चाणक्य और चन्द्रगुप्त



चाणक्य और चन्द्रगुप्त की गाथा प्रारम्भ होती है, सिकंदर के भारत आक्रमण से | पोरश उससे वीरता पूर्वक लडे, किन्तु पराजित हुए | एक कहानी कही गई, कि सिकंदर ने बंदी पोरस से पूछा कि बताओ तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाए और पोरस ने कहा कि बैसा ही, जैसा कि एक राजा को दूसरे राजा के साथ करना चाहिए, और बस सिकंदर पोरस को उसका राज्य वापस सोंपकर अपने देश लौट गया | और हमारे महान इतिहास वेत्ताओं ने लिखा देखो देखो कितना महान था सिकंदर | और पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जाने लगा – सिकंदर महान | एक कहानी से वह सिकंदर महान हो गया जिसने अपने पिता की हत्या की, अपने सौतेले व चचेरे भाइयों का कत्ल कर मेसेडोनिया के सिन्हासन पर बैठा । 

गजब दिखिए कि जिस व्यक्ति ने अपनों को तड़पा-तड़पाकर मारा, अपने सबसे करीबी मित्र क्लीटोस को मार डाला, अपने पिता के मित्र पर्मीनियन जिनकी गोद में सिकंदर खेला था, उनको भी मरवा दिया, जब बैक्ट्रिया के राजा बसूस को बंदी बनाकर लाया गया, तब सिकंदर ने उनको पहले कोड़े लगवाए, फिर उनके नाक-कान कटवाये, उसके बाद उनकी हत्या करवा दी। सिकंदर ने अपने गुरु अरस्तू को भी नहीं बख्सा, उसके भतीजे कलास्थनीज को मारने में जरा भी संकोच नहीं किया। सिकंदर की सेना जहां भी जाती, पूरे के पूरे नगर जला दिए जाते, सुन्दर महिलाओं का अपहरण कर लिया जाता और बच्चों को भालों की नोक पर टांगकर शहर में घुमाया जाता । 

प्राचीन ईरानी अकेमेनिड साम्राज्य की राजधानी पर्सेपोलिस के खंडहरों को देखने जाने वाले हर सैलानी को तीन बातें बताई जाती हैं कि इसे डेरियस महान ने बनाया था, इसे उसके बेटे जेरक्सस ने और बढ़ाया, लेकिन इसे 'उस क्रूर इंसान' ने तबाह कर दिया जिसका नाम था- सिकंदर। उस सिकंदर को हमारी पाठ्यपुस्तकों में पढाया जाता है महान | 

खैर हम तो अपना कथानक प्रारम्भ करते हैं, जिसे तैयार करने में पर्याप्त समय व श्रम लगा | तीन पुस्तकों का अध्ययन किया गया, पहली थी मराठी लेखक स्वर्गीय हरिनारायण आप्टे जी लिखित चन्द्रगुप्त और चाणक्य, दूसरी भारतेंदु हरिश्चंद्र जी लिखित मुद्रा राक्षस और तीसरी स्व. के.एम. मुंशी की भगवान कौटिल्य | तीनों पुस्तकों की घटनाओं के परिणाम में तो साम्य है, किन्तु घटनाओं के प्रकार में भिन्नता | अतः कथानक में तीनों पुस्तकों के अंश समायोजित किये गए हैं | तो आगे बढ़ते हैं – 

भारत में सिकंदर ने पर्वतेष को हराकर अपने अधीन किया, उसे अपना सामंत बनाकर, व उसकी सेना में बड़े पैमाने पर अपने सैनिक भर्ती करवाकर लौट गया, देशवासियों ने इन्हें कहा यवन | ये सैनिक जब चाहे तब आमजन को प्रताड़ित करते रहते थे, उन्हें बचाने वाला कोई न था | तो वस्तुस्थिति यह थी कि कहने को तो राज्य पर्वतेष का था, किन्तु मनमानी यवन कर रहे थे | अतः आमजन ने भी पर्वतेष को म्लेच्छाधिपति कहना प्रारम्भ कर दिया | ऐसे में विद्या के केंद्र तक्षशिला से एक विद्वान किन्तु महादरिद्र ब्राह्मण विष्णू शर्मा मगध की राजधानी पाटलीपुत्र की और चला | यह सोचकर कि अपने बुद्धि चातुर्य से पाटलीपुत्र के राजा नन्द की मदद करूँगा और उन्हें यवन विजेता होने का यश दिलबाउंगा | 

जब नन्द के दरबार में विष्णू पहुंचे और उन्होंने विद्वत्ता पूर्वक शुद्ध संस्कृत में नन्द को आशीर्वचन कहे, तो नन्द प्रभावित हुए और उन्हें स्थानीय विद्वानों की तुलना में उच्च आसन प्रदान किया | इस पर उन लोगों ने आपत्ति जताई, ब्राह्मण सदा से एकसे ही रहे हैं, सो सभासद गण बोले – महाराज एक अनजान व्यक्ति पर इतनी जल्दी भरोसा करना उचित नहीं है, इस समय यवनों के गुप्तचर भी घूम रहे हैं, जरा विचार कर लीजिये, कहीं क्षति न हो जाए | नन्द को लगा कि बात उचित है, अतः उसने विष्णू शर्मा जी का स्थान परिवर्तन कर उन्हें एक कोने में जाकर बैठने का इशारा कर दिया | बस फिर क्या था, जमदग्नि गोत्र के परशुराम वंशज विष्णू का माथा घूम गया, स्वाभाविक भी था, जो व्यक्ति यवनों से पीड़ित होकर वहां पहुंचा था, इस विचार के साथ कि यवनों के विरुद्ध नन्द का साथ दूंगा, उस पर यवनों का ही गुप्तचर होने का आरोप लगा दिया गया | क्रोध में आगबबूला होकर उसने कहा कि नन्द तुम नासमझ हो, जिसमें व्यक्ति पहचानने की क्षमता न हो, जो मूर्खों को विद्वान मानता हो, वह राजा होने योग्य नहीं है, अतः शीघ्र ही मैं किसी योग्य क्षत्रिय के हाथ में यहाँ का साम्राज्य देकर उसे दिग्विजई सम्राट बनाऊंगा | सभासदों को बात हास्यास्पद लगी और उनके उपहास से लापरवाह विष्णू शर्मा दरबार से निकल गए | 

तीनों पुस्तकों की घटनाओं में अंतर किस प्रकार का है, इसे दर्शाने को एक उदाहरण स्वरुप भारतेंदु जी के कथानक का वर्णन किये देता हूँ, जिसके अनुसार नन्द के दो विश्वासपात्र मंत्री थे, एक शकटार और दूसरे राक्षस | एक बार क्रोध में नन्द ने शकटार को सपरिवार कैद में डाल दिया, जहाँ उन्हें खाने को प्रतिदिन केवल दो किलो सत्तू दिया जाता था | शकटार परिवार से कहता था कि वो ही सत्तू खाए, जो नन्द का नाश करने में स्वयं को समर्थ मानता हो | तो कोई भी सत्तू नहीं खाता था | नतीजा यह हुआ कि सभी परिजन एक एक कर भगवान को प्यारे हो गए | शकटार भी अत्यंत दुर्बल हो गए | लेकिन तभी एक अनोखी घटना घटी | जो परिचारिका विचक्षणा रोज सत्तू देने आती थी, वह एक दिन उद्यान में जब राजा नन्द एक बटवृक्ष के नीचे हाथ मुंह धोने के बाद हंसने लगे तो वह भी हंस दी | राजा क्रुद्ध हो गया और पूछा तू क्यों हंसी | दासी ने अकबका कर उत्तर दिया, जिस कारण महाराज हँसे, उसी बजह से मैं भी हंसी | राजा ने पूछा अब यह बता कि मैं क्यों हंसा, नहीं तो मरने को तैयार हो जा | दासी पसीने पसीने हो गई और हाथ जोडकर एक महीने की मोहलत मांगी | जब महीना खतम होने में कुछ ही दिन रह गए तो रोते रोते दासी ने शकटार से मदद मांगी | शकटार ने पूरी बात सुनकर कहा कि राजा पानी की बूंदों को जमीन पर गिरकर नष्ट होते देख यह सोचकर हँसे थे कि छोटे से बीज से तो इतना विशाल बट बन गया, किन्तु ये नन्हीं बूँदें नष्ट हो गईं, इनमें से कुछ नहीं बना | 

विचक्षणा ने कहा कि अगर मेरी जान बच गई, तो आपको छुडाने का प्रयत्न करूंगी, और आजीवन आपकी दासी बनकर रहूंगी | राजा के पास जाकर विचक्षणा ने वही कह दिया जो शकटार ने बताया था | अचंभित राजा ने पूछा कि सच बता, तुझे ये जबाब किसने बताया, विचक्षणा ने डरते डरते सच बता दिया | राजा जितनी जल्दी गुस्सा हुआ था, उतनी ही जल्दी खुश भी हो गया और शकटार को छोड़ने का आदेश दे दिया | इतना ही नहीं तो उसे पुनः पूर्ववत मंत्री भी बना दिया, बिना इस बात का विचार किये, कि उसके कारण शकटार का पूरा परिवार जेल में ही मर गया, वह कैसे इस बात को भूलेगा | 

और हुआ भी वही, बदले की आग में जलता शकटार मौके की तलाश में रहा | श्राद्धपक्ष में उसे मौका मिल गया | उसने देखा कि एक कुरूप ब्राह्मण अत्यंत गुस्से में खुरपी लेकर मैदान में से कुशाओं को जड़ से उखाड़ कर फेंक रहा है | कारण पूछने पर ब्राह्मण ने बताया कि उसके पैर में एक कुशा चुभ गई थी, बस उसने ठान लिया कि पूरे मैदान को कुषा विहीन बना दूंगा | शकटार को लगा कि यह क्रोधी ब्राह्मण उसके लिए उपयोगी हो सकता है | उसने ब्राह्मण से कहा, महाराज यह काम तो मैं अपने कर्मचारियों से करवा देता हूँ, आप तो आज पित्रपक्ष में राजा के यहाँ श्राद्ध भोज करो | शकटार ने उस ब्राह्मण को ले जाकर राजा के महल में उस आसन पर बैठा दिया, जहाँ मुख्य पुरोहित को बैठकर भोजन करना था और स्वयं वहां से चला गया | राजा जब भोजन स्थल पर आया और इस अनिमंत्रित ब्राह्मण को बैठे देखा तो आगबबूला हो गया और उसे अपमानित कर वहां से उठवा दिया | बस ब्राह्मण ने शिखा खोलकर प्रतिज्ञा कर ली कि अब तो शिखा तभी बंधेगी जब तुझे सिंघासन से उतार दूंगा | तब तक मैं अपना नाम भी प्रयोग नहीं करूंगा, चणक का पुत्र होने के कारण चाणक्य रहेगा मेरा नाम | 

खैर ब्राह्मण विष्णू के क्रोधित होने का कारण जो भी हो, वह क्रुद्ध हुआ | नाराज चाणक्य वन में जा रहे थे, तभी उन्हें गाय चराते कुछ बालक दिखाई दिए, जो खेल भी रहे थे | जब कुछ देर खेल देखा तो ब्राह्मण अचरज में पड़ गए | बालकों में से कुछ यवन बने थे और कुछ आर्य | आर्य बने बालक यवनों को मार मार कर भगा रहे थे और उनका नेतृत्व एक तेजस्वी बालक कर रहा था | ज्योतिष के जानकार चाणक्य ने आगे बढ़कर उस बालक को अपने पास बुलाया और उसकी हस्तरेखा देखी तो चमत्कृत रह गये | उसे बालक के हाथों में प्रबल राज योग दिखाई दिया | वह बालक के साथ उसके वृद्ध पिता के पास पहुंचा और पूछा कि यह तुम्हारा बालक तो हो नहीं सकता, सच बताओ यह तुम्हारे पास कैसे आया | ब्राह्मण के अधिकार पूर्वक पूछे गए प्रश्न के उत्तर में उस वृद्ध ग्वाल ने स्वीकार किया कि उसे यह बालक जंगल में पड़ा मिला था | उसने वह सोने का रक्षा बंध भी दिखाया जो उस समय बालक के हाथ में बंधा था | निश्चय ही वह बालक किसी राजकुल का था | चाणक्य ने बालक के उस पालक पिता से कहा कि मैं इस बालक को प्रशिक्षित कर योग्य बनाना चाहता हूँ | इस बालक की हस्तरेखा बता रही है कि यह समाज को यवनों के आतंक से मुक्त करेगा, दिग्विजई सम्राट बनेगा | अतः इस बालक के और समाज के हित में इसे मुझे दे दो | वृद्ध ग्वाल को हिचकिचाते देखकर ब्राह्मण ने समझाया कि भाई राजा दशरथ ने भी तो समाज के हित के लिए अपने सबसे प्रिय पुत्र राम विश्वामित्र को सोंप दिए थे | ज्यादा विचार मत करो, करना है तो इस बालक के भविष्य का विचार करो | 

अंततः वह १२ वर्षीय वनवासी बालक चाणक्य के साथ चल पड़ा अपनी भविष्य की यात्रा पर | हिमालय के वनप्रांतर में उसका प्रशिक्षण प्रारम्भ हुआ | शस्त्रास्त्रों के प्रयोग से लेकर लौकिक शिक्षा तक | चाणक्य ने उसका नामकरण किया चन्द्रगुप्त | वहां आसपास के भील, किरात व अन्य वनवासी युवकों को भी चाणक्य ने उसके साथ ही शिक्षा देना शुरू किया | आखिर अगर चन्द्रगुप्त को राजा बनाना था, तो विश्वासपात्र सेना भी तो चाहिए थी | तो इस प्रकार चाणक्य ने अपनी प्रतिज्ञापूर्ती की दिशा में पहला कदम बढ़ा दिया | 

चाणक्य का मूल उद्देश्य था, यवनों से आर्यावर्त को मुक्त करना, इसकेलिए उन्होंने हर संभव उपाय किये, कुटिलता की इतनी सीमा लांघी कि उनका नाम ही कौटिल्य प्रचलित हो गया | लक्ष्य उत्तम हो और भाव निस्वार्थ हो, तो दुष्ट कार्य भी प्रशंसनीय हो जाते हैं, चाणक्य का कथानक यही दर्शाता है | हिमालय की उपत्यका में चन्द्रगुप्त और वनवासी युवकों का प्रशिक्षण चलता रहा, और देखते ही देखते वे लोग बालक से किशोर, किशोर से तरुण हो गए | स्वाभाविक ही उन लोगों में अपने गुरू चाणक्य के प्रति अतिशय भक्तिभाव था, वे उनके शिक्षक कम, अभिभावक अधिक थे | अतः जब एक दिन चाणक्य ने चन्द्रगुप्त से कहा कि अब वे कुछ समय के लिए उन्हें अकेला छोड़कर जाना चाहते हैं, तो सभी को कष्ट हुआ | किन्तु चाणक्य ने कहा कि अब तुम्हारा प्रशिक्षण लगभग पूर्ण हो चुका है, अब परीक्षा का समय है | मुझे देखना है कि मेरी अनुपस्थिति में तुम लोग आश्रम का प्रबंध कैसे और कितनी अच्छी प्रकार संभाल सकते हो | मैं लौटकर तुम्हारे पराक्रम की गाथा सुनना चाहता हूँ | देखता हूँ क्या कर पाते हो | परीक्षा के नाम से यह चुनौती उन नौजवानों को देकर चाणक्य वहां से पाटलीपुत्र पहुँच गए | उद्देश्य एक ही था, नन्द शासन की आतंरिक व्यवस्था देखकर उसकी जड़ें खोदना | 

पाटलीपुत्र में जब निरुद्देश्य घूम रहे थे, तब एक बौद्ध सन्यासी ने उन्हें नगरी में अनजान समझकर उन्हें अपने मठ में चलकर आतिथ्य स्वीकारने का प्रस्ताव रखा, किन्तु जब अन्य धर्मावलम्बी होने के कारण इन्हें हिचकिचाते देखा, तो सन्यासी ने प्रस्ताव रखा कि आवास व्यवस्था मठ के समीप स्थित कैलाशनाथ मंदिर में हो जायेगी, केवल भोजन के लिए मठ में पधारिये | और उसके बाद संयोग बनते गए, मठ में आते जाते ही चाणक्य की भेंट राजा की एक रानी मुरा की दासी बृंदमाला से हो गई और उससे चर्चा में एक गूढ़ रहस्य भी ज्ञात हो गया, कि मुरा एक किरात राजा की बेटी थी, जिसे पराजित कर नन्द ने मुरा से गन्धर्व विवाह कर अपनी रानी बनाया था | मुरा को एक पुत्र हुआ, किन्तु अन्य रानियों ने षडयंत्रपूर्वक मुरा को चरित्रहीन और नीची जाति की बताकर राजा को भड़काया और राजा ने नवजात शिशु को जंगल में ले जाकर मारने के लिए वधिकों को सोंप दिया | इतना ही नहीं तो मुरा को भी कैद में डाल दिया | कुछ समय पूर्व ही राजा घनानंद की पटरानी के पुत्र सुमाल्य का विवाह हुआ, तो सभी बंदी मुक्त हुए, तो मुरा को भी आजादी मिली | किन्तु उसके मन में बदले की आग धधक रही है | 

बस फिर क्या था, चाणक्य ने आनन फानन में एक योजना बना डाली, उस दासी के माध्यम से वह रानी मुरा से मिला और उसे बताया कि वह उसके पीहर से आया है और उसके भाई ने ही हालचाल जानने भेजा है | रानी बहुत खुश हुई और कहा कि उसने अपने भतीजे को तो देखा ही नहीं है, आज उसका बेटा जीवित होता, तो भतीजे जितना ही बड़ा होता, क्योंकि दोनों का जन्म लगभग साथ ही हुआ था | चाणक्य को तो जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गई, उसने कहा कि वह शीघ्र ही उसके भतीजे को उससे मिलाने को लेकर आयेगा | लेकिन उसके बाद भी चाणक्य तुरंत वापस नहीं लौटे, उन्होंने जानकारी जुटाई कि सेनापति भागुरायण भी आमात्य राक्षस के प्रभाव और राजा के व्यवहार से असंतुष्ट है | क्योंकि वही मुरा के पिता किरातराज को पराजित कर मुरा को पाटलीपुत्र लाया था व उसे राजा नन्द को समर्पित किया था | अतः जब उसके नवजात बालक की हत्या हुई, तब उसे बहुत दुःख हुआ था | अमात्य राक्षस के कारण वह कुछ कर तो नहीं पाया, किन्तु उसका मन उसे कचोटता रहा | 

यह सारी जानकारी लेकर और आगामी कार्ययोजना निश्चित कर वे अपने आश्रम की ओर वापस चले, लेकिन उनके मन में बस केवल एक ही चिंता थी कि चन्द्रगुप्त को रानी मुरा का भतीजा बनाकर पाटलीपुत्र तो लाना है, लेकिन उन जैसा दरिद्र ब्राहमण चन्द्रगुप्त के लिए राजसी ठाट बाट की व्यवस्था कैसे करेगा | लेकिन यह चिंता भी हिमालय की गोद में अपने आश्रम में पहुंचकर दूर हो गई | आश्रम में चन्द्रगुप्त और उसके साथियों ने एक यवन टुकड़ी को पराजित कर उनका धन लूट लिया था और चाणक्य के पहुंचते ही गुरूदक्षिणा के रूप में उसे उन नौजवानों ने चाणक्य के चरणों में समर्पित कर दिया | चाणक्य खुश, बस फिर क्या था, उस धन से हाथी घोड़े वस्त्र सबकी व्यवस्था हो गई और चन्द्रगुप्त किसी राजकुमार के ही समान पाटलीपुत्र पहुंचा | तब तक रानी मुरा भी अपने व्यवहार से राजा नन्द का विश्वास जीतने में सफल हो चुकी थी, अतः चन्द्रगुप्त आसानी से उसके भतीजे के रूप में राजमहल में ही प्रतिष्ठित हो गया | जबकि उसके साथ ही पहुंचे चाणक्य एक निस्पृह ब्राहमण के समान नदी के तट पर झोंपड़ी बनाकर रहने लगे | धीरे धीरे उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर नगर के गणमान्य लोग भी उनके पास आने लगे | एक निस्पृह सन्यासी के रूप में नदी किनारे रहते चाणक्य का सम्पर्क सेनापति भागुरायण से हुआ और जब उन्होंने सेनापति को बताया कि मुरा का पुत्र जीवित है और वही चन्द्रगुप्त है, प्रमाण के रूप में शिशु के हाथ में बंधा रक्षा बंध भी चाणक्य ने सेनापति को दिखाया, तो सेनापति पूरी तरह उनके सहयोगी बनने को तैयार हो गए | 

उधर चन्द्रगुप्त ने भी अपनी बुद्धिमत्ता और व्यवहार से दरबारियों और स्वयं राजा को भी अपना प्रशंसक बना लिया | उसकी योग्यता व बुद्धिमानी की कुछ कहानियाँ देखिये | एक बार रोम के बादशाह ने राजा नन्द के पास एक लोहे के पिंजड़े में बंद नकली शेर भेजा और साथ में सन्देश कि क्या आपके दरबार में कोई इस शेर को बिना पिंजड़ा तोड़े या खोले, बाहर निकाल सकता है | राजा, उसके आठों पुत्रों और दरबारियों ने बहुत सोचा, पर किसीको कुछ नहीं सूझा | लेकिन चन्द्रगुप्त ने बुद्धि लगाई और उस पिजड़े को खौलते पानी में रखबाया | देखते ही देखते राल और लाख का बना वह शेर गलकर बह गया | चन्द्रगुप्त की जयजयकार हो गई | इसी प्रकार एक बार किसी राजा ने एक अंगीठी में दहकती हुई आग, एक बोरा सरसों और मीठा फल अपने राजदूत के माध्यम से पहुंचवाया और जबाब माँगा | क्या जबाब भेजा जाए, यह भी किसी की समझ में नहीं आ रहा था, तब चन्द्रगुप्त ने समझाया कि इस अंगीठी के माध्यम से राजा ने सन्देश भेजा है कि मेरा क्रोध अग्नि जैसा दाहक है, सरसों के बोरे का अर्थ है कि मेरी सेना असीम है और फल के माध्यम से सन्देश दिया है कि मेरी मित्रता मधुर है | इसके उत्तर में चन्द्रगुप्त ने एक घड़ा जल, एक पिंजड़े में थोड़े से तीतर और एक अमूल्य रत्न भेजने का सुझाव दिया | सबको उसका अर्थ भी समझाया | तुम्हारे क्रोध की अग्नि को नीति के जल से बुझाया जा सकता है, तुम्हारी सेना कितनी ही असंख्य क्यों न हो, हमारे वीर तीतर के समान उसका भक्षण करने में समर्थ हैं, और मित्रता तो सदा अमूल्य ही होती है | 

स्वाभाविक ही चन्द्रगुप्त धीरे धीरे लोकप्रिय होने लगा | इसके आगे की कहानी में फिर भिन्नता है, एक कथानक तो यह है कि चाणक्य अपने पूर्व परिचित और नन्द से घनघोर असंतुष्ट मंत्री शकटार से मिले और जिस दासी विचक्षणा को शकटार ने नन्द के क्रोध से बचाया था, उसके माध्यम से नन्द और उसके आठ पुत्रों को जहर देकर मार दिया गया, किन्तु दूसरा कथानक कुछ अधिक विश्वसनीय प्रतीत होता है | 

अब राजमहल में रानी मुरा, मंत्री शकटार और सेनापति भागुरायण चाणक्य के सहयोगी बन चुके थे | योजनानुसार मुरा ने राजा को पूरी तरह अपने मोहपाश में जकड लिया था, इतना कि उसने राजकाज से भी ध्यान हटा लिया था | यहाँ तक कि उन्होंने राजदरबार में जाना भी बंद कर दिया था | राजा नन्द के परम विश्वासपात्र और स्वामिभक्त अमात्य राक्षस को इस स्थिति ने अत्यंत चिंता में डाल दिया था | अमात्य राक्षस राजा से बार बार आग्रह करते और वे टाल जाते | ऐसे में राक्षस बहुत परेशान थे, और उनका ध्यान इस समस्या पर ही केन्द्रित था | उनकी इसी मनोदशा और असावधानी का लाभ लेकर चाणक्य ने उनके एक सहयोगी को साधकर अमात्य की मुद्रा प्राप्त कर ली | और फिर राक्षस की और से ही राजा पर्वतेष को एक पत्र भेजा गया कि समय अनुकूल है एक निर्धारित समय पर आक्रमण करो, तो मगध आपके कब्जे में आ जाएगा | स्वाभाविक ही अमात्य राक्षस की मुहर लगे इस पत्र को राजा पर्वतेष ने सही ही माना और उसकी बांछें खिल गईं | इसी प्रकार का एक पत्र अमात्य राक्षस के बाल्य मित्र व नगर के प्रमुख जौहरी चंदनदास को भी लिखा गया कि एक गुप्त कार्य के लिए आपके घर से एक सुरंग खोदी जानी है | उनकी सहमति मिलनी ही थी, उसके बाद यह सुरंग उनके घर से राजदरबार तक खोदी गई और निर्धारित समय पर चाणक्य की विश्वासपात्र भील सेना भी पाटलीपुत्र में गुपचुप आ पहुंची | 

और फिर निर्धारित दिवस पर रानी मुरा ने ही आग्रह पूर्वक राजा को राजदरबार में जाने के लिए आग्रह किया और राजा नन्द ठाटबाट के साथ रवाना हुए | लेकिन राजा को रवाना करने के बाद मुरा को ज्ञात हुआ कि वस्तुतः आज तो उनकी जान ली जा रही है | उनका महिला मन जाग उठा | इस स्थिति की पूर्व कल्पना से सावधान चाणक्य ने तुरंत जाकर उनसे भेंट की और बताया कि जिसे वे अपना भतीजा समझे हुए हैं, वह चन्द्रगुप्त उनका अपना बेटा है | साक्ष्य के रूप में वह रक्षा बंध भी बताया जो बचपन में बालक के हाथ पर बाँधा गया था | रानी और भी भड़क गईं, और बोलीं कि अब तो राजा उसे बड़ा बेटा होने के कारण स्वतः अपना उत्तराधिकारी बना देंगे, अतः उनकी जान लेने की क्या आवश्यकता है ? और वे भी राजा के पीछे पीछे दरबार की तरफ रवाना हो गईं | लेकिन कमान से छूटा तीर क्या वापस आता है कभी | चंदनदास के घर से राजदरबार के बाहर तक खोदी गई सुरंग का अंत जिस जगह हुआ था, वहां एक खाई बना दी गई थी | जैसे ही राजा बहां पहुंचे अमात्य राक्षस की जय बोलते भीलों ने उनके दल पर धावा बोल दिया | राजा नन्द और उनके आठों बेटों को खाई में फेंक दिया गया | खाई में पहले से ही उपस्थित सैनिकों ने किसी को नहीं छोड़ा | तब तक रानी मुरा भी वहां आ पहुँची और यह नजारा देखकर वे भी खाई में ही कूद गईं | ये कृत्य करने वाले सैनिक चूंकि अमात्य राक्षस की जय जय कार कर रहे थे, अतः सभी ने माना कि यह हत्याकांड राक्षस ने ही करवाया है | और पूरे नगर में राक्षस की निंदा होने लगी | 

तब तक एक और सूचना मिली कि पाटलीपुत्र पर राजा पर्वतेष ने हमला कर दिया है | सेनापति भागुरायण और चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में पाटलीपुत्र की सेना ने पर्वतेष का सामना किया और पराजित कर चन्द्रगुप्त ने उसे जिन्दा पकड़ लिया | विजेता चन्द्रगुप्त की नगरवासियों ने जय जय कार की | देखते ही देखते चन्द्रगुप्त एक नायक बन गये और स्वामीभक्त राक्षस एक खलनायक | पराजित पर्वतेष से जब दरबार में आक्रमण का कारण पूछा गया तो स्वाभाविक ही उसने राक्षस द्वारा दिए गए आमंत्रण की जानकारी दी | रही सही कसर चन्दन दास ने पूरी कर दी | राक्षस के उस बाल्यकाल के मित्र ने जब यह बताया कि उसने अपने घर से सुरंग खोदने की अनुमति भी राक्षस के पत्र के कारण दी, तो किसी को रंच मात्र भी संदेह न रहा कि इस समूचे काण्ड के पीछे राक्षस की महत्वाकांक्षा ही है और उसने स्वयं राजा बनने के लिए ही यह मार्ग अपनाया है | जब लोगों को यह ज्ञात हुआ कि चन्द्रगुप्त और कोई नहीं, बल्कि राजा नन्द का बड़ा बेटा ही है, तब तो उन्होंने चन्द्रगुप्त को सर पर ही बैठा लिया और बिना किसी बिघ्न बाधा के उसका राज्याभिषेक संपन्न हो गया | 

लेकिन राक्षस तो सब समझ चुके थे, अतः वे पाटलीपुत्र छोडकर आसपास के राजाओं से संपर्क साधने निकल पड़े | उनकी योजना थी कि सब राजाओं की एक संयुक्त सेना पाटलीपुत्र पर आक्रमण कर चन्द्रगुप्त और चाणक्य का मान मर्दन करे | लेकिन क्या यह इतना आसान था, क्योंकि सब छोटे छोटे राजा, पाटलीपुत्र की विशाल सेना से भय कम्पित थे | किन्तु जब बंधनमुक्त हुए पर्वतेष से राक्षस ने संपर्क किया तो सब षडयंत्र समझकर और बदले की आग में जलते हुए वे उसके साथ हो गए | उस दौरान राक्षस ने चन्द्रगुप्त को मारने के कई प्रयत्न किये | एक वैद्य को उपचार के बहाने विष देने भेजा गया, किन्तु सतर्क चाणक्य ने वह दवा पहले बैद्य जी को ही पिलाई और वे बेचारे खरामा खरामा देवलोक को प्रस्थान कर गए | राजमहल के जिस कक्ष में चन्द्रगुप्त को रात्रि विश्राम करना था, राज्य का महामात्य होने के कारण राक्षस को जानकारी थी कि उसमें एक तहखाना व सुरंग है | सुरंग के माध्यम से उसने तहखाने में योद्धाओं को पहुंचा दिया, ताकि वे रात्री को सोते समय चन्द्रगुप्त का काम तमाम कर दें | लेकिन जमीन में से चींटियों को निकलते देख चाणक्य को संदेह हुआ और उन्होंने उस कक्ष को ही जला डाला | बेचारे सभी योद्धा उसमें ही जल मरे | लेकिन राक्षस ने हिम्मत नहीं हारी और एक विषकन्या को चन्द्रगुप्त का शिकार करने को भेजा | 

लेकिन सजग चाणक्य ने उस विषकन्या का प्रयोग पर्वतेष पर ही कर दिया | नतीजा चाणक्य के मन माफिक ही हुआ और पर्वतेष मारे गए | चाणक्य ने सोचा था कि पर्वतेष से मैत्री सम्बन्ध स्थापित कर चूंकि मुक्त किया गया है, अतः इसका दोष भी राक्षस के माथे ही मढा जाएगा, लेकिन उन्होंने राक्षस के बुद्धि कौशल को कम समझा था | जनता ने तो वही समझा जो चाणक्य चाहते थे, किन्तु राक्षस पर्वतेष के पुत्र मलयकेतु को यह समझाने में सफल रहे कि वस्तुतः उसके पिता की हत्या चाणक्य के कारण हुई है | बस फिर क्या था, क्रुद्ध मलयकेतु ने राक्षस के साथ मिलकर पाटलीपुत्र पर आक्रमण कर दिया | 

चाणक्य समझ चुके थे कि जब तक राक्षस हाथ में नहीं आते तब तक चन्द्रगुप्त का शासन स्थिर नहीं हो सकता अतः उन्होंने राक्षस को साधने में एडी चोटी का जोर लगा दिया | इसका बड़ा ही रोचक वर्णन भारतेंदु हरिश्चन्द्र लिखित मुद्रा राक्षस नाटक में किया गया है | बैसे मूलतः मुद्रा राक्षस महाराज पृथु के पुत्र संस्कृत के प्रख्यात कवी विशाखदत्त लिखित है | 

राक्षस को वश में करने के लिए चाणक्य ने जानकारी ली कि अब पाटलीपुत्र में राक्षस के प्रति आत्मीय भाव रखने वाला कोई है क्या ? तो ज्ञात हुआ कि पूरा नगर तो उसे दुष्ट ही मान रहा है, किन्तु एक शकटदास और दूसरा जौहरी चंदनदास आज भी राक्षस को ही अपना मानते हैं | यहाँ तक कि राक्षस अपने परिवार को भी चन्दनदास के ही पास छोड़कर गया है | 

चाणक्य ने आश्चर्य पूर्वक दूत से पूछा – राक्षस अपने परिवार को चन्दन दास के पास छोडकर गया है, यह तुम्हें कैसे पता चला ? 

दूत ने जबाब में एक अंगूठी उनके समक्ष प्रस्तुत की, जिस पर राक्षस अंकित था और बताया कि जब वह एक जोगी के वेश में चन्दन दास के घर की निगरानी कर रहा था, तब दरवाजे से एक छोटा सा सुन्दर बालक बाहर आया और उसे पकड़ने एक स्त्री भी आई | उस महिला के हाथ की उंगली से अकस्मात यह अंगूठी फिसल कर नीचे गिर गई | अंगूठी पुरुष की थी, अतः महिला की पतली उंगली से असावधानीवश निकल गई | अंगूठी पर राक्षस अंकित देखकर मैं आपके पास ले आया | 

चाणक्य ऐसे खुश हुए मानो कोई खजाना मिल गया हो | उन्होंने सबसे पहले तो चन्दन दास को बुलवाया | उनके बुलावे से ही चन्दन दास समझ गया कि उसे क्यों बुलवाया गया होगा, अतः उसने सबसे पहले तो राक्षस के परिवार को अपने घर से दूर एक सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया और उसके बाद चाणक्य से मिलने पहुंचा | चाणक्य ने उससे राक्षस के परिवार के बारे में ही पूछा, किन्तु उसने अनभिज्ञता जताई | उसके बाद चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के माध्यम से दो काम करवाए, पहला तो राक्षस के लेखक मुंशी शकट दास को सूली पर चढाने का आदेश और दूसरा जौहरी चंदनदास की गिरफ्तारी | 

लेकिन कूटनीति भी चलती रही | यह समझकर कि अभी भी राज्य में बहुत लोग ऐसे हैं जो राजा नन्द के प्रति आदर भाव रखते हैं, साथ ही उनकी सहानुभूति राक्षस के साथ भी है | चाणक्य ने दो योजना बनाईं | एक तो यह कि चन्द्रगुप्त से मन मुटाव प्रदर्शित कर अलग हो गए | दूसरी योजना के अंतर्गत एक सेनानायक क्षपणक और सेनापति भागुरायण शकटदास को फांसी के फंदे से बचाकर पाटलीपुत्र से ले गए और सीधे जाकर राक्षस से मिले | 

राक्षस उस समय आभूषण विहीन बैठे थे, और राजकुमार मलयकेतु उनसे कुछ आभूषण पहनने का आग्रह कर रहे थे | राक्षस ने उत्तर दिया – 

इन दुष्ट बैरिन सों दुखी, 

निज अंग नाहिं संवारिहों, 

भूषन बसन सिंगार तब लों, 

हों न तन कछु धारिहों, 

जब लों न सब रिपु नासि, 

पाटलीपुत्र फेरि बसायहों, 

हे कुंवर तुमको राज दे, 

सिर अचल छत्र फिरायहों | 

तो ऐसी थी राक्षस की अचल राजभक्ति और ऐसा था जुझारू व्यक्तित्व | शायद इसे समझकर ही चाणक्य उन्हें साधने की हर संभव चेष्टा कर रहे थे | तभी शकटदास के साथ सेनापति भागुरायण और सेनानायक क्षपणक वहां पहुंचे | स्वाभाविक ही राक्षस इन्हें देखकर बहुत संतुष्ट हुए | मलयकेतु ने भी मैत्रीभाव दर्शाया | पाटलीपुत्र पर आक्रमण की योजना बनने लगी | वहां रहते हुए एक दिन भागुरायण और क्षपणक इस प्रकार गुपचुप चर्चा कर रहे थे कि वह चर्चा राजकुमार मलयकेतु भी सुन ले | चर्चा में राक्षस के बुद्धिकौशल की बढाई करते हुए ये लोग कह रहे थे कि देखो कितनी कुशलता से विषकन्या द्वारा पर्वतेष को मारने के बाद भी महामात्य उनके बेटे मलयकेतु को भी साधे हुए हैं | आर्य चाणक्य की आज्ञा है कि हम लोग महामात्य राक्षस की जीजान से रक्षा करें | उन्हें मलयकेतु कोई हानि न पहुंचा पाए | 

कुल मिलाकर संदेह का बीज बोने की जो योजना थी वह सफल हुई और मलयकेतु भी राक्षस का साथ छोड़ गया | लेकिन जिस समय वह अपने राज्य वापस जा रहा था, उस पर हमला कर चन्द्रगुप्त ने बंदी बना लिया | इसी दौरान एकाकी बचे राक्षस के पास समाचार पहुंचाया गया कि उसके परिवार का पता न बताने से नाराज होकर चन्द्रगुप्त ने उनके मित्र जौहरी चन्दन दास को फांसी का आदेश दे दिया है | अपने कारण मित्र के प्राण संकट में देखकर राक्षस वापस पाटलीपुत्र आने को विवश हुए और ठीक उस समय जब कि चन्दनदास को फांसी पर चढ़ाया जाने वाला था, वे बधस्थल पर जा पहुंचे | उन्होंने वहां उपस्थित सैनिकों के माध्यम से चाणक्य को समाचार भिजवाया कि जिस राक्षस का साथ देने के अपराध में चन्दनदास को मृत्युदंड दिया जा रहा है, वह राक्षस स्वयं उपस्थित हो गया है, और हर सजा भुगतने को तैयार है | 

चाणक्य जानते थे कि जिस प्रकार चन्दन दास प्राण देकर भी अपने मित्र के परिवार को बचाने पर आमादा हैं, उसी प्रकार राक्षस भी अपने मित्र चन्दन दास को बचाने अवश्य आयेंगे, अतः उन्होंने यह नाटक रचा था | अतः समाचार मिलते ही चाणक्य और चन्द्रगुप्त दोनों वहां पहुँच गए और दोनों ने, जी हाँ दोनों ने उन्हें साष्टांग दंडवत प्रणाम किया | राक्षस चकित हुए जब चाणक्य ने उन्हें अमात्य संबोधन ही दिया | राक्षस को समझाया गया कि आर्यावर्त में यवनों को रोकने का सामर्थ्य अब केवल चन्द्रगुप्त में ही है, अतः समाजहित में उनका सहयोगी बनना सर्वथा उचित है | कहने की आवश्यकता नहीं कि विनय पूर्वक राक्षस को दोनों ने मिलकर पुनः राज्य का अमात्य बनने के लिए विवश कर दिया | चन्दन दास को जगत सेठ की उपाधि मिली | राक्षस के कहने पर मलयकेतु को न केवल मुक्त कर दिया गया, वरन उसे उसका राज्य भी वापस कर दिया गया | 

स्वाभाविक ही चाणक्य ने अब जाकर निश्चिन्त होकर अपनी शिखा बांधी | आगे का इतिहास तो सर्व विदित है कि सिकंदर की मृत्यु के बाद उसके सेनापति सेल्यूकस ने भारत पर आक्रमण किया और पराजित होकर अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ करने को विवश हुआ | सुयोग्य और सक्षम नेतृत्व के साथ में जागरूक समाज ही किसी राष्ट्र की स्वतंत्रता कायम रखते हुए, उसे उन्नति और प्रगति के पथ पर ले जा सकता है | 

चाणक्य प्रसंग को लेकर दो शंकाएं उठती हैं | पहली तो यह कि अगर चन्द्रगुप्त नन्द के पुत्र थे, तो वे मौर्य कैसे हुए | इसके विषय में लाला लाजपत राय लिखते हैं कि – 

प्राचीन भारत में यह रीति प्रचलित थी कि कई बार संतान मां के नाम से भी पुकारी जाती थी | जैसे महाभारत में युधिष्ठिर इत्यादि को कई बार कौन्तेय अर्थात कुंती पुत्र कहा गया है | अतः प्रतीत होता है कि या तो चन्द्रगुप्त की माता का नाम मोरी था या उनका यह गोत्र था और उसके प्रति श्रद्धाभाव दर्शाने को चन्द्रगुप्त ने स्वयं को मौर्य घोषित किया | 

अब दूसरा मुख्य विषय कि चाणक्य थे अथवा नहीं, यह विवाद आज का नहीं है, दीर्घकाल से चला आ रहा है | इसका उत्तर देते हुए लाला लाजपतराय ने अपनी पुस्तक सम्राट अशोक में कुछ यूं लिखा है – 

प्राचीन आर्य ऋषियों की नीति थी कि अपने अमूल्य जीवन को ज्ञानार्जन में खपा देते थे, किन्तु अपने आप को प्रकाश में लाने का कोई उद्यम नहीं करते थे | आज किसको ज्ञात है कि उपनिषदों के निर्माता कौन ऋषि थे और उनका जीवन किस प्रकार व्यतीत हुआ | इसी प्रकार दर्शनों के नाम तो प्रसिद्ध हैं, किन्तु उनके प्रणेताओं को कौन जानता है ? कौन जानता है कि कितने सांख्य और गौतम हुए, अतः यह कहना नितांत असंभव है कि सांख्य दर्शन किसने लिखा है | कौटिल्य का अर्थ शास्त्र तो किसी को ज्ञात भी न होता, अगर मैसूर राज ने संस्कृत में लिखित पुस्तकों का संग्रह न प्रारम्भ किया होता | उस दौरान ही एक पंडित ने कौटिल्य शास्त्र की एक प्रति, जिस पर एक अपूर्ण भाष्य भट्ट स्वामी का था, मैसूर की ओरिएंटल लाइब्रेरी को प्रदान की | उसके बाद एक मैसूरी विद्वान् शाम शास्त्री ने उसको किसी प्रकार शुद्ध कर मुद्रित करा दिया | फिर जब उसका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ, तब दुनिया भर के विद्वान आश्चर्यचकित रह गए | फिर तो कौटिल्य को भारत का मैकियावेली कहा जाने लगा | स्मरणीय है कि इटैलियन विद्वान मैकियावेली द्वारा राजनीति पर लिखित पुस्तक एक नियामक ग्रन्थ मानी जाती है | 

लाला लाजपतराय आगे लिखते हैं – विष्णुगुप्त ने देखा कि सिकंदर उसके देश को विजित कर रहा है और अपने राज्य को स्थिर बनाने का प्रयत्न भी कर रहा है | तक्षशिला का राजा नीच होकर सिकंदर के साथ मिल चुका है | विष्णुगुप्त के ह्रदय की उस समय कैसी दशा रही होगी, इसका अनुभव वही पवित्र ह्रदय कर सकता है, जिसमें सच्ची देशभक्ति की लहरें हिलोरें मार रही हों | उसने विचार लिया होगा कि सिकंदर की लाई हुई सेना के सम्मुख, विशेषतः उस परिस्थिति में, जब कि भारतीय नीचों की सहायता ने उस सेना के बल को दुगना कर दिया है, न कोई स्वतंत्र राजा ठहर सकेगा और न कोई देश | वे देख रहे थे कि सिकंदर मारकाट करता हुआ, व्यास के पश्चिमीय तट तक जा पहुंचा | किन्तु यह अच्छा हुआ कि चनाव और व्यास के बीच रहने वाले स्वतंत्र व स्वावलंबी समाज ने उसकी सेना के दांत खट्टे कर दिए और वह पीछे हटने को विवश हुआ | यदि वह व्यास को पार कर जाता तो बहुत सम्भव था कि मगध के तत्कालीन राजा में उसका सामना करने की शक्ति न होती और सारा उत्तरी भारत सिकंदर के घोड़ों के खुरों तले कुचला जाता | विष्णुगुप्त ने अपने दूरदर्शी नेत्रों से देखा कि भारत में किसी प्रधान शक्ति के न होने से ही यह दुर्दशा हो रही है | छोटे छोटे राजा इस योग्य नहीं हैं कि किसी प्रबल आक्रमणकारी का वीरता से सामना करें | ऐसी दशा में यह भी संभावना हो सकती है कि जातीय विद्वेष और पारिवारिक विद्रोह के सताए हुए शासक आक्रमणकारी से मेल कर लें और उसकी अधीनता स्वीकार कर लें | अगर ऐसी स्थिति बनी तो फिर देश की मान मर्यादा और उसके हित का क्या होगा ? 

उनके देखते देखते यह होने भी लगा था, अतः कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने चन्द्रगुप्त की योग्यता और कुल को देखकर उसके ह्रदय में भारत का राजाधिराज होने का विचार भरा, और इतिहास इस बात का गवाह है कि उनका उद्यम सफल रहा | उनके तीन उद्देश्य थे | प्रथम नैतिक शक्ति की प्रधानता हो | द्वितीय यह कि बौद्ध धर्म की उठती अहिंसक लहर से समाज में जो निर्बलता आ रही है, उसे थामा जाए | और तृतीय यह कि परकीय जातियों से देश को पूर्णतः मुक्त कराया जाए | उन्होंने इन तीनों उद्देश्यों को एक दूसरे का पूरक बनाया | इस बात के स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं कि चाणक्य ऋषि की प्रतिष्ठा महाराज चन्द्रगुप्त के समय में अद्वितीय और अद्भुत थी | किन्तु इतनी शक्ति और अधिकार रहते हुए भी चाणक्य का आचार व्यवहार अत्यंत साधारण व बहुत हद तक दरिद्रवत था | उन्होंने अपने लिए न कोई महल बनवाया, न कोई भवन | न कोई धन एकत्रित किया, न किसी सुखोपभोग की कामना की | वे आजीवन साधारण भोजन व सामान्य वस्त्रों में ही संतुष्ट रहे | 

उनकी तपस्या, बुद्धिमत्ता, इन्द्रिय निग्रह व योग्यता का फल यह हुआ कि थोड़े समय में ही देश न केवल विदेशी सिकंजे से मुक्त हो गया, बल्कि हिन्दुकुश से लेकर बंगाल तक, और कश्मीर से लेकर विन्ध्याचल तक का विस्तृत क्षेत्र एक मुख्य नैतिक शक्ति के आधिपत्य में आ गया | चाणक्य ने अपने जीवन काल में ही इस प्रधान शक्ति को ऐसे प्रबंध में बाँध दिया कि शताब्दियों तक किसी बाहरी आक्रमणकारी को भारत के किसी भाग पर आक्रमण करने अथवा अधिकार जमाने का साहस न हुआ | इस सूक्ष्म विचार से कौटिल्य या ऋषि चाणक्य प्रलय काल तक भारतवासियों के लिए श्रेयस्कर जीवन हैं और भारतीयों के लिए पूजा के पात्र हैं | ऐसी घोर विपत्ति के समय में उहोने भारत की जो सेवा की है, वह भारतीय इतिहास में सर्वदा प्रतिष्ठा की नजर से देखी जायेगी और भारत की संतान सर्वदा उन पर श्रद्धा और भक्ति के पुष्प चढ़ाती रहेगी | चन्द्रगुप्त की सफलता, उनके वैभव और शक्ति का रहस्य इस दरिद्र की झोंपड़ी में ही छुपा था | 

इस प्रकार का दिव्य चरित्र किसी भारतीय का हो, यह भला कोई यूरोपीय या वामपंथी इतिहासकार कैसे स्वीकार कर लें ? आखिर उनकी मुहीम तो भारत को स्वाभिमान शून्य बनाए रखने की है | अतः उनके लिए तो यही मुफीद है कि वे चाणक्य हुआ ही नहीं की रट लगाए रहें | जैसी जिसकी सोच | 
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें