दिल्ली विजेता सुल्तान-उल-कौम – बाबा जस्सा सिंह अहलूवालिया



यह कहानी उस दौर की है, जब दिल्ली की मुग़ल सल्तनत अपनी अंतिम साँसें ले रही थी | अवसर का लाभ उठाकर कभी नादिरशाह तो कभी अहमद शाह आये, दिल्ली को लूटा और बरबाद किया | पंजाब उन आक्रान्ताओं के मार्ग में पड़ता था,तो स्वाभाविक ही विपत्ति का सामना सबसे पहले यहाँ के निवासियों को ही करना पड़ता था | किन्तु गुरुओं के उपदेशों और बलिदानों से प्रेरित इस कौम ने डरना और झुकना तो सीखा ही नहीं था | 

इस कालखंड में ही पंजाब में जन्मा एक अद्भुत साहसी और जुझारू नायक, जिसे इतिहास ने पुकारा “सुल्तान जस्सा सिंह अहलूवालिया” | महान योद्धा और पराक्रमी सेनापति जस्सा सिंह के शरीर पर तलवार से कटने और गोली के बत्तीस घावों के चिन्ह थे, लेकिन इनमें से एक भी उनकी पीठ पर नहीं था। अहमद शाह दुर्रानी के खिलाफ लड़ते समय उनके विशालकाय शरीर को देखकर काजी नूर मोहम्मद ने हैरत से कहा था – यह इंसान है या पहाड़ ? 

आगे चलकर 1801 में जो सिख साम्राज्य की स्थापना हुई, उसकी जस्सा सिंह ने आधार शिला रखी, क्योंकि उन्होंने ही 1772 में कपूरथला राज्य की स्थापना की। उनके महान कार्यों को देखकर कहा जा सकता है कि सच में गुरू गोविन्द सिंह जी की इस गौरैय्या ने बाज को मार गिराया था | 

आईये इस महान योद्धा के जीवन पर एक नजर डालते हैं | इनके पूर्वज दयाल सिंह कलाल सिक्ख बने और उनकी वीरता से प्रभावित होकर गुरू गोविन्द सिंह जी ने उन्हें पांच गाँव इनाम में दिए, जिनमें से एक गाँव का नाम अहलू था, जिसे उन्होंने अपना आवास बनाया और उसी के नाम पर इनका नाम अहलूवालिया हुआ | उसी वंश में ३ मई १७१८ को पिता बीदर सिंह और माता जीवन कौर के पुत्ररूप में हमारे कथानायक बाबा जस्सा सिंह जी का जन्म हुआ | 

1739 में पंजाब सहित उत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों पर फारस का तुर्क शासक नादिर शाह कहर बनकर टूट पड़ा | उसने करनाल के युद्ध में मुगलों को हराया, दिल्ली शहर और शाहजहाँनाबाद को लूटा, ३० हजार निरीह लोगों का कत्ले आम किया, लेकिन मुगलों की आठ पीढ़ियों ने जो खजाना इकट्ठा किया था, उसे देखकर तो ईरानी लुटेरों की आँखे फटी की फटी रह गई | उस अनमोल खजाने, मशहूर मयूर सिंहासन, कोहिनूर हीरा और दरिया-ए-नूर हीरा के साथ हजारों महिलाओं को गुलाम बनाकर, विजय का परचम लहराते हुए, नादिरशाह वापस लौट रहा था | इस बीच सभी खालसा वीरों के जत्थे एकजुट हो गए और उन्होंने निर्णय लिया कि यह तो हम होने नहीं देंगे | हमारे होते ये लुटेरे भारतीय महिलाओं को गुलाम बनाकर नहीं ले जा पायेंगे । जस्सा सिंह अहलूवालिया की आयु उस समय मात्र 21 वर्ष की थी, लेकिन होंसले बुलंद थे | सभी गुलामों को मुक्त कराने के लिए छापामार शैली अपनाई गई और अद्भुत सफलता पाई । सिख जत्थों ने नादिर शाह की सेना पर हमले किये और अधिकाँश गुलाम मुक्त करा लिए गए | इतना ही नहीं तो बाद में उन बेबस महिलाओं को सकुशल उनके परिवारों के पास भी भेजा गया । 

जून, 1747 में नादिर शाह एक सैन्य विद्रोह में कुत्ते की मौत मारा गया और उसके सेनापति अहमद शाह अब्दाली ने स्वयं को अफगानिस्तान का शासक घोषित कर दिया । इसके बाद दिसंबर, 1747 से लेकर 1769 तक, अब्दाली ने उत्तर-पश्चिमी भारत पर कुल नौ हमले किये । १९६१ में पानीपत की तीसरी लड़ाई में, उसने अवध और रोहिलों के नवाब के साथ मिलकर मराठों को तो हरा दिया, किन्तु उसके बाद पंजाब पूरी तरह सिक्ख प्रभाव में आ गया । 

बन्दा बहादुर की हत्या के बाद सिक्ख छोटे छोटे ६५ जत्थों में बंट गये थे, किन्तु नवाब कपूर सिंह के प्रयत्नों से १७४८ में इन सभी जत्थों का दल खालसा में विलय हो गया, और इन्हें १२ जत्थों में पुनर्गठित किया गया, जिन्हें मिसल कहा गया | हर मिसल के अलग जत्थेदार, झंडे और नाम थे | अहलूवालिया के पराक्रम के कारण उन्हें अपार लोकप्रियता प्राप्त हो गई थी, उसे देखते हुए सरबत खालसा की बैठक में, नवाब कपूर सिंह ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया | इसके साथ ही जस्सा सिंह अपनी मिसल के जत्थेदार होने के साथ ही खालसा सेना के सुप्रीम कमांडर भी बन गए । अनुयायियों ने आदर और सम्मान के साथ जस्सा सिंह को नाम दिया सुल्तान-उल-कौम । 

मिसलदार जस्सा सिंह अहलूवालिया के नेतृत्व में सिक्खों ने अब्दाली के सेनापति नूर-उद-दीन बामजई को भी करारी शिकस्त देकर लाहौर पर अधिकार कर लिया । लाहौर जीतने की खुशी में उन्होंने जो सिक्के चलाये उन पर लिखा हुआ था - सिक्का जद दर जहान बेफजल ए अकाल, अहमद गिरफ्त जस्सा कलाल 

अर्थात अकाल की कृपा से अहमद के देश पर जस्सा ने फतह हासिल की । 

बौखलाया हुआ अहमदशाह अब्दाली 5 फरवरी 1762 को एक बार फिर कंधार से विशाल सेना लेकर चला | सिक्खों ने पैर पीछे खींचे और सतलुज पार कर मालवा में चले गए । लेकिन जैसे ही अब्दाली बापिस हुआ, उन्होंने फिर से हरनौलगढ़ के युद्ध में सरहिंद के अफगान फौजदार को करारी शिकस्त दे दी । परेशान अब्दाली ने उनके पास शान्ति का सन्देश भेजा और संधि का प्रयत्न किया, किन्तु नाकाम रहा, सिख उससे दोस्ती के कतई मूड में नहीं थे । अब्दाली एक बार फिर आया और इस बार उसका लक्ष्य अमृतसर था। 

पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान हुई इस लड़ाई में सिक्ख लखी के जंगलों में छुपकर सैकड़ों पेड़ों के पीछे से उसका मुकाबला कर रहे थे | इस युद्ध में अहमद शाह दुर्रानी ने स्वर्ण मंदिर को काफी क्षति पहुंचाई, किन्तु संगठित सिक्खों ने मात्र दो वर्ष बाद 1764 में स्वर्ण मंदिर का पुनर्निर्माण किया और उसके परिसर में दीवाली मनाई गई | इसमें भी अहम भूमिका बाबा जस्सा सिंह अहलूवालिया की थी । 

उसके बाद तो मानो सिक्खों का कायाकल्प ही हो गया | एक के बाद एक सफलता उनके नाम जुड़ने लगी | १७८३ आते आते सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ ही नहीं तो दिल्ली भी उनके घोड़ों की टापों की आवाज से गूंजने लगी | अलीगढ़, टुंडला, हाथरस, खुर्जा और शेखूबाद के नबाबों को लूटकर उनसे लगान बसूला जाने लगा | 

अप्रैल १७८३ में तो सीधा दिल्ली पर धावा बोल दिया गया | 8 अप्रैल 1783 को बाबा बघेल सिंह, जस्सा सिंह अहलुवालिया और जस्सा सिंह रामगढ़िया की अगुवाई में 40 हजार सैनिक बुराड़ी घाट पार कर दिल्ली में दाखिल हुए | अहलुवालिया के निर्देश पर सेना को तीन हिस्सों में विभाजित किया गया, 5 हजार सिपाही मजनूं के टिल्ले पर तैनात कर दिए गए, 5 हजार सिपाहियों की दूसरी टुकड़ी अजमेरी गेट पर तैनात की गई और बाकी बची 30 हजार की सेना, जिसमें अधिकतर घुड़सवार थे, को सब्जी मंडी व कश्मीरी गेट के बीच के स्थान पर खड़ा कर दिया गया | लाल किले पर आक्रमण करने वाले 30 हजार सिख सैनिकों के कारण यह स्थान आज भी तीस हजारी के नाम से जाना जाता है | और फिर इतिहास में पहली बार सिख सेना ने लाल किले पर कब्जा कर लिया | बेगम समरू बेहद मंझी हुई राजनीतिज्ञ थी, इसलिए उसने तुरंत ही तीनों जरनैलों को अपना भाई बना लिया और प्रार्थना की कि शाह आलम का जीवन बख्श दिया जाए और लाल किला उनके कब्जे में ही रहने दिया जाए | 

इस पर तीनों जरनैलों ने इसके लिए कुछ शर्तें रखीं – पहली तो यह कि वह सभी स्थान जहां गुरु साहिबान के चरण पड़े थे, अर्थात जहां गुरु तेग बहादुर साहिब को शहीद किया गया, माता सुंदरी व माता साहिब कौर जी के निवास स्थानों का अधिकार सिखों को दिया जाए | दूसरी यह कि बादशाह शाह आलम दिल्ली में सात स्थानों पर गुरुद्वारा साहिबान के निर्माण के आदेश जारी करे, जिनके निर्माण तथा अन्य खर्चों की पूर्ति के लिए कर की वसूली में से छह आने प्रति रुपया उन्हें दिया जाए | और जब तक गुरुद्वारों का निर्माण पूरा नहीं हो जाता, तब तक 4 हजार सिख सैनिक दिल्ली में ही रहेंगे. 

बेचारा बादशाह ना कहने की स्थिति में ही नहीं था, अतः इसके बाद बाबा बघेल सिंह गुरुद्वारों के निर्माण के लिए दिल्ली में ही रुके रहे, वहीं, जस्सा सिंह अहलुवालिया व जस्सा सिंह रामगढ़िया दीवान-ए-आम का 6 फुट लंबा, 4 फुट चौड़ा और 9 इंच मोटा पत्थर का तख्त उखाड़कर घोड़े के पीछे बांधकर अपने साथ अमृतसर ले गए | यह तख्त आज भी दरबार साहब, अमृतसर के नजदीक बने रामगढ़िया बुर्ज में रखा हुआ है | 

यह गाथा सुनने के बाद किसके मुंह से नहीं निकलेगा – 

वाहे गुरू जी दा खालसा, वाहे गुरूजी दा फ़तेह |
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