मुग़ल सैनिकों की नाक काटने वाला अनूठा गढ़वाल !



आईये आज देवभूमि हिमालय की इतिहास यात्रा पर चलें | यहाँ के कई तथ्य बड़े रोचक हैं, जैसे कि कुमाऊँ, कूर्मांचल का अपभ्रंश है | माना जाता है कि यहाँ के एक पर्वत शिखर पर भगवान विष्णू के द्वितीय अवतार कूर्म अर्थात कछुए के पदचिन्ह विद्यमान होने के कारण इस अंचल का नाम कूर्मांचल पड़ा, जो अपभ्रंश होकर अब कुमाऊँ रह गया | यहाँ की एक नुकीली चोटी का नाम चंडालगढ़ है, माना जाता है कि यहाँ कुछ समय डोम राज्य भी रहा, जिन्हें आज हम निम्न वर्गीय दलित कहते हैं | उस राजा के काल में चमड़े के सिक्के चलवाए गए | लेकिन आज का कथानक एक अद्भुत रानी कर्णावती को लेकर है. जिन्हें इतिहास में नाक काटने वाली गढवालीरानी के नाम से जाना जाता है ! सुनकर ही हैरत होती है कि गढ़वाल की इस रानी ने आक्रमण करने आई पूरी मुगल सेना की बाकायदा सचमुच नाक कटवायी थी ! आईये पूरी कहानी पर एक नजर डालते हैं | 

रानी कर्णावती पवार वंश के राजा महिपतशाह की पत्नी थी ! वही पंवार वंश जिसके शासक अजय पाल ने इलाके के बावन गढ़ों को एकजुट कर, गढ़वाल रूप प्रदान किया था | यह वही महिपतशाह थे जिनके शासन में रिखोला लोदी और माधोसिंह जैसे सेनापति हुए थे जिन्होंने तिब्बत के आक्रांताओं को छठी का दूध याद दिलाया था ! तिब्बती अक्सर आकर पैनखंडा और दसोली परगनों में लूटपाट किया करते थे | महीपति शाह ने अपने सेनापति रिखोला लोदी के नेतृत्व में सेना भेजी, और पराक्रमी रिखोला के साथ हुए युद्ध में दापा के राजा की मृत्यु हो गई, तथा दापा के किले पर गढ़वालियों का कब्जा हो गया | दो पंवार भाईयों को वहां की शासन व्यवस्था सोंपकर विजई रिखोला वापस लौटे | महीपति शाह के दूसरे बहादुर सेनापति व अमात्य माधवसिंह थे, जिनके बारे में गढ़वाली कहावत है – 

''एक सिंह वन ​का सिंह, एक सींग गाय का। तीसरा सिंह माधोसिंह, चौथा सिंह काहे का ! '' 

माधव सिंह ने तिब्बत की सीमाओं पर चौकियां बनवाईं, उसी ने पहाड़ में सुरंग खोदकर उसे नहर का रूप देकर पानी लाने का अद्भुत चमत्कार कर दिखाया था, जिसे मलैया की नहर कहा गया | 

रिखोला लोदी और माधोसिंह जैसे सेनापतियों की मौत के बाद महिपतशाह भी १६४६ में स्वर्ग सिधार गये ! उनकी मृत्यु की भी विचित्र कथा है | क्षणिक क्रोध में उनके हाथों नागा साधुओं का क़त्ल हो गया, लेकिन वे यह देखकर हैरत में पड़ गए कि एक साधू के शरीर में से रक्त के स्थान पर दूध निकला | उसका वर्णन कवि ने कुछ यूं किया है – 

तिन महीं एक सिद्ध भी कूटा, 

ताके तन से दूध ही छूटा, 

ठौर ठौर से रक्त बहायो, 

ताकी तरफ सों दूध ही आयो | 

यह दृश्य देखकर महिपतशाह को बहुत ग्लानि हुई और उन्होंने ऋषिकेश जाकर पंडितों से इस पाप का प्रायश्चित पूछा | पंडितों ने आत्मदाह या रणभूमि में मृत्यु का मार्ग सुझाया | सो बस महीपति शाह बहां से ही दान पुण्य कर, कुमाऊँ पर चढ़ दौड़े | कुमाऊँ के राजा ने आकर भेंट की, और कहा यह राज्य आपका ही है, मैं युद्ध नहीं करूँगा | पर महीपतशाह तो मृत्यु कामना से आये थे, बोले मुझे राज्य या धन नहीं, मृत्यु चाहिए, जो तुम ही दे सकते हो, युद्ध करो | और फिर युद्ध हुआ और इस तरह क्षणिक क्रोध के परिणाम स्वरुप अकारण महीपत शाह ने मृत्यु का वरण किया | 

उनकी मृत्यु के समय उनके पुत्र पृथ्वीपतिशाह केवल सात साल के थे, अतः उनकी विधवा रानी कर्णावती ने एक संरक्षिका शासिका के रूप में सत्ता संभाली ! वे अपनी विलक्षण बुध्दि एवं गौरवमय व्यक्तित्व के लिए प्रसिध्द हुईं ! अपने पुत्र के नाबालिग होने के कारण वह अपनी जन्मभूमि गढवाल के हित के लिए अपने पति की मृत्यु पर सती नहीं हुईं और बडे धैर्य और साहस के साथ उन्होंने राज्यभार संभाला ! रानी कर्णावती ने अपनी देखरेख में शीघ्र ही शासन व्यवस्था को सुद्रढ़ किया ! गढवाल के प्राचीन ग्रंथों और गीतों में रानी कर्णावती की प्रशस्ति में उनके द्वारा निर्मित बावलियों. तालाबों , कुओं आदि का वर्णन आता है ! 

उसी दौरान एक ऐतिहासिक संयोग घटित हुआ और छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ स्वामी रामदास से श्रीनगर में रानी कर्णावती की भेंट हुई । समर्थ रामदास ने रानी कर्णावती से पूछा कि क्या पतित पावनी गंगा की सप्त धाराओं से सिंचित भूखंड में यह शक्ति है कि वैदिक धर्म एवं राष्ट्र की मर्यादा की रक्षा के लिये मुगल शक्ति से लोहा ले सके ? इस पर रानी कर्णावती ने विनम्र निवेदन किया पूज्य गुरुदेव , इस पुनीत कर्तव्य के लिये हम गढवाली सदैव कमर कसकर सन्नद्ध हैं ! 

और वह अवसर भी शीघ्र ही आ गया | जब 14 फरवरी 1628 को शाहजहां का राज्याभिषेक हुआ था, उस समय देश के तमाम राजा आगरा पहुंचे थे, किन्तु महिपतशाह नहीं गये ! इससे शाहजहां चिढ़ा हुआ था ! किन्तु महीपति शाह के शासनकाल में उसकी हिम्मत नहीं हुई, इस पहाडी राज्य पर हमला करने की, किन्तु जब वह युध्द में मारे गए और रानी कर्णावती ने गढवाल का शासन संभाला तब उसने सोचा कि उनसे शासन छीनना सरल होगा ! शाहजहां ने नजाबत खां नाम के एक मुगल सरदार को गढवाल पर हमले की जिम्मेदारी सौंपी और वह एक विशाल सेना लेकर आक्रमण के लिये आया ! 

ऐसी विषम परिस्थितियों में रानी कर्णावती ने सीधा मुकाबला करने के बजाय कूटनीति से काम लेना उचित समझा ! गढ़वाल की रानी कर्णावती ने उन्हें अपनी सीमा में घुसने दिया | नजाबत खान की अगुवाई वाली मुगल सेना ने जब दून घाटी और चंडीघाटी को अपने कब्जे में कर लिया | इसे आजकल हम लोग लक्ष्मणझूला के नाम से जानते हैं | तब रानी कर्णावती ने नजाबत खान के पास संदेश भिजवाया कि वह मुगल शासक शाहजहां के लिये जल्द ही दस लाख रूपये उपहार के रूप में भेज देगी ! नजाबत खान लगभग एक महीने तक पैसे का इंतजार करता रहा ! इस बीच गढ़वाल की सेना को उसके सभी रास्ते बंद करने का मौका मिल गया ! नतीजा यह हुआ कि मुगल सेना के पास खाद्य सामग्री की कमी पड़ गयी | इसी बीच सैनिक एक अज्ञात बुखार से भी पीड़ित होने लगे ! ऐसी स्थिति में गढ़वाली सेना ने मुगलों पर आक्रमण कर दिया ! 

कमजोर पड़ती मुगल सेना को देखकर सेनापति ने संधि का संदेश भेजा लेकिन उसे ठुकरा दिया गया ! मुगल सेना की स्थिति इतनी बदतर हो गयी थी कि रानी चाहती तो उसके सभी सैनिकों का खत्म कर देती लेकिन उन्होंने मुगलों को सजा देने का नायाब तरीका निकाला ! रानी ने संदेश भिजवाया कि वह सैनिकों को जीवनदान दे सकती है लेकिन इसके लिये उन्हें अपनी नाक कटवानी होगी ! सैनिकों को भी लगा कि नाक कट भी गयी तो क्या जिंदगी तो रहेगी ! मुगल सैनिकों के हथियार छीन लिए गये और आखिर में उन सभी की एक एक करके नाक काट दी गयी ! कहा जाता है कि जिन सैनिकों की नाक का​टी गयी उनमें सेनापति नजाबत खान भी शामिल था ! वह ​इससे काफी शर्मसार हुआ और लौटकर कभी आगरा नहीं पहुंचा, उसने मैदानों की तरफ लौटते समय अपनी जान दे दी ! उस समय रानी कर्णाव​ती की सेना में एक अधिकारी दोस्त बेग हुआ करता था जिसने मुगल सेना को परास्त करने और उसके सैनिकों को नाक कटवाने की कड़ी सजा दिलाने में अहम भूमिका निभायी थी ! 

इस तरह मोहन चट्टी में मुगल सेना को नेस्तनाबूद कर देने के बाद रानी कर्णावती ने जल्द ही पूरी दून घाटी को भी पुन: गढवाल राज्य के अधिकार क्षेत्र में ले लिया ! गढवाल की उस नककटवा रानी ने गढवाल राज्य की विजय पताका फिर शान के साथ फहरा दी और समर्थ गुरु रामदास को जो वचन दिया था, उसे पूरा करके दिखा दिया ! अपने पुत्र प्रथ्वीशाह के बालिग़ होते ही, उन्होंने स्वयं को राज्यकार्य से प्रथक कर लिया | 

कहा जाता है कि शाहजहां इस हार से काफी शर्मसार हुआ था ! शाहजहां ने बाद में एक बार फिर गढ़वाल पर हमले की कोशिश की, किन्तु सेना दून घाटी से आगे नहीं बढ़ पाई ! बाद में शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने भी गढ़वाल पर हमले की नाकाम कोशिश की ! प्रथ्वीशाह ने दारा शिकोह के बेटे सुलेमान शिकोह को शरण भी दी थी, किन्तु वह उनके पास से ज्यादा सुरक्षा की चिंता में तिब्बत जाते हुए, मुगलों के हत्थे चढ़ गया और फिर औरंगजेब ने ग्वालियर किले में कैद कर मार डाला | 

अंत में चलते चलते सिक्खों से सातवें गुरू हरराय जी के उन सुपुत्र रामराय की चर्चा, जिन्हें औरंगजेब से संबंधों के चलते गुरूगद्दी से बेदखल होना पड़ा था | गुरू तेगबहादुर जी के अमर बलिदान के बाद रामराय गढ़वाल राजधानी श्रीनगर आये और तत्कालीन शासक फ़तेहशाह ने उन्हें खुडबुडा, राजपुरा और चामासरी गाँव प्रदान कर दिए | धामावाला में रामराय ने एक कच्चा मंदिर बनवाया, जो बाद में उनकी विधवा पंजाब कौर ने पक्का करवाया | खुडबुडा और धामाबाला गाँव ही पहले डेरादून और बाद में देहरादून के रूप में विकसित हुए | है न रोचक जानकारी |
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