बैठने वाले बादशाहों की अधीनता भी कभी स्वीकार नहीं की जायेगी | १५९७ से लेकर १६१५ तक अर्थात लगातार अठारह वर्ष नव नियुक्त महाराणा अमरसिंह ने इस प्रतिज्ञा का अक्षरशः पालन किया | राज्यारोहन के तत्काल बाद उन्होंने मुगलिया सल्तनत का सरदर्द बढ़ाना शुरू कर दिया | उन्होंने न अपना देखा न पराया, जो मुगलों की तरफ से युद्ध करने आया, उसे उन्होंने शत्रु मानकर ही प्रहार किया | यहाँ तक की उनके सगे मौसा देवलिया रावत भानूसिंह भी उनसे लड़ते हुए मारे गए | अमर सिंह के समय की एक लोमहर्षक घटना भी बहुत प्रसिद्ध है | 

सन १६०० में अमरसिंह के नेतृत्व में राजपूतों ने ऊंठाले दुर्ग पर हमला किया | उस समय सेना की हरावल पंक्ति में रहने को लेकर चूंडावत और शक्तावत सरदारों में विवाद हुआ | हरावल अर्थात सेना की अग्रिम पंक्ति | विवाद बढ़ता देख अमरसिंह ने युक्ति निकाली और कहा कि इस ऊन्ठाले दुर्ग में जो पहले प्रवेश करेगा, वही सैन्य दल भविष्य में हरावल दस्ते में रहेगा | दुर्ग में प्रवेश की सबसे बड़ी बाधा था, दुर्ग का मजबूत प्रवेश द्वार, जिसमें नुकीली लोहे की कीलें जड़ी हुई थीं | जिसके कारण हाथी उस द्वार पर टक्कर मारने से पीछे हट रहे थे, बिदक रहे थे | यह स्थिति देखकर बल्लू शक्तावत स्वयं दरवाजे से सटकर खड़े हो गए और महावत को हुकुम दिया कि वह हाथी की टक्कर उनके शरीर पर मारे | आँखों में आंसू लिए महावत ने हाथी को निर्देशित किया | द्वार तो टूट गया, किन्तु साथ ही बल्लू शक्तावत का भी उन कीलों से बिंधकर प्राणांत हो गया | 

लेकिन चूंडावत भी कहाँ पराजय स्वीकार करने वाले थे | इसके पूर्व की शक्तावतों का दल दुर्ग में प्रवेश करता जैतसिंह चूंडावत ने अपना सिर काटकर दुर्ग के अन्दर फेंक दिया | हरावल का नेतृत्व तो चूंडावतों के पास ही रहा, किन्तु यह प्रसंग दर्शाता है कि मृत्यु को खेल समझने वाली राजपूती मानसिकता कैसी थी | यहाँ यह भी उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि ये चूंडावत कौन थे ? अगर आपने इस श्रंखला के सभी विडियो देखे हैं, तो आपको राणा लाखा के पुत्र कुंवर चूडा स्मरण होंगे, जिन्होंने अपने विवाह का प्रस्ताव केवल इस लिए अस्वीकार कर दिया था, क्योंकि उनके पिता ने परिहास में यह रिश्ता स्वयं के लिए क्यूं नहीं, यह कह दिया था | और उसके बाद बड़े पुत्र होने के बाद भी कुंवर चूड़ा मेवाड़ के शासक नहीं बन पाए थे | उन कुंवर चूडा के ही वंशज थे, ये चूडावत सरदार | इस घटना के बाद युद्ध तो जीतना ही था, मुग़ल सेनानायक कायम खान मारा गया और दुर्ग पर केसरिया फहराने लगा | यह युद्ध कितना भीषण रहा होगा इसका अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि महाराणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह के दस पुत्रों का इसी युद्ध में बलिदान हुआ | 

अकबर के बाद जहाँगीर से भी मेवाड़ का संघर्ष जारी रहा, किन्तु १६१५ में जहाँगीर से संधि होने के बाद यह जुझारू योद्धा अमरसिंह राज्यकार्य से ही उदासीन हो गया और युवराज कर्णसिंह सभी उत्तर दायित्व निभाने लगे | कर्णसिंह के बाद जगतसिंह और उनके बाद महाराणा बने राजसिंह हमारे आज के मुख्य कथानायक हैं | उस समय दिल्ली की गद्दी पर औरंगजेब काबिज हो चुका था | राजसिंह का जन्म २४ सितम्बर १६२९ को और राज्याभिषेक १० अक्टूबर १६५२ को हुआ | राजसिंह ने चित्तौड़ के ध्वस्त किले का निर्माण कराना शुरू किया, तो शाहजहाँ ने उसे रुकवाने को अपनी सेना भेज दी | राजसिंह ने समय उचित न जान किले से राजपूतों को हटा लिया | फिर भी शादुल्ला खान चित्तौड़ पहुंचा और उसने नव निर्मित बुर्ज और दीवारें गिरा दीं | राजसिंह खून का घूँट पीकर मौके के इन्तजार में रहे. जो उन्हें शीघ्र ही मिल भी गया | शाहजहाँ बीमार हुआ, तो उसके चारों पुत्रों में गद्दी को लेकर संघर्ष छिड़ गया | दारा शिकोह बादशाह के पास रहकर अपना पक्ष मजबूत कर रहा था, तो शुजा बंगाल में सेना जमा कर रहा था | औरंगजेब ने मुराद को बादशाह बनने का लालच देकर अपने साथ कर लिया था और दक्षिण से दोनों की सेनाये आगरे पहुंची और फिर बादशाह शाहजहाँ कैसे कैद हुआ और २३ जुलाई १६५८ को औरंगजेब कैसे बादशाह बना, यह हमारा आज का विषय नहीं है | 

राजसिंह ने इस आपाधापी का फायदा उठाया और मांडलगढ़, दरीबा,बनेडा, शाहपुरे, जहाजपुर, सावर, फूलिया, केकडी आदि को अपने अधिकार में ले लिया | मजा यह कि इसके बाद भी अपने बेटे सुलतान सिंह और भाई अरिसिंह को आगरे भेजकर औरंगजेब को वधाई सन्देश पहुंचाया | औरंगजेब ने भी खिलअत, सरपेच, जडाऊ चोगा आदि दिया | राणा राजसिंह कहीं दारा शिकोह के साथ न चले जायें, इस भय से औरंगजेब ने उन्हें डूंगरपुर, बांसबाडा, बसावर, गयासपुर, प्रतापगढ़ आदि स्थान भी उन्हें को सोंप दिए | 

लेकिन होनी को तो कुछ और ही मंजूर था | १६५८ में किशनगढ़ के राजा रूपसिंह का देहांत होने पर उनका पुत्र मानसिंह उत्तराधिकारी हुआ | बादशाह औरंगजेब ने उसकी बहिन राजकुमारी चारुमती के सौन्दर्य की प्रशंसा सुनी तो उसके साथ विवाह का प्रस्ताव रखा | विवश मानसिंह के पास प्रस्ताव स्वीकार करने के अलावा कोई अन्य मार्ग ही न था | चारुमती अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति की थी, उसने अपने भाई और मां को स्पष्ट कह दिया कि यदि मेरी शादी किसी मुसलमान से तय की तो मैं अपने प्राण दे दूंगी, लेकिन शादी हरगिज नहीं करूंगी | लेकिन जब लगा कि परिवार में किसी की सामर्थ्य नहीं है, जो उसे बचा सके, तो उसने महाराणा राजसिंह के पास सन्देश भेजा, जिसमें अपने दुःख का पूरा हाल लिखकर प्रार्थना की कि आप मुझसे विवाह कर, मेरी व मेरे धर्म की रक्षा करें | इस पर महाराणा ससैन्य किशनगढ़ पहुंचे और चारुमती से विवाह कर उसे उदयपुर ले आये | 

उस समय का एक लोमहर्षक वृतांत भी पढ़ने को मिलता है | इधर राणा राजसिंह शादी के लिए रवाना हुए, उधर औरंगजेब भी सेना लेकर शादी रुकवाने या यूं कहें कि स्वयं शादी करने को रवाना हुआ | औरंगजेब को रोकने की जिम्मेदारी संभाली मेवाड़ी राजपूतों ने | चूंडावत सरदार का विवाह कुछ समय पूर्व ही हुआ था | पति ने पत्नी से विदा ली, किन्तु मन तो अटक रहा था पत्नी के मोहपाश में | द्वार से एक सेवक को भेजा पत्नी के पास कि कोई निशानी दे दो | पत्नी को लगा कि इतना मोह सता रहा है तो इतने भीषण शत्रु से युद्ध कैसे करेंगे ? उसने अपना सिर काटकर निशानी के रूप में भेज दिया | चूंडावत सरदार की आँखें खुल गईं | चुपचाप उस सिर को गले से बांध लिया और घोड़े पर बैठकर सरपट चल दिया औरंगजेब का मार्ग रोकने | मन में एक ही संकल्प था | आज एक एक यवन को तलवार के घाट उतार दूंगा | इस क्षणभंगुर शरीर के रक्त की प्रत्येक बूँद इस मेवाड़ी धरा के लिए समर्पित होगी | जल्द ही औरंगजेब की सेना से सामना हो गया | तुमुल युद्ध छिड़ गया | राजपूतों ने प्राणों की बाजी लगा दी | गले में पत्नी का सर लटकाए सरदार को देखकर, उसके भीषण प्रहारों से अकुलाई मुग़ल सेना के पाँव जल्द ही उखड गए | औरंगजेब को कल्पना भी न थी, कि ऐसा मरणान्तक युद्ध होने वाला है, वह तो केवल दूल्हा बनकर दुल्हन ले जाने आया था | उसने पैर पीछे खींचने में ही समझदारी समझी | 

विजयोल्लास से भरे चूंडावत सरदार सकुशल उदय पुर लौटे | लगभग उसी समय जब महाराणा राजसिंह भी चारुमती के साथ वापस आ रहे थे | उदयपुर में घर घर दीवाली मनाई जा रही थी | चूंडावत सरदार युद्धोन्माद में भूल ही चुके थे, कि पत्नी का सिर उनके गले में लटका है | वे तो घर की तरफ दौड़े अपनी प्रिय पत्नी को विजय का समाचार सुनाने | दरवाजे पर पहुंचकर ध्यान आया, अरे किसके पास जा रहा हूँ, कहाँ जा रहा हूँ, और फिर घर के द्वार पर ही मूर्छित होकर गिरे तो फिर नहीं उठे | पहुँच गए अपनी प्रिय पत्नी के ही पास परम धाम | सचमुच रणबाँकुरे राजपूत और वीरांगनाओं की यह धरा विश्व में अपने किस्म की बेजोड़ है | 

उधर नाराज बादशाह ने महाराणा से गयासपुर और बसावर छीनकर देवलिए के हरिसिंह रावत को दे दिए | लेकिन यह तो विरोध की शुरूआत थी | जब औरंगजेब ने अहमदावाद का चिंतामणि मंदिर, सोमनाथ मंदिर, काशी विश्वनाथ व मथुरा में केशवराय मंदिर ध्वस्त करने के बाद गोवर्धन में वल्लभसम्प्रदाय के द्वारकाधीश मंदिर की मूर्ती तोड़ने की आज्ञा दी, तो राजसिंह उस मूर्ती को मेवाड़ ले आये और कान्कडोली में उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया | इसी प्रकार जब श्रीनाथ जी के गुंसाई वृन्दावन से मूर्ती लेकर बूंदी, कोटा, पुष्कर, किशनगढ़ तथा जोधपुर गए, किन्तु किसी ने उस मूर्ती को अपने राज्य में रखना स्वीकार नहीं किया | क्योंकि सब औरंगजेब से भयभीत थे | तब गोसाईं दामोदर के काका गोपीनाथ राजसिंह के पास आये | महाराणा ने कहा कि आप प्रसन्नता से श्रीनाथ जी को मेवाड़ ले आओ, हम एक लाख राजपूतों के सिर कटने के बाद ही, औरंगजेब श्रीनाथ जी को हाथ लगा सकेगा | तब वह मूर्ती मेवाड़ आई और सीहाड़ नाथद्वारे में स्थापित की गई | 

औरंगजेब के क्रोध का ठिकाना नहीं रहा | राजसिंह थे कि लगातार आग में घी डाले जा रहे थे | जब औरंगजेब ने हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया, और दिल्ली में शुक्रवार को बादशाह के नमाज पढ़ने जाते समय जजिया हटाने की मांग करने वाले हिन्दुओं को हाथियों से कुचलने का समाचार राजसिंह को मिला तो उन्होने सीधा एक पत्र औरंगजेब को लिख भेजा, जिसकी अंतिम पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार थीं | 

यदि आप इस क़ानून के लिए उतारू ही हैं, तो सबसे पहले हिन्दुओं के मुखिया रामसिंह से जजिया बसूल करें, उसके बाद मुझ खैरख्वाह से | चींटी और मक्खियों को पीसना वीर पुरुष के लिए अनुचित है | 

जिस रामसिंह का पत्र में उल्लेख था, वह तत्कालीन जयपुर नरेश थे | औरंगजेब को चिढाने वाला सबसे महत्वपूर्ण प्रसंग भी शीघ्र सामने आ गया | जोधपुर के महाराज जसबंत सिंह जी के देहांत के बाद रानियों सहित उनके अवयस्क पुत्र अजीतसिंह को औरंगजेब ने मारने या मुसलमान बनाने का प्रयत्न किया, किन्तु वीरवर दुर्गादास राठौर के कारण उसकी योजना असफल हो गई | वह प्रसंग आप दुर्गादास राठौर वाले विडियो में देख सकते हैं | दुर्गादास बालक अजीतसिंह को लेकर राजसिंह के पास पहुँच गए | बादशाह का गुस्सा सीमापार कर गया | उसने पहले तो पत्र लिखकर उन्हें अजीतसिंह को सोंपने बाबत लिखा और न मानने पर ३ सितम्बर १६७९ को युद्ध के लिए दिल्ली से प्रस्थान कर दिया | उसके बाद यह संघर्ष लगातार जारी रहा | महाराणा ने आजीवन हार नहीं मानी, मानो प्रताप का पुनर्जन्म हुआ हो | वे ही अरावली की पहाड़ियां, वे ही भील, वही छापामार युद्ध शैली | लेकिन क्रोध सबसे बड़ा शत्रु बना | जिस बहु पत्नी प्रथा का मैं उल्लेख पूर्व में कर चुका हूँ, उसके दुष्परिणाम यहाँ भी सामने आये | एक रानी के भड़काने के कारण उनके हाथ से एक कुंवर की ह्त्या हो गई | इतना ही नहीं तो फिर वास्तविकता ज्ञात होने पर रानी और उनके सहयोगी पुरोहित की ह्त्या जैसे जघन्य कृत्य भी उनके हाथ से हुए | पश्चाताप की आग में जलते हुए, धर्माचार्यों से प्रायश्चित का तरीका पूछा तो उन्होंने तालाब बनवाने और युद्ध क्षेत्र में प्राण त्यागने का सुझाव दिया | फलस्वरूप बना राजसमुद्र का विशाल तालाब और युद्ध तो सतत चल ही रहा था | किन्तु प्रायश्चित पूर्ण नहीं हो सका, युद्ध क्षेत्र में मृत्यु उनके भाग्य में नहीं थी, कुम्भलगढ़ के नजदीक ओढा गाँव में उनका देहांत हो गया | एक वीर और धर्म परायण राजा का अंत कारुणिक हुआ | शायद इसीलिए हमारे यहाँ क्रोध और मोह को पाप माना गया है | ॐ
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