क्रांतिवीर मदन लाल ढींगरा की अमर गाथा



लन्दन में एक भारतीय क्रांतिकारी को सजाये मौत सुनाई गई तो उसका आखिरी बयान था —“ मेरे जैसे बेटे के पास अपनी मां को देने के लिए क्या है? केवल मेरा अपना खून.. जो मैंने उसकी वेदी पर चढ़ा दिया है। भारत में इस वक्त केवल एक ही पाठ सिखाने की जरूरत है और वो ये कि कैसे अपनी जान कुर्बान की जाए और इसे सिखाने का बस एक ही रास्ता है कि हम खुद अपनी जान देश पर कुर्बान करके दिखाएं। मेरी भगवान से बस एक ही प्रार्थना है कि अगले जन्म में भी मेरा जन्म उसी धरती पर हो और फिर उसी ध्येय के लिए अपनी जान कुर्बान कर दूं और करता रहूं, जब तक कि वो ध्येय पूरा ना हो”। 

1909 में लंदन जाकर अंग्रेजों के घर में उनके एक बड़े अफसर को मौत की नींद सुला देने वाले इस वीर क्रांतिकारी का नाम था मदन लाल धींगरा। मदन लाल धींगरा से जब कोर्ट ने वकील के बाबत पूछा तो उन्होंने वकील लेने से ये कहकर इनकार कर दिया कि मेरा केस आपको सुनने का अधिकार ही नहीं है, आप तो विदेशी हो हमारे देश पर कब्जा किए बैठे हो, आप हमारे साथ न्याय कैसे कर सकते हो। धींगरा ने अपना केस खुद लड़ा और स्वीकार कर लिया कि अंगेजी अफसर विलियम हट कर्जन वाइली, जो कि भारत सचिव का राजनीतिक सलाहकार था और भारत में अरसे से फौजी अफसर बतौर काम कर चुका था, की हत्या उसने की लेकिन क्यों की, उस स्टेटमेंट की थोड़ी सी लाइनें गौर करने योग्य हैं, उसने सवाल किया कि “अगर जर्मनी इंग्लैंड पर कब्जा कर लेता और कोई अंग्रेज इसके विरोध में किसी जर्मन को मार देता तो क्या वो देशभक्ति नहीं होती? पिछले पचास सालों में मेरे देश के 8 करोड़ लोगों की मौत के लिए अंग्रेज जिम्मेदार हैं और हर साल मेरे देश से एक करोड़ डॉलर निकाल कर ले जाने के लिए भी आप ही लोग जिम्मेदार हैं। आपकी हिप्पोक्रेसी देखकर मैं हैरान हूं, कांगो और रुस में कुछ भी गलत होता है तो आप लोग मानवीयता की बातें करते हो और हर साल इंडिया में बीस लाख लोगों की मौत आपकी वजह से होती है तो आपको कोई फर्क नहीं पड़ता ।“ और आखिर में मदन लाल ने कहा, “ आप मुझे फांसी दे दो, आई डोंट केयर। आप गोरे लोग आज पॉवरफुल हो, लेकिन एक दिन हमारा भी वक्त आएगा, फिर हम वो करेंगे जो हम चाहेंगे”। 

ये अपनी तरह का पहला मामला था, जिसकी ना केवल एक दिन में यानी 23 जुलाई 1909 को ही सुनवाई पूरी हो गई, जज ने उसी दिन ना केवल फांसी की सजा सुनाई बल्कि किस जेल में और कौन सी तारीख को फांसी होगी, ये भी बता दिया, बाद में अंग्रजी मीडिया ने इस बात की काफी आलोचना की। टाइम्स ऑफ लंदन ने अगले दिन ‘कनविक्शन ऑफ धींगरा’ के नाम से एक रिपोर्ट लिखी। मदन लाल के आखिरी स्टेटमेंट की चर्चा डेविड लॉयड जॉर्ज और विंस्टन चर्चिल के बीच भी हुई, तत्कालीन मीडिया में छपी खबरों के अनुसार इस निजी बातचीत में दोनों ने इस स्टेटमेंट को राष्ट्रप्रेम के नाम पर दिया गया सबसे शानदार बयान माना । 

लेकिन हमारे देश में क्या हुआ? गांधीजी जो उन दिनों तक एक तरह से नेपथ्य में थे, किन्तु उन्होंने धींगरा के बयान की आलोचना की और 14 अगस्त 1909 के द इंडियन ओपीनियन के अंक में उन्होंने लिखा, “यदि ऐसे खूनखराबे के परिणाम स्वरुप अंग्रेज भारत छोड़ जाते हैं, तो उनकी जगह पर कौन शासन करेगा ? क्या अंग्रेज इसलिए बुरे है क्योंकि वह अंग्रेज है? क्या भारतीयों में से हर कोई अच्छा है? यदि ऐसा है, तो फिर भारतीय राजाओं द्वारा किये गए उत्पीड़न के खिलाफ भी गुस्सा होना चाहिए। भारत हत्यारों के शासन से कुछ भी हासिल नहीं कर सकता - चाहे वे काले हों या सफेद । इस तरह के नियम से तो, भारत पूरी तरह से बर्बाद और बेकार हो जाएगा । 

मदन लाल धींगरा के पिता जोकि अमृतसर में एक सिविल सर्जन थे और तमाम हाईक्लास सोसायटी और अंग्रेज अधिकारियों के साथ उनका उठना बैठना था, पहले ही धींगरा को घर से निकाल चुके थे। हुआ कुछ यूं कि 1904 में मदन लाल जब लाहौर के एक कॉलेज में एमए कर रहे थे, उनके प्रिंसिपल ने एक ऑर्डर निकाला कि स्टूडेंट्स के ब्लेजर्स के लिए कपड़ा इंग्लैंड से मंगाया जाएगा । उस वक्त देश भर में स्वदेशी आंदोलन की चिंगारी सुलग रही थी। अतः मदन लाल के नेतृत्व में कॉलेज में भी आंदोलन छिड़ गया। धींगरा को कॉलेज से निकाल दिया गया। गुस्से में पिता ने भी उसे घर से निकाल दिया। मदन लाल ने उस दौरान क्लर्क की नौकरी की। कालका से शिमला के बीच तांगा चलाया और बाद में एक फैक्ट्री में मजदूरी भी की। लेकिन जैसे ही उसने मजदूरों के हित की आवाज उठाने के लिए मजदूर यूनियन बनाने की कोशिश की, यहाँ से भी निकाल दिया गया। कुछ समय तक मदन लाल धींगरा ने मुंबई में काम किया, फिर मदन लाल के भाई डा. बिहारी लाल ने सलाह दी कि पहले लंदन जाकर बाकी की पढ़ाई कर ले, बाद में आकर देश के बारे में सोचना। 

भाई की सलाह मानकर मदन लाल ने लंदन के यूनीवर्सिटी कॉलेज में मैकेनिकल इंजीनियरिंग कोर्स में एडमीशन ले लिया, उसमें ना केवल भाई ने मदद की बल्कि राष्ट्रवादियों ने भी सहयोग दिया। वहीं मदन की मुलाकात इंडिया हाउस के फाउंडर श्याम जी कृष्ण वर्मा और वीर सावरकर से हुई। दोनों ही उसके क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित थे। बाद में श्याम जी तो पहले पेरिस और बाद में स्विटरलैंड चले गए, लेकिन वीर सावरकर मदन लाल धींगरा को देशभक्ति का पाठ लगातार पढ़ाते रहे और साथ में देते रहे हथियारों की ट्रेनिंग। उनका मानना था कि अंग्रेजों पर हमले होंगे तभी वो खौफ में हमारे देश को छोड़ कर जाएंगे। धींगरा टोटेनहम शूटिंग रेंज में भी प्रेक्टिस करने लगा। 

मदन लाल अब किसी बड़े अंग्रेज अधिकारी को लंदन में ही मारकर उनकी नाक के ठीक नीचे दहशत फैलाना चाहता था। उसने बंग भंग के लिए जिम्मेदार अंग्रेजी वायसराय लॉर्ड कर्जन और बंगाल के पूर्व गर्वनर ब्रेमफील्ड फुलर की हत्या की योजना बनाई, लेकिन जहां दोनों की मीटिंग होनी थी वहां पहुंचने में देर हो गई और इरादा बदलना पड़ा। मदन लाल धींगरा का वाइली से कुछ भी लेना देना नहीं था बल्कि वो तो उसके पिता के परिचितों में से था, फिर भी उसे पता था कि इस हत्या से वो अंग्रेजी हुकूमत और देश के नौजवानों दोनों को कुछ मैसेज पहुंचा पाएगा। मदन लाल ने उसी को निशाना बनाया, लंदन में रहने वाले भारतीयों के इम्पीरियल इंस्टीट्यट में आयोजित एक कार्यक्रम में धींगरा ने उसको गोली मार दी। धींगरा को वहीं गिरफ्तार कर लिया गया। 

फांसी के बाद अंग्रेजों ने वीर सावरकर की गुजारिश के बावजूद मदन लाल का शरीर उन्हें नहीं सौंपा और ना ही हिंदू रीत से अंतिम संस्कार किया बल्कि चुपचाप कहीं दफना दिया। 

श्याम जी कृष्ण वर्मा की अस्थियों की तरह ही मदन लाल धींगरा की अस्थियां भी सालों विदशी जमीन पर कहीं दबी रहीं। ना परिवार को कुछ लेना देना था और ना ही आजादी के बाद की सरकारों को। वो तो 1976 में लंदन के उसी कब्रिस्तान में डायर को लंदन में ही जाकर मारने वाले दूसरे बड़े क्रांतिकारी ऊधम सिंह की अस्थियों को ढूंढा जा रहा था, तो दैवयोग से मदन लाल धींगरा की अस्थियों के बारे में भी पता चला और उन्हें लाया गया। घरवालों ने फिर भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। कभी भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी जिससे प्रेरणा लेते थे, उस क्रांतिकारी की अस्थियों को भारत लाया गया और उनके अपने शहर अमृतसर के बजाय महाराष्ट्र के अकोला में रख दिया गया और आज भी वहीं हैं। 

एक युवा जो लंदन में मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढाई आज से सौ साल पहले कर रहा था वो भी अंग्रेजी राज में, सोचिए कितना शानदार जीवन होता उसका। लेकिन उसने घरवालों की इच्छा के खिलाफ, अपने सारे सपनों को आग लगाकर भारत मां को आजाद करवाने और नौजवानों के दिलों में कुर्बानी का जज्बा जगाने के लिए अपनी जान देश पर कुर्बान कर दी। दुर्भाग्य यह कि ना तो उसका परिवार उससे सहमत था और ना देश के तत्कालीन नेता | लेकिन उसकी देशभक्ति की तारीफ़ कर रहा था केवल मीडिया |
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