अशोक ने जीता कलिंग, लेकिन उसके बाद कलिंग सम्राट खारवेल ने लिया बदला !


मगध और कलिंग की गाथा ईसा के भी ३०० – ४०० वर्ष पूर्व की है | मोटे तौर पर समझें तो मगध अर्थात आज का बिहार और कलिंग अर्थात आज का उडीसा | यह एकदम ऐसा तो नहीं है, लेकिन विषय को समझने के लिए, ऐसा मानकर हम आगे बढ़ते हैं | यह गाथा अद्भुत इसलिए भी है, क्योंकि यह भारत के सर्व धर्म समावेशी स्वरुप को प्रदर्शित करती है | जरा विचार कीजिए कि बौद्ध अशोक, सनातनी पुष्यमित्र और जैन खारवेल, तीनों राजाओं के धर्म अलग, किन्तु जनता पर कोई प्रतिबन्ध नहीं, कोई दबाब नहीं | मगध के नन्द वंशीय सम्राट महापद्मनन्द ने कलिंग को अपने अधीन कर लिया था किन्तु बाद में कमजोर शासक घनानंद के समय अधिकाँश कलिंग उनके अधिपत्य से मुक्त हो गया और जब चन्द्रगुप्त मौर्य ने नन्द साम्राज्य का अंत किया, तब तो उस समय सत्ता परिवर्तन की आपाधापी में पूरा कलिंग ही मगध के अधिपत्य से बाहर हो गया | किन्तु जैसा कि सर्व विदित है, बाद में सम्राट अशोक ने कलिंग को पुनः विजित किया, किन्तु कलिंग के उडू वीरों द्वारा किये गए जबरदस्त प्रतिरोध के कारण भीषण हिंसा हुई, जिससे दुखी अशोक ने अहिंसक बौद्ध धर्म की शरण ली | इन्ही उडू लोगों के नाम पर इस क्षेत्र को उडीसा कहा गया | 

किन्तु अशोक की मृत्यु के महज पचास वर्ष बाद ही मगध में मौर्य साम्राज्य के स्थान पर पुष्यमित्र शुंग या श्रृंग का शासन हुआ व उसी दौर में महामेघवाहन ने कलिंग को मुक्तकर वहां चेदि राजवंश की स्थापना की | आधुनिक उडीसा की राजधानी भुवनेश्वर के समीप स्थित उदयगिरि खंडगिरि के हातीगुम्फा अभिलेखों में इस प्रतापी सम्राट को “एर” वंश का वर्णित किया है, किन्तु कई इतिहासकार “एर” को आर्य का अपभ्रंश मानते हैं | जो भी हो पुष्यमित्र ने भारत भर में जीत के झंडे गाड़े किन्तु कलिंग को या तो जीतने का प्रयास नहीं किया या जीत नहीं पाए | पुष्यमित्र के बेटे अग्निमित्र के बाद उनके बेटे ब्रहस्पतिमित्र हुए, जिन्हें पराजित कर कलिंग सम्राट खारवेल ने अंततः कलिंग की महत्ता प्रतिपादित की | आज की कहानी उन्हीं चक्रवर्ती सम्राट खारवेल की है, जिन्होंने न केवल मगध को जीता बल्कि गोदाबरी नदी पारकर सुदूर दक्षिण में भी अपनी विजय पताका फहराई | आईये हम सीधे कथानक पर चलते हैं | 

१५ वर्ष की आयु में पिता की मृत्यु के बाद खारवेल राजा तो बने, किन्तु पहले शिक्षण प्रशिक्षण लिया, उसके बाद सिंहासन पर बैठे २४ वर्ष की आयु में और प्रथा के अनुसार राज्यारोहण के पूर्व ही जिनसे विवाह हुआ, उनका उल्लेख बजिरधर रानी के रूप में मिलता है | किन्तु उनके दूसरे विवाह का बड़ा सजीव चित्रण उड़िया कवि नीलकंठदास ने किया है, उसके अनुसार कलिंग के व्यापारियों ने राजा खारवेल से गुहार लगाई कि उन्हें सिन्धु देश में व्यापार करने पर दंड दिया जाता है | सिन्धु देश अर्थात आज का पाकिस्तान और अफगानिस्तान का कुछ भाग, जिस पर उन दिनों भी एक बार पुनः यूनानी राजा डेमेट्रियस ने कब्जा कर लिया था | सेल्यूकस की पराजय के बाद भी यूनानी यवनों ने शस्य श्यामला भारत का मोह छोड़ा नहीं था | डेमेट्रियस ने जिस विजिर राजा को हराकर वह इलाका जीता था, उन्होंने अपने एक अन्य मित्र राजा के यहाँ शरण ली, जबकि उनकी बेटी घूसी एक ग्रामीण जमींदार के यहाँ ही पली बढी | किन्तु थी तो राजकन्या ही अतः सुन्दरता, शौर्य और पराक्रम उसे घुट्टी में ही मिला था | 

तो हुआ कुछ यूं कि महाराज खारवेल जब उस क्षेत्र में यूनानियों से युद्ध करने पहुंचे तो स्थानीय कृषकों से भी सहयोग माँगा | जमींदार वृद्ध थे, अतः स्वयं तो युद्ध भूमि में जाने से असमर्थ थे, किन्तु घूसी ने उनसे प्रबल आग्रह किया कि वह पुरुष वेश में अपने पिता का बदला लेने हेतु युद्ध में भाग लेना चाहती है | घुसी की जिद्द के आगे उसके पालक अभिभावक बुजुर्ग कृषक को झुकना पड़ा और घूसी महाराज खारवेल की सेना में शामिल हो गई | इसके पूर्व उसने स्थानीय कृषक युवाओं का एक बड़ा जत्था भी तैयार किया, जो उसके एक इशारे पर मरने मिटने को तत्पर थे | इस जत्थे ने युद्ध में अपने पराक्रम से खारवेल को भी अत्यंत प्रभावित कर दिया | कलिंग की सेना व स्थानीय वीरों के संयुक्त आक्रमण ने शीघ्र ही यूनानी सेना में दहशत पैदा कर दी और उनकी तरफ से एक दूत संधि प्रस्ताव लेकर खारवेल के सम्मुख उपस्थित हुआ व संधि वार्ता हेतु राजधानी सिंहपथ में आमंत्रित किया | 

खारवेल वीर और साहसी थे, अतः तैयार हो गए, किन्तु सजग घूसी ने उनसे साथ चलने की विनती की | उसने गुप्त रूप से अपने जत्थे को भी राजधानी में पहले ही पहुंचा दिया था | जैसी कि घूसी को आशंका थी, राजधानी में खारवेल पर आक्रमण हुआ, जिसमें घूसी की सजगता से उनकी जान तो बच गई, किन्तु वे अतिशय घायल हो गए | राजधानी में पहले से मौजूद घूसी के जत्थे ने अन्दर से और कलिंग की सेना ने बाहर से जो मारकाट मचाई, उससे डेमेट्रियस को भागने में ही भलाई प्रतीत हुई | घूसी ने घायल राजा खारवेल की सेवा सुश्रुसा की और उनकी एक प्रकार से प्राण रक्षा की | इस दौरान राजा पर उसका वास्तविक भेद भी प्रगट हो गया और एक नई प्रेम कहानी ने जन्म ले लिया | महाराज खारवेल ने यूनानियों से जीता हुआ राज्य उसके मूल राजा अर्थात घूसी के पिता को सोंप दिया और स्वयं घूसी से विवाह कर उसके साथ अपनी राजधानी लौटे | व्यापारियों की समस्या तो सुलझ ही चुकी थी | 

दक्षिण के मूषक राज्य के लोग भी राज्य के सीमावर्ती क्षेत्र में उत्पात करते थे, तो उन्हें सबक सिखाने के लिए गोदाबरी नदी पार कर आक्रमण किया और आज के आंध्र और तमिल नाडु तक अपनी विजय पताका फहराने के बाद अर्थात दक्षिण और पश्चिम को विजित करने के बाद खारवेल ने उत्तर का रुख किया और मगध पर आक्रमण किया | पहले हमले में उन्हें नाकामी मिली, और दूसरे हमले में भी जब वे जीतने ही वाले थे, तभी उन्हें समाचार मिला कि डेमेट्रियस ने एक बार फिर हमला कर दिया है, तथा वह साकेत को जीतने के बाद मथुरा तक आ पहुंचा है | खारवेल ने पहले उसे सबक सिखाने का निर्णय लिया और अपनी सेनाओं का रुख मथुरा की ओर कर दिया | हालांकि इनके आने का समाचार पाकर डेमेट्रियस बिना युद्ध किये ही भाग निकला | 

खारवेल ने एक बार फिर मगध पर आक्रमण किया और इस बार उन्हें ब्रहस्पति मित्र को पराजित करने में सफलता मिल ही गई | जो भित्ति चित्र हातीगुम्फा में मिले हैं, उसमें खारवेल के कदमों में झुके हुए एक राजा का चित्र भी है | वह चित्र डेमेट्रियस का भी हो सकता है और वृहस्पति मित्र का भी | मगध को जीतकर जो सबसे पहला काम खारवेल ने किया वह था नन्द के समय कलिंग से जीतकर पाटलीपुत्र लाई गईं ऋषभदेव जी व अन्य जैन संतों की मूर्तियों को वापस कलिंग में लाकर स्थापित करना | इसके अतिरिक्त उन्होंने नन्दराजाओं के शासन काल में ठानसुलिया नामक स्थान तक खुदवाई गई नहर को भी अपनी राजधानी तक विस्तारित किया | राजा खारवेल को केवल एक विजेता के रूप में ही नहीं, बल्कि एक धर्मपरायण व जन हितैषी राजा के रूप में भी याद रखा गया | उनके द्वारा बनवाये गए प्रसाद व उद्यान, खुदवाये गए तालाब, व्यापार संवर्धन के उपाय, उनके सर्व जन हितैषी रूप को ही अभिव्यक्त करते है | लगभग सम्पूर्ण भारत विजय के उपलक्ष में उन्होंने कलिंग के प्रथम शासक राजा केतुभद्र की मूर्ती स्थापित करवाई तथा उस अवसर पर एक यात्रा का आयोजन किया | केतुभद्र का पूजन कलिंग के लोग प्राचीन काल से करते आ रहे थे, अतः स्वाभाविक ही नागरिक अत्यंत प्रसन्न हुए | तो ऐसा उनका सर्वधर्म समावेशी स्वरुप था | महज ३७ वर्ष की आयु में ही महान दिग्विजई राजा खारवेल जैन सन्यासी हो गये किन्तु मात्र बारह वर्षीय कार्यकाल की अपनी स्मृति को चिर स्थाई बना गए |
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