छत्रपति संभाजी महाराज के अमर बलिदान उपरान्त जागृत महाराष्ट्र


महाराज राजाराम व उनकी जिन्जी यात्रा 

११ मार्च १६८९ को छत्रपति संभाजी महाराज की निर्दयता और क्रूरता पूर्वक हत्या करने के पश्चात मुगल कुछ अधिक ही उत्साहित हो गए थे । मराठा साम्राज्य को छिन्न भिन्न कर हिंदवी स्वराज्य को नींव से उखाड़ फेंकने के लिए औरंगजेब स्वयं दक्षिण में डेरा डाल कर बैठ चुका था । मुगल हिंदवी स्वराज्य के गढ ,कोट व चौकियों को एक-एक कर अपना ग्रास बनाते जा रहे थे । राजधानी रायगढ को भी औरंगजेब के सेनापति जुल्फिकार खान ने घेर लिया | ऐसे भयंकर और कठिनाइयों से भरे हुए समय में छत्रपति शिवाजी महाराज के दूसरे पुत्र राजाराम को राज्य की मंत्रिपरिषद ने अपना राजा नियुक्त किया। छत्रपति राजाराम महाराज ने भी बहुत ही बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने आप को साहू जी महाराज का प्रतिनिधि मानकर शासन करना आरंभ किया । निहित स्वार्थों को छोड़कर राष्ट्र के लिए काम करने के दृष्टिकोण से समकालीन इतिहास की यह बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है। 

सभी मंत्रियों और येसूबाई ने परामर्श दिया कि मुगलों को चकमा देते हुए राजाराम महाराज कर्नाटक स्थित जिंजी के किले में चले जाएं और वहां से मुगलों के विरुद्ध युद्ध जारी रखें । तदनुरूप राजाराम महाराज तो रायगढ से निकल गए किन्तु ३ नवम्बर १६८९ को संभाजी के सात वर्षीय पुत्र साहू जी व संभाजी की पत्नी येसूबाई को गिरफ्तार कर औरंगजेब की जेल में डाल दिया गया । 

औरंगजेब को उसके गुप्तचरों के माध्यम से यह जानकारी मिल चुकी थी कि राजाराम महाराज जिंजी की ओर जाने की तैयारी कर रहे हैं । अतः उसने दक्षिण के सभी संभावित मार्गों पर अपने थानेदार और सैन्यकर्मी नियुक्त कर दिये । इतना ही नहीं तो उसने पुर्तगाली वायसराय को भी सचेत कर दिया कि यदि राजा जिंजी जाने के लिए समुद्री मार्ग का उपयोग करें तो उन्हें जल मार्ग में घेरने का प्रयास किया जाए । फलस्वरूप महाराज राजाराम प्रतापगढ, सज्जनगढ, सतारा, वसंतगढ, पन्हाळगढ जहाँ जहाँ भी पहुंचे, मुगल सेना भी उनके पीछे लगी रही । 

26 सितम्बर 1689 को राजाराम महाराज एवं उनके सहयोगी लिंगायत वाणी का वेश धारण कर व घोड़ों पर सवार होकर सीधे दक्षिण की ओर न जाकर पहले उत्तर एवं तत्पश्चात पूर्व एवं तत्पश्चात दक्षिण की ओर गए । इतनी सतर्कता के बावजूद औरंगजेब की सेना वरदा नदी के निकट महाराज के पास तक पहुंच गई, तब रूपाजी भोसले एवं संताजी जगताप जैसे वीरों ने अपनी बरछियों द्वारा अपार पराक्रम दर्शाकर मुगलों को थाम लिया । राजाराम महाराज अपने वीर सेना नायकों और योद्धा साथियों के सहयोग से मुगलों को चकमा देकर अपनी यात्रा को निरंतर जारी रखे रहे । 

जिन रानी चेन्नम्मा का वर्णन सुधी पाठक विजय नगर साम्राज्य की गाथा में पढ़ चुके है, अंततः उनके सहयोग से राजाराम महाराज तुंगभद्रा के तट पर स्थित शिमोगा में सुरक्षित पहुंचे । लेकिन यहाँ भी एक दिन मध्यरात्रि को बीजापुर के सूबेदार सय्यद अब्दुल्ला खान के नेतृत्व में मुगल सेना की एक बडी टुकडी द्वारा उन पर आक्रमण कर ही दिया गया । सतर्क मराठा वीर भी अपने राजा की रक्षा के लिए युद्ध करने लगे। किन्तु साथ साथ उनकी सुरक्षा की चिंता भी थी | अतः युद्ध के दौरान ही योजना बनी और एक अन्य बहादुर सैनिक महाराज राजाराम के राजसी वस्त्र सेना का नेतृत्व करने लगा, जबकि महाराज बैरागी का वेश धारण कर वहां से निकल गए । अनेकों वीर योद्धा इस युद्ध में मारे गए ,जबकि अनेक बंदी बना लिए गए । उन बंदियों में राजाराम वेशधारी सैनिक भी था | सेना नायक अब्दुल्ला ने बड़ी प्रसन्नता से बादशाह औरंगजेब के पास यह संदेश भी भिजवा दिया कि उसने राजा को गिरफ्तार कर लिया है । परंतु कुछ ही समय बाद ही अब्दुल्लाह खान को अपनी गलती समझ में आ गई, किन्तु तब तक राजाराम बहुत दूर जा चुके थे । वे कभी बैरागी, कभी व्यापारी तो कभी भिखारी जैसे विभिन्न वेष बदल कर अपनी यात्रा जारी रखे हुए थे । बेंगलौर के नजदीक संदेह होने पर इनके खंडो बल्लाळ और अन्य साथी पकडे गए और उन पर अमानवीय और क्रूर अत्याचार हुए ताकि यह जाना जा सके कि राजाराम महाराज किधर गए हैं ? परन्तु ये गिरफ्तार लोग केवल यही कहते रहे कि — हम तो यात्री हैं, हमें कुछ पता नहीं। अंत में थानेदार को भी यह विश्वास हो गया कि यह लोग यात्री ही हैं और इन्हें राजाराम महाराज के बारे में कोई जानकारी नहीं है ।तब उसने उनको छोड़ दिया । 

सचमुच धन्य हैं हमारे ऐसे वीरयोद्धा जिन्होंने हिंदवी स्वराज्य के लिए इतने अमानवीय अत्याचारों को भी सहन किया । उधर महाराज राजाराम निरंतर अपने गंतव्य की ओर बढ़ते चले जा रहे थे । वे जानते थे कि इस समय उनके पकडे जाने का अर्थ है मराठा संग्राम की पराजय अतः इसी कर्तव्यबोध के साथ वह वीर योद्धा निरंतर अपने गंतव्य की ओर बढ़ता रहा । अंततः वे बंगळुरू के पूर्व की ओर 65 मील की दूरी पर अंबुर नामक स्थान पर पहुंचे, जो बाजी काकडे नामक मराठा सरदार के ही अधिकार में था । यहाँ पहुंचकर महाराज प्रकट रूप से अपनी सेना सहित वेलोर दुर्ग पहुंचे जहाँ अन्य सेनानायक भी आकर उनके साथ हो गए । इसके बाद वे उस अभेद्य जिंजी किले में पहुंचे जिसे स्वयं शिवाजी महाराज द्वारा बनवाया गया था । यदि इतिहास में गांधीजी की ‘दांडी यात्रा ‘ स्वतंत्रता के लिए की गई एक विशिष्ट और प्रसिद्ध यात्रा है तो राजाराम महाराज की यह जिंजी यात्रा क्यों चर्चित नहीं है, इस विचारणीय बिंदु को सुधी दर्शकों तक पहुंचाने के लिए ही इसका विषद वर्णन करने का प्रयास किया है | 

खैर जिंजी को अपनी राजधानी बनाकर राजाराम महाराज ने मुगलों के साथ आगामी संघर्ष की रूपरेखा बनाई | औरंगजेब ने जिंजी को अधिकार में लेकर राजाराम महाराज को बंदी बनाने हेतु जुल्फिकार खान को दायित्व सौंपा । वह निरंतर 8 वर्ष तक घेरा डाले पड़ा रहा , परंतु उसे सफलता नहीं मिली । इस अवधि में रामचंद्र पंडित, शंकराजी नारायण, संताजी, धनाजी जैसे योद्धाओं ने राजाराम महाराज के नेतृत्व में मुगलों के साथ कड़ा संघर्ष किया और नाशिक से लेकर जिंजी तक मराठी सेना स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करने लगी । परंतु शत्रु के साधन असीमित थे और हमारे योद्धाओं के पास सीमित साधन थे । अतः 1697 में जुल्फिकार खान जिन्जी जीतने में सफल तो हुआ, किन्तु इस बार भी राजाराम महाराज वहां से पहले ही सुरक्षित निकल गए । 

राजाराम महाराज समूचे महाराष्ट्र में मुगलों के विरुद्ध धूम मचाते घूम रहे थे और मुगल उन्हें गिरफ्तार करने में अपने आप को अक्षम और असमर्थ पा रहे थे । बाद के दिनों में उन्होंने सतारा को अपनी राजधानी बनाया । किन्तु अंततः मुग़लों से सतत युद्ध करते हुए महाराज राजाराम ने 30 वर्ष की अल्पायु में ही ऐतिहासिक सिंहगढ़ दुर्ग पर 12 मार्च, 1700 ई. को मृत्यु का वरण कर लिया। 

शम्भा जी महाराज की नृशंस हत्या व उनके समूचे परिवार की गिरफ्तारी के बाद मुगलों को प्रतीत हुआ था कि अब मराठा शक्ति पूर्ण रूप से विध्वंस हो गई। परन्तु वह भावना, जिससे शिवाजी ने अपने लोगों को प्रेरित किया था, इतनी आसानी से कहाँ नष्ट हो सकती थी। राजाराम महाराज भारत के इतिहास में अमर रहेंगे। क्योंकि उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी भी अपने पूर्वजों की पताका को झुकने नहीं दिया और स्वतंत्रता व स्वराज्य के लिए जिस प्रकार उनके पूर्वजों ने संघर्ष किया था ,उसी संघर्ष की ध्वजा को लिए वह आगे बढ़ते रहे । उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक भारत की स्वतंत्रता और स्वराज्य के लिए संघर्ष किया और इन्हीं दोनों आदर्शों के लिए अपने जीवन को होम कर दिया । 

बालाजी विश्वनाथ बने पेशवा 

आज महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले का छोटा सा शहर श्रीवर्धन सतरहवीं सदी में जन्जीराबाद के सिद्दीकी सरदार कासिम खां के अधीन था | और एक चितपावन ब्राह्मण विश्वनाथ भट्ट परगने के तहसीलदार थे | विश्वनाथ के देहांत के बाद उनके चार पुत्रों में से एक जनार्दन उपाख्य जानोजी उनके स्थान पर कार्य करने लगे, और दूसरे नंबर के पुत्र बालाजी ने चिपलून ताल्लुके में कर बसूलने की जिम्मेदारी ली | तब किसको पता था कि सिद्दियों का यह साधारण कर्मचारी आगे चलकर इतिहास पुरुष बनने वाला है | अपनी पतिव्रता, दूरदर्शी और चतुर सुजान पत्नी राधाबाई के साथ बालाजी के दिन सुख पूर्वक बीत रहे थे | १८ अगस्त १७०० में एक बालक की किलकारियां भी घर आँगन में गूंजने लगीं, माता पिता ने अपनी इस पहली संतान का नाम रखा बाजीराव | लेकिन तभी इस सुखी परिवार पर बज्रपात हुआ | 

हुआ कुछ यूं कि १६९८ में कान्होजी आंग्रे द्वारा मराठा नौसेना की कमान संभालने के बाद स्थिति बदल गई | समुद्र पर अभी तक चलने वाला सिद्दीकी का दबदबा कम होने लगा और आंग्रे के नेतृत्व में गठित मराठा नौसेना के साथ उसके आये दिन संघर्ष होने लगे | १७०४ में श्रीवर्धन के इस भट्ट वंश को आंग्रे का सहयोगी मानकर उसका गुस्सा फूट पड़ा | उसने पूरे परिवार को बंदी बना लेने का आदेश दे दिया | परिवार के मुखिया जनार्दन जी को हाथ पैर बांधकर एक बक्से में बंद कर समुद्र में फेंक दिया गया | जबकि बालाजी पूर्व सूचना पाकर किसी तरह बचकर बांगकोट के दक्षिण में स्थित बयलास ग्राम पहुँच गए, जहाँ उनके एक मित्र हरि महादेव भानू निवास करते थे | लेकिन इसके पूर्व कि ये दोनों मित्र किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँच पाते, ये लोग कासिम खां के सिपाहियों की गिरफ्त में आ गए और सपरिवार अंजनबेल नामक दुर्ग में पहुंचा दिए गए | लेकिन कठिनाईयों में साहस न छोड़ना ही तो महान व्यक्तियों का लक्षण होता है, इन लोगों ने हिम्मत नहीं हारी और किसी प्रकार दुर्गपाल को अपने पक्ष में कर बहां से मुक्त हो गए | मुक्त होकर ये लोग सासबाड के एक सज्जन आबाजीपन्त पुरंदरे की मदद से तत्कालीन मराठा राजधानी सतारा पहुँच गए, जहाँ उनका भाग्य सूर्य उदय होने की प्रतीक्षा कर रहा था | उस समय देश की दशा अत्यंत ही दयनीय थी | टिड्डीदल के समान औरंगजेब की सेनायें पूरे महाराष्ट्र को रोंद रही थीं | १७०० में महाराज राजाराम के देहांत के बाद उनकी पत्नी ताराबाई ने सत्तासूत्र संभालकर संघर्ष की कमान थामी हुई थी | 

छत्रपति शम्भाजी के पुत्र साहूजी व उनकी मां येशूबाई औरंगजेब की कैद में थे | शम्भाजी की नृशंस हत्या के बाद महाराष्ट्र में उपजे जनाक्रोश से भयभीत औरंगजेब ने साहूजी की हत्या का साहस तो नहीं किया, किन्तु चतुरता पूर्वक उन्हें बहला फुसला कर मुसलमान बना लेने का प्रयत्न भी नहीं छोड़ा | वह प्यार से उन्हें साधू जी कहा करता था | किन्तु तरुण साहूजी उसके झांसे में नहीं आये और मुसलमान बनने को कतई तैयार नहीं हुए | कतिपय इतिहासकार शाहू जी की जीवनरक्षा का श्रेय औरंगजेब की इकलौती बेटी जेबुन्निसा को देते हैं, जो संभवतः शाहू जी के सम्मोहक व्यक्तित्व से प्रभावित हो गई थी | कुछ लोग उसका नाम बुंदेलखंड के प्रतापी महाराज छत्रसाल के साथ जोड़ते हैं, तो कुछ उसे कृष्ण दीवानी मानते हैं | जो भी हो एक बात पर आम सहमति है कि वह शहजादी आजीवन अविवाहित रही | 

२० फरवरी १७०७ को औरंगजेब दुनिया से उठ गया और ५ मार्च १७०७ को घमासान सत्ता संघर्ष के बीच आजम खां ने स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया | इसी दौरान बालाजी विश्वनाथ ने कई बार गुप्त रूप से शाहूजी से भेंट की और किसी प्रकार आजम शाह से मिलने की व्यवस्था भी जमाई व उसे समझाया कि अगर वह साहूजी को मुक्त कर देता है तो वे ताराबाई की तुलना में उसके अधिक सहयोगी हो सकते हैं | बालाजी तो किसी प्रकार से शाहूजी की मुक्ति के उद्देश्य से यह कूटनीति चल रहे थे, किन्तु मुख्य मुग़ल सेनापति जुल्फिकार खां का यथार्थ में ही मानना था कि महाराष्ट्र की समस्या से तभी निजात मिल सकती है, जब साहू जी और ताराबाई के बीच सत्ता संघर्ष हो | अगर आपस की लड़ाई में मराठा कमजोर होंगे तो स्वाभाविक ही मुग़ल सल्तनत को लाभ होगा | परिस्थितियां भी ऐसी बनीं कि आजम इस सलाह को मानने के लिए विवश हो गया, क्योंकि उसका बड़ा भाई शाह आलम लाहौर पर कब्जा ज़माने बढ़ा चला आ रहा था, उससे निबटना शाह आलम की स्वाभाविक प्राथमिकता थी | अतः बात आजम को जम गई, व उसने साहू जी को तो मुक्त कर दिया, किन्तु जमानत के तौर पर उनकी मां को अपनी कैद में ही रखा | 

संभवतः ईश्वर ने केवल साहू जी को मुक्त कराने हेतु ही आजम खां को कुछ समय के लिए सम्राट बनाया था, क्योंकि ८ जून १७०७ को ही आगरा के समीप जाजऊ में शाह आलम ने उसे खुदागंज पहुंचा दिया और बहादुरशाह के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठ गया | उसके बाद ३ जनवरी १७०९ को हैदराबाद के समीप एक युद्ध में अपने एक और छोटे भाई कामबख्स को मारकर १७ फरवरी १७१२ को खुद भी अल्लाह को प्यारा हो गया | औरंगजेब के खानदान में कोई नहीं बचा | इसीलिए हमारे यहाँ कहा गया है – बुरे काम का बुरा नतीजा | बहुत से अक्लमंद आज भी औरंगजेब को प्यार करते हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि ईश्वरीय न्याय ही अंतिम होता है | 

मुगलों की कैद से मुक्त होने के बाद जब शाहूजी महाराज वापस महाराष्ट्र पहुंचे तो रणांगिनी ताराबाई, जिन्होंने अपने पति महाराज राजाराम की मृत्यु के बाद मराठा संघर्ष की बागडोर थाम रखी थी, उन्हें महाराज मानने को तैयार नहीं हुईं | क्योंकि उनका मानना था कि अब जो राज्य है वह उनके पति महाराज राजाराम के पराक्रम से अर्जित है, जिस पर स्वाभाविक ही उनके पुत्र का हक़ और अधिकार है | मराठा सरदारों में भी फूट पड़ चुकी थी और धनाजी जाधव, कान्होजी आंग्रे, दामाजी खेराट, उदयजी चौहान, कृष्णराव खटावकर सहित कई बड़े सरदार ताराबाई के साथ थे | खेड में महारानी ताराबाई व शाहूजी की सैन्य मुठभेड़ हुई, किन्तु उसके पूर्व ही खंडो बल्लाल और बालाजी विश्वनाथ के प्रयत्नों से ताराबाई के सेनानायक धनाजी जाधव शाहू जी के पक्ष में आ गए | परिणाम स्वरुप महारानी ताराबाई की पराजय हुई | १२ जनवरी १७०८ को अंततः सतारा में शाहूजी का विधिवत राज्याभिषेक हुआ | 

महाराज शाहू जी की आज्ञा से बालाजी विश्वनाथ – कृष्णराव खटावकर से, सचिव नारायण शंकर – दामाजी खेराट से और पेशवा भैरवपन्त पिंगले – कान्होजी आंग्रे से दोदो हाथ करने को रवाना हुए | इन तीनों में से केवल बालाजी विश्वनाथ को ही सफलता मिली, जबकि शेष दोनों अपने प्रतिद्वंदियों से पराजित होकर उनके बंदी हो गए | पेशवा पिंगले की गिरफ्तारी से शाहू जी अत्यंत आक्रोष में आ गए और स्वयं कान्हो जी आंग्रे को सबक सिखाने को उद्यत हुए, किन्तु बालाजी ने समझाया कि कान्होजी जैसे प्रतापी योद्धा से अगर उनकी पराजय हुई तो बहुत अहितकर होगा अतः किसी अन्य को भेजा जाए, जिस पर आंग्रे से संधि करने के भी अधिकार हों | शाहूजी को बात समझ में आ गई और उन्होंने १६ नवम्बर १७१३ को बालाजी विश्वनाथ को ही पेशवा नियुक्त कर कान्होजी आंग्रे से निबटने को भेजा | चतुर बालाजी ने युद्ध के स्थान पर देश काल परिस्थिति का हवाला देते हुए एक भावना प्रधान पत्र कान्होजी को भेजा | उस पत्र ने अपेक्षित प्रभाव डाला और कान्होजी आंग्रे का ह्रदय परिवर्तन हो गया और वे शाह जी के पक्ष में आने को तत्पर हो गए | शाहजी और आंग्रे के बीच संधि हुई और बंदी पेशवा भैरवपंत मुक्त हुए | व्यक्ति परखने में माहिर शाहजी ने आंग्रे को अपनी नौसेना का प्रमुख सरखेल बनाकर दस दुर्ग और सोलह गढ़ी का अधिष्ठाता बना दिया | 

आज भी देश में मुझ जैसे बहुत से लोग हैं, जो शाहूजी महाराज और महारानी ताराबाई के प्रति समान आदर भाव रखते हैं | विचार कीजिए कि इन दोनों के संघर्ष काल में महाराष्ट्र के आमजन व सरदारों के सम्मुख कैसा धर्मसंकट रहा होगा | इसका सबसे बड़ा उदाहरण है शंकर जी नारायण | मुक्त होने के बाद जिस समय शाहू जी सतारा की तरफ जा रहे थे, राहिडागढ़ में रहने वाले ताराबाई के सचिव शंकर जी नारायण ने उनका समर्थन या विरोध करने के स्थान पर विषपान कर लिया | जानकारी मिलने पर शाहूजी स्वयं उसके घर गए व उसकी पत्नी को सांत्वना देते हुए उसके महज एक वर्षीय पुत्र को ही पिता के स्थान पर सचिव नियुक्त कर दिया | उनकी इस उदारता ने समूचे अंचल के मावलों मराठों का दिल जीत लिया | तो ऐसा धर्म संकट था उस दौर के बहादुर मराठा सरदारों के सम्मुख | बहुत से लोग थे जो ताराबाई के संघर्ष को आदर देते थे, किन्तु उनका महिला होना तथा पुत्र शिवाजी का अल्पायु होना उनके नेतृत्व को स्वीकार करने के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा था | संभवतः इसीलिए शाहू जी को सफलता मिलती गई | 

महारानी ताराबाई शाहू जी से पराजित होने के बाद पहले मल्हारगढ़ गईं और बाद में कोल्हापुर को अपनी राजधानी बनाकर शाहू जी को चुनौती देती रहीं, किन्तु जल्द ही उनके दुर्भाग्य ने उनकी सारी महत्वाकांक्षाओं पर पानी फेर दिया | १७१४ में महाराज राजाराम की दूसरी पत्नी राजसबाई व उनके पुत्र शम्भाजी द्वितीय ने विद्रोह कर ताराबाई व उनके पुत्र शिवाजी द्वितीय को कारावास में डाल दिया और स्वयं को राजा घोषित कर दिया और कोल्हापुर उसके अधीन हो गया | इस प्रकार एक क्रियाशील और जुझारू महिला के कार्यकाल का दुखद अंत हुआ | लेकिन उसके साथ ही सरदारों का धर्मसंकट भी समाप्त हो गया और शाहू जी महाराष्ट्र के एकछत्र नायक बन गए | नवनियुक्त पेशवा की प्राथमिकता अब दिल्ली के बंदीगृह से महाराज शाहू जी की मां येशूबाई व उनके अन्य परिजनों को मुक्त कराना व राजकोष की व्यवस्था करना था | 

उधर १७ फरवरी १७१२ को औरंगजेब के पुत्र बहादुरशाह की मृत्यु के बाद दिल्ली में भी लगातार उथल पुथल चलती रही | मीर बख्शी जुल्फिकार खाँ की मदद से जहांदार शाह अपने तीन भाईयों अजीम-अल-शान, जहानशाह और रफी-अल-शान को मारकर 29 मार्च 1712 को गद्दी पर बैठा । जहांदार शाह अत्यंत विलासी और निकम्मा शासक साबित हुआ, जो हमेशा लालकुंवर नामक वेश्या के साथ भोग विलास में रमा रहता था | उसने शासन की कुंजी एक प्रकार से लालकुंवर के हाथों में ही सौंप दी थी |. अप्रैल 1712 में उसके भतीजे फर्रुख्सियर ने उसके खिलाफ विद्रोह कर दिया और बहुचर्चित सैयद बंधुओं अब्दुल्लाखाँ और हुसेन अलीखाँ शाह के साथ पटना से दिल्ली के लिए कूच किया | 10 जनवरी 1713 को आगरा के नजदीक फर्रुख्सियर और जहादार्शाह की सेना के बीच युद्ध हुआ जिसमें फर्रुख्सियर से पराजय के बाद वह अपनी दाढी मूंछ मुडवा कर छिपता छिपाता एक बैलगाड़ी पर बैठ कर दिल्ली भाग गया | दिल्ली में उसने जुल्फिकार खाँ के पिता असद खान से सहायता माँगी लेकिन असद खान ने उसे गिरफ्तार कर फर्रुख्सियर को सौंप दिया और 11 फरवरी 1713 को उसकी ह्त्या कर दी गई । इतिहासकारों ने इसे लम्पट मुर्ख की उपाधि प्रदान की । और इस प्रकार फर्रुख्सियर मुग़ल सम्राट बना | लेकिन वह भी नाममात्र का बादशाह था, असली ताकत सैयद बंधुओं के हाथ में थी | 

आखिर सत्ता के दो केंद्र कब तक चलते, जल्द ही सैयद बंधुओं और फर्रुखसियर के बीच भी मनमुटाव बढ़ने लगा | फर्रुखसियर ने अपनी ताकत बढाने और सैयद बंधुओं की ताकत घटाने के लिए दक्षिण से निजामउलमुल्क को दिल्ली बुला लिया और सैयद हुसैन अली को सूबेदार बनाकर वहां भेज दिया | फर्रुखसियर की योजना थी कि गुजरात के सूबेदार दाउद खान और मराठाओं की मदद से सैयद हुसैन अली को ख़त्म करवा दिया जाए | लेकिन उसे दुतरफा नुक्सान हुआ | एक तो निजाम उलमुल्क उसका सहयोगी होने के बजाय दक्षिण से हटाये जाने से नाखुश हुआ, बहीं २६ अगस्त १७१५ को सैयद हुसैन और दाऊद खां के बीच बुरहानपुर के नजदीक हुए युद्ध में चतुर पेशवा बालाजी ने मराठा सेना को तटस्थ रखा और दाऊद खां मारा गया | इसके साथ ही बादशाह से सशंकित दोनों सैयद बन्धु मराठाओं की मित्रता प्राप्त करने को आतुर हो उठे | शंकर जी मल्हार नामक एक मध्यस्थ के माध्यम से दोनों के बीच एक संधि पत्र का मसौदा तैयार हुआ, जिसमें बंधक बनाकर रखे गए छत्रपति शाहू जी की मां येसूबाई, पत्नी सावित्री बाई, भाई मदनसिंह और अन्य परिजनों की रिहाई के अतिरिक्त छत्रपति शिवाजी महाराज के स्वराज्य में सम्मिलित समस्त क्षेत्र पर मराठा अधिकार को मान्य करना तथा दक्षिण के छः मुग़ल सूबों से चौथ व सर्देशमुखी बसूलने का अधिकार शामिल था | बदले में पंद्रह हजार मराठा सेना हर समय सम्राट की मदद को उपलब्ध रहेगी, यह उल्लेख था | १ अगस्त १७१८ को यह संधि पत्र तैयार कर सम्राट की और भेजा गया | 

लेकिन जब इस संधिपत्र को लेकर बादशाह फर्रुखसियर की कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई तो जून १७१९ में मराठा सेनापति खांडेराव दाभाडे १५ हजार की सेना लेकर औरंगावाद पहुँच गए | इस अभियान में पेशवा बालाजी विश्वनाथ व उनके युवा पुत्र बाजीराव के अतिरिक्त तुकोजी पंवार, राणोजी सिंधिया, संताजी भोंसले, नारो शंकर, आदि भी साथ थे | मजे की बात यह कि इस अभियान के दौरान सैयद बंधुओं की ओर से ही प्रतिदिन प्रतिसैनिक पारिश्रमिक प्राप्त होता था | यह एक प्रकार से सैयद बंधुओं की बादशाह के खिलाफ खुली बगावत थी, जिसमें मराठा भी उसके सहयोगी थे | बालाजी ने चतुरता से राजस्थान के सभी राजपूत राजाओं को भी साध लिया था, अतः वे सम्राट के साथ आने के स्थान पर या तो तटस्थ रहे या सैयद बंधुओं के सहयोगी बन गए | 

२८ फरवरी को राजधानी दिल्ली में हुए संघर्ष में लगभग दो हजार मराठा सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए, किन्तु सम्राट को कारागार में पहुँचा दिया गया, जिसे सैयद बंधुओं द्वारा दो माह बाद क़त्ल कर दिया गया | उसके बाद दो शहजादे थोड़े थोड़े समय के लिए राजगद्दी पर बैठे और अंत में मुहम्मद शाह बादशाह बना जिसने बाद में १७४८ तक शासन किया | 

३ मार्च १७१९ को संधिपत्र पर हस्ताक्षर हुए, और बीस मार्च को मराठा सैन्य दल वापस महाराष्ट्र को रवाना हुआ | जुलाई के प्रारम्भ में जब यह दल सतारा पहुंचा तो बहुत आगे बढ़कर शाहू जी ने उनका भव्य स्वागत किया | बारह वर्षों बाद हुए मां बेटे के मिलन ने सभी को भावुक बना दिया था | पेशवा बालाजी का यह अंतिम कारनामा था, उसके बाद २ अप्रैल १७२० को उनका स्वर्गवास हो गया | उस समय मराठा शक्तियों के जेहन में केवल एक ही प्रश्न बार-बार आ रहा था कि क्या स्वर्गवासी पेशवा का मात्र १९ वर्षीय गैर-अनुभवी पुत्र बाजीराव इस सर्वोच्च पद को सँभाल पाएगा? 

लेकिन मानवीय गुणों की परख के महान जौहरी महाराजा शाहू ने इस प्रश्न का उत्तर देने में तनिक भी देर नहीं लगाई। उन्होंने तुरंत ही बाजीराव को नया पेशवा नियुक्त करने की घोषणा कर दी और १७ अप्रिल १७२० को बाजीराव सभी शाही औपचारिकताओं के साथ नए पेशवा नियुक्त हो गए । 

पेशवा बाजीराव

२०१९ में बहादुर शाह को भले ही सैयद बंधुओं ने ही बादशाह बनाया था, किन्तु वह अपने पूर्ववर्तीयों की परंपरा को कैसे छोड़ता ? उसने भी फर्रुखशियर के ही समान इन दोनों भाईयों से पीछा छुड़ाना चाहा और निजाम के बिद्रोह को कुचलने के बहाने ११ सितम्बर १७२० को सैयद हुसैन अली को साथ लेकर आगरा से रवाना हुआ, किन्तु मार्ग में ही ८ अक्टूबर १७२० को उसकी हत्या करवा दी | मुहम्मद शाह बंगश के साथ बादशाह वापस दिल्ली लौटा और अकेले रह गए अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया, और दो वर्ष उपरांत ११ अक्टूबर १७२२ को उसकी हत्या भी करवा दी | 

ऐसी परिस्थितियों में बाजीराव के लिए मुख्य चुनौती था दक्षिण में मुग़ल सत्ता का सूबेदार निजामउलमुल्क | शाहू जी के चचेरे भाई शम्भा जी ने निजामउलमुल्क के साथ मिलकर पूना पर हमला किया और आसपास के दुर्गों को भी जीत लिया | इतना ही नहीं तो फरवरी १७२७ में पूना में ही रामनगर के सिदौदिया वंश की एक कन्या से विवाह भी किया और स्वयं को छत्रपति घोषित कर दिया | बाजीराव के पास निजाम की तरह कोई बड़ा तोपखाना नहीं था, लेकिन वह उस छापामार युद्ध शैली में निष्णात था, जिसके बल पर शिवाजी ने अपार सफलता पाई थी | बाजीराव ने पूना की चिंता छोड़कर यह प्रचारित किया कि वह बुरहानपुर लूटने जा रहा है | इस बीच पेशवा के भाई चिमना जी अप्पा व शाहू जी ने पुरंदर के गढ़ में अपना स्थान जमा लिया | निजाम बुरहानपुर को संकट में देखकर पूना छोड़ने को विवश हो गया, इतना ही नहीं तो गोदावरी नदी पारकर शीघ्र औरंगावाद पहुँचने की कोशिश में उसका तोपखाना भी पीछे छूट गया | २५ फरवरी को निजाम को समझ में आया कि उसकी स्थिति तो पालखेड के समीप दुर्गम पहाडी स्थान में किसी चूहेदानी में फंसे चूहे जैसी हो गई है | बाजीराब, मल्हार राव होल्कर और अन्य मराठा सरदारों ने उसके पास रसद तो रसद पानी पहुंचना भी असंभव कर दिया | स्थिति की गंभीरता को समझकर निजाम ने घुटने टेक दिए | उसके बाद एक संधिपत्र पर हस्ताक्षर हुए, जिसमें स्वाभाविक ही शाहू जी को स्वराज्य तथा सरदेशमुखी के अधिकार तो थे ही, शम्भा जी को भविष्य में कोई मदद न देने की शर्त भी थी | 

पालखेड के इस अभियान ने मराठा स्वत्व को पूरी तरह स्थापित कर दिया | बाजीराव की युद्ध नीति ने उस समय के सर्वोपरि रणकुशल व्यक्ति को पराजित किया था, जो आयु में उससे तीस वर्ष से अधिक बड़ा था | समाचार मिलते ही शम्भाजी भी पूना छोड़कर अपना सा मुंह लेकर वापस कोल्हापुर तो लौट गए, लेकिन उसकी ईर्ष्या का अंत नहीं हुआ और क्रोध भी भड़कता रहा | शाहू जी ने उन्हें पत्र लिखकर समझाया भी कि हम दोनों उस परिवार के घटक हैं, जिसने हिन्दूपदपादशाही की स्थापना की | आपके द्वारा मुगलों का सहयोग लेना अशोभनीय है | अगर आपको अपना राज्य ही निर्माण करना है, तो हम लोग क्षेत्र बाँट सकते हैं | लेकिन शम्भाजी पर इस समझाईस का कोई प्रभाव नहीं हुआ, उलटे उन्होंने १७३० में आखेट के दौरान शाहू जी की हत्या का षडयंत्र रचा | क्रोधित शाहू ने पहली बार उन पर आक्रमण करने का आदेश दिया और वारणा नदी के तट पर सेनापति त्रम्ब्यक राव दाभाडे ने शम्भाजी के शिविर को न केवल नष्ट कर दिया, बल्कि परिवार की महिलाओं को भी पकड़ लिया | इनमें शम्भाजी की पत्नी जीजाबाई व चाची महारानी ताराबाई भी थीं | एक बार फिर शाहूजी की उदारता प्रगट हुई और उन्होंने सभी महिलाओं का सादर सम्मान किया और उन्हें सकुशल शम्भाजी तक पहुंचाने की व्यवस्था की | किन्तु महारानी ताराबाई जो कि स्वयं अब तक शम्भाजी की कैद में ही थीं, उन्होंने शाहूजी के ही साथ रहने की इच्छा व्यक्त की | शाहूजी ने सहर्ष अनुमति तो दी, किन्तु उनपर प्रतिबन्ध भी जारी रखे | 

इस सद्भाव का अपेक्षित परिणाम निकला और २७ फरवरी १७३१ को सतारा से ३० किलोमीटर दूर कृष्णा नदी के तट पर जाखिनबाडी नामक गाँव में दोनों परिवार मिले | सौजन्य का सार्वजनिक प्रदर्शन हुआ और इस प्रकार गृह युद्ध समाप्त हुआ, पूरे महाराष्ट्र में हर्ष की लहर दौड़ गई | संधिपत्र के अनुसार कृष्णा नदी से तुंगभद्रा नदी के बीच का क्षेत्र शम्भाजी के अधिकार में दिया गया, और उत्तर में सीमा बिस्तार हेतु शाहूजी अधिकृत हुए | 

बाजीराव की प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाला और मराठा साम्राज्य की जड़ें उत्तर भारत में पुख्ता करने वाला सबसे महत्वपूर्ण प्रसंग है बुंदेलखंड के वृद्ध महाराज छत्रसाल का वह सन्देश जिसमें उन्होंने लिखा था - 

जो गति भई गजेंद्र की, वही गति हमरी आज। 

बाजी जात बुंदेल की, बाजी रखियो लाज ॥ 

दरअसल प्रतापी किन्तु वृद्ध महाराज छत्रसाल रुहेले मोहम्मद खान बुंगश के खिलाफ बचाव की मुद्रा में आ गए थे | सन्देश मिलते ही बाजीराव तुरंत २५ हजार सैनिकों के साथ महोबा पहुँच गए | बुंगश ने मराठा सेना को आया देखकर अपने पुत्र कायम खान को भी बुला भेजा | कुशल रणनीति कार बाजीराव ने पिता को छोड़ा और पुत्र को रास्ते में ही जा घेरा | उसकी सेना में केवल सौ सैनिक बचे शेष सब काल के गाल में समां गए | उसके बाद तो छत्रसाल और बाजीराव के संयुक्त सैन्य दल ने बंगश की पूरी गत बना दी | उसके ३ हजार घोड़े और १३ हाथी सहित अनेक बहुमूल्य आभूषण कब्जे में आये और उसने लिखित प्रतिज्ञा की कि भविष्य में कभी बुन्देलखण्ड का रुख नहीं करेगा | 

छत्रसाल ने बाजीराव का उपकार मानते हुए एक भव्य समारोह में उन्हें अपना तीसरा पुत्र घोषित कर अपने राज्य का तीसरा हिस्सा उन्हें दिया, जिसमें आज के कालपी, हटा, सागर,झांसी, सिरोंज, गढ़ाकोटा, ह्रदयनगर आदि समाहित थे | इतना ही नहीं तो उस समय की परम्परानुसार एक मुस्लिम सुन्दरी मस्तानी का हाथ भी उनके हाथ में थमाया, जिसे उनकी मुस्लिम उपपत्नी से उत्पन्न पुत्री भी बताया जाता है | बाद में बाजीराव ने उक्त जिलों में से कुछ जिले मस्तानी से उत्पन्न अपने पुत्र शमशेर बहादुर को दिए, जिसने बांदा को अपना मुख्य निवास स्थान बनाया और उसके वंशजों को बांदा का नबाब कहा गया | शमशेर बहादुर का जन्म ४ फरवरी १७३४ को हुआ था | बाद में इस शमशेर बहादुर ने १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में महारानी लक्ष्मीबाई के सहयोगी के रूप में ख्याति पाई | 

१७३० में ही एक और बड़ी घटना घटी | पेशवा जिस प्रकार सैन्य अभियानों में स्वयं भाग लेते और यशस्वी होते थे, उससे सेनापति त्रम्ब्यक राव दाभाडे को ईर्ष्या होने लगी | उन्हें यह अपने अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप प्रतीत हुआ | यहाँ तक कि उन्होंने निजामउलमुल्क से गुपचुप वार्ताएं शुरू कर दीं और उसके सहयोग से बाजीराव के बिरुद्ध सशस्त्र संघर्ष की तैयारी में जुट गए | बाजीराव की प्रसिद्धि से ईर्ष्या के कारण कई बड़े सरदार भी दाभाडे के साथ हो गए थे | पेशवा बाजीराव की सफलताओं में उनकी सजग गुप्तचर व्यवस्था का बड़ा योगदान रहा है | उन्होंने शाहू जी को जानकारी दी तो शाहूजी ने दाभाडे को बुलाया भी | लेकिन वह खुली अवज्ञा कर नहीं आया तो शाहूजी ने पेशवा को गुजरात से दाभाडे को सतारा ले आने हेतु आज्ञा दी | १० अक्टूबर १७३० को अपने भाई चिमना जी अप्पा के साथ बाजीराव ने पूना से प्रस्थान किया | निजाम ने भी दाभाडे का साथ देने हेतु औरंगावाद से कूच कर दिया | संघर्ष पर आमादा दाभाडे बडौदा के नजदीक सावली नामक स्थल पर चालीस हजार सैनिकों के साथ जम गया | बाजीराव के समझौते के सारे प्रयत्न निष्फल रहे और १ अप्रैल १७३१ को युद्ध के दौरान सर में गोली लगने से त्रम्ब्यक राव दाभाडे मारा गया | कहा जाता है कि उसके पक्ष से ही युद्ध कर रहे उसके सगे मामा ने ही उसकी ह्त्या की थी | संभवतः वह गुप्तरूप से बाजीराव से मिल गया था | उसके बाद बाजीराव तुरंत युद्ध बंद कर वापस सतारा को रवाना हो गए | 

अपने पुत्र की हत्या से व्यथित दाभाडे की मां उमाबाई ने शाहू जी से न्याय की गुहार लगाई व बाजीराव को दण्डित करने की मांग की | उसके बाद जो दृश्य उपस्थित हुआ, उसने महाराष्ट्र समाज की मानवीय संवेदनाओं के कई पहलू उजागर किये | शाहू जी की आज्ञा पर भरे दरबार में बाजीराव दोनों हाथ जोड़कर फर्श पर उमाबाई के सम्मुख साष्टांग लेट गए और स्वयं छत्रपति शाहू जी महाराज ने एक तलवार उमादेवी को थमा दी और कहा – अब आपका अपराधी आपके सम्मुख है | आप चाहो तो इसे अपने पुत्र रूप में स्वीकार कर क्षमा कर दो, और चाहो तो इसका सर धड से अलग कर दो | डबडबाई आँखों से उमाबाई ने तलबार एक ओर फेंक दी और बाजीराव उनके चरणों से लिपटकर बिलख पड़े | इस भावना प्रधान दृश्य को देखकर शूरवीर मराठा सरदारों के बज्र समान ह्रदय भी द्रवित हो गए | सचमुच इस प्रसंग में छत्रपति शाहूजी महाराज की न्यायप्रियता, पेशवा बाजीराव के निश्छल पश्चाताप व उदारमना मां के ह्रदय की विशालता, सभी के दर्शन होते हैं | शाहू जी ने तुरंत ही उमादेवी के दूसरे बेटे यशवंत राव को सेनापति नियुक्त कर दिया | यह अलग बात है कि वह नाकारा साबित हुआ और भविष्य में गुजरात की बागडोर पिलाजी गायकबाड और उनके बेटे ने संभाली | बडौदा में जिनका शासन फिर लगातार जारी रहा | 

१४ फरवरी १७३५ को एक और महत्वपूर्ण घटना हुई | पेशवा बाजीराव की बुजुर्ग मां राधाबाई ने तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान किया | अब इसे बाजीराव का प्रभाव कहा जाए या भारतीय संस्कृति की विशेषता कि वे पूरे भारत में घूमीं, हर जगह के राजाओं, और मुस्लिम शासकों ने भी उनका ठीक बैसे ही आदर सत्कार किया, जैसे वे उनकी अपनी मां हों | यहाँ तक कि बुन्गश और निजाम ने भी | 

मालवा में मराठाओं के जागीरदार नियुक्त होना दिल्ली के बादशाह को भला कैसे रास आता ? उन्होंने जयपुर के महाराजा जयसिंह को अपनी ओर से मालवा का सूबेदार नियुक्त कर मराठों को खदेड़ने का फरमान जारी कर दिया | जयसिंह परेशान करें तो क्या करें ? उन्होंने बादशाह और बाजीराव की भेंट कराने की योजना बनाई और दोनों को जयपुर आमंत्रित किया | बाजीराव किशनगढ़ पहुँच भी गए, किन्तु सम्राट ने आने से मना कर दिया | नवम्बर १७३६ में दिल्ली पर धावा बोलने के लिए बाजीराव पूना से रवाना हुए | १८ फरवरी १७३७ को उनकी सेना ने मुगलों से भदावर और अटेर को छीन लिया | लेकिन होल्कर की सेना उतावली में कुछ आगे बढ़ गई और दोआब में मुस्लिम सेनानायक सआदत खां ने उस टुकड़ी को पराजित कर दिया | उन लोगों को लगा कि यही मराठा सेना थी | वे खुशी मनाते रहे तब तक बाजीराव दिल्ली जा धमके | उसके बाद जो लूट और आगजनी हुई, उसका केवल अंदाज ही लगाया जा सकता है | 

बाजीराव तो वापस लौट गए किन्तु अपमानित बादशाह ने बदला लेने के लिए दक्षिण से निजाम को बुलवाया व संयुक्त मुग़ल सेना ने मराठों से दो दो हाथ करने की ठानी | लेकिन भोपाल में निजाम की एक बार फिर करारी हार हुई और वह संधि कर वापस दक्षिण चला गया | 

लेकिन चोर चोरी से चला जाए, हेराफेरी से न जाए की तर्ज पर फरवरी १७३९ में निजाम के बेटे नासिरजंग ने गोदाबरी को पारकर मराठा आधिपत्य के क्षेत्रों पर अचानक धावा बोल दिया | उसे सबक सिखाने के लिए बाजीराव ने औरन्गावाद के समीप उसे घेर लिया | विवश और पराजित जंग ने २७ फरवरी को वे सभी शर्तें स्वीकार कर लीं जो बाजीराव ने निर्धारित कीं | लेकिन जब बाजीराव अपने जीवन के इस अंतिम युद्ध में व्यस्त थे, उनके भाई चिमनाजी अप्पा और बेटे नाना साहब ने उनकी प्रेयसी और पत्नीवत मस्तानी को पकड़कर किसी अज्ञात स्थान पर कैद कर दिया | कहा जाता है कि महाराष्ट्र का विप्र समाज मस्तानी के घर में रहते उनके बेटे सदाशिव राव का उपनयन व दूसरे बेटे रघुनाथ राव का विवाह संस्कार कराने को भी तैयार नहीं था | उन्हें तो बाजीराव की उपस्थिति से भी आपत्ति थी | एक कोंकणस्थ चितपावन ब्राह्मण बाजीराव का मुस्लिम मस्तानी से सम्बन्ध भला परंपरावादी विप्र समाज कैसे सहन करता ? मस्तानी को तो मार ही दिया जाता, किन्तु शाहू जी महाराज ने इसके लिए कडाई से निषेध किया | वे किसी भी कीमत पर बाजीराव का दिल नहीं दुखाना चाहते थे | अतः बाजीराव की अनुपस्थिति में व मस्तानी को घर से हटाकर ही यह मांगलिक कार्य संभव हुए | हालांकि इन समारोहों में स्वयं शाहू जी उपस्थित रहे | 

युद्धक्षेत्र से लौटकर बाजीराव अत्यंत अधीर और व्याकुल हो गए | उनकी स्थिति का वर्णन करते हुए ७ मार्च १७४० को उनके भाई चिमना जी अप्पा ने नाना साहब को एक पत्र में लिखा – मैंने उनके विक्षिप्त मन को शान्त करने का प्रयास किया, परन्तु मालूम होता है कि इश्वर की इच्छा कुछ और ही है | मैं नहीं जानता कि हमारा क्या होने वाला है | मेरे पूना वापस होते ही हमें चाहिए कि हम उसको उनके पास भेज दें | स्पष्ट ही यह बाजीराव की मानसिक दशा सुधारने के लिए मस्तानी को उनके पास भेजने का सुझाव था | 

अंततः २८ अप्रैल १७४० को यह कोमल ह्रदय वाला महान योद्धा इस पत्थर दिल दुनिया में एक पत्थर के चबूतरे को ही अपनी अंतिम शैया बनाकर दुनिया से विदा ले गया | इतिहासकारों ने लिखा कि उसकी मृत्यु का समाचार पाकर मस्तानी ने भी प्राण त्याग दिए | पूना के पूर्व में उस छोटे से गाँव पवल में उसे दफना दिया गया, जो बाजीराव ने उसे प्रदान किया था | आज भी यहाँ बनी है एक साधारण कब्र जो मेरे मत में तो ताजमहल से कहीं अधिक प्रेम की मूर्तिमंत प्रतीक कहा जा सकता है | शाहजहाँ ने तो मुमताज के मरने के बाद उसकी बहिन से शादी कर सुख पूर्वक दिन गुजारे थे, जबकि बाजीराव और मस्तानी तो एक दूसरे के विछोह को सहन ही नहीं कर पाए और दूसरी दुनिया में साथ रहने को यह दुनिया छोड़ गए | 

काश हिन्दू समाज में कुछ औदार्य होता तो क्या भारत में मुस्लिम समस्या बची होती ? 

कटक पर फहराया भगवा 

पेशवा बाजीराव के दुखद निधन के बाद उनके १९ वर्षीय पुत्र बालाजी उपाख्य नाना साहेब को २५ जून १७४० को पेशवा नियुक्त किया गया | बाजीराव के दुखांत से सर्वाधिक कष्ट में थे उनके छोटे भाई चिमना जी अप्पा, क्योंकि उनका पूरा जीवन भ्रातृप्रेम का अद्भुत उदाहरण था | अपनी कोई महत्वाकांक्षा न रखते हुए, उन्होंने अपने बड़े भाई की हर इच्छा का पूर्ण सम्मान रखा, सच कहा जाए तो बाजीराव के उत्कर्ष में चिमनाजी अप्पा का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा, दोनों मिलकर एक ओर एक ग्यारह की उक्ति को चरितार्थ करते थे | भाई के वियोग को वे नहीं झेल पाए और मात्र छः माह बाद १७ दिसंबर को पूना में उनका भी निधन हो गया | नवनियुक्त पेशवा नाना साहेब के लिए भी यह बज्राघात जैसा ही था, क्योंकि उनका बाल्यकाल पिता से कहीं अधिक अपने चाचा के संरक्षण में व्यतीत हुआ था | दिल पर पत्थर रखकर उन्होंने अपना कार्यारंभ किया और मराठाओं की दृष्टि से उनके कार्यकाल की महत्व पूर्ण उपलब्धि एक वर्ष बाद ही प्राप्त हो गई, जिसमें दिल्ली के बादशाह ने मालवा पर मराठा अधिकार को मान्यता देते हुए, ७ सितम्बर १७४१ को पट्टा दे दिया | यह एक प्रकार से सिंधिया और होलकर आदि की जागीरदारी को मिली लिखित अधिमान्यता थी, जिसे पेशवा बालाजी द्वितीय की एक बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि माना गया | 

लेकिन उनके कार्यकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी बंगाल में मराठा प्रवेश | औरंगजेब की मृत्यु के बाद मचे आतंरिक संघर्ष के कारण केन्द्रीय मुग़ल सत्ता लगातार कमजोर होती गई और अलग अलग प्रान्तों में सत्ता के नए स्वतंत्र केंद्र बनते गए | जिस प्रकार दक्षिण में निजामशाही सशक्त हुई, उसी प्रकार बंगाल में भी हुआ | सम्राट की मृत्यु के बाद मुर्शिद कुली खां बंगाल का सूबेदार नियुक्त हुआ, जिसके नाम पर आज भी मुर्शिदाबाद को जाना जाता है | उसके बाद उसका दामाद शुजा खां और १३ मार्च १७३९ को उसके देहांत के बाद उसका पुत्र सरफराज खां उत्तराधिकारी बना | किन्तु वह अलीबर्दी खां नामक तुर्क सेनापति के हाथों १० अप्रैल १७४० को एक युद्ध में मारा गया और अलिबर्दी खां बंगाल का नबाब बना | 

लेकिन पुराने नबाब के स्वामीभक्त लोग भी थे, जो अलिबर्दी खां को विश्वासघाती मानकर उससे नफरत करते थे | ऐसा ही एक व्यक्ति था मीर हबीब शीराज नाम का एक ईरानी | उसने प्रयत्न किया कि मराठों की मदद से अलीबर्दी खां को उखाड़ दिया जाए | अवसर अच्छा जानकर और एक नया क्षेत्र पाने की लालसा से रघुजी भोंसले ने छत्रपति शम्भा जी से सैनिक अभियान की अनुमति ले ली | १७४१ में दशहरे के दिन मराठा सेना ने रघु जी के सहायक भास्कर पन्त के नेतृत्व में बंगाल की और प्रस्थान किया और १५ अप्रैल १७४२ को बर्दवान नगर के बाहर रानी की झील पर अलिबर्दी खां को घेर लिया | अलीबर्दी इस आकस्मिक विपत्ति से हक्का बक्का रह गया | हालत यह हो गई कि अलीबर्दी खां की सेना के सम्मुख भूखे मरने की नौबत आ गई | उसने दूत भेजकर संधि करनी चाही तो भास्करराव ने दस लाख रुपये की मांग की | नबाब ने चतुराई दिखाई और रात्री के अँधेरे में छुपते हुए घेरे से बाहर निकल भागा | लेकिन सुबह होते ही मराठा सेना ने उसका सामान और डेरे जलाकर पीछा किया | 

तब तक मीर हबीब की सेनायें भी भास्कर राव का साथ देने आ गईं | मीर हबीब की सलाह पर इस सेना ने छः मई को मुर्शिदाबाद पर हमला कर दिया, जहाँ नबाब अलीबर्दी ने मीर हबीब के परिजनों को कैद कर रखा था | हबीब के परिजन तो छूटे ही, मुर्शिदाबाद की लूट से मराठाओं को भी दो तीन करोड़ से अधिक का माल प्राप्त हुआ | आगामी तीन महीनों में मीर हबीब की सहायता से कलकत्ता और हुगली तक मराठा प्रभाव फ़ैल गया | मराठों से सुरक्षा हेतु कलकत्ता के अंग्रेज व्यापारियों ने अपने कारखानों के चारों और गहरी खाई खोद दी थी, जिसे लम्बे समय तक मराठा खाई कहा जाता रहा और बाद में वह पाट दी गई | भास्कर राव ने बड़े भू भाग पर कब्जा तो जमा लिया, लेकिन उसके पास सेना भी कम थी और लूटपाट से स्थानीय जनता में भी उनके प्रति असंतोष व नाराजगी थी | स्थानीय जनता का असंतोष दूर करने के लिए मराठा सेनापति ने १८ सितम्बर १७४२ से कटवा में दुर्गा पूजा का आयोजन करने की योजना बनाई जो २६ सितम्बर तक चला | अभी मराठा सेना इस आयोजन की खुमारी में ही थी कि तभी २७ सितम्बर को सुबह सबेरे अलीबर्दी खान इन पर टूट पड़ा और अंधाधुंध मारकाट शुरू कर दी | एक बार फिर हबीब ही सहायक बना, जिसने बचकर भागने के मार्ग सुझाए | भागती हुई सेना ने भी राधानगर को लूटा और कटक पर भी हमला किया, जिसमें मुस्लिम सूबेदार शेख मासूम मारा गया | इस बीच भास्कर राव लगातार रघु जी को पत्र भेजकर अतिरिक्त सेना की मांग करता रहा | सेना नहीं आई और अलीबर्दीखां ने जल्द ही मराठाओं से अपने क्षेत्र वापस ले लिए | 

उधर महाराष्ट्र में रघुजी और पेशवा के बीच लम्बे समय तक अपने अपने अधिकारों को लेकर कटु विवाद रहा | पेशवा अपना अधिकार जताने ७५ हजार की बड़ी सेना के साथ गया की तीर्थ यात्रा पर भी गए, बंगाल की स्थिति को लेकर उनके दिल्ली के सम्राट के साथ पत्र व्यवहार भी चलते रहे, यहाँ तक कि अलिबर्दी खां से भी भेंट हुई | भास्कर राव वापस महाराष्ट्र लौट गए | किन्तु अंततः छत्रपति शाहू जी के हस्तक्षेप से रघुजी व पेशवा का मनोमालिन्य दूर हुआ और दोनों मित्रवत मिलकर कार्य करने लगे | रघुजी के निर्देश पर भास्कर एक बार फिर जनवरी १७४४ में नागपुर से बंगाल की ओर रवाना हुए | बंगाल पहुंचकर उन्होंने अलीबर्दी खां को सन्देश भेज दिया कि या तो चौथ दो अन्यथा भयंकर परिणाम भुगतने होंगे | नबाब की ओर से उसका सेनानायक मुस्तफा खां व एक अन्य हिन्दू परामर्शदाता जानकीराम जाकर भास्कर पन्त से मिले व नबाब के साथ मिल बैठकर संधिवार्ता हेतु आमंत्रित किया | मीर हबीब के बार बार सचेत करने के बावजूद भास्कर पन्त इस वार्ता के लिए तैयार हो गए और ३० मार्च १७४४ को अपने कुछ विश्वस्त सरदारों के साथ अमानीगंज और कटवा के बीच मनकारा के मैदान में लगे तम्बू में चर्चा के लिए पहुंचे | प्रवेश द्वार पर ही मुस्तफा खां और जानकी राम ने उनका स्वागत किया व उन्हें भीतर बैठे नबाब के पास ले गए | नबाब ने खड़े होकर पूछा कि वीर भास्कर राव कौन हैं और जैसे ही परिचय हुआ, उसने जोर से आवाज दी, काट दो इन लुटेरों को और स्वयं भी तलवार से भास्कर पर वार कर दिया | जब तक मराठा योद्धा कुछ समझ पाते, तब तक तो आसपास छुपे हुए सैनिकों ने ताबड़तोड़ उन पर प्रहार शुरू कर दिए | बीस बहादुर मराठा सरदार उसी स्थान पर मार डाले गए | उसके तत्काल बाद असावधान शिविर पर भी मुस्तफा खान की सेना टूट पड़ी | स्वाभाविक ही मराठा सेना का बहुत नुक्सान हुआ | जब बची हुई सेना वापस नागपुर पहुंची तब विश्वासघात के इस समाचार ने पूरे महाराष्ट्र में क्रोधाग्नि भड़का दी | 

शीघ्र ही अवसर भी मिल गया | मुस्तफा खां और नबाब में अनबन शुरू हो गई | यहाँ तक कि उसने स्वयं रघुजी भोंसले तक यह प्रार्थना पहुंचाई कि वह शीघ्र आकर दुष्ट नबाब का दमन करें | अनुकूल अवसर मानकर फरवरी १७४५ में रघुजी नागपुर से चलकर सीधे कटक पहुचे और दो माह की घेराबंदी के बाद ६ मई को उस पर कब्जा कर लिया | जिस जानकीराम ने विश्वासघात कर मराठा सरदारों की ह्त्या करवाई थी, उसके बेटे दुर्लभराम को पकड़ लिया गया | उसके बाद जब रघु जी मकसूदाबाद की तरफ बढ़ रहे थे, तब तक अलीबर्दी खां और मुस्तफा खां में गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया और जगदीशपुर के युद्ध में मुस्तफा खां मारा गया | तब तक वर्षा प्रारंभ हो गई और वह तीनहजार सैनिक उड़ीसा में मीर हबीब की सहायता के लिए छोड़कर रघुजी वापस नागपुर पहुंच गए | उसके बाद लम्बे समय तक संघर्ष चलता रहा | कभी मराठा जीतते तो कभी नबाब | अंततः मार्च १७५१ में रघुजी के पुत्र जानोजी और नबाब के बीच संधि हुई, जिसकी प्रमुख शर्तें थीं कि मीर हबीब को उडीसा का शासक मान लिया गया | नबाब ने नागपुर के भोंसले को प्रतिवर्ष १२ लाख रुपये चौथ के रूप में देना स्वीकार किया बदले में उसे आश्वासन मिला कि जब तक धन समय पर मिलता रहेगा, भोंसले उनके खिलाफ कोई अभियान नहीं करेंगे | कटक का जिला अर्थात सुवर्ण रेखा नदी तक का प्रदेश मराठा राज्य के अधीन मान लिया गया | 

यही तो वह स्वप्न था जो कभी बाजीराव ने देखा था और शाहू जी महाराज के सामने भरे दरबार में सिंह गर्जना की थी - मैं और मेरे लोग कटक पर अवश्य ही भगवा फहराकर रहेंगे। और अंततः उनके लोगों ने अर्थात रघुजी भोंसले ने वह कारनामा कर ही दिखाया | 

पेशवा माधवराव 

१४ जनवरी १७६१ को अहमद शाह दुर्रानी, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और अफ़ग़ान रोहिल्ला के गठबंधन के साथ हुए पानीपत के युद्ध में पेशवा परिवार के दो सदस्यों सदाशिवराव भाऊ और विश्वास राव की मृत्यु और उसके कुछ समय बाद ही २३ जून १७६१ को पेशवा नाना साहब की मौत के बाद आम व्यक्ति को लगने लगा था कि अब मराठा राज्य के पतन के दिन आ गए | लेकिन १६ वर्षीय तरुण माधवराव के अल्पकालीन नेतृत्व ने ही यह धारणा बदल दी और वस्तुतः उन्होंने मराठा साम्राज्य को उत्कर्ष के शिखर पर पहुंचा दिया था | यह वह समय था जब हैदराबाद का निज़ाम अपनी खोई ज़मीन वापस पाने को बेचैन था, जिसे सदाशिव भाऊ के नेतृत्व में मराठों ने फ़रवरी 1760 में धूल चटाई थी । उनके कार्यकाल में न केवल निज़ाम बल्कि मैसूर के हैदर अली को भी चार बार पराजय का सामना करना पड़ा । 

सबसे पहले 1762 में जब वह जान बचाने के लिए जंगलों में छुप गया | दोबारा मई 1764 में और इसके बाद 1765 में माधवराव ने हैदर अली के ख़िलाफ़ स्वयं सेना का नेतृत्व किया। प्रोफ़ेसर एआर कुलकर्णी अपनी पुस्तक ‘The Marathas‘ में लिखते हैं कि इस युद्ध के बाद हैदर अली और उसका खानदान मराठा नाम सुन कर ही काँप उठता था। जब अंग्रेजों और मैसूर के बीच युद्ध हुआ, तब दोनों पक्ष पेशवा को अपनी तरफ करना चाह रहे थे। लेकिन बदले में पेशवा ने निज़ाम को उखाड़ फेंकने की शर्त रख दी, जिसने अंग्रेजों को सहमा दिया। अंग्रेजों को लगा कि इससे मराठा साम्राज्य की शक्ति दुगुनी हो जाएगी। 

राज्य के लोग मानने लगे थे कि उनका राजा राज्य कार्य में दक्ष है, पीड़ित जनता का मित्र तथा अपराधियों का कट्टर दुश्मन है | पेशवा माधवराव ने मराठा साम्राज्य को फिर उसी स्वर्णयुग में वापस पहुँचा दिया, जहाँ वो पानीपत के युद्ध के पहले था। किन्तु दुर्भाग्यवश माधवराव क्षय रोग (टीबी) से ग्रस्त हो गये । लेकिन अंतिम समय तक वे सचेत रहे | उनकी सर्वसमन्वय की कार्यपद्धति का एक प्रसंग है - 

जब पेशवा माधव राव ने समझ लिया कि उनकी मृत्यु सन्निकट है, तब उन्होंने धीरे धीरे राज्य के उन गुप्त पत्रों को नष्ट करना प्रारम्भ किया, जिनमें उनके विश्वस्त अधिकारियों और सेवकों के षडयंत्रों का उल्लेख था | जब सखाराम बापू को यह पता चला तो उन्होंने उनसे भेंट कर ऐसा न करने का अनुरोध किया | इस पर उठने बैठने में भी असमर्थ पेशवा ने उनसे कुछ दूर रखे एक पत्र वेष्टन को उठाने के लिए कहा | जब बापू उसे उनके नजदीक लाये, तो उन्होंने उसे खोलकर पढने का निर्देश दिया | बापू के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उन्हें उसमें स्वयं उनके लिखे ऐसे पत्र मिले जिनके आधार पर उन्हें दण्डित किया जा सकता था | पेशवा के पास बापू के भी खिलाफ प्रमाण थे, किन्तु उन्होंने बापू को कभी आभाष भी नहीं होने दिया और उनका सतत राज्य के हित में उपयोग करते रहे | 

एक अभियान के दौरान उनके दो सैन्य अधिकारियों के बीच किसी बात को लेकर विवाद हो गया और दोनों ने मल्ल युद्ध के माध्यम से जीत हार का निर्णय करना चाहा, तो पेशवा ने दोनों से कहा, शारीरिक शक्ति से अधिक उपयोगी है दक्षता | तुम दोनों में से जो भी पहले जाकर परकोटे पर भगवा लहरा देगा, वह विजेता | 

पेशवा माधवराव सबसे जीते लेकिन अपने खुद के परिवार से हार गए | चाचा रघुनाथराव को अपने भतीजे का प्रभुत्व पसंद नहीं था। जबकि उदारमना माधवराव ने सदा उनको सम्मान दिया | यहाँ तक कि जब रघुनाथराव गोदावरी के दक्षिणी किनारे पर निजाम से संघर्ष कर रहे थे तब अचानक दुश्मनों से घिर गए, किन्तु माधवराव ने अपूर्व पराक्रम व रणनीतिक कुशलता से न केवल उनकी प्राणरक्षा की वरन हैदराबाद के वज़ीर को भी मार गिराया। लेकिन इसके बाद भी चाचा नहीं सुधरे तो फिर संघर्ष भी हुआ और थोड़प के युद्ध में रघुनाथराव की हार हुई। उन्हें पुणे लाया गया। लेकिन पेशवा ने उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं की। बस उनकी सक्रियता कम की गई। नरवणे लिखते हैं कि पेशवा की अति-उदारता एक ग़लती थी, क्योंकि रघुनाथ राव सुधरने वाले लोगों में से नहीं थे। 

पेशवा की हत्या – पेशवा को सजा 

और यह बात जल्द ही सत्य सिद्ध हो गई | 18 नवंबर 1772 को पेशवा माधवराव की असामयिक मृत्यु के बाद उनके छोटे भाई नारायणराव सर्वसम्मति से पेशवा बने, किन्तु ९ माह बाद ही उनकी हत्या हो गई | नारायण राव की हत्या एकदम उस प्रकार हुई, जैसे कि दिल्ली के मुग़ल शासकों की होती आई थी | संभवतः सत्ता षडयंत्रों को हमने उनसे सीख लिया था | इतिहासकारों ने उस हत्याकांड का बड़ा ही रोंगटे खड़े कर देना वाला वर्णन किया है | 

उन दिनों मराठा सेना में भाड़े के सैनिकों को भी रखा जाता था, जिनमें पठान, हब्शी, अरव तथा राजपूत आदि लोग हुआ करते थे | इन्हें गार्दी कहा जाता था | इनमें से प्रत्येक का मासिक वेतन निर्धारित था, किन्तु पेशवा माधव राव की मृत्यु के बाद इनके भुगतान में अड़चनें आने लगीं और असंतोष पनपने लगा था जिसका लाभ षडयंत्रकारियों ने उठाया | २१ अगस्त १७७३ को समूचे महाराष्ट्र की तरह पुणे में भी गणेश उत्सव प्रारम्भ हुआ जो ३१ अगस्त तक चलने वाला था | किन्तु ३० अगस्त की दोपहर को लगभग ५०० गार्दियों का सशस्त्र दल राजभवन में घुस आया | जिन कर्मचारियों ने उन्हें रोकने की चेष्टा की, उन्हें मार डाला गया | एक कर्मचारी ने एक गाय के पीछे छुपने का प्रयास किया तो उसके साथ गाय को भी मार दिया गया | उसके बाद ये लोग पेशवा के कमरे की तरफ बढे | भयभीत पेशवा नारायण राव अपने कमरे के पिछले द्वार से निकलकर अपनी चाची पार्वती बाई के कमरे में गया, तो उन्होंने चाचा के पास जाने की सलाह दी | जब वह चाचा रघुनाथ राव के कमरे में गया, तो वह पूजा कर रहे थे | नारायण राव ने पैर पकड़कर उनसे दया की भीख मांगी और कहा कि मुझे बचाओ, पेशवा आप ही बन जाओ | तब तक गार्दियों की भीड़ भी वहां आ गई और तुल्या पंवार उसको निर्दयता पूर्वक घसीटकर बाहर ले गया तथा सुमेरसिंह ने उसके टुकड़े कर डाले | नारायण राव का बफादार सेवक चंपाजी तथा कुछ दासियाँ उन्हें बचाने उनके ऊपर लेट गए, किन्तु वे सब भी निर्दयता पूर्वक काट डाले गए | नारोबा नायक नामक एक वृद्ध व्यक्ति ने समझाने की कोशिश की तो उसे भी मार डाला गया | इस प्रकार आधा घंटे में ही उस प्रसिद्द राजभवन में ग्यारह व्यक्तियों की ह्त्या हुई, इनमें सात ब्राह्मण, एक गाय, दो मराठा व दो दासियाँ शामिल थीं | 

नासिक में जब पेशवा की माता को अपने अंतिम पुत्र की हत्या का समाचार मिला तो उन्होंने अपने जीवन की सभी सुख सुविधाओं का पूर्णतः त्याग कर दिया और नारियल के आधे खोल को भिक्षापात्र बनाकर घर घर भिक्षा माँगने लगीं | एक वर्ष से अधिक समय तक उन्होंने ऐसा ही जीवन जिया | जब मंत्रीगणों ने हत्यारों को पूना से निकाल दिया और नारायण राव की पत्नी गंगाबाई ने एक पुत्र को जन्म दे दिया, तब मंत्रियों के बहुत आग्रह करने पर उनका मन शांत हुआ | 

अन्य कोई वंशज न होने के कारण रघुनाथ राव ही पेशवा बन तो गया, किन्तु जन स्वीकृति नहीं मिली | उसके राज्याभिषेक का भी कोई महोत्सव नहीं हुआ | उसके बाद महाराष्ट्र में वह हुआ, जो शायद ही इतिहास में कभी हुआ हो | न्यायाधीश राम शास्त्री ने ३० अगस्त को हुई हत्याओं की जांच पूरी की और रघुनाथ राव को ही मुख्य अपराधी माना | उन्होंने ५० व्यक्तियों को न्यूनाधिक दोषी ठहराया | 

लेकिन सत्ता तो रघुनाथराव के ही हाथ में थी | दंड को कार्यान्वित कौन करता ? उसने अपराधियों को बचाने के लिए भरसक कोशिश की | मुहम्मद यूसुफ़ को मुधोजी भोंसले के नागपुर भेज दिया तथा तुल्या पवार और खडगसिंह को हैदर अली के पास | इसी प्रकार सुमेर सिंह को इंदौर भेज दिया गया जहाँ जुलाई १७७४ में उसकी मृत्यु हो गई या उसे मार दिया गया | लेकिन धन्य है महाराष्ट्र की जनता, जिसने राम शास्त्री के न्याय के बाद रघुनाथ राव को वैध मुख्य पुरुष मानने से इनकार कर दिया | जिस समय पेशवा नारायण राव की हत्या हुई उस समय उनकी पत्नी गंगाबाई गर्भवती थीं | १८ अप्रैल १७७४ को उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया | नाना फडनवीस ने दरबार के बारह प्रभावशाली लोगों का एक गुट बनाया, जिसे बारह भाई कहा गया | इस गुट ने पेशवा रघुनाथ राव को गद्दी से हटाकर उसके नवजात बच्चे को ही सवाई माधवराव के नाम से पेशवा घोषित कर दिया और नाना फडनबीस उस बच्चे के संरक्षक बन बारह भाईयों के साथ राजकाज देखने लगे | 

मराठा राज्य पर बारह भाईयों का शासन पुष्ट हो गया | बारह भाईयों ने मुघोजी भोंसले को मुहम्मद यूसुफ़ की रक्षा का भार छोड़ने को विवश कर दिया | वह कुछ समय तो मध्य भारत के जंगलों में छुपा रहा परन्तु उसका पता लगाकर पकड़ा गया व १७७५ में उसे प्राण दंड दिया गया | खडग सिंह तथा तुलाजी पंवार को १७८० में हैदर अली ने पूना के शासकों को लौटा दिया, जिनका शारीरिक यातनाएं देकर वध कर दिया गया | वेंकटराव काशी तथा सखाराम हरि को आजीवन कारावास भोगना पड़ा | पद से पृथक रघुनाथ राव आजन्म दर दर भटकने को विवश हुआ | यहाँ तक कि उसका नाम ही राघो भरारी अर्थात राघो भगोड़ा पड़ गया | उसने अंग्रेजों का साथ लेकर प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध भी कराया किन्तु अंततोगत्वा जुलाई १७८३ में उसे आत्मसमर्पण करने को विवश होना पड़ा, नासिक जाकर पापों का प्रायश्चित किया और ११ दिसंबर १७८३ को कोपरगाँव में गुमनामी की मौत मर गया | 

इस प्रकार नाना फड़नीस को यह गौरव प्राप्त हुआ कि उसने ८ वर्षों तक अथक परिश्रम द्वारा अपने पेशवा की हत्या का पूर्ण प्रतिशोध ले ही लिया |
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