गुरु पुत्रों का बलिदान, गुरू गोबिंदसिंह जी का महाप्रयाण



पिता गुरू तेगबहादुर के अंतिम संस्कार के बाद दशमेश गुरू गोबिंदसिंह के मन में एक ही विचार था, इस अन्याय अत्याचार का क्या कोई प्रतिकार नहीं होगा ? कौन करेगा बादशाह औरंगजेब का सामना ? समाज सोया हुआ है, वह सब कुछ देख सुनकर भी बस इस इन्तजार में है कि पाप का घड़ा भर जाने के बाद भगवान का कब अवतार होगा ? भगवान अवतार लेंगे और पापियों का विनाश कर देंगे, हमें तो बस इंतज़ार करना है अवतार का | संसार को मायाजाल मानकर ऐसे भक्तगण बस हरिभजन में व्यस्त थे | 

जाति पाति में बंटे हुए हिन्दू समाज में एकजुटता लाना सबसे बड़ी समस्या थी | मुगलों की दमनकारी नीतियों और नृशंस अत्याचारों के कारण स्थान स्थान पर विद्रोह की चिंगारियां तो उठ रही थीं, किन्तु कमी थी तो बस उनमें एकजुटता की | वृज क्षेत्र में गोकुला जाट का विद्रोह हो अथवा नारनौल के सतनामियों का संघर्ष, ये चिंगारियां उठ रही थीं और बिखर रही थीं | केवल महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महाराज अवश्य सफल हो रहे थे. क्योंकि उनके कार्यक्षेत्र से मुगलों का सत्ता केंद्र दूर था | जबकि काबुल और दिल्ली के मार्ग पर स्थित पंजाब तो लगातार कुचला जा रहा था | 

ऐसे में नौ वर्षीय दसम गुरू ने अपना मार्ग तय कर लिया, किशोरावस्था से युवा होते होते उन्होंने आने वाले सभी श्रद्धालुओं को केवल वीरव्रत का ही उपदेश दिया | समझाया कि मिथ्याचार, भेदभाव और आडम्बरों से मुक्त होकर एकजुट होने का संकल्प लें | युवावस्था में प्रवेश करते समय गुरू गोबिंदसिंह पहाडी राज्य सिरमौर के पांवटा नामक गाँव में लगभग तीन वर्ष रहे | यमुना के किनारे बसे इस गाँव में ही उन्होंने कृष्णावतार जैसा वृहत ग्रन्थ लिखा | उसके समापन पर उनका लिखा संकल्प पढ़ने योग्य है – 

दशम कथा भागौत की, भाखा करी बनाय, 

अवन वासना नहीं, प्रभु धरम जुद्ध की चाह | 

लोकभाषा में भागवत कथा लिख दी है, हे प्रभु अब कोई इच्छा शेष नहीं है, बस धर्मयुद्ध की चाह है | और उनका जीवन दर्शाता है कि उन्होंने अपने इस संकल्प को ही जीवनवृत बनाकर निभाया | लेकिन यह जानकर हैरत होती है कि समाज तो जागने लगा था किन्तु तत्कालीन राजाओं में चेतना नहीं आई | इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि पांवटा में रह रहे गुरू गोबिंदसिंह जी पर गढ़वाल के राजा फतह शाह ने आक्रमण कर दिया | कारण बस वही, अहंकार और अकारण का संदेह | फतहशाह की बेटी का विवाह कहिलूर के राजा भीमचंद के बेटे के साथ हुआ | सिखों का प्रमुख शक्ति केंद्र आनंदपुर भी कहिलूर राज्य के अंतर्गत ही आता था अतः राजा को सिक्खों की बढ़ती हुई शक्ति स्वयं के लिए खतरा प्रतीत होती थी | इसके अतिरिक्त सिक्ख गुरुओं का पिछली तीन पीढ़ियों से विरोध करते आ रहे आठवें गुरू हरिकृष्ण जी के बड़े भाई रामराय भी गढ़वाल के राजा फतहशाह के कृपा पात्र थे | इन दोनों ही कारणों से यह युद्ध हुआ, ऐसा माना जा सकता है, हालांकि गुरू गोबिंदसिंह जी ने अपनी पुस्तक विचित्र नाटक में इस युद्ध का तो वर्णन किया, किन्तु कारण का उल्लेख नहीं किया | इतिहासकार एक तीसरा कारण भी मानते हैं और वह यह कि नीची जातियों को कथित उच्च वर्ण के समान स्थान देने के सिख गुरुओं के प्रयत्न पहाडी राजाओं को सहन नहीं हो रहे थे | 

जो भी हो, युद्ध की संभावना को भांपकर गुरू जी पहले ही छः मील दूर सुरक्षित स्थान भंगाणी चले गए | इस युद्ध में उनका प्रमुख सेनापति संगो शाह, पहाड़ी राज्य के सेनानायक नजाबत खान को मारकर स्वयं भी शहीद हुआ | लेकिन अंततः गुरू गोबिंद सिंह जी द्वारा की गई वाणवर्षा से आक्रमणकारी सेना पराजित होकर भाग खडी हुई | यह गुरू गोबिंद सिंह जी का प्रथम युद्ध था | इसके बाद गुरूजी आनंदपुर लौटे और सावधानी वश चार किलों का निर्माण करवाया – लोहगढ़, आनंद गढ़, केश गढ़ और फ़तेहगढ़ | 

भंगाणी के युद्ध का सुपरिणाम भी निकला और पहाडी राजाओं ने सिखों की शक्ति को पहचान कर एक दूसरे से न लड़ने और मुगलों का मुकाबला संयुक्त रूप से करने की संधि कर ली | इतना ही नहीं तो इन राजाओं ने मुग़ल सल्तनत को कर देना भी बंद कर दिया | और फिर वह समय भी आया, जब मियाँ खां, अलिफ़ खां और जुल्फिकार खां क्र नेतृत्व में आई मुग़ल सेना को इस संगठित शक्ति से नादौन युद्ध में पराजित होना पड़ा | 

किन्तु जैसा होता आया है, जब हुसैन खान नामक एक सेना नायक विशाल सैन्य दल के साथ आया, तो यह एकता छिन्न भिन्न हो गई और गढ़वाल का राजा मधुकर शाह पराजित हुआ, और कहिलूर का राजा भीमचंद और कटोच का राजा कृपालचंद नजराना लेकर हुसैन खान से जा मिले | किन्तु इसके बाद भी गुलेर के राजा गोपाल चंद और सिक्खों ने मिलकर हुसैन खान को धूल चटा दी | हुसैन खान भी मारा गया | 

अब औरंगजेब को गुरू गोबिंदसिंह खतरा लगने लगे | वह स्वयं तो दक्षिण में व्यस्त था, अतः उसने अपने बड़े बेटे मुअज्जम को सेना लेकर भेजा | यही मुअज्जम आगे चलकर बहादुर शाह के नाम से औरंगजेब का उत्तराधिकारी बना | मुअज्जम स्वयं तो लाहौर में रुक गया, किन्तु अपने सेनापति मिर्जा बेग को उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों में भेजा | इस सेना ने गाँव के गाँव धूल में मिला दिए, पहाडी राजाओं को बुरी तरह कुचल दिया गया, किन्तु आनंदपुर सुरक्षित रहा | उसके बाद आया ३० मार्च सन १६९९ का वह ऐतिहासिक दिन जब बैसाखी के अवसर पर आनंदपुर में सिक्ख गुरूओं का विशाल शिष्य वर्ग एकत्रित हुआ | सम्पूर्ण भारत के ही नहीं, अफगानिस्तान और ईरान तक से शिष्य वहां पहुंचे थे | गुरू गोबिंदसिंह जानते थे कि आज भले ही शहजादा मुअज्जम बिना उनसे लडे वापस हो गया हो, किन्तु देरसबेर मुग़ल सत्ता से संघर्ष निश्चित है | कुछ समय के लिए साथ आये पहाडी राजा, हारने के बाद एक बार फिर बादशाह की शरण में पहुँच गए थे | अतः अब तो आध्यात्मिक चेतना से युक्त समाज में बलिदानी तेवर पैदा करना ही एकमात्र उपाय हो सकता है | वे यह भी जानते थे कि समाज का उच्च वर्ग यथास्थितिवादी होता है, वह सुविधाभोगी होने के कारण संघर्ष से भय खाता है | अतः उनकी द्रष्टि अब समाज के आम व्यक्ति पर थी | 

वैसाखी के उस पवित्र अवसर पर हजारों शिष्यों के सम्मुख हाथ में नंगी तलवार लेकर जब उन्होंने सीधा सवाल किया – है कोई ऐसा जो आज इसी क्षण धर्म के लिए अपने प्राण दे सके ? 

यह सुनते ही सन्नाटा छा गया | उन्होंने दूसरी बार अपनी बात दोहराई, तो मानो लोगों की साँसें भी थम गई, कोई सुई भी गिरे तो उसकी आवाज बम जैसी प्रतीत हो ऐसा सन्नाटा | जब तीखी आवाज में उन्होंने तीसरी बार अपनी बात दोहराई – है कोई ऐसा जो धर्म के लिए अपने प्राण दे सके ? 

तो लाहौर के खत्री दयाराम ने अपने स्थान पर खड़े होकर कहा – मैं प्रस्तुत हूँ | 

वे उसे बगल के खेमे में ले गए | एक खटाक की तेज आवाज हुई, और कुछ क्षण बाद गुरूजी रक्त से सनी तलवार हाथ में लेकर बाहर आये और पुनः गंभीरता से पूछा – कोई और शिष्य है जो धर्म के लिए अपने आप को प्रस्तुत कर सके | इस बार हस्तिनापुर के एक जाट धर्मदास ने अपने आप को प्रस्तुत किया | वे उसे भी साथ के खेमे में ले गये | लोगों ने फिर उसी तरह खटाक की तेज आवाज सुनी | गुरूजी फिर उसी प्रकार रक्तरंजित तलवार लिए बाहर आये और फिर वही सवाल दोहराया | एक के बाद एक तीन और लोगों ने अपने आप को समर्पित किया | एक थे द्वारका के धोबी मोहकमचंद, दूसरे जगन्नाथ पुरी के कहार हिम्मत राय और तीसरे थे बीदर के एक नाई साहबचंद | 

स्पष्ट ही यह एक परीक्षा थी, जिसमें देश के विभिन्न भागों से आये अतिशय साधारण ये पांच व्यक्ति पूरी तरह सफल हुए | गुरूजी ने इन पाँचों आत्मोत्सर्गियों को सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित किया और इन्हें एक नया संबोधन दिया – पंज प्यारे | इन पंजप्यारों में केवल एक खत्री था, शेष सभी उन वर्गों से थे, जिन्हें समाज में शूद्र कहा जाता था |उन्होंने उस दिन जिस खालसा पंथ की नींव रखी, वह समझने योग्य है | उन्होंने सर्वप्रथम इन पाँचों को दीक्षा दी और फिर इन पाँचों से स्वयं को दीक्षित करवाया | उन्होंने खालसा को गुरू का स्थान दिया और गुरू को खालसा का | उस समय अमृतपान करने के बाद उन्होंने यही उद्घोष किया – 

आपे गुरू आपे चेला, 

गुरू खालसा, खालसा चेला | 

अगले पंद्रह दिन में लगभग अस्सी हजार लोग इस नए मार्ग पर चलने को सन्नद्ध हुए और उन्होंने दीक्षा ली | गुरू जी ने आदेश दिया कि आज के बाद सभी खालसा अपने नाम के आगे सिंह शब्द लगायेंगे | इस प्रकार गुरूजी ने देखते ही देखते अपने विनीत शिष्यों को शेर बना दिया | गुरू गोबिंद सिंह ने सिखों में यह विश्वास उत्पन्न किया कि वे लोग ईश्वरीय कार्य करने हेतु उत्पन्न हुए हैं | उन्होंने यही उद्घोष करने को नया नारा दिया – 

वाहे गुरू जी दा खालसा, वाहे गुरू जी दा फतह | 

अर्थात खालसा ईश्वर का है और ईश्वर की विजय सुनिश्चित है | समाज के तथाकथित उच्च वर्ग में खालसा निर्माण की तीखी प्रतिक्रिया हुई | और उसका पहाडी राजाओं के व्यवहार के रूप में सीधा प्रगटीकरण हुआ | इन पांच राजाओं ने सन १७०० में दो मुग़ल सरदारों पेंदे खान और दीना बेग की मदद से आनंदपुर पर धावा बोल दिया | इस युद्ध में गुरूजी के बड़े बेटे अजीत सिंह ने अपार पराक्रम प्रदर्शित किया | फतहगढ़ के दुर्ग रक्षक उदयसिंह के हाथों जगातुल्लाह नामक मुग़ल सरदार मारा गया | आनंद पुर का मुख्य द्वार तोड़ने आये मदमस्त हाथी को विचित्र सिंह ने महज बरछी के प्रहारों से इतना विचलित कर दिया कि उसने अपनी ही सेना को रोंद डाला | गुरू गोबिंदसिंह के हाथों मुग़ल सरदार पैंदे खान मारा गया, तो उदय सिंह ने राजा केसरीचंद का सर काट लिया | दीना बेग घायल होकर भाग खड़ा हुआ | मात्र बीस हजार खालसा वीरों ने अस्सी हजार के संख्याबल को करारी शिकस्त दी | पहाडी राजा और मुग़ल सेना इसी प्रकार बार बार आती रही और हारती रही | 

किन्तु १७०३ मध्य में स्थिति विषम हो गई, जब विशाल मुग़ल सेना ने आनंदपुर को घेर लिया | घेरा आठ महीने तक डला रहा | दुर्ग में खाने पीने की भारी किल्लत हो गई | स्थिति यह बनी कि चार सिक्ख योद्धा किले से बाहर निकलते, दो युद्ध करते और दो किसी प्रकार थोडा बहुत पानी अन्दर ले जाते | इनमें से कभी दो मरते तो कभी तीन तो कभी चारों | मुग़ल सेनानायक बार बार गीता और कुरआन की सौगंध खाकर सन्देश भेजते रहे कि आप तो किला छोड़कर निकल जाओ, हम कुछ नहीं करेंगे | हमें तो केवल किला चाहिए | अंत में साथियों के लगातार आग्रह के बाद २१ दिसंबर १७०४ को गुरू गोबिंदसिंह जी ने अपनी बची हुई सेना और परिवार के साथ दुर्ग छोड़ा | अभी वे सरसा नदी के तट पर ही पहुंचे थे कि तभी अपनी सभी सौगंधों को तोड़कर शत्रु सेना आ गई | कुछ सिक्खों ने नदी किनारे मुग़ल सेना को रोका और गुरूजी अपने चालीस सैनिकों और दो पुत्रों उन्नीस वर्षीय अजीत सिंह और १४ वर्षीय जुझार सिंह के साथ चमकौर गढ़ी तक पहुँच गए | किन्तु दो छोटे बेटे ९ वर्षीय जोरावर सिंह और सात वर्षीय फतह सिंह अपनी दादी माता गूजरी के साथ इनसे बिछुड़ गए | इन तीनों को रसोईया गंगाराम अपने साथ अपने गाँव ले गया | किन्तु बाद में उसकी नीयत खराब हो गई और धन के लालच में उसने तीनों को सरहिंद के सूबेदार वजीर खान को सोंप दिया | 

चमकौर गढ़ी भी शत्रु सेना द्वारा घेर ली गई | गुरू गोबिंद सिंह, उनके दोनों बड़े पुत्रो और चालीस साथियों ने बड़ी वीरता पूर्वक युद्ध किया, गुरू गोबिंद सिंह के तीरों की मार से मुग़ल सरदार नाहर खान मारा गया | उनके दोनों पुत्रों अजीत सिंह और जुझार सिंह ने वीरगति पाई | अंत में २२ दिसंबर को एक बहादुर शिष्य संगतसिंह गुरू जी के वस्त्र पहनकर वाण बरसाता रहा, शत्रु उसे ही गुरू गोबिंद सिंह समझते रहे, तब तक अपने बचे हुए साथियों के साथ गुरू गोबिंद सिंह सुरक्षित दुर्ग से निकल गए | 

लेकिन सबसे अनूठा बलिदान तो चमकौर में हुआ | बजीर खान ने कब्जे में आये गुरू जी के दोनों मासूम बच्चों को इस्लाम स्वीकार करने को कहा लेकिन बच्चों द्वारा अस्वीकार करने पर २७ दिसंबर १७०४ को उन्हें जिन्दा दीवार में चिनवाना शुरू कर दिया | जिस समय छोटे भाई फतह सिंह की नाक तक दीवार पहुंची, बड़े भाई की आँखों में आंसू छलछला आये | बजीर खान को लगा कि बड़ा जोरावर कमजोर पड़ रहा है, अतः उसने पूछा – अभी भी समय है, मान जाओ और इस्लाम कबूल कर लो तो जान बच जायेगी | नौ वर्षीय जोरावर की आँखों से आंसू की जगह शोले बरसने लगे | बोले अरे हत्यारे तू क्या यह समझ रहा है, कि मैं मौत से डरकर आंसू बहा रहा हूँ | अरे दुष्ट ये आंसू तो इस दुःख के कारण आये हैं कि मेरा छोटा भाई मुझसे बाद में इस दुनिया में आया, किन्तु आज जब देश धर्म पर कुर्बान होने का अवसर आया तो यह मुझसे पहले कुर्बान हो रहा है | 

गुरू गोबिंद के बच्चे, उम्र में थे अभी कच्चे, 

मगर थे सिंह के बच्चे, धर्म ईमान के सच्चे | 

गरज कर बोल उठे थे यूं, सिंह मुख खोल उठे हों ज्यूं, 

नहीं हम रुक नहीं सकते, नहीं हम झुक नहीं सकते, 

कभी परबत झुके भी हैं, कहीं दरिया रुके भी हैं, 

नहीं रुकती रवानी है, नहीं झुकती जवानी है, 

हमें निज देश प्यारा है, हमें निज धर्म प्यारा है, 

पिता दशमेश प्यारा है, हमें गुरूग्रंथ प्यारा है, 

जोरावर जोर से बोला, फतहसिंह शोर से बोला, 

रखो तुम ईंट धरो गारे, चिनो दीवार हत्यारे, 

निकलती श्वांस बोलेगी, हमारी लाश बोलेगी, 

यही दीवार बोलेगी, हजारों बार बोलेगी, 

हमारे देश की जय हो, हमारे धर्म की जय हो, 

पिता दशमेश की जय हो, श्री गुरू ग्रन्थ की जय हो, 

बच्चों के बलिदान के बाद माता गूजरी ने भी बच्चों के शोक में प्राण त्याग दिए | 

उधर शत्रु से बचते बचाते गुरू गोबिंदसिंह दीना नामक स्थान पर पहुंचे, जहाँ अनेक शिष्य उनसे आ मिले, शक्ति संचय करते हुए वे खिदराना पहुंचे, जहाँ एक बार फिर सरहिंद के सूबेदार वजीर खान की सेना से युद्ध हुआ, जिसमें खालसा वीरों की जीत हुई और शत्रुसेना भागने को विवश हुई | इस युद्ध के बाद गुरू जी तलबंडी साबो पहुंचे, जिसे आज हम दमदमा के नाम से जानते हैं, यह स्थान सामरिक द्रष्टि से सुरक्षित था, अतः कुछ समय तक गुरूजी यहाँ रुके और पंजाब के इस मालवा क्षेत्र में अपने मत का प्रचार किया | कई राजवंश इस समय खालसा पंथ में दीक्षित हुए | यहाँ रहते समय ही गुरूग्रंथ साहब का संपादन कार्य भी संपन्न हुआ | इसीलिए इस स्थान को गुरू काशी या सिक्खों की काशी के नाम से जाना जाता है | यहाँ से ही गुरू गोबिंदसिंह जी ने औरंगजेब को वह ऐतिहासिक पत्र लिखा, जिसे जफरनामा कहा जाता है | फारसी भाषा में लिखे इस पत्र में कुल १११ शेर हैं | भाई दयासिंह ने अहमदनगर में यह पत्र औरंगजेब को दिया, और उस पत्र से प्रभावित होकर औरंगजेब ने यह आदेश प्रसारित किया कि गुरूजी को कोई कष्ट न पहुँचाया जाए | 

नांदेड में एक पठान ने विश्राम करते गुरू जी पर चाकू से हमला कर दिया, गुरूजी ने उसे तो तुरंत तलवार के वार से धराशाई कर दिया, किन्तु स्वयं भी घायल हो गए | पठान के दो अन्य सहयोगी शिष्यों के हाथों मारे गए | उस समय तो गुरूजी के घावों पर मरहम पट्टी कर दी गई और लगा कि वे सुरक्षित हैं, किन्तु तीन चार दिन बाद ७ अक्टूबर १७०८ को मध्य रात्री को उन्होंने सब शिष्यों को अपने पास बुलाया और अंतिम बार वाहे गुरू जी दी फतह कहकर संसार से विदा ले ली |
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें