हल्दीघाटी - डॉ. श्याम नारायण पांडे की अमर कृति
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निर्मल बकरों से बाघ लडे,
भिड गये सिंह मृग छौनों से,
घोड़े गिर पड़े, गिरे हाथी,
पैदल बिछ गए बिछौनों से |
हाथी से हाथी जूझ पड़े,
भिड गए सवार सवारों से,
घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े,
तलवार लड़ी तलवारों से |
हथ रुंड गिरे, गज मुंड गिरे,
कट कट अवनी पर शुण्ड गिरे,
लड़ते लड़ते अरि झुण्ड गिरे,
भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे |
क्षण महाप्रलय की बिजली सी,
तलवार हाथ की तड़प तड़प,
हय गज रथ पैदल भगा भगा,
लेती थी वैरी वीर हड़प |
क्षण पेट फट गया घोड़े का,
हो गया पतन कर कोड़े का,
भू पर सातंक सवार गिरा,
क्षण पता न था हय जोड़े का |
चिंघाड़ भगा भय से हाथी,
लेकर अंकुश पिलवान गिरा,
झटका लग गया फटी झालर,
हौदा गिर गया निशान गिरा |
होती थी भीषण मारकाट,
अतिशय रण में छाया था भय,
था हार जीत का पता नहीं,
क्षण इधर विजय, क्षण उधर विजय |
कोई व्याकुल भर आह रहा,
कोई था विकल कराह रहा,
लोहू से लथपथ लोथों पर,
कोई चिल्ला अल्लाह रहा |
धड कहीं पड़ा, सिर कहीं पड़ा,
कुछ भी उनकी पहचान नहीं,
शोणित का ऐसा वेग बढ़ा,
मुरदे बह गए निशान नहीं |
मेवाड़ केसरी देख रहा,
केवल रण का न तमाशा था,
वह दौड़ दौड़ करता था रण,
वह मान रक्त का प्यासा था |
चढ़कर चेतक पर घूम घूम,
करता सेना रखबाली था,
ले महामृत्यु को साथ साथ,
मानो प्रत्यक्ष कपाली था |
रण बीच चौकड़ी भर भर कर,
चेतक बन गया निराला था,
राणा प्रताप के घोड़े से,
पड़ गया हवा को पाला था |
जो तनिक हवा से बाग़ हिली,
लेकर सवार उड़ जाता था,
राणा की पुतली फिरी नहीं,
तब तक चेतक मुड़ जाता था |
है यहीं रहा, अब यहाँ नहीं,
वह नहीं रहा है वहां नहीं,
थी जगह न कोई जहाँ नहीं,
किस अरि मस्तक पर कहां नहीं |
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को,
राणा प्रताप सिर काट काट,
करता था सफल जवानी को |
कलकल बहती थी रणगंगा,
अरिदल को डूब नहाने को,
तलवार वीर की नाव बनी,
चटपट उस पार लगाने को |
वैरी दल को ललकार गिरी,
वह नागिन सी फुफकार गिरी,
था शोर मौत से बचो बचो,
तलवार गिरी तलवार गिरी |
पैदल से हयदल गजदल में,
छिपछप करती वह निकल गई,
क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर,
देखो चमचम वह निकल गई |
क्षण इधर गई, क्षण उधर गई,
क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई,
था प्रलय चमकती जिधर गई,
क्षण शोर हो गया किधर गई |
क्या अजब विषैली नागिन थी,
जिसके डसने में जहर नहीं,
उतरी तन से मिट गए वीर,
फैला शरीर में जहर नहीं |
थी छुरी कहीं, तलवार कहीं,
वह बरछी असि खरधार कहीं,
वह आग कहीं अंगार कहीं,
बिजली थी कहीं कटार कहीं |
लहराती थी सिर काट काट,
बल खाती थी भू पाट पाट,
बिखराती धवयक वाट वाट,
तनती थी लोहू चाट चाट |
ऐसा रण राणा करता था,
पर उसको था संतोष नहीं,
क्षण क्षण आगे बढ़ता था वह,
पर कम होता था रोष नहीं |
कहता था लड़ता मान कहाँ,
मैं कर लूं रक्तस्नान कहाँ,
जिस पर तय विजय हमारी है,
वह मुगलों का अभिमान कहाँ |
भाला कहता था मान कहाँ,
घोडा कहता था मान कहाँ,
राणा की लोहित आँखों से,
रब निकल रहा था मान कहाँ |
लड़ता अकबर सुलतान कहाँ,
वह कुल कलंक है मान कहाँ,
राणा कहता था बार बार,
मैं करूं शत्रु बलिदान कहाँ |
तब तक प्रताप ने देख लिया,
लड़ रहा मान था हाथी पर,
अकबर का चंचल साभिमान,
उड़ता निशान था हाथी पर |
फिर रक्त देह का उबल उठा,
जल उठा क्रोध की ज्वाला से,
घोड़े से कहा बढ़ो आगे,
बढ़ चलो कहा निज भाला से |
है नस नस में बिजली दौड़ी,
राणा का घोडा लहर उठा,
शत शत बिजली की आग लिए,
वह प्रलय मेघ सा घहर उठा |
तनकर भाला भी बोल उठा,
राणा मुझको विश्राम न दे,
बैरी का मुझसे ह्रदय गोभ,
तू मुझे तनिक आराम न दे |
मुरदों का ढेर लगा दूं मैं,
अरि सिंहासन थहरा दूं मैं,
राणा मुझको आज्ञा दे दे,
शोणित सागर लहरा दूं मैं |
वह महा प्रतापी घोडा उड़,
जंगी हाथी को हबक उठा,
भीषण विप्लव का दृश्य देख,
भय से अकबर दल दबक उठा |
क्षण भर छल बल कर लड़ा अड़ा,
दो पैरों पर हो गया खड़ा,
फिर अगले दोनों पैरों को,
हाथी मस्तक पर दिया गडा |
यह देख मान ने भाले से,
करने की की क्षण चाह समर,
इस तरह थाम कर झटक दिया,
हाथी की भी झुक गई कमर |
राणा के भीषण झटके से,
हाथी का मस्तक फूट गया,
अम्बर कलंक उस कायर का,
भाला भी दब कर टूट गया |
राणा बैरी से बोल उठा,
देखा न समर भाले से कर,
लड़ना तुझको है अगर अभी,
तो फिर लडले भला लेकर |
हां हां लड़ना है कह कर जब,
बैरी ने उठा लिया भाला,
क्षण भोंह चढ़ाकर देख लिया,
कांपे दोउ हाथ गिरा भाला |
राणा ने हंसकर कहा मान,
अब बस करदे हो गया युद्ध,
वैरी पर वार न करने से,
मेरा भाला हो रहा क्रुद्ध |
अपने शरीर की रक्षा कर,
भग जा भग जा अब जान बचा,
यह कह कर भाला उठा लिया,
भीषणतम हाहाकार मचा |
क्षण देर न की तन कर मारा,
अरि कहने लगा न भाला है,
यह गेंहुँअन करियत काला है,
या महाकाल मतवाला है |
छिप गया मान हौदे तल में,
टकरा कर हौदा टूट गया,
भाले की हलकी हवा लगी,
पिलवान गिरा, तन छूट गया |
अब बिना महावत के हाथी,
चिंघाड़ भगा राणा भय से,
संयोग रहा, बच गया मान,
खूनी भाला राणा हय से |
राणा के चारों और मुग़ल,
होकर करने आघात लगे,
खाखाकर अरि तलवार चोट,
क्षण क्षण होने भूपात लगे |
राणा कर ने सिर काट काट,
दे दिए कपाल कपाली को,
शोणित की मदिरा पिला पिला,
कर दिया तुष्ट रण काली को |
पर दिन भर लड़ने से तन से,
चल रहा पसीना था तरतर,
अविरल शोणित की धारा थी,
राणा क्षत से बहती झरझर |
घोडा भी उसका शिथिल बना,
था उसको चैन न घावों से,
वह अधिक अधिक लड़ता यद्यपि,
दुर्लभ था चलना पांवों से |
तब तक झाला ने देख लिया,
राणा प्रताप है संकट में,
बोला न बाल बांका होगा,
जब तक यह प्राण बचे घट में |
अपनी तलवार दुधारी ले,
भूखे नाहर सा टूट पड़ा,
कलकल मच गया अचानक दल,
आश्विन के घन सा फूट पड़ा |
रख लिया छत्र अपने सिर पर,
राणा प्रताप मस्तक से ले,
ले स्वर्ण पताका जूझ पड़ा,
रण भीम कला अन्तक से ले |
झाला को राणा जान मुग़ल,
फिर टूट पड़े सब झाला पर,
मिट गया वीर जैसे मिटता,
परवाना दीपक ज्वाला पर |
झाला ने राणा रक्षा की,
रख लिया देश के पानी को,
छोड़ी राणा के साथ साथ,
अपनी भी अमर कहानी को |
अरि विजय गर्व से फूल उठे,
इस तरह हो गया समर अंत,
पर किसकी विजय रही बतला,
ए सत्य सत्य अम्बर अनंत ||
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काव्य सुधा
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