सत्यवादी हरिश्चन्द्र से कमीने तक - संजय तिवारी


सत्यवादी हरिश्चन्द्र से चले थे। कमीने तक आ चुके हैं। लोक प्रभाव के बल के संचार के सबसे ताकतवर माध्यम ने अपनी इस यात्रा में भारत, भारतीयता, कला, संस्कृति और सभ्यता को क्या दिया है, अब इसके मूल्यांकन का समय आ चुका है। खास तौर पर जब भारत के सिनेमा अपनी आयु के शतक को पर कर चुका है तब यह और भी आवश्यक हो जाता है। ऐसे समय मे जब दुनिया मे मानव अधिकार को लेकर सर्वाधिक सक्रियता दिख रही है ऐसे में जब सिनेमा जैसे संवेदनशील माध्यम में सक्रिय और अपनी योग्यता प्रमाणित कर चुके किसी नौजवान को आत्महत्या जैसा कदम उठाने को विवश होना पड़ता है तो यह और भी जरूरी हो जाता है कि इस माध्यम की आंतरिक व्यवस्था और वस्तुस्थिति पर गंभीर हुआ जाय। सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या की या उनकी हत्या की गई, यह विवेचन और चिंतन की बात है लेकिन सुशांत के साथ हुई दुर्घटना के बाद भारतीय सिनेमा जगत के ही भीतर से जो प्रश्न उठ रहे हैं उन पर बहस और विवेचना बहुत जरूरी है। अभिनेत्री कंगना रनौत, रवीना टंडन, सोनू निगम जैसे कलाकारों की प्रतिक्रिया और उभर कर सामने आई उनकी संवेदना की अनदेखी नही होनी चाहिए। सिनेमा केवल एक मनोरंजन उद्योग नही है। इसमें कला, संस्कृति सामाजिकता के घने तंतु भी हैं। शास्त्रीयता भी है और आधुनिकता भी।

दुख होता है कि मनोरंजन और सिनेमा में कला और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर बड़े सलीके से भारतीय सनातन मूल्यों और परंपराओं का कत्ल किया जा रहा है और हमारा समाज चुप चाप तमाशबीन बना हुआ है। हर तीसरी फिल्म में किसी न किसी भारतीय आदर्श की हत्या कर दी जाती है। रिश्तों को कलंकित किया जाता है। सम्वेदनाओं पर पत्थर मार कर लहू लुहान कर दिया जाता है लेकिन हमारा समाज सब सहता और देखता रहता है।

यदि यह केवल मनोरंजन उद्योग होता तो इसकी शक्ति से कई नए देवी देवताओं की स्थापना नही हो पाती। यह सिनेमा ही है जिसने संतोषी माता, साईं बाबा जैसे नए देवी देवता भी दिए हैं। यानी लोक की आस्था पर भी इसका प्रभाव अत्यंत गंभीर है। याद कीजिये कि हमने पहली फ़िल्म हरिश्चन्द्र तारामती बनाई थी। आज कमीने जैसी फ़िल्म बनाते है। घर संसार जैसी फिल्मों में मनवीर रिश्तो और सम्वेदनाओं को जीते जीते अब ऐसी फिल्मो पर आ गए जहां न कोई रिश्ता है और न ही मानवीयता। महेश भट्ट जैसे लोग एक पोर्न महिला को लाकर भारत मे स्थापित करते है ओर उसको रोलमॉडल बना देते है।

सुशांत की मौत से उपजे सवालो में अहम यह है कि भारत के सिनेमा उद्योग पर आखिर किस शक्ति ने कब्जा कर रखा है।वह कौन सी शक्ति है जो जब जिसे चाहती है स्टार बन देती है और जब जिसको चाहती है अंधेरे में डाल देती है। सुशांत जैसों की हत्या या आत्म हत्या के बाद भी लोग जाग क्यो नही रहे। कंगना, रवीना, सोनू आदि अकेले अकेले इस जंग को नही लड़ सकते। इसके लिए भारत की चिंता करने वाली सभी शक्तियों को आगे आना होगा। सभी को एक साथ अनीति, अपसंस्कृति और ऐयाश हो चुके सिनेमाई माफ़ियावाद के विरुद्ध खड़ा होना होगा। नए भारत के सिनेमा को नया करना होगा। नई राह दिखानी होगी।
संजय तिवारी 

संस्थापक – भारत संस्कृति न्यास

वरिष्ठ पत्रकार    

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