शिक्षा तंत्र को किया बर्बाद - मौलाना अबुल कलाम आजाद - दिवाकर शर्मा



शायद आपको यह जानकर हैरत होगी कि जिन सैयद अबुलकलाम गुलाम मुहियुद्दीन अहमद बिन खैरुद्दीन अलहुसैनी आजाद अर्थात मौलाना अबुल कलाम आजाद को नेहरू जी ने देश का प्रथम शिक्षा मंत्री बनाया, उन्होंने एक बसीयत की थी | जानते हैं वह बसीय्त क्या थी ? बसीयत यह थी कि उनकी पुस्तक इंडिया विन्स फ्रीडम के अंतिम ३० पेज उनकी मौत के तीस साल बाद प्रकाशित किये जाएँ | आखिर क्या था उन तीस पेजों में ? उन तीस पेजों में महज वे तथ्य खोले गए थे, जिनसे प्रमाणित होता है कि नेहरू जी ने अपनी सत्ता पिपासा के कारण भारत का विभाजन करवाया | 

अब सवाल उठता है कि मौलाना आजाद को इस बात से इतनी नाराजगी क्यों थी ? दरअसल मौलाना का मानना था कि भारत का विभाजन मुस्लिम हितों के खिलाफ है | अगर देश का विभाजन नहीं होता तो एक दिन मुस्लिम पूरे हिंदुस्तान पर आसानी से काबिज हो सकते थे | जिन्ना और नेहरू ने अपनी अपनी सत्ता लोलुपता के कारण मुसलमानों से यह सुनहरा अवसर छीन लिया और मुसलमानों को मिला केवल पिद्दी न पिद्दी का शोरबा पाकिस्तान | इसीलिए मौलाना ने भारत में रहने वाले मुसलमानों को भी यह सलाह दी कि वे पाकिस्तान की तरफ पलायन न करें | उन्होंने मुसलमानों को समझाया कि उनके सरहद पार चले जाने से पाकिस्तान तो मज़बूत नहीं होगा, अलबत्ता भारत के मुसलमान जरूर कमज़ोर हो जाएंगे | 

एक तथ्य और ध्यान देने योग्य है कि वे कांग्रेस में जरूर रहे, लेकिन उनकी प्राथमिकता खिलाफत आन्दोलन रहा | अपनी पुस्तक कौल फैसल में स्वयं मौलाना लिखते हैं कि जब उन्होंने १९२१ में गांधी जी के साथ देश भर का दौरा किया, तब लाहौर और अमृतसर भी गए | उन दिनों कांग्रेस ने तय कर रखा था कि कानून नहीं तोड़ना, इसलिए इन दोनों स्थानों पर सभाओं पर पाबंदी के कारण गांधी जी ने अपना लेक्चर गुजरांबाला में दिया | किन्तु मौलाना नहीं माने और उन्होंने लाहौर की शाही मस्जिद में जुम्मे की नमाज के बाद लेक्चर दिया | पंजाब के कई मिनिस्टरों ने उनकी शिकायत गांधी जी से की, कि जब क़ानून न तोड़ने का तय हुआ है, तो मौलाना क्या कर रहे हैं | जानते हैं महात्मा जी ने क्या जबाब दिया ? उन्होंने कहा कि मुल्क की पतवार मेरे और उनके हाथ में है, मैं उन्हें नहीं रोक सकता | तो गांधी जी मौलाना को देश का खिबैया मान रहे थे | बस फिर क्या था, यही काम उत्साहित मौलाना ने अमृतसर में भी किया | कांग्रेस के निर्णय उनके ठेंगे पर थे | 

जानते हैं उन दिनों ये दौरे किस बजह से हो रहे थे | ये दौरे हो रहे थे, खिलाफत आन्दोलन को बल देने के लिए | क्या था यह खिलाफत आन्दोलन ? प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन एवं तुर्की के बीच होने वाली 'सीवर्स की संधि' से तुर्की के सुल्तान के समस्त अधिकार छिन गये और एक तरह से तुर्की राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। भारत के मुस्लिम, तुर्की के सुल्तान को अपना 'खलीफ़ा' मानकर उसके समर्थन में यह 'ख़िलाफ़त आंदोलन' चला रहे थे । कुख्यात अली बंधुओं और मौलाना आजाद के इस अभियान का ही परिणाम था कि दक्षिण भारत के मालाबार में भीषण हत्याकांड हुआ, जिसे 'मोपला विद्रोह' के नाम से जाना जाता है। धर्मांध जिहादियों ने अंग्रेजों के स्थान पर हिन्दुओं को निशाना बनाया और ह्त्या, लूट, बलात्कार और धर्म परिवर्तन का नया इतिहास रच दिया | कांग्रेस ने इसे गरीब किसान मुसलमानों का नम्बूदरी ज़मींदारों और साहूकारों के खिलाफ आक्रोश बताकर इसे ध्यान देने योग्य ही नहीं माना | और मजा यह कि 1924 ई. में तुर्की में स्वयं 'कमाल पाशा' के नेतृत्व में बनी सरकार ने ख़लीफ़ा के पद को ही समाप्त कर दिया और इस आन्दोलन की अपने आप मौत हो गई। 

आईये जानें कि उन दिनों मौलाना क्या कर रहे थे | मुहम्मद अली और शौकत अली गिरफ्तार हो चुके थे | बचे मौलाना ने १८ अगस्त १९२१ को कोलकता में बीस हजार लोगों की सभा को संबोधित करते हुए कहा – 

जिस कराची खिलाफत कांफ्रेंस के प्रस्ताव के आधार पर अली बंधू गिरफ्तार हुए हैं, वह इस्लामिक मसला है और हर मुसलमान का फर्ज है कि वह इसका ऐलान करे | अगर यह जुर्म है तो इस पर हमेशा मुकाबला रहेगा | 

इसके बाद देल्ही में सेन्ट्रल जमीयतुल उल्मा और खिलाफत कमेटी का जलसा हुआ, यहाँ भी कराची प्रस्ताव दोहराए गए और मौलाना ने कहा कि अगर इस प्रस्ताव को सरकार अपने खिलाफ समझती है, तो मैं हर मुसलमान से इसके प्रचार और पास कराने पर जोर देता हूँ | क्योंकि यह इस्लामी हुक्म है | 

बाल गंगाधर तिलक जी के १ अगस्त १९२० को हुए दुखद निधन के बाद गांधी जी पूर्णतः स्वच्छंद हो चुके थे, जब तक तिलक जी रहे, कांग्रेस उनके मुखर विरोध के चलते खिलाफत आन्दोलन का समर्थन नहीं कर पाई | अतः अली भाईयों की गिरफ्तारी के बाद महात्मा गांधी ने हिन्दू मुसलमान नेताओं को मुम्बई में जमा कर एक मेनिफेस्टो छपवाया जिसमें कराची के उक्त प्रस्ताव का समर्थन किया था | 

आशा है आप समझ ही गए होंगे की मौलाना अब्दुल कलाम आजाद की प्राथमिकताएं क्या थीं ? 

इसे जानते हुए भी नेहरू जी ने उन्हें देश का प्रथम शिक्षामंत्री बनाया | तो नतीजा सामने है | अगर आप विकी पीडिया पर इनकी शैक्षणिक योग्यता देखेंगे तो पायेंगे केवल एक विश्व विद्यालय का नाम, वह है अल-अजहर विश्वविद्यालय काहिरा मिश्र | उस विश्व विद्यालय से इन्होने कौन सी डिग्री हासिल की, यह सब अज्ञात है | दरअसल मौलाना अबुल कलाम की पढाई लिखाई केवल मदरसे में हुई थी । देश का दुर्भाग्य देखिये कि जिस कुर्सी पर किसी भारतीय विद्वान को बैठकर देश का पाठयक्रम निर्धारित करना चाहिए था, बहां एक धर्मांध और पूर्वाग्रहित शख्स बैठा दिया गया, दूसरे शब्दों में कहें तो एक मदरसे के मौलवी को बैठाया गया। यही से भारतीय शिक्षा के विकृतीकरण का प्रारंभ हुआ, जो आज तक चला आ रहा है । 

हमारा गौरवशाली इतिहास कूड़ेदान में फेंक दिया गया और योजनाबद्ध विदेशी कचरा हमारे नौनिहालों के मनोमस्तिष्क में भरा गया | किसी भी विद्यालय या विश्वविद्यालय में विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा किये गए अत्याचार को ना पढ़ाते हुए, उन्हें महिमामंडित करने की कुचेष्टा हुई | हमारे विश्वविद्यालयों में गुरु तेग बहादुर, गुरु गोबिंदसिंह, बन्दा बैरागी, हरीसिंह नलवा, राजा सुहेल देव, दुर्गादास राठौर जैसे असंख्य वीरों के बारे में कुछ नहीं बताया जाता, उसके स्थान पर ऐसी भ्रांतियां पढाई जाती हैं, जो नई पीढी को आत्मगौरव विहीन और अपनी सनातन संस्कृति को हेय दृष्टि से देखने बाला बनाती है | 

भारतीय संस्कृति की रीढ़ की हड्डी तोड़ने तथा लम्बे समय तक भारत पर राज करने के लिए 1835 में ब्रिटिश संसद में भारतीय शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त करने के लिए मैकाले ने जो रणनीति बनाई थी, उसी के अनुरूप या उससे भी कहीं अधिक नुकसान देह शैक्षणिक पाठ्यक्रम मौलाना आजाद के माध्यम से देश पर थोपा गया | शायद इसीलिए 1992 में उन्हें मरणोपरांत देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ प्रदान किया गया | 

आज जो पढाया जा रहा है उसका सार है - 

हिन्दू जिन आर्यों की संतान हैं, वे भारत के रहने वाले नहीं हैं, वे कहीं बाहर से आये हैं, कहाँ से यह पता नहीं किन्तु आये बाहर से हैं, भले ही उस काल्पनिक स्थान पर उनका कोई स्मृति चिन्ह भी न हो | जिस प्रकार आर्य बाहर से आये, उसी प्रकार मुस्लिम भी आये, अंग्रेज भी आये | यह देश तो धर्मशाला है, लोग आते गए, बसते गए | जो वनवासी हैं, दरअसल वे ही यहाँ के आदिवासी हैं, जिन्हें दुष्ट आर्यों ने मार मार कर जंगलों में भगा दिया और उनके नगरों और सुन्दर हरे-भरे मैदानों में स्वयं रहने लगे। 

हिन्दुओं के देवी देवता राम, कृष्ण आदि की बातें और रामायण - महाभारत कपोल कल्पित कहानियाँ हैं। 

हिन्दू सदा से दास रहे हैं --कभी शकों के, कभी हूणों के, कभी कुषाणों के तो कभी पठानों तुर्कों मुगलों और अंग्रेजों के। 

यह समय की मांग है कि हम अपनी क्षेत्रीय भाषाओं के विषय में भी सोचें | यह जाना माना तथ्य है कि अपनी मातृभाषा में ही व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता अधिक परिपक्व होती है | लेकिन इसी शिक्षा पद्धति ने इस भ्रान्ति को जन्म दिया है कि यदि अंग्रेजी न होती तो भारत इतनी तरक्की नहीं कर पाता। लेकिन सोचने का विषय है कि अगर यही सच है तो जर्मनी, जापान,चीन इजराइल ने अपनी मातृभाषाओं में इतनी तरक्की कैसे कर ली | 

विचारिये कि 15 अगस्त 1947, को आज़ादी मिली तो क्या बदला ? न मैकाले की शिक्षा नीति बदली और न ही शिक्षा प्रणाली। शिक्षा प्रणाली जस की तस चल रही है । मित्रो कोई भी सरकार इसे बदलने का तब तक नहीं सोचेगी, जब तक जनमत इसके लिए दबाब नहीं बनाएगा | 

अतः जागो भारत जागो |
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