राष्ट्र गौरव महाराणा प्रताप भाग १ - प्रतापी पूर्वज



महाराणा प्रताप को लेकर शहीदे आजम भगतसिंह के उद्गार सुनने और समझने योग्य हैं | उन्होंने कहा कि - इतिहास में राणा प्रताप ने मरने की साधना की थी | एक तरफ थी दिल्ली के महाप्रतापी सम्राट अकबर की महाशक्ति, जिसके साथ वे भी थे, जिन्हें उनके साथ होना ही था, और वे भी थे जिन्हें प्रताप के साथ होना था | बुद्धि कहती थी – टक्कर असंभव है | गणित कहता था – विजय असंभव है | समझदार कहते थे – रुक जाओ | रिश्तेदार कहते थे – झुक जाओ | राणा प्रताप न बुद्धि की बात को गलत मानते थे, न गणित के विरोधी थे, न समझदारों का प्रतिवाद करते थे, न रिश्तेदारों को इनकार | पर क्या कहते थे राणा प्रताप ? कहते थे – जब मनुष्य की तरह सम्मान के साथ जीना असंभव हो, तब हम मनुष्य की तरह सम्मान से मर तो सकते हैं ! बिना कहे ही शायद उनके मन में था कि सम्मान से मरकर – हम आने बाली पीढ़ियों के लिए जीवन द्वार खुला छोड़ें, कुत्तों की तरह दुम हिलाकर जिन्दा रहते हुए उसे बंद ना कर जाएँ | 

तो आईये आज से हम उन्हीं प्रताप के कथानक पर नजर डालें, पर प्रारंभ पृष्ठभूमि से, थोडा पीछे से | राणा रतनसिंह की आत्माहुति व महारानी पद्मिनी के अमर जौहर के बाद से ही दिल्ली और मेवाड़ का युद्ध सतत जारी रहा | इस युद्ध का न तो अंत हुआ और न कुछ निर्णय ही | चित्तौड़ में खिलजी द्वारा नियुक्त राजपूत शासक को १३२६ में जिन पराक्रमी हमीरसिंह ने मार भगाया उनके वंश में ही आगे चलकर महाराणा प्रताप का जन्म हुआ | हम्मीर सिंह ने दोबारा चित्तौड़ जीतने आये दिल्ली के बादशाह मुहम्मद बिन तुगलक को भी करारी शिकस्त दी | 

हमीर सिंह के पौत्र राणा लाखा के शासन काल में मेवाड़ के सुख समृद्धि के दिन आ गए और जावर नामक स्थान पर चाँदी की खान निकल आई, जोकि एशिया की सबसे बडी चाँदी की खान है | किन्तु वृद्धावस्था में मारवाड़ की राजकुमारी हंसाबाई से किये गये विवाह के कारण उनकी मृत्यु के बाद परिवार में विभाजन हो गया | इसकी भी बड़ी विचित्र कथा है | हुआ कुछ यूं कि मंडोर के राव ने अपनी चहेती रानी के प्रभाव में आकर अपने छोटे पुत्र कान्हा को युवराज घोषित कर दिया, तो दुखी होकर बड़े बेटे राव रणमल ने चित्तोड़ की शरण ली | राणा लाखा ने भी उदारता पूर्वक उसे घणला गाँव जागीर में दे दिया | रणमल के साथ ही उसकी बहिन हंसाबाई भी चित्तौड़ आई थीं | रणमल ने हंसा का विवाह राजकुमार चूंडा से करने की इच्छा से सगाई का दस्तूर भेजा तो महाराणा ने मजाक में कह दिया कि हाँ भाई सगाई के दस्तूर तो जवानों के लिए ही आते हैं | राव चूंडा ने जब यह सुना तो उसने शादी से इनकार कर दिया और कहा कि जिस कन्या से पिता विवाह के इच्छुक हों, उससे भला मैं कैसे विवाह कर सकता हूँ | अब स्थिति विचित्र हो गई | राणा ने नाराजगी जताई कि अगर तुम विवाह नहीं करोगे तो राज्याधिकार से बंचित कर दिए जाओगे | किन्तु चूंडा नहीं माने | राव रणमल ने भी इस शर्त पर कि भविष्य में राज्याधिकार हंसा के पुत्र को ही मिलेगा, शादी को स्वीकृति दे दी और वृद्ध महाराणा का विवाह हंसा के साथ हो गया | 

कुछ समय बाद हंसा ने पुत्र को जन्म दिया और जब राणा लाखा स्वर्ग सिधारे तो शासन तंत्र हंसाबाई व उनके भाई के हाथों में आ गया | बड़े पुत्र कुंवर चूड़ा भी चित्तौड़ छोड़ कर मांडू चले गए | हंसा के पुत्र मोकल बाद में मेवाड़ के शासक बने | राणा मोकल ने अपनी पुत्री लाली कुंअर का विवाह गागरोण के शासक अचलदास खींची से कर दिया | १४२३ में मालवा के शासक होसंगशाह द्वारा किये गए आक्रमण से गागरोण दुर्ग की रक्षा करते हुए अचलदास ने प्राणोत्सर्ग किया तो महारानी ने अपनी मेवाड़ी परम्परा के अनुसार जौहर की ज्वाला में स्वयं को समर्पित कर दिया | आपको जानकर हैरत होगी कि बहुचर्चित और काफी हद तक हिन्दूद्रोही माने जाने वाले स्वनामधन्य दिग्विजयसिंह जी भी खीची ही हैं | पर पता नहीं उन्होंने यह इतिहास पढ़ा भी है या नहीं | 

खैर १४३३ में मोकल जब गुजरात के सैन्य अभियान पर जा रहे थे, उनके ही एक चाचा ने हमला कर दिया और सपत्नीक मोकल की ह्त्या कर दी | उनके पुत्र महाराणा कुम्भा अगले शासक बने | उन्होंने आसपास के मुस्लिम शासकों को अपने-अपने स्थानों पर हराकर राजपूती राजनीति को एक नया रूप दिया। और अपना आधिपत्य स्थापित किया। 35 वर्ष की अल्पायु में उनके द्वारा बनवाए गए बत्तीस दुर्गों में चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़ जहां स्थापत्य में शीर्षस्थ हैं, वहीं इन पर्वत-दुर्गों में चमत्कृत करने वाले देवालय भी हैं। उन्होंने अपने पिता की ह्त्या का बदला भी लिया और 1437 ई. में मालवा के सुलतान महमूद खिलजी को भी सारंगपुर के पास बुरी तरह से हराकर अपनी बहिन के जौहर का एक प्रकार से बदला लिया | यह अलग बात है कि उनका मुख्य अपराधी होशंगशाह ही नहीं उसका बेटा भी इसके पूर्व दुनिया से रुखसत हो चुका था | बाद में मालवा और गुजरात के शाह ने मिलकर मेवाड़ पर धावा बोला, लेकिन पराजित हुए | इस विजय की यशगाथा आज भी चित्तौड़ का विख्यात विजय स्तम्भ गा रहा है । 

लेकिन मेवाड़ के इतिहास में सब कुछ आदर्श और अच्छा ही नहीं है | प्रतापी महाराणा कुम्भा जब एक दिन कुम्भलगढ़ किले के पास स्थित नीलकंठ महादेव मंदिर में पूजन कर रहे थे, तभी उनके बेटे उदय सिंह प्रथम ने उनकी हत्या कर दी | बड़ा बेटा होने के कारण वह शासक तो बन गया, किन्तु लोग उससे घृणा करते रहे । कुम्भा जैसे महान राजा के हत्यारे को आखिर कौन मेवाड़ का राणा स्वीकार करता ? मेवाड़ के सरदारों ने कुम्भा के दूसरे बेटे रायमल को उसकी ससुराल ईडर से बुलवा लिया, चूंडा भी मांडू से आ गए | दाड़िमपुर के पास हुए युद्ध में पराजित होकर ऊदा ने कुम्भलगढ़ के अजेय किले में शरण ली तो वहां से उसके ही सरदारों ने उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया | उदय सिंह ने मांडू के सुलतान की शरण ली, किन्तु उसे उसकी करनी का फल मिल कर ही रहा, 1473 में आसमानी बिजली गिरने से उसकी मौत हुई | उस क्रूर और अलोकप्रिय राजा के मरने के बाद राणा कुम्भा के दूसरे बेटे राणा रायमल ने गद्दी संभाली व मालवा के सुल्तानों के आक्रमण को दो बार विफल किया | रायमल के प्रथ्वीराज, जयमल व संग्राम सिंह सहित १३ पुत्र थे | सबसे बड़े प्रथ्वीराज और रायमल के चहेते बेटे जयमल के साथ हुए संघर्ष में तीसरे संग्रामसिंह की तरुणाई में ही एक आँख फूट गई | संघर्ष का कारण भी विचित्र है | एक महात्मा ने तीनों राजकुमारों द्वारा भविष्य पूछे जाने पर संग्राम सिंह के प्रतापी सम्राट होने की भविष्य वाणी कर दी, तो गुस्साए दोनों बड़े भाई छोटे संग्रामसिंह की हत्या करने पर ही उतारू हो गए | फलस्वरूप इतिहास प्रसिद्ध उस राणा सांगा को जान बचाने के लिए मेवाड़ ही छोड़ना पड़ा | लेकिन महात्मा की भविष्य वाणी सत्य सिद्ध हुई और दोनों बड़े राजकुमार अपने पिता राणा रायमल के जीवन काल में ही स्वर्ग सिधार गए | अंततः संग्राम सिंह उपाख्य राणा सांगा ने २४ मई 1509 को मेवाड़ की सत्ता संभाली । 

राणा सांगा की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध सभी राजपूतों को एकजुट किया। उन्होंने दिल्ली, गुजरात, व मालवा के शासकों से अपने राज्य की बहादुरी से ऱक्षा की। उन्होंने दिल्ली के तत्कालीन शासक इब्राहीम लोदी को १५१७ में खतौली में पराजित किया, १५१८ में चंदेरी को जीता | बाद में जब बाबर ने दिल्ली पर अधिकार जमा लिया, तब फरवरी 1527 ई. में बयाना के युद्ध में तो राणा सांगा ने उसे भी परास्त कर दिया, लेकिन उसके बाद 17 मार्च,1527 ई. में खानवा के मैदान में राणा सांगा गंभीर रूप से घायल हो गए | युद्ध क्षेत्र से तो राणा सांगा पृथ्वीराज कछवाह की मदद से मेवाड़ के काल्पी नामक स्थान पर पहुँच गए, किन्तु कहा जाता है कि लगातार की लड़ाई से उकताए सरदारों ने वहां उन्हें जहर दे दिया और बसवा में 30 जनवरी,1528 को राणा सांगा की मृत्यु हो गयी, उनका अन्तिम संस्कार माण्डलगढ (भीलवाड़ा) में हुआ। 

अपने शैशव काल में मेरे समान शायद आपने भी गुनगुनाया होगा – 

अस्सी घाव लगे थे तन में, लेकिन व्यथा नहीं थी मन में | 

युद्धों में एक भुजा, एक आँख, एक टांग खोने व अनगिनत ज़ख्मों के बावजूद उन्होंने अपना महान पराक्रम नहीं खोया । आपने देखा ही है कि सत्ता संघर्ष का दीमक इस राजपरिवार को लग चुका था | राणा सांगा के बाद तो यह और भी विकराल रूप से सामने आया | 1534 में. गुजरात के बादशाह बहादुरशाह ने मेवाड़ पर हमला किया | अल्पबयस्क व अयोग्य राणा विक्रमादित्य की मां अर्थात स्व. राणा सांगा की पत्नी कर्मावती के विषय में इतिहासकारों द्वारा यह बताया गया कि उन्होंने तत्कालीन मुग़ल बादशाह को राखी भेजकर मदद मांगी | पता नहीं इसमें सचाई कितनी है, लेकिन इतना तय है कि हुमांयू नहीं आया और चितौड़ में एक बार फिर जौहर हुआ और अन्य महिलाओं के साथ राजमाता कर्मावती ने भी संसार से विदा ली | उसी दौरान महाराणा सांगा के बड़े भाई पृथ्वीराज के दासीपुत्र बनवीर ने 18 वर्षीय महाराणा विक्रमादित्य का कत्ल कर दिया और उनके छोटे भाई उदयसिंह द्वितीय को भी जान से मारना चाहा | लेकिन पन्ना धाय ने अपने बेटे की बलि देकर उसकी जान बचा ली |
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