नौवें सिख गुरू तेगबहादुर जी की बलिदानी गाथा



गुरू हरिकृष्ण जी तो अगले गुरू के लिए “गुरू बाबा बकाले” का सन्देश देकर संसार से विदा ले गए, किन्तु जब संगतें बकाले पहुंची तो देखा कि गुरूवंश के कई बाबे गद्दियाँ लगाकर गुरू बने बैठे हुए हैं | लेकिन संगतों ने स्वाभाविक ही गुरू तेगबहादुर को ही अपना गुरू मान्य किया | लेकिन अन्य दावेदारों के ईर्ष्यापूर्ण व्यवहार से आहत होकर गुरू तेगबहादुर जी ने एक उजड़े हुए गाँव माखोवाल को आनंदपुर नाम देकर सन १६६५ में अपना आवास बनाया | सभी संगतें अब बहां ही आना शुरू हो गईं | जैसे जैसे गुरूजी के प्रति श्रद्धा भक्ति बढ़ रही थी, बैसे बैसे अपने ही भाई बंधुओं से मिल रहे ईर्ष्या द्वेष का व्यवहार गुरू जी को दुःख पहुंचा रहा था | अंततः उन्होंने तीर्थाटन का निर्णय लिया और केवल छः महीने आनंदपुर में रहने के बाद अपनी माँ नानकी जी, पत्नी गुज़री जी व उनके भाई कृपाल चंद जी तथा अन्य पांच सिख श्रद्धालुओं के साथ पूर्व की ओर प्रस्थान कर दिया | अनेक नगरों व पिंडों में रुककर संगतों को उपदेश देते हुए गुरूजी प्रयाग राज पहुंचकर छः माह रुके | उनकी स्मृति में वहां गुरूद्वारा “पक्की संगत” स्थापित हुआ | 

प्रयाग के बाद गुरूजी काशी व गया होते हुए पटना पहुंचे और वहां अपनी गर्भवती पत्नी को छोड़कर स्वयं ढाका रवाना हो गए | उस समय एक विचित्र प्रसंग हुआ | आसाम के कामरूप परगने का राजा औरंगजेब को कोई चौथ नहीं भेजता था, इस पर नाराज होकर औरंगजेब ने जयपुर के राजा जयसिंह के भाई रामसिंह को उस पर चढ़ाई करने भेजा | किन्तु उन दिनों कामरूप के जादू की बड़ी चर्चा थी, रामसिंह की सेना के सिपाही भी भयभीत थे, कि कहीं कोई जादूगरनी उन्हें भेड़ बकरी न बना दे | स्वयं रामसिंह को भी लग रहा था कि औरंगजेब ने उन्हें मरने के लिए ही भेजा है | अतः पटना पहुंचे रामसिंह को जब गुरूजी के ढाका होने की जानकारी मिली, तो उसने अपने बजीर को उनके पास भेजकर प्रार्थना की कि वे उसकी सेना की जादूगरनियों से रक्षा करें | उसकी प्रार्थना पर गुरूजी ने अपना डेरा ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे धुबरी शहर में लगा दिया | गुरूजी का धुबरी आगमन सुनकर आसाम का एक पुत्रहीन राजा उनसे आकर मिला | गुरूजी के आशीर्वाद के बाद उसे पुत्र प्राप्त हुआ, जिसका नाम रत्न राय रखा गया, जो बाद में बड़ा होकर गुरू गोबिंद सिंह जी से मिलने आनंदपुर भी पहुंचा व उन्हें प्रसादो नामक हाथी व बहुमूल्य भेंटें समर्पित कीं | 

यह तो बाद में हुआ, उस समय तो गुरू तेगबहादुर जी की महिमा से कामरूप के राजा और जयपुर नरेश रामसिंह के बीच समझौता हुआ, दिल्ली और कामरूप दोनों राज्यों का सीमा विवाद निबटा और युद्ध टल गया | उसी दौरान पटना में पौष सुदी सप्तमी, सम्बत १७२३ अर्थात २२ दिसंबर १६६६ को गुरू गोबिंद सिंह जी का जन्म हुआ | माता नानकी जी ने गुरू तेगबहादुर जी को यह सन्देश पहुँचाया और गुरू जी चटगाँव, कलकत्ता, जगन्नाथ पुरी में संगतों को उपदेश देते हुए, वापस पटना लौटे | लगभग पांच वर्ष आसाम तथा पटना के आसपास धर्मोपदेश देने के बाद गुरू तेगबहादुर जी अकेले ही बनारस, अयोध्या, लखनऊ, मथुरा आदि शहरों में ठहरते हुए अम्बाला से पांच मील पूर्व लखनौरे आकर रुके | यहाँ अपने एक सिख भाई के पास कुछ दिन रहने के बाद कीरतपुर होते हुए आनंदपुर पहुंचे | कुछ समय बाद परिवार भी वहां आ पहुंचा और लगभग ढाई वर्ष अमन चैन से गुजरे | किन्तु तभी गुरू गोबिंदसिंह जी से सम्बंधित वह ऐतिहासिक घटना घटी | 

गुरू गोबिंद सिंह जी लिखित एक पुस्तक है – विचित्र नाटक | उस पुस्तक से एक अद्भुत तथ्य उद्घाटित होता है और वह यह कि गुरू गोबिंदसिंह जी को अपने पूर्व जन्म का भी स्मरण था | वे लिखते हैं – पूर्व जन्म में मैं दुष्ट दमन नामक राजा था और धर्मपूर्वक राज्य किया करता था | वृद्धावस्था प्राप्त होने पर मंडन ऋषि के उपदेश से, अपने पुत्र विजयराय को गद्दी सोंपकर, उस हेमकूट नामक पर्वत पर चला गया, जहाँ अर्जुन ने तपस्या की थी, और पद्मासन बांधकर महाकाल के ध्यान में मग्न हो गया | कुछ काल तक तपस्या के बाद महाकाल पुरुष ने मुझे दर्शन देकर अपने पुत्र की पदवी देकर कहा कि अगले जन्म में तुम स्वयं को ईश्वर का सेवक प्रसिद्ध करना | 

विशेष बात यह है कि दुष्टदमन या धृष्टद्युम्न काठियाबाड में अमरकोट का राजा सचमुच हुआ था, लोग आज भी उसकी पत्थर की प्रतिमा बनाकर हलुआ चढाते व पूजा करते हैं | इसी प्रकार हिमालय में बद्रीनाथ से लगभग दस किलोमीटर दूरी पर एक महाकाल मंदिर है, जहाँ के लिए प्रसिद्ध है कि अर्जुन ने तपस्या कर भगवान शिव से दिव्यास्त्र प्राप्त किये थे | यहाँ पर भी मंदिर में हलुए का ही भोग लगता है | क्या इसे संयोग ही माना जाए कि गुरूद्वारों में भी कडाही प्रसाद या कड़ा प्रसाद हलुआ ही होता है ? 

अपने पूर्व जन्म का स्मरण रखने वाले इन महापुरुष को हम आज भी स्मरण करते हैं, आखिर क्यों ? जो महापुरुष अपने पिता की इकलौती संतान होते हुए भी, अपने पिता को बलिदान देने हेतु प्रेरित करे, अपने समूचे वंश को धर्म हेतु अर्पित कर दे, उसे भला कौन भूल सकता है ? औरंगजेब ने इस्लाम के प्रचार में क्रूरता की हर सीमा लांघ दी | लाखों हिन्दुओं के यज्ञोपवीत तोड़ डाले गए, शिखाएं कटवा दी गईं, और जिन्होंने थोडा भी विरोध किया, उन्हें अपनी जान देनी पड़ी | कश्मीर में तो सूबा शेर अफगान ने कहर ही बरपा दिया था, ऐसी स्थिति में कुछ कश्मीरी हिन्दू गुरू तेगबहादुर की शरण में आये और गुहार लगाई, गुरूजी इस कलिकाल में हमें आपका ही सहारा है, आपके अलावा हमारी रक्षा कौन कर सकता है, कुछ उपाय कीजिए | 

गुरूजी के मुंह से अनायास निकला कि यह अत्याचार किसी महापुरुष के बलिदान से ही रुकेगा | 

पास ही खड़े नौ वर्षीय बालक गोबिंदसिंह बोले – पिताजी आपसे बढ़कर कौन महापुरुष हो सकता है ? 

क्या इसे बालक की नादानी कहा जा सकता है ? नहीं यह ईश्वरीय संकेत था, जिसे गुरू तेगबहादुर जी ने साफ़ साफ़ समझ लिया और उपस्थित लोगों से बोले – आप लोग सूबा शेर अफगान को कह दें कि अगर गुरू तेगबहादुर इस्लाम कबूल कर लेता है, तो हम भी आपकी बात मान लेंगे | 

यह समाचार जब शेर अफगान ने औरंगजेब को पहुंचाया तो उसने आनंदपुर अपने सिपाही भेजकर गुरूजी को दिल्ली बुलवाया | गुरूजी अपने साथ पांच सिखों को साथ लेकर सम्बत १७३० के ज्येष्ठ मास में दिल्ली को रवाना हुए | कीरतपुर तथा रोपड़ में श्रद्धालुओं को उपदेश देते हुए बारिश के मौसम में दो माह सैफाबाद के एक सूफी फकीर सैफदीन के पास रुके तथा उसके बाद समाना, करहाली, चिहका, कड़ा, आषाढ़ सम्बत १७३१ में आगरा पहुंचे | आगरा के एक बाग़ में डेरा डालकर जब एक लडके को अपनी कीमती अंगूठी देकर कुछ मिठाई आदि लाने भेजा, तो उसे चोर समझकर पकड़ लिया गया | और उसके बताने पर पुलिस ने गुरूजी व उनके सेवादार पाँचों सिखों को पकडकर दिल्ली पहुंचा दिया, जहाँ कोतवाली चांदनी चौक में इन्हें कैद कर दिया गया | 

औरंगजेब ने गुरूजी और उनके साथियों से कहा कि दुनिया में केवल इस्लाम ही सच्चा धर्म है, अगर आप लोग इस्लाम कबूल कर लो, तो आपको जागीरें अता की जायेंगी, मालामाल कर दिया जाएगा | गुरू जी को विशेष प्रलोभन दिया और कहा कि अगर आप इस्लाम कबूल कर लेंगे तो आपके लाखों मुरीद हो जायेंगे आप इस्लाम के बड़े पीर बन जायेंगे | 

गुरूजी ने उत्तर दिया – सब धर्म परमात्मा की इच्छानुसार बने हैं, और उसकी इच्छानुसार ही उन धर्मों में व्यक्ति का जन्म होता है अतः धर्म परिवर्तन ईश्वर का अनादर है | 

बादशाह बोला कि तुम्हे बड़ा पीर कहा जाता है, तो कुछ करामात दिखाओ 

गुरू तेगबहादुर ने जबाब दिया – किसी के हुकुम से करामात दिखाना तो ईश्वरीय कायदे के खिलाफ है, यह काम तो पाखण्ड है, चमत्कार तो ईश्वर करता है, मैं तो उनका सेवक हूँ | 

बादशाह ने कहा कि ठीक है, मरने को तैयार हो जाओ | गुरू साहब का जबाब था तुम मेरी उस आत्मा को कैसे मारोगे, जिस पर धर्म की छाप बैठी है, उस पर तुम्हारी तलवार का कोई असर नहीं होने वाला | 

बादशाह ने हैरानी से सवाल किया कि क्या तुम इस्लाम को कमतर समझते हो, जो उसे कबूल करने की जगह मर जाना पसंद करते हो ? 

गुरूजी ने दो टूक कहा – मैं किसी मजहब को बुरा नहीं मानता, लेकिन मेरे कबूल करने वाला स्थान खाली नहीं है | 

इस चर्चा के बाद बादशाह ने गुरू जी को बंदीगृह में भेज दिया | दो माह तक नाना प्रकार के कष्ट दिए गए | गुरूजी को डराने के लिए उस समय तो जुल्म की इन्तहा हो गई, जब चांदनी चौक में उनकी आँखों के सामने उनके एक शिष्य भाई मतिदास जी को आरे से चिरवा दिया गया | दूसरे भाई वियाले जी को उबलते पानी के देग में डालकर शहीद कर दिया गया | यह जुल्म देखकर गुरू जी ने अपने साथ केवल भाई गुरदित्ता जी को रखकर शेष दो उदो तथा जैता को वापस आनंदपुर भेज दिया | जब दो सिखों के जाने का समाचार अधिकारियों को मिला, तो गुरू जी को एक लोहे के पिंजरे में डाल कर कड़ा पहरा लगा दिया गया | उस समय ही गुरूजी ने एक सिख के हाथों से ५७ श्लोक लिखकर माताजी व गोविन्द सिंह जी को भेजे, जो श्लोक नावें महल के नाम से प्रसिद्ध हैं तथा गुरू ग्रन्थ साहब के अंतिम भाग में अंकित हैं | 

अंत में ११ नवम्बर १६७५ को लगभग सवा साल औरंगजेब की कैद में रहने के बाद गुरू जी ने पहले कुँए के जल से स्नान किया और फिर एक बटवृक्ष के नीचे जपजी साहब का पाठ करने के बाद जब परमपिता के सम्मुख सर झुकाया, उसी समय जल्लाद ने उनका सर धड से अलग कर दिया | 

साधन हेति इती जिन करी, 

सीस दिया पर सी न उचरी | 

गुरूजी के उस शहीदी स्थल पर ही आज गुरुद्वारा शीश गंज साहब विद्यमान है | इस अमर बलिदान के बाद गुरूजी का सर लेकर भाई जेता आनंदपुर पहुंचे, जहाँ उस शीश का अंतिम संस्कार हुआ | अमृत ग्रहण कर सिक्ख बनने के बाद भाई जेता का नाम जिऊण सिंह हुआ | 

गुरू जी के धड का भी अंतिम संस्कार मक्खन शाह लुभाने ने अपनी झोंपड़ी में किया, उस स्थान पर ही गुरूद्वारा रकाब गंज स्थित है |
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