क्रांतिकारियों के मार्गदर्शक श्याम जी कृष्ण वर्मा



यह गाथा है महान राष्ट्रभक्त व अद्भुत विद्वान श्याम जी कृष्ण वर्मा की | 

गुजरात के कच्छ जिले में समुद्र तट पर बसा एक छोटा सा गाँव मांडवी, जहाँ १८५७ में एक मजदूर के घर में जन्मे बच्चे का नामकरण हुआ श्याम जी | १२ वर्ष के हुए तो गाँव में पधारीं एक विदुषी सन्यासिनी “माता हरिकुंवर वा” की सेवा का अवसर क्या मिला, श्याम जी का मानो कायाकल्प हो गया | सन्यासिनी ने बालक की प्रतिभा देखकर उन्हें संस्कृत पढने और जीवन उन्नत बनाने का उपदेश दिया | साध्वीजी द्वारा दी गई संस्कृत पुस्तकों को पढ़ते पढ़ते, उनका संस्कृत उच्चारण इतना शुद्ध हो गया कि किसी कार्यवश मुम्बई से मांडवी आये सेठ मथुरादास भी प्रभावित हो गए और अपने साथ मुम्बई लेजाकर उन्हें वहां के बिलसन हाई स्कूल में भरती करवा दिया, साथ ही संस्कृत के विशेष अध्ययन हेतु भी अतिरिक्त व्यवस्था करवा दी | छात्रवृत्ति पाकर एल्फिन्स्टन हाई स्कूल में पढ़ते समय ही एक सहपाठी रामदास से मित्रता हुई तो उसके पिता व मुम्बई के प्रसिद्ध धनपति छबीलदास लल्लूभाई ने प्रभावित होकर अपनी तेरह वर्षीय पुत्री भानुमति के साथ अठारह वर्षीय श्याम जी का विवाह कर दिया | प्रारब्ध कहाँ से कहाँ ले गया, एक मजदूर पुत्र श्यामजी अब एक करोडपति के जामाता थे | लेकिन नहीं नहीं, अभी तो उनका भाग्योदय और शेष था | विधि ने उनके लिए एक अन्य महान भूमिका जो चुन रखी थी | 

आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती मुम्बई पधारे तो श्यामजी ने भी उनके धाराप्रवाह भाषण सुने और फिर प्रभावित होकर आर्य समाज की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेने लगे | उन्होंने नासिक, पूना, मुम्बई, सभी जगह घूम घूम कर आर्यसमाज के लिए वातावरण निर्मित किया | तभी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के संस्कृत विभागाध्यक्ष सर मोनियर बिलियम्स का मुम्बई आगमन हुआ | उस अवसर पर आयोजित सभा में उनके भाषण के पूर्व श्यामजी का भाषण हुआ | उनकी उत्कृष्ट और मधुर संस्कृत को सुनकर मोनियर बिलियम्स ने प्रभावित होकर उन्हें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में सहायक संस्कृत प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त कर दिया | इस प्रकार प्रारब्ध उन्हें इंग्लेंड ले गया | इंग्लेंड पहुंचकर श्याम जी ने अध्यापन के साथ साथ अध्ययन भी किया, और एम.ए. व बैरिस्टर की डिग्रियां हासिल करने वाले प्रथम भारतीय बने | अपनी प्रभावी भाषण शैली के कारण श्यामजी न केवल “रॉयल एशियाटिक सोसायटी” बल्कि “इंग्लेंड एम्पायर क्लब” के भी सदस्य बना लिए गए, जिसमें केवल राज्य परिवार के ही सदस्य हुआ करते थे | इसी क्लब में श्याम जी का परिचय बाद में भारत के वायसराय बने लार्ड डफरिन और लार्ड नार्थबुक व लार्ड रिपन जैसी प्रभावशाली हस्तियों से हुआ | 

१८८८ में भारत लौटकर श्यामजी कुछ वर्षों तक रतलाम, उदयपुर, जूनागढ़ आदि रियासतों के दीवान रहे, किन्तु फिर अजमेर में बकालत करने लगे | अजमेर में एक बार फिर उनका संपर्क स्वामी दयानन्द सरस्वती से हुआ और उनकी प्रेरणा से वे पुनः इंग्लेंड पहुँच गए, लेकिन इस बार उनकी भूमिका पूरी तरह बदली हुई थी | जैसे चुम्बक के संपर्क में आये लोहे में भी चुम्बकीय गुण आ जाते हैं, श्याम जी भी अब कुछ ठान चुके थे | लन्दन में मकान खरीदकर जनवरी १९०५ में अंग्रेजी मासिक पत्रिका “इंडियन सोशियोलोजिस्ट” का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसके पहले अंक की प्रारंभिक पंक्तियाँ थीं – 

आक्रमण का सामना करना आवश्यक और न्यायपूर्ण है | यदि आक्रमण का सामना न किया गया, तो मनुष्य का तेज नष्ट हो जाएगा | 

इस प्रकार अंग्रेजों की नाक के नीचे ही क्रांति की चिंगारी पनपने लगी | विदेशों में बसे अन्य देशभक्तों को संगठित करने के उद्देश्य से श्यामजी ने “इंडियन होम रूल सोसायटी” गठित की, जिसके नाम से ही ध्वनित होता था कि वह भारत के लिए होम रूल अर्थात स्वराज्य चाहती है | इतना ही नहीं तो भारत से इंग्लेंड आकर पढ़ने वाले देशभक्त छात्रों की आवासीय व्यवस्था के लिए श्यामजी ने एक बड़ा मकान खरीदकर उसे नाम दिया “इण्डिया हाउस” | इस इण्डिया हाउस से जरूरत मंद छात्रों को, महर्षि दयानंद, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप छात्रवृत्तियाँ देना भी प्रारंभ हुआ | आगे चलकर इण्डिया हाउस से विनायक दामोदर सावरकर, मदनलाल धींगडा और श्रीमती भीखाजी कामा जैसे लोगों ने भी क्रांति की दीक्षा ली | 

१८५७ आन्दोलन की स्वर्णजयंती के अवसर पर १९०७ में श्यामजी की प्रेरणा से सावरकर ने एक ग्रन्थ प्रकाशित करवाया, “१८५७ का स्वातन्त्र्य समर | स्वाभाविक ही अंग्रेज जिसे प्रयत्न पूर्वक स्वार्थी राजाओं का ग़दर बताते आ रहे थे, उसे स्वातंत्र समर कहा जाना उन्हें कहाँ बर्दास्त होता, पूरे इंग्लेंड में हलचल मच गई और सरकार ने उसे जब्त कर लिया | श्यामजी की विद्रोही गतिविधियों को राजद्रोह मानकर इसके पहले कि उन्हें गिरफ्तार किया जाता, चतुर श्याम जी पेरिस पहुँच गए और वहां भी एक नया इण्डिया हाउस बना कर कार्य शुरू कर दिया | श्याम जी ने पेरिस से एक पुस्तक “बम बनाने की विधि” छपवाकर भारत के क्रांतिकारियों को पहुंचवाई, जिसे पढ़कर भारत में बम बनाये जाने लगे | 

यह वह दौर था जब सांप्रदायिक आधार पर भारत विभाजन की पहली नींव रखी गई थी, अर्थात साढ़े सात करोड़ आबादी वाले बंगाल को अंग्रेजों ने दो भागों में बाँट दिया था | समूचा बंगाल तो हिन्दू बहुल था, किन्तु अंग्रेजों ने जिसे पूर्वी बंगाल कहकर अलग किया, वह मुस्लिम बहुल हो गया | अरबिंद घोष, सुरेन्द्र नाथ बैनर्जी और विपिनचंद्र पाल जैसे वरिष्ठ बंगालियों ने इसके लिए सरकार की मुखर आलोचना की | बंगभंग विरोधी आन्दोलन धीरे धीरे उत्तर प्रदेश और पंजाब तक फ़ैल गया | स्वामी विवेकानंद के लघु भ्राता भूपेन्द्र नाथ दत्त के संपादकत्व में युगांतर नामक एक पत्र भी निकलना शुरू हो गया, जिसने चेतना जागृति में अभूतपूर्व भूमिका निभाही | उस समय का एक प्रसंग बड़ा रोचक और साथ ही प्रेरणादायी भी है | अंग्रेजों ने समाचार पत्र को बंद कर सम्पादक को गिरफ्तार करने का निर्णय लिया | पुलिस जब सम्पादक को गिरफ्तार करने समाचार पत्र के कार्यालय पहुंची तो वहां बैठे सभी लोगों ने अपने आप को सम्पादक बताना शुरू कर दिया | परेशान होकर पुलिस उन लोगों में से जो सबसे मोटेताजे और दाढी मूंछ वाले शख्स थे, उन्हें पकड़कर ले गई और एक साल के लिए जेल में डाल दिया | 

इस अभूतपूर्व जनजागृति से विवश होकर १२ दिसंबर १९११ को बंगाल का विभाजन रद्द हुआ किन्तु बिहार उडीसा को मिलाकर अलग प्रांत बना दिए गए, जो तब तक बंगाल में ही समाहित थे | भारत की राजधानी भी कलकत्ते से बदलकर दिल्ली कर दी गई | बंगाल से परेशान हो चुके थे अंग्रेज और बहां उन्हें खतरा लगने लगा था | लेकिन दिल्ली में भी कहाँ उन्हें चैन मिलने वाला था | २३ दिसंबर १९१२ को जब दिल्ली के चांदनी चौक में बायसराय लार्ड हार्डिंग का हाथी पर जुलूस निकल रहा था, उस समय मोती बाजार के सामने एक बिल्डिंग की पहली मंजिल पर रास बिहारी बोस दम साधे दर्शकों के रूप में कुर्सी पर बैठे हुए थे | जैसे ही बायसराय का हाथी सामने आया, उन्होंने पूरे वेग से एक बम उस पर फेंक दिया, किन्तु संयोग से वह बच गया और उसका अंगरक्षक मारा गया | हड़कंप मच गया और रासबिहारी भीड़ में मिलकर सकुशल निकल गए | 

श्यामजी के लेख जर्मनी, स्विटजरलैंड, इटली, मिश्र, आदि देशों के समाचार पत्रों में छपने लगे, किन्तु तभी १९१४ में प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ और इंग्लेंड के राजा पेरिस आये | नतीजतन फ़्रांस सरकार ने श्यामजी को पेरिस छोड़ने का आदेश थमा दिया | उसके बाद श्यामजी को स्विट्जरलैंड में प्रवेश तो मिला, पर इस शर्त पर कि वे कोई राजनैतिक गतिविधि नहीं चलाएंगे | ६६ वर्षीय यह बौद्धिक योद्धा अब थक चुका था, निरंतर २५ वर्ष तक अंग्रेजों की नाक के नीचे स्वतंत्रता की चिंगारी जलाए रखने के बाद, अंततः ३१ मार्च १९३० की संध्या को यह देशभक्त निडर विद्वान चिर निद्रा में सो गया | काशी के प्रसिद्ध विद्वान बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने जिनेवा पहुंचकर आर्य पद्धति से उनका अंतिम संस्कार किया | श्यामजी निसंतान रहे अतः उनकी धर्मपत्नी भानुमती ने उनकी सारी संपत्ति अनेक संस्थाओं को दान करदी | लन्दन में इंडिया हाउस आज भी है, जो अपने संस्थापक श्यामजी कृष्ण वर्मा का कीर्ति स्तम्भ कहा जा सकता है |
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