राजा महेंद्र प्रताप उपाख्य पीटर पीर प्रताप



हमें आजादी मिली किन्तु “भिक्षां देहि” की तर्ज पर | आजादी के बाद सत्तासीन भी वे ही हुए, जो इसी मन्त्र का जाप करते थे | यही कारण रहा कि संघर्षशील और जुझारू क्रांतिवीरों की संघर्ष गाथा इतिहास के पन्नों में से गायब ही कर दी गई | क्या आज कोई कल्पना कर सकता है कि आजादी के पूर्व एक राजवंश में पैदा हुआ व्यक्ति ऐसा भी था, जिसने लगातार बत्तीस वर्ष निर्वासित जीवन जीते हुए, समूचे यूरोप और एशिया का दौरा किया, विभिन्न शासकों से संपर्क किया और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से भी बहुत पहले आजाद हिन्द सरकार की स्थापना की | समानांतर सरकार कायम करने के इस प्रयत्न को दुनिया ने हैरत से देखा | 

आइये आज उसी क्रांतिवीर के जीवन पर एक नजर डालें | ९ दिसंबर १८८६ को मुरसान में जन्मे महेंद्र प्रताप को ढाई वर्ष की उम्र में हाथरस के जाट राजा हरनारायण सिंह जी ने गोद ले लिया | वे वृन्दावन में रहते थे, तो स्वाभाविक ही इनका बाल्यकाल भी बृजभूमि में ही व्यतीत हुआ | आठ वर्ष के ही थे, तभी इनके पालक पिताजी स्वर्ग सिधार गए और नाबालिग होने के कारण इन्हें हाथरस का राजा तो घोषित कर दिया गया, किन्तु राज्य की व्यवस्था और जायदाद के प्रबंधन हेतु कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स की नियुक्ति हुई | प्रारंभिक शिक्षा के बाद अलीगढ़ के मुहम्मदन एंग्लो ओरिएंटल कोलेज से मेट्रिक और एफ.ए. करते समय ही, महेंद्र प्रताप जी के संघर्षपूर्ण जीवन का श्रीगणेश हो गया | एक पुलिस कांस्टेबल से विवाद हो जाने के कारण कोलेज के अंग्रेज प्रिंसिपल ने एक विद्यार्थी को तीन माह के लिए कोलेज से निकाल दिया, इस पर जबरदस्त छात्र आन्दोलन हुआ | इस आन्दोलन का और तो कोई विशेष परिणाम नहीं निकला, हां छात्र नेता मानकर महेंद्र प्रताप जी को अवश्य कोलेज से निष्कासित कर दिया गया |

पढाई छूटी तो विवाह हो गया और वह भी पंजाब के एक बड़े राज्य जीन्द के राजा की बहिन से | जीन्द अर्थात पंजाब की सबसे प्रमुख तीन फुलकियां रियासतों में से एक | आमोद प्रमोद के सभी सांसारिक साधन उपलब्ध होते हुए भी, देश की स्थिति इन्हें व्याकुल कर रही थी | आम जनता में फैली गरीबी, अशिक्षा कैसे दूर की जाए, यह समझने के लिए दुनिया के दूसरे देशों की यात्रा का निर्णय लिया और अपनी पत्नी के साथ १९०७ में यूरोप के कई देशों की यात्रा की | उन्हें उस समय समझ में आ गया कि रोजगार मूलक औद्योगिक शिक्षा ही विकास का मूलमंत्र है, जबकि हमारी सरकारों को यह समझने में वर्षों लग गए | १९०८ में वापस भारत आकर समाज हितैषी व बौद्धिक प्रतिभा के धनी महामना मालवीय जी और सर तेजबहादुर सप्रू जैसे लोगों से मिलकर विचार विनिमय किया | और फिर १९०८ में ही वृन्दावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की, जिसमें बिना किसी भेदभाव के सभी जाति व सम्प्रदाय के युवकों को बिना किसी खर्चे के औद्योगिक व यांत्रिक शिक्षा देना शुरू हुआ | देश में उद्योग धंधों के विकास का सूत्रपात करना ही मुख्य लक्ष्य था | विद्यालय में लोहार, बढई, कुम्हार जैसे कार्यों को औद्योगिक स्वरुप प्रदान कर ऊंची बौद्धिक शिक्षा व व्यापारिक कौशल का प्रशिक्षण दिया जाने लगा | स्नातकों को तंतुवाय, शिल्पकार और विश्वकर्मा जैसी उपाधि देने का निश्चय किया गया |

भारत में औद्योगिक क्रान्ति लाने के प्रति राजा साहब कितने दृढ प्रतिज्ञ व संकल्पित थे, इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उन्होंने २५ अगस्त १९१० को अपनी आधी जायदाद इस संस्था के नाम कर दी | इसके अतिरिक्त अपना राजमहल, कचहरी और उसके आसपास जमुना तट पर बने हुए काशी घाट के भवन आदि भी विद्यालय के नाम कर दिए | पांच अप्रैल १९११ से राजा महेंद्र प्रताप जी के संपादकत्व में एक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू हुआ, नाम था – प्रेम | प्राणिमात्र के प्रति असीम प्रेम भाव मन में संजोये राजा महेंद्र प्रताप तो मानो अपना सब कुछ देश और समाज पर निछावर करने को उद्यत थे | अपने अनुभव बांटने और दूसरों से सलाह मशविरा कर और क्या कुछ समाज हित में किया जा सकता है, इस हेतु राजा साहब ने समूचे देश की यात्रा की | उसके बाद १९११ में दुबारा यूरोप गए और अनेक देशों के विश्वविद्यालयों में जाकर उनकी कार्यपद्धति को समझा | उसके बाद फिर भारत लौटे | 

यह वह दौर था, जब सनातनियों और आर्यसमाजियों के बीच गंभीर मन मुटाव चल रहा था | आर्यसमाज की और से जब फर्रुखाबाद के गुरुकुल को वृन्दावन लाने की योजना बनी, तब राजा साहब ने अपना बगीचा उन्हें प्रदान किया गया, किन्तु साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि मैं हिन्दू होते हुए भी यह बगीचा इसलिए प्रदान कर रहा हूँ, क्योंकि मैं चाहता हूँ कि समाज हित में हम सब मिलकर काम करना सीखें | इतनी दो टूक और बेलाग बात केवल कोई शुद्ध हृदय का व्यक्ति ही कर सकता है | 

आर्यसमाज ही क्यों उन्होंने तो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को भी जमीन दान दी | उद्देश्य एक ही कि सभी समाज समरस रहें | १९१४ में जब विश्वयुद्ध की काली घटायें संसार पर छा रही थीं, तब राजासाहब ने देश की आजादी के लिए कुछ कर गुजरने की ठानी | विद्यार्थी काल की दबी विद्रोही भावना पुनः सर उठाने लगी | और फिर २० दिसंबर १९१४ को चल पड़े अपनी पत्नी बच्चों को छोडकर एक अनिश्चित परिणाम बाले अभियान पर | स्विट्जरलैंड पहुंचे तो इनकी भेंट प्रख्यात क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा व लाला हरदयाल जी से हुई | उनसे चर्चा के बाद तो मानो राजा जी परिव्राजक या यायावर ही हो गए | दुनिया भर के राजनेताओं और प्रमुख लोगों से मिलकर देश को स्वतंत्र कराना ही उनका मिशन बन गया | जर्मनी में कैसर से मुलाक़ात के बाद जर्मन चांसलर वेथवान हालवेग ने इन्हें भारत के २६ राजाओं के नाम पत्र लिख कर दिए, जिनमें उल्लेख था कि हिन्दुस्तान की आजादी के लिए जो भी उद्यम राजा जी करेंगे, उसको जर्मन सरकार का पूर्ण सहयोग प्राप्त होगा | उसके बाद तुर्की के सुलतान और काबुल में ओटोमन सम्राट और खलीफा से मिलकर हिन्दुस्तान की आजादी के लिए पूरा नैतिक समर्थन व शस्त्रास्त्रों की सहायता का आश्वासन दिया | यहाँ ही राजा जी ने 1 दिसम्बर, 1915 को भारत के लिए अस्थाई आजाद हिन्द सरकार की घोषणा की। इस सरकार में वह खुद राष्ट्रपति और मौलाना बरकत अली तथा मौलाना उबायदुल्ला सिन्धी इनके सहयोगी बने। अफगान सरकार की खातिरदारी में फरवरी १९१८ तक रहे |

इसकी प्रतिक्रिया होनी ही थी | भारत की ब्रिटिश हुकूमत ने कुंवर महेंद्र प्रताप की गतिविधियों को विद्रोह मानकर १ जुलाई १९१६ को उनकी जायदाद कुर्क कर ली | स्वाभाविक ही भारत से अब आर्थिक मदद आने की संभावना समाप्त हो गई, लेकिन इन सबसे बेपरवाह धुन के पक्के राजा साहब अपने अभियान में जुटे रहे | उस दौर में दुनिया का कोई प्रमुख व्यक्ति ऐसा नहीं था, जिससे राजा साहब न मिले हों | जर्मनी के कैसर हों, चाहे रूस के मोशिये लेनिन, काबुल के अमीर अमानुल्लाह खान से लेकर चीन के प्रेसीडेंट, दलाई लामा व शाह जापान से भी मिले | कुल लब्बो लुआब यह कि कभी बुडापेस्ट, तो कभी हंगरी, तो कभी चीन तो कभी जापान, लगातार राजनेताओं से संपर्क करते घूमते रहे, और तलासते रहे भारत की आजादी के सूत्र | इसी दौरान का एक बड़ा ही अद्भुत वाकया है | १९२६ में राजा महेंद्र प्रताप जी की भेंट जवाहर लाल नेहरू जी से हुई | नेहरू जी ने उस भेंट का जिक्र अपनी पुस्तक “मेरी कहानी” में जिस अंदाज में किया है, वह अद्भुत है | उन्होंने लिखा कि जिस भेष में राजा साहब घूम रहे थे, वह तिब्बत या साइबेरिया में तो जंच सकता है, मोंट्रियाल में तो कतई नहीं | यह सच भी था, क्योंकि यह राजवंशी निहायत फक्कड़ अंदाज में, कोई क्या कहेगा, इससे बेपरवाह, कभी घोड़े पर तो कभी पैदल दुनिया की ख़ाक छानता घूम रहा था | नेहरू जी ने इन्हें सपनों की दुनिया में बिचरने वाला लिखा | उस ज़माने के नेहरू जी ही क्यों, आज भी भारत में कम ही लोग उनके विचारों के समर्थन में हाथ उठाएंगे | जैसे कि उनका यह कहना –

मैं अब भिक्षु की तरह प्रेम के गीत गाता फिर रहा हूँ | मेरे विचार से सारा संसार एक बड़ा परिवार है और सब देश उसी के अंग प्रत्यंग हैं | तो क्या यह संभव नहीं कि सब मिलकर एक विशाल और संयुक्त परिवार बनाएं ? क्या हम प्रेम को अपनाकर शांति का आव्हान नहीं कर सकते ? अनेक राजनीतिज्ञ मुझे स्वप्नों की दुनिया में विचरने वाला बताते हैं | लेकिन जब देश विदेश की यात्रा करते हुए मैं करोड़ों आँखों को अपनी ओर आशा भरी द्रष्टि लगाए हुए देखता हूँ, तब मैं उनको ऐसा कहते अनुभव करता हूँ कि हे महेंद्र प्रताप, तुम्हारा मार्ग बिलकुल सही व दुरुस्त है | मैंने अपना नाम भी बदलकर पीटर पीर प्रताप रख लिया है, जिससे कि मेरे जन्म का नाम मेरे सब धर्मों की एकता के मार्ग में बाधक न बन जाए |

यूं तो यह भारतीय अवधारणा वसुधैव कुटुम्बकम का ही उद्घोष है, किन्तु नफ़रत भरी दुनिया इसे दिवा स्वप्न ही मानेगी | लेकिन उस दौर में राजा साहब के प्रभाव का अनुमान इसी बात से लग सकता है कि जब वे ९ अगस्त 1946 को भारत लौटे तो सरदार पटेल की बेटी मणिबेन उनको रिसीव करने मद्रास पहुँचीं। स्वतंत्र भारत में वे लगातार दो बार १९५२ और १९५७ में सांसद बने, फ्रीडम फाईटर एसोसियेशन के अध्यक्ष तथा जाट महासभा के अध्यक्ष भी रहे | २९ अप्रैल १९७९ को यह अनवरत साधक चिरन्तन में विलीन हो गया |

एक पुरानी कहावत है – एकै साधै सब सधे सब साधे सब जाए | ठेठ भाषा में कहें तो – जो स्वयं को सबका समझता है, उसका कोई नहीं होता | राजा साहब दो चुनाव लडे, पर दोनों बार निर्दलीय | इसी तर्ज पर, राजा महेंद्र प्रताप जी को भारत रत्न देने की मांग कर रहे वन्धुओं से मेरा एक ही निवेदन है - भारत रत्न मिलने और भारत रत्न होने में अंतर है | राजा साहब मां भारती के सच्चे पुत्र हैं, उनके विचारों के अनुरूप भारत निर्माण का हम संकल्प लें, यही उनको सच्ची श्रद्धांजली होगी | भारत रत्न तो वे हैं ही, सरकारें इसका क्या निर्णय करेंगी ?
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